Book Title: Anekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 227
________________ २२२, वर्ष २८, कि.१ भनेकान्त अर्थात, सब प्राणियों को प्रायु प्रिय है, सब सुख के दो', अर्थात यदि तुम चाहते हो कि सुखपूर्वक जीवन व्यतीत प्रभिलाषी हैं, दुःख सबके प्रतिकूल है, वध सबको अप्रिय है, करो तो उसके लिए आवश्यक है कि दूसरों को भी उसी सब जीने की इच्छा रखते हैं, इससे किसी को मारना अथवा प्रकार जीने का अवसर दो। उन्होंने समष्टि के हित में कष्ट नहीं पहुंचाना चाहिए। व्यष्टि के हित को समाविष्ट कर देने की प्रेरणा दी। हम देखते हैं कि महावीर से पहले भी अनेक धर्म- वैयक्तिक तथा सामाजिक जीवन को विकृत करने वाली प्रवर्तकों तथा महापुरुषों ने अहिंसा के महत्व एवं उसकी सभी बुराइयों की मोर उनका ध्यान गया और उन्हें दूर उपादेयता पर प्रकाश डाला था, लेकिन महावीर ने अहिंसा- करने के लिए उन्होंने मार्ग सुझाया। तत्व की जितनी विस्त त, सूक्ष्म तथा गहन मीमांसा की, महावीर की अहिंसा प्रेम के व्यापक विस्तार में से उतनी शायद ही और किसी ने की हो । उन्होंने अहिंसा उपजी थी। उनका प्रेम प्रसीम था। वह केवल मनुष्यको गण-स्थानो मे प्रथम स्थान पर रखा और उस तत्व जाति को प्रेम नही करते थे, उनकी करुणा समस्त जीवको चरम सीमा तक पहुंचा दिया। कहना होगा कि उन्होंने धारियों तक व्याप्त थी। छोटे बड़े, ऊंच-नीच प्रादि के प्रहिंसा को सैद्धांतिक भमिका पर ही खड़ा नहीं किया, भेदभाव को उनके प्रेम ने कभी स्वीकार नही किया । यही उसे माचरण का अधिष्ठान भी बनाया। उनका कहना कारण है कि अहिंसा का उनका महान आदर्श प्रत्येक था मानव के लिए कल्याणकारी था। सयं तिवायए पाणे, अदुवन्नेहि धायए । जिसने राज्य छोड़ा, राजसी ऐश्वर्य को तिलांजलि वणतं वाणजाणाइ, देरं वड्ढइ अप्पणी ॥ दी, भरी जवानी में घर-बार से मुंह मोड़ा, सारा वैभव (जो मनुष्य प्राणियो की स्वयं हिंसा करता है, दूसरों छोड़कर अकिंचन बना और जिसने बारह वर्षों तक दर्ष से हिसा करवाता है और हिंसा करवाने वालों का अनु- तपस्या की, उसके पात्मिक बल की सहज ही कल्पना नहीं मोदन करता है, वह संसार में अपने लिए बैर बढ़ाता है। की जा सकती। महावीर ने रात-दिन अपने को तपाया अहिंसा की व्याख्या करते हुए वह कहते है : और कंचन बने । उनकी अहिंसा वीरों का प्रस्त्र थी, दुर्बल तेसिं प्रच्छण जो एव, निच्च होयब्वयं सिया। व्यक्ति उसका उपयोग नहीं कर सकता था। जो मारने मणसा कायवक्केण, एव हवदू संजय ॥ की सामर्थ्य रखता है, फिर भी मारता नहीं और निरन्तर (मन, वचन और काया, इनमे से किसी एक के द्वारा क्षमाशील रहता है, वही अहिसा का पालन कर सकता है। भी किसी प्रकार के जीवों की हिंसा न हो, ऐसा व्यवहार याद कोई चूहा कहे कि वह बिल्ली पर आक्रमण नहीं ही संयमी जीवन है। ऐसे जीवन का निरन्तर धारण ही करेगा, उसने उसे क्षमा कर दिया है, तो उसे अहिंसक नहीं अहिंसा है।) माना जा सकता । वह दिल में बिल्ली को कोसता है, पर सब जीवों के प्रति प्रात्मभाव रखने, किसी को त्रास उसमें दम ही नहीं कि उसका कुछ बिगाड़ सके। इसी से न पहुंचाने, किसी के भी प्रति वर-विरोध-भाव न रखने, कहा है-"क्षमा वीरस्य भूषणम् ।" यही बात अहिंसा के अपने कर्म के प्रति सदा विवेकशील रहने, निर्भय बनने, विषय में कही जा सकती है। कायर या निवी दूसरो को अभय देने, प्रादि-मादि बातो पर महावीर ने अहिंसक नही हो सकता है। विशेष बल दिया, जो स्वाभाविक ही था। मानव-जीवन इस प्रकार हम देखते हैं कि महावीर ने अहिंसा का को ऊर्ध्वगामी बनाने और समाज में फैली नाना प्रकार व्यापक प्रचार-प्रसार किया और उसे धर्म का शक्तिशाली की व्याधियों को दूर करके उसे स्थायी सुख और शांति अंग बनाया। उस जमाने में पशु-वध आदि के रूप में घोर प्रदान करने के अभिलाषी महावीर ने समस्त चराचर हिंसा होती थी। महावीर ने उसके विरुद्ध अपनी आवाज प्राणियों के बीच समता लाने और उन्हें एकसूत्र में बांधने ऊंची की। उन्होंने लोगों में यह विश्वास पैदा किया कि का प्रयत्न किया। उनका सिद्धान्त था-'जीयो मोर जीने हिंसा अस्वाभाविक है। मनुष्य का स्वाभाविक धर्म अहिंसा

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