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११२, वर्ष २८, कि०१
प्रनेकान्त
यज्ञस्य देवमृत्विजम् । होतार रत्नधातमम् । अग्नि देवों के अर्थात् शिवकाल मे विद्याभ्यास करते है, यौवन में पुरोहित है। पुरोहित का अर्थ है, आगे रखा हुमा। विषयभोग करते है, वृद्धावस्था में मुनिवृत्ति अर्थात् वानअग्नि में आहुति देकर ही देवों को तुष्ट किया जा सकता प्रस्थाश्रम में रहते हैं और अन्त में योग के द्वारा शरीर
त्याग करते हैं। ब्राह्मणग्रन्थों के काल में यज्ञो का प्राधान्य रहा । गौतम धर्मसूत्र में (410) मे एक प्राचीन भार्य का उनके पश्चात् प्रारण्यकों का समय प्राता है। देवताविशेष मत है कि वेदों को तो एक गहस्थाश्रम ही मान्य है। के उद्देश्य से उनका त्याग ही यज्ञ है । यह मारण्यकों अथर्ववेद और ब्राह्मण ग्रन्थों में ब्रह्मचर्याश्रम का, विशेषतः को मान्य नहीं है । ब्राह्मणग्रन्थों का सर्वोच्च लक्ष्य स्वर्ग
क्ष्य स्वग उपनयन का, विधान है किन्तु चार पाश्रमों का उल्लेख था और उसकी प्रगति का मार्ग या यज्ञ । किन्तु मारण्यकों छा. उप. में है। वाल्मीकि रामायण में किसी संन्यासी के में यह बात नही है । तैत्तिरीय भारण्यक में ही प्रथम दर्शन नही होते, सर्वत्र वानप्रस्थ मिलते है, बार श्रमण शब्द तपस्वी के अर्थ में पाया है।
लोकमान्य तिलक ने अपने गीता रहस्य में लिखा है-- ऋग्वेद के संकलयिता ऋषि अरण्यवासी ऋषियों से
वेदसंहिता और ब्राह्मणों में संन्यास को प्रावश्यक नही भिन्न थे। वे अरण्य में नहीं रहते थे। वैदिक साहित्य में
कहा। उल्टे जैमिनि ने वेदों का यही स्पष्ट मत बतलाया 'अरण्य' शब्द के जो अर्थ पाये जाते है, उनसे इस पर प्रकाश पड़ता है। ऋग्वेद में गांव के बाहर की बिना जुती
है कि गृहस्थाश्रम में रहने से ही मोक्ष मिलता है। जमीन के अर्थ में 'अरण्य' शब्द का प्रयोग हमा है। शत
(वेदान्तसूत्र ३, ४, १७, २०,) उनका यह कथन कुछ
निराधार भी नहीं है क्योंकि कर्मकाण्ड के इस प्राचीन मार्ग पथ ब्राह्मण (५।३।३५) में लिखा है-अरण्य में चोर बसते
को गौण मानने का प्रारम्भ उपनिषदों में ही पहले पहल है। बृहदा० उप. (५।११) मे लिखा है-'मुर्दे को भरण्य
देखा जाता है। उपनिषत्काल में ही यह मत अमल मे मे ले जाते है किन्तु छा० उप० (१४३) में लिखा है
माने लगा कि मोक्ष पाने के लिए ज्ञान के पश्चात् वैराग्य कि अरण्य मे तपस्वी जन निवास करते है। विद्वानों का मत है-जब वैदिक आर्य पूरब की पोर
से कर्म-संन्यास करना चाहिये।' इत्यादि । बढ़े तो यज्ञ पीछे रह गये और यज्ञ का स्थान त ल किन्तु प्राचीन उपनिषदों में वही पुरानी कनि मिलती लिया, किन्तु तप को स्वीकार करने पर भी मर्य देवतामों है-शतपथ ब्रा. (१३, ४-१-१) म लिखा है-'एतद् व के पुरोहित अग्नि को नहीं छोड़ सके; अतः पञ्चाग्नितप
जरामर्य सत्रं यद् अग्नि होत्रम्' अर्थात् जब तक जियो, प्रवर्तित हुआ । भगवान् पार्श्वनाथ को गंगा के तट पर
अग्निहोत्र करो । ईशा० उप० में कहा है--'कुर्वन्नेवेह पञ्चाग्नि तप तपने वाले ऐसे ही तपस्वी मिले थे।
कर्माणि जिजीवेषेत् शतं समा' अर्थात् एक मनुष्य को माधम-पतुष्टय
अपने जीवन भर कर्म करते हुए सौ वर्ष तक जीने की चार आश्रमों की व्यवस्था भी चिन्त्य है। बादाण को इच्छा करनी चाहिये । बोधायन और आपस्तम्ब सूत्रों में ब्रह्मचारी और गृहस्थ के रूप में जीवन बिताने के बाद
भी गृहस्थाश्रम को ही मुख्य कहा है। स्मृतियों को भी संन्यासी हो जाना चाहिये, यह नियम वैदिक साहित्य में कुछ ऐसी ही स्थिति है। मनुस्मृति में संन्यास पाश्रम का
कथन करके भी अन्य प्राश्रमों की अपेक्षा गहस्थाश्रम को नहीं मिलता। पौराणिक परम्परा के अनुसार राज्य त्याग कर बन में चले जाने की प्रथा क्षत्रियों में प्रचलित थी।
ही श्रेष्ठ कहा है। कवि कुलगुरु कालिदास ने रघुवंश मे रघुनों का
बमण-धर्म का महत्व वर्णन करते हुए कहा है
इसके विपरीत जैन धर्म के अनुसार पसण धर्म को शैशवेऽभ्यस्त विद्यानां यौवने विषय॑षिणाम् । अपनाये बिना मोक्ष की प्राप्ति सम्भव नहीं है। गृहस्थवार्धके मुनिवृत्तीनां योगेनान्ते तनुत्यजाम् । धर्म मुवि-धर्म का लघु रूप है और जो मुनि-धर्म का