Book Title: Anekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 211
________________ २०६, वर्ष २८, कि० १ अनेकान्त सिद्धान्तों को ग्रीकपूर्व सिद्ध किया गया है। सूर्य का संस्थान तथा तापक्षेत्र का संस्थान विस्तार से इतिहासज्ञ विद्वान् गणित ज्योतिष से भी फलित को बताया गया है। इसमें समचतुस्त्र, विषमचतुस्त्र आदि प्राचीन मानते हैं । अतः अपने कार्यो की सिद्धि के लिए विभिन्न आकारों का खण्डन कर सोलह वीथियों में चन्द्रमा समय-शद्धि की आवश्यकता प्रादिम मानव को भी रही को समचतुस्त्र गोल आकार बताया गया है। इसका होगी। इसी कारण जैन प्रागम ग्रन्थो मे फलित ज्योतिष कारण यह है कि सुषमा-सुषमाकाल प्रादि के श्रावण के बीज तिथि, नक्षत्र-योग, करण, वार, समय-शुद्धि, कृष्णा प्रतिपदा के दिन जम्बूद्वीप का प्रथम सूर्य पूर्व-दक्षिणदिनशुद्धि आदि की चर्चायें विद्यमान है। अग्निकोण में और द्वितीय सर्य पश्चिमोत्तर-वायव्यकोण जैन ज्योतिष साहित्य का सांगोपांग परिचय प्राप्त । में चला। इसी प्रकार प्रथम चन्द्रमा पूर्वोत्तर-ईशानकोण करने के लिए इसे निम्न चार कालखण्डों में विभाजित मे और द्वितीय चन्द्रमा पश्चिम-दक्षिण नैऋत्य कोण में कर हृदयंगम करने में सरलता होगी। चला । प्रतगव युगादि में सूर्य और चन्द्रमा का समचतुस्त्र आदिकाल- ई. पू. ३०० से ६०० ई. तक। संस्थान था, पर उदय होते समय ये ग्रह वर्तुलाकार पूर्व मध्य काल- ६०१ ई. से १००० ई. तक। निकले, अत: चन्द्रमा और सूर्य का प्राकार अर्धकपीठ-अर्ध उत्तर मध्य काल- १००१ ई. से १६०० ई. तक। समचतुस्त्र गोल बताया गया है। पर्वाचीन काल- १६०१ ई. से १८६० ई. तक। चन्द्रप्रज्ञप्ति में छायासाधन किया गया है और छाया आदिकाल की रचनाओं में सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, प्रमाण पर से दिनमान भी निकाला गया है। ज्योतिष की अंगविज्जा, लोकविजययन्त्र एवं ज्योतिष्करण्डक आदि दृष्टि से यह विषय बहुत ही महत्वपूर्ण है। यहाँ प्रश्न उल्लेखनीय हैं। किया गया है कि जब अर्धपुरुष-प्रमाण छाया हो, उस सूर्यप्रज्ञप्ति प्राकृत भाषा में लिखित एक प्राचीन समय कितना दिन व्यतीत हा और कितना शेष रहा? रचना है । इस पर मलय गिरि की संस्कृत टीका है। ई० इसका उत्तर देते हुए कहा गया है कि ऐसी छाया की स्थिति सन् से दो वर्ष पूर्व की यह रचना निर्विवाद सिद्ध है। मे दिनमान का तृतीयाश व्यतीत हुआ समझना चाहिए। इसमें पंचवर्षात्मक युग मानकर तिथि, नक्षत्रादि का यहाँ विशेषता इतनी है कि यदि दोपहर के पहले अर्धपुरुषसाधन किया गया है। भगवान महावीर की शासनतिथि प्रमाण छाया हो तो दो तिहाई भाग-प्रमाण दिन गत और श्रावण कृष्णा प्रतिपदा से, जबकि चन्द्रमा अभिजित नक्षत्र एक भाग प्रमाण दिन शेष समझना चाहिए । पुरुष प्रमाण पर रहता है, युगारम्भ माना गया है । छाया होने पर दिन का चौथाई भाग गत और तीन चौथाई चन्द्रप्रज्ञप्ति में सूर्य के गमनमार्ग, प्रायु, परिवार भाग शेष, डेढ़ पुरुष प्रमाण छाया होने पर दिन का पंचम मादि के प्रतिपादन के साथ पंचवर्षात्मक युग के अयनों भाग गत और चार पंचम भाग (६ भाग) अवशेष दिन के नक्षत्र, तिथि और मास का वर्णन भी किया गया है। समझना चाहिए। चन्द्रप्रज्ञप्ति का विषय प्रायः सूर्यप्रज्ञप्ति के समान इस ग्रंथ में गोल, त्रिकोण, लम्बी एवं चौकोर वस्तूपों है। विषय की अपेक्षा यह सूर्यप्रज्ञप्ति से अधिक महत्वपूर्ण की छाया पर से दिनमान का प्रानयन किया गया है। है। इसमें सूर्य की प्रतिदिन की योजनात्मिका गति निकाली चन्द्रमा के साथ तीस मुहूर्त तक योग करने वाले श्रवण, गई है तथा उत्तरायण और दक्षिणायन की विधियों का घनिष्ठा, पूर्वाभाद्रपद, रेवती, अश्विनी, कृत्तिका, मृगशिरा अलग-अलग विस्तार निकाल कर सूर्य और चन्द्र की गति पूष्य, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, अनुराधा, मूल निश्चित की गई है। इसके चतुर्थ प्राभूत में चन्द्र और और पूर्वाषाढ़-ये पन्द्रह नक्षत्र बताए गए है। पैतालीस ८. चन्दाबाई-अभिनन्दन-ग्रन्थ के अन्तर्गत 'ग्रीकपूर्व जैन ता तिभागे गए वा ता सेसे वा, पोरिसाणं छाया ज्योतिष विचारधारा' शीर्षक निबन्ध, पृ. ४६२. दिवस्स कि गए वा सेसे वा जाव चउभाग गए सेसे ९. ता प्रवडपोरिसाणं छाया दिवसस्स कि गते सेसे वा वा । चन्द्रप्रज्ञप्ति, प्र. ६.५.

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