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श्रमण संस्कृति एवं परम्परा
भारतीय संस्कृति एवं इतिहास की संकल्पना एवं संरचना में श्रमण-संस्कृति का महत्वपूर्ण योगदान रहा है । अनेक ऐतिहासिक शोध कार्यों एवं पुरातात्विक उत्ख ननों से यह सिद्ध हो चुका है कि अति प्राचीन काल से ही भारतवर्ष में वैदिक एवं श्रमण- ये दो सस्कृति-धारायें अजस्र रूप से प्रवाहित होती रही है । जहा वैदिक संस्कृति के मूलाधार यज्ञ, कर्मकाण्ड, वर्णाश्रम व्यवस्था एवं मानन्दवा रहे है, वहां त्यागी श्रमणों ने लोकषणा का त्याग करके निःश्रेयस की सिद्धि के लिए निवृत्तिपरक मार्ग प्रतिपादित किया है । 'श्रमण' शब्द की रचना 'श्रम' धातु ( श्रमु तपसि खेदे च ) मे ल्युट् प्रत्यय जोड़कर हुई है । प्राचार्य हरिभद्रसूरि ( दशवैकालिक, सूत्र १।३ ) का कथन है--" श्राम्यतीति' श्रमणः तपस्यतीत्यर्थः " अर्थात् जो तप करता है, वह श्रमण है। इस प्रकार 'श्रमण' का अर्थ हैतपस्वी या परिव्राजक । श्रमण शब्द का अर्थ प्रत्यन्त व्यापक है । इसे केवल जैनों तक सीमित रखना अनुचित होगा । विभिन्न भाषाओं में उपलब्ध, श्रमण शब्द के विविध रूप ( समण, शमण, सवणु, श्रवण, भ्रमण, सरमनाई, श्रमणेर श्रादि ) श्रमण-शब्द की विश्व व्यापकता, सिद्ध करते है । मिस्र, सुमेर, असुर, बाबुल, यूनान, रोम, चीन, मध्य एशिया, प्राचीन श्रमरीका, अरब, इसराइल आदि प्राचीन सभ्य देशों में भी श्रमण परम्परा किसी न किसी रूप में विद्यमान थी, यह अनेक ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक साक्ष्यों से सिद्ध हो चुका है। विश्व के १. तृदिला प्रतृदिलासो श्रद्रयोऽश्रमणा प्रथिता श्रमृत्यवः । ऋग्वेद १०/६४।११. श्रश्रमणाः - श्रमण- वर्जिताः
सायण भाष्य ।
२. मुनयो वातरशना पिशङ्गा वसते मलाः । - ऋग्वेद १०११३५२.
श्री युगेश जैन, दिल्ली
प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद में श्रमण शब्द तथा वातरशनाः मुनयः (वायु जिनकी मेखला है, ऐसे नग्न मुनि) का उल्लेख हुआ है ।" बृहदारण्यक उपनिषद् में श्रमण के साथ-साथ 'तापस' शब्द का पृथक् प्रयोग हुआ है । इससे स्पष्ट है कि प्राचीन काल से ही तापस ब्राह्मण एवं श्रमण भिन्न माने जाते थे । तैत्तिरीय प्रारण्यक में तो ऋग्वेद के 'मुनयो वातरशनाः;' को श्रमण ही बताया गया है । उपर्युक्त उद्धरणो से प्राचीन वैदिक काल से ही श्रमणों का अस्तित्व एवं प्रभाव स्पष्ट रूप से व्यक्त होता है ।
पुरातत्व की दृष्टि से भी श्रमण संस्कृति की प्राचीनता शनैः शनैः सिद्ध होती जा रही है। भारतीय पुरातत्व का इतिहास मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा से प्रारम्भ होता है । यद्यपि इन स्थानों से प्राप्त मुद्रानों की लिपि --- सिन्धु-लिपि का प्रामाणिक वाचन नहीं हो सका है और इसी कारण सिन्धु सभ्यता के निर्माताओं की जाति अथवा नृवंश के सम्बन्ध में निर्विवाद रूप से कहना सम्भव नहीं; तथापि सिन्धु घाटी के अवशेषों में उपलब्ध कतिपय प्रतीकों को श्रमण संस्कृति से सम्बद्ध माना जा सकता है । सर जान मार्शल के अनुसार, मोहंजोदड़ो से प्राप्त कुछ मूर्तियां योगियों की मूर्तियां प्रतीत होती हैं । इन मूर्तियों में से एक, योगासन स्थित त्रिमुख योगी की प्रतिमा विशेषतः उल्लेखनीय है । इस मूर्ति के सम्मुख हाथी, व्याघ्र महिष, मृग प्रादि पशु स्थित हैं । कुछ विद्वानों के मतानुसार, यह पशुपति शिव की मूर्ति है ।" अन्य विद्वानों के ३. श्रमणोऽश्र मणस्तापसोऽतापसः ....... भवति बृहदारण्यकोपनिषद ४।३।२२
४.
५.
Mohan-jodro and Indus civilization (1931) Vol. 1, pp. 52-3. -- Sir John Marshal
वातरशना ह व ऋषयः श्रमणाः ऊर्ध्वमन्थिनो बभवु:तैत्तिरीयारण्यक २७.