Book Title: Anekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 226
________________ अहिंसा के आयाम : महावीर और गांधी 0 श्री यशपाल जैन, दिल्ली महिंसा की श्रेष्ठता : कारण बनते । परशुराम से यह सहन न हुमा । उन्होंने मानव-जाति के कल्याण के लिए अहिंसा ही एकमात्र धनुष-बाण उठाया, फरसा लिया और संसार से क्षत्रियों साधन है, इस तथ्य को ग्राज सारा संसार स्वीकार करता को समाप्त करने के लिए निकल पड़े। जो भी क्षत्रिय है, लेकिन कम ही लोग जानते है कि अहिसा की श्रेष्ठता मिलना, उसे वे मौत के घाट उतार देते। कहते है, उन्होंने की ओर प्राचीनकाल से ही भारतवासियो का ध्यान रहा २१ बार इस भूमि को क्षत्रियों से खाली कर दिया, लेकिन है । वैदिक काल मे हिंसा होती थी, यज्ञों मे पशुओं की हिंसा की जड़ फिर भी बनी रही । विश्वामित्र महिंसा के बलि दी जाती थी, लेकिन उस युग में भी ऐसे व्यक्ति थे, व्रती थे, वे स्वयं हिसा नहीं करते थे, पर दूसरों से हिंसा जो अनुभव करते थे कि जिस प्रकार हमें दुःख-दर्द का करवाने मे उन्हें हिचक नहीं हुई। परशुराम हिंसा से अनुभव होता है, उसी प्रकार दूसरे प्राणियों को भी होता अहिंसा स्थापित करना चाहते थे। दोनों की अहिंसा में है, अतः जीवों को मारना उचित नही है। आगे चलकर निष्ठा थी, किन्तु उनका मार्ग सही नहीं था। उसमे हिंसा यह भावना और भी विकसित हुई। महाभारत के 'शान्ति के लिए गुजाइश थी और हिंसा से अहिंसा की स्थापना पर्व' मे हम भीष्मपितामह के मुह से सुनते है कि हिसा हो नहीं सकती थी। अत्यन्त अनर्थकारी है। उससे न केवल मनुष्यों का संहार बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय : होता है, अपितु जो जीवित रह जाते है, उनका भी भारी भगवान बुद्ध ने एक नयी दिशा दी। समाज के हित पतन होता है। उस समय ऐसे व्यक्तियों की संख्या कम को ध्यान में रख कर 'बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय' का नही थी, जो मानते थे कि यदि हिंसा से एकदम बचा नही घोष किया। उन्होंने कहा, "वह काम करो, जिसमें बहजा सकता तो कम-से-कम उन्हे अपने हाथ से तो हिंसा संख्यक लोगों को लाभ पहुचे, सुख मिले।" इससे स्पष्ट या नही करनी चाहिए। उन्होंने यह काम कुछ लोगों को सौप कि उन्होने अनजाने मारने की मर्यादा को छूट दी अर्थात् दिया, जो बाद में क्षत्रिय कहलाये। ब्राह्मण उनसे कहते जिस कार्य से समाज के अधिकांश व्यक्तियों का हित थे कि हम अहिंसा का व्रत लेते है, हिसा नहीं करेगे, लेकिन साधन होता हो, उसे उचित ठहराया, भले ही उससे अल्पयदि हम पर कोई प्राक्रमण करे अथवा राक्षस हमारे यज्ञ सख्यको के हितों की उपेक्षा क्यो न होती हो। मे बाधा डाल, तो तुम हमारी रक्षा करना। विश्वामित्र महावीर और मागे बढे ब्रह्मर्षि थे, धनुविद्या में निष्णात थे, पर उन्होंने अहिंसा का भगवान महावीर एक कदम आगे बढ़े। उन्होंने सबके व्रत ले रखा था। अपने हाथ से किसी को नही मार सकते कल्याण की कल्पना की और अहिंसा को परम धर्म मान थे । उन्होने राम-लक्ष्मण को धनुष-बाण चलाना सिखाया कर प्रत्येक प्राणी के लिए उसे अनिवार्य ठहराया। उन्होंने और अपने यज्ञ की सुरक्षा का दायित्व उन्हे सौंपा। कहामारने की शक्ति हाथ में प्रा जाने से क्षत्रियों का 'सव्वे पाणा पिया उया, सुहसाया, दुक्खपडिकला. प्रभुत्व बढ़ गया। वे शत्रु के आने पर उसका सामना प्राप्पियवहा । करते। धीरे-धीरे हिसा उनका स्वभाव बन गया। जब पिय जीविणो जीविउकामा, (तम्हा) णातिवाएज्ज शत्रु न होता तो वे मापस मे ही लड़ पड़ते और दुःख का किंचणं ॥

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