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जैन ज्योतिष-साहित्य : एक सर्वेक्षण
। स्व. डा० नेमिचन्द्र शास्त्री, पारा
"ज्योतिषां सूर्यादिग्रहाणां बोधकं शास्त्र"-सूर्यादि ग्रह से की गई है। समस्त नक्षत्रों का कुल, उपकुल और पौर काल का बोध कराने वाला शास्त्र ज्योतिष कहलाता कुलोपकुलों में विभाजन कर वर्णन किया गया है। यह है। अत्यन्त प्राचीन काल से प्राकाश-मण्डल मानव के लिए वर्णन-प्रणाली ज्योतिष के विकास में अपना महत्वपूर्ण कौतूहल का विषय रहा है । सूर्य और चन्द्रमा से परिचित स्थान रखती है। घनिष्ठा, उत्तराभाद्रपद, अश्विनी, हो जाने के उपरान्त तारामों, ग्रहों एवं उपग्रहों की जान- कृत्तिका, मृगशिरा, पुष्य, मघा, उत्तराफाल्गुनी, चित्रा, कारी भी मानव ने प्राप्त की। जैन परम्परा बतलाती है विसाखा, मूल एवं उत्तराषाढा-ये नक्षत्र कुलसंज्ञक; कि माज से लाखों वर्ष पूर्व कर्मभूमि के प्रारम्भ में प्रथम श्रवण, पूर्वाभाद्रपद, रेवती, भरणी, रोहिणी, पुनर्वसु, कलकर प्रतिश्रति के समय में, जब मनुष्यों को सर्व- प्राश्लेषा, पूर्वाफाल्गुनी, हस्त, स्वाति, ज्येष्ठा एवं पूर्वा. प्रथम सूर्य और चन्द्रमा दिखलायी पड़े, तो वे सशं- षाढा-ये नक्षत्र उपकुलसंज्ञक और अभिजित्, शतमिषा, कित हए और अपनी उत्कंठा शान्त करने के लिए उक्त पार्द्रा एवं अनुराधा कुलोपकुल-संज्ञक है। यह कुलोपकुल प्रतिश्रुति नामक कुलकर मनु के पास गये। उक्त कुलकर का विभाजन पूर्णमासी को होने वाले नक्षत्रो के आधार सौर-ज्योतिष के नाम से प्रसिद्ध हुआ। आगमिक पर- पर किया गया है। अभिप्राय यह है कि श्रावण मास के म्परा भनविच्छिन्न रूप से अनादि होने पर भी इस युग में घनिष्ठा, श्रवण और अभिजित ; भाद्रपदमास के उत्तराभाद्र. ज्योतिष-साहित्य की नीव का इतिहास यहाँ से प्रारम्भ पद, पूर्वाभाद्रपद और शतमिषा; आश्विनमास के अश्विनी होता है। यों तो जो ज्योतिप-साहित्य अाजकल उपलब्ध और रेवती; कातिकमास के कृत्तिका और भरणी, अगहन है, वह प्रतिश्रुति कुलकर से लाखों वर्ष पीछे का लिखा या मार्गशीर्ष मास के मृगशिरा और रोहिणी, पौषमास के
पुष्य, पुनर्वसु और पार्दा, माघमास के मधा और आश्लेषा, जैन ज्योतिष-साहित्य का उद्गम और विकास- फाल्गुनमास के उत्तराफाल्गुनी और पूर्वाफाल्गुनी, चैत्रमास प्रागमिक दृष्टि से ज्योतिष शास्त्र का विकास विद्यानु. के चित्रा और हस्त, वैशाखमास के विशाखा और स्वाति, वादांग और परिकर्मों से हुआ है। समस्त गणित-सिद्धान्त ज्येष्ठमास के ज्येष्ठा, मूल और अनुराधा एवं प्राषाढमास ज्योतिष-परिकर्मों में अकित था और अष्टांग निमित्त का के उत्तराषाढा और पूर्वाषाढा नक्षत्र बताए गए है। प्रत्येक विवेचन विद्यानुवादांग मे किया गया था। षट्खडागम मास की पूर्णमासी को उस मास का प्रथम नक्षत्र कुलसंज्ञक, घवला-टीका' मे रौद्र, श्वेत, मैत्र, सारगट, दैत्य, वैरोचन, दूसरा उपकुलसज्ञक और तीसरा कुलोपकुलसजक होता है। वैश्वदेव. अभिजित, रोहण, बल, विजय, नैऋत्य, वरुण, इस वर्णन का प्रयोजन उस महीने का फल निश्चय करना मर्यमन मोर भाग्य-ये पन्द्रह मुहूर्त माये है। मुहूर्तों की है। इस ग्रन्थ मे ऋतु, प्रयन, मास, पक्ष और तिथि नामावली वीरसेन स्वामी की अपनी नहीं है, किन्तु पूर्व सम्बन्धी चर्चायें भी उपलब्ध है। परम्परा से प्राप्त श्लोकों को उन्होने उद्धृत किया है। समवायाङ्ग में नक्षत्रों की तारायें, उनके दिशादार अतः मुहूर्त-चर्चा पर्याप्त प्राचीन है।
मादि का वर्णन है। कहा गया है-"कत्तिपाइया सत्तणनव्याकरण में नक्षत्रों की मीमांसा कई दृष्टिकोणों कात्ता पुच्चदारिमा । महाइया तत्तणयत्ता दाहिणदारिमा। १. धवला टीका, जिल्द ४, पृ. ३१८.
२. प्रश्नव्याकरण, १०.५.