Book Title: Anekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 224
________________ श्रमण-संस्कृति एवं परम्परा अनुसार, यह मूर्ति किसी पहुंचे हुए योगी की मूर्ति है ।" "इस त्रिमुख मूर्ति के अवलोकन से भर्हत्-प्रतिशयों से safe कोई भी विद्वान् यह निष्कर्ष निकाल सकता है कि यह समवशरण स्थित चतुर्मुख तीर्थंकर का ही कोई शिल्प-चित्रण है जिसका एक मुख उसकी बनावट के कारण प्रदृश्य हो गया है ।" अस्तु, श्रार्यों के आगमन से पूर्व यहाँ एक समुन्नत संस्कृति एवं सभ्यता विद्यमान थी जो अहिंसा, सत्य, एवं त्याग पर आधारित थी । इस विषय में अधिकारी विद्वान् श्री चन्दा का निम्नलिखित मत विचारणीय है 'सिन्धु घाटी की अनेक मुद्राओं में अंकित, न केवल बैठी हुई देव-मूर्तियाँ योग मुद्रा में है और वे उस सुन्दर अतीत में योग मार्ग के प्रचार को सिद्ध करती है, अपितु खड्गासनस्थ देव मूर्तियां भी योग की कायोत्सर्ग-मुद्रा में स्थित है । यह कायोत्सर्ग-मुद्रा विशेषतः जैन है । श्रादि पुराण - १५ / ३ में ऋषभदेव के तप के सम्बन्ध में कायो त्सर्ग-मुद्रा का उल्लेख है । जैन तीर्थंकर ऋषभदेव की कायोत्सर्ग-मुद्रा मे स्थित एक खड्गासनस्थ मूर्ति ( द्वितीय शताब्दी ईस्वी) मथुरा संग्रहालय में है । इस मूर्ति की शैली से सिन्धु-घाटी से प्राप्त मुद्रानों में अंकित खड़ी हुई देव-मूर्तियो की शैली बिल्कुल मिलती है ।" 'वृषभ का अर्थ है - बैल । ऋषभदेव का चिह्न बैल है । मुद्रा सं. ३ से ५ तक में प्रति देव-मूर्तियो के साथ बैल भी अंकित है जो ऋषभ का पूर्व रूप हो सकता है ।" डा. राधाकुमुद मुकर्जी ने भी 'हिन्दू सभ्यता' नामक ग्रन्थ में श्री चंदा के उपर्युक्त मत की पुष्टि की है और ताम्रयुगीन सिन्धु सभ्यता को जैन धर्म का मूल प्रतिपादित किया है । प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता श्री टी. ऐन. रामचन्द्रन् ने ६. Ahimsa in Indian Culture. --- Dr. Nathmal Tantia ७. मुनिश्री नगराज जी, वीर ( श्रमण श्रंक ), वीर निर्वाण सं. २४६०, पृष्ठ ४६. ८. माडर्न रिव्यू, जून, ९. माडर्न रिव्यू, जून, १९३२, श्री चंदा का लेख । १९३२, श्री चंदा का लेख । १०. तापसाः भुंजते चापि श्रमणाश्चैव भुंजते । - रामायण, ८१४१२ ११. महाभारत, १२।१५४।२१. २१६ हड़प्पा से प्राप्त दो मूर्तियों में से प्रथम मूर्ति को 'नटराज शिव का प्राचीन प्रतिरूप' तथा द्वितीय को तीर्थंकर- मूर्ति माना है। वेदों में वर्णित 'शिर देवाः का प्रर्थं लिंगपूजक के अतिरिक्त शिश्नयुक्त अर्थात् नग्न देवताओं के पूजक भी हो सकता है। उपर्युक्त दोनों मूर्तियों के नग्न होने के कारण इनकी संगति 'शिश्नदेवा:' से स्थापित की जा सकती है तथा सिन्धु सभ्यता मे श्रमण संस्कृति के बीज ढूँढ जा सकते है । उपर्युक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि प्रागायं एवं प्रावैदिक काल से श्रमण-संकृति की पुनीत स्रोतस्विनी निरन्तर प्रवाहित होती रही है । tt वैदिक वाङ्मय के प्रतिरिक्त, रामायण, महाभारत, ' तथा भागवतपुराण" में श्रमणों का स्पष्ट उल्लेख हुमा है। श्रमण संस्कृति के श्राद्य प्रवर्तक भगवान् ऋषभदेव का भी उल्लेख वेदों" तथा पुराणों में श्रद्धापूर्वक किया गया है। उत्तरकालीन भाष्यकारों ने साम्प्रदायिक दुराग्रह के कारण इन उल्लेखों का अन्यार्थ सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है। वस्तुतः श्रमण एवं ब्राह्मण दोनों संस्कृतियो की जन्मभूमि एक ही भूमि - भारतभूमि रही है । अन्य प्राचीन साहित्य के अभाव में हमे श्रमण-संस्कृति के बीज भी वैदिक वाङ्मय में ढूढने होगे । सम्भव है कि अत्यन्त प्राचीन काल मे वेद दोनों संस्कृतियों के मान्य ग्रन्थ रहे हों परन्तु कालान्तर मे याज्ञिक पुरोहितों के प्राबल्य के कारण वेदो मे से श्रमण-सम्बन्धी उद्धरणो को निकालने की चेष्टा की गई हो जिसके फलस्वरूप श्रमणों ने वेदों का प्रामाण्य अस्वीकृत कर दिया हो । अस्तु, प्राचीन भारतीय साहित्य एव संस्कृति की सरचना में श्रमणों का योगदान किसी अन्य सम्प्रदाय या वर्ग से कम नहीं रहा है । १२. सन्तुष्टाः करुणा मंत्रा शान्ता दान्तास्तितिक्षवः । श्रात्मारामाः समदृशः प्रायशः श्रमणाः जनाः । १३. ऋग्वेद १०११०२।६. तथा ४।५८ । ३. १४. 'बर्हिषि तस्मिन्नेव विष्णुदत्त भगवान् परमर्षिभिः प्रसादितो नाभेः प्रियचिकीर्षया तदवशेघायने मेरुदेव्यां धर्मान् दर्शयितुकामो वातरशनाना श्रमणानामृषीणामूर्ध्वमन्थिना शुक्लया तनुवावततार ॥' भागवत पुराण ५।३।२०

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