Book Title: Anekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 215
________________ २१०, वर्ष २८, कि.१ अनेकान्त होरा नाम महाविद्या वक्तध्यं च भवद्धितम् । जातकशास्त्र सम्बन्धी रचना है। इस ग्रंथ में लग्न, ग्रह, ज्योतिर्निकसारं भषणं बुधपोषणम् ॥ ग्रहयोग एवं जन्म-कुण्डली सम्बन्धी फलादेश का निरूपण उन्होंने अपनी प्रशंसा भी प्रचुर परिमाण में की हैं- किया गया है । दक्षिण भारत में इस ग्रन्थ का अधिक मागमः सदृशो जैनः चन्द्रसेनसमो मुनिः। प्रचार है। देवलीसदशी विद्या दुर्लभा सचराचरे । चन्द्रोन्मीलन प्रश्न भी प्रश्न-शास्त्र की एक महत्वपूर्ण इस ग्रंथ में हेम प्रकरण, दाम्य प्रकरण, शिला प्रकरण रचना है। इस ग्रन्थ के कर्ता के सम्बन्ध में भी कुछ ज्ञात मृत्तिका-प्रकरण, वृक्ष-प्रकरण, कर्पास-गुल्म, बल्कल-तृण, रोम-चर्म-पट प्रकरण, संख्या प्रकरण, नष्ट द्रव्य प्रकरण, नही है । ग्रंथ को देखने में यह अवश्य अवगत होता है कि इस प्रश्न-प्रणाली का प्रचार खूब था । प्रश्नकर्ता के प्रश्ननिर्वाह प्रकरण, अपत्य प्रकरण, लाभालाभ प्रकरण, स्वर वर्णो का संयुक्त, असंयुक्त, अभिधातित, अधिप्रमित, मालिंप्रकरण, स्वप्न प्रकरण, वस्तु प्रकरण, भोजन प्रकरण, देह गित, और दग्ध-इन संज्ञानों में विभाजन कर प्रश्नों के लोह दिक्षा प्रकरण, अंजन विद्या प्रकरण एवं विष प्रकरण प्रादि है। ग्रन्थ को प्राद्योपान्त देखने से अवगत होता है उत्तर में चन्द्रोन्मीलन का खण्डन किया गया है । "प्रोक्तं कि यह सहिता-विषयक रचना है, होगविषयक नहीं। चन्द्रोन्मीलनं शुक्लवस्त्रस्तच्चाशुद्धम्" इससे ज्ञात होता है कि यह प्रणाली लोकप्रिय थी। चन्द्रोन्मीलन नाम का जो श्रीधर-ये ज्योतिष-शास्त्र के मर्मज्ञ विद्वान थे। अन्य उपलब्ध है, वह साधारण है। इनका समय दशवी शती का अन्तिम भाग है । ये कर्णाटक प्रान्त के निवासी थे । इनकी माता का नाम अब्बोका उत्तर मध्यकाल में फलित ज्योतिष का बहुत विकास और पिता का नाम बलदेव शर्मा था। इन्होंने बचपन में हुग्रा । मुहूर्त जातक, संहिता, प्रश्न, सामुद्रिक शास्त्र प्रति अपने पिता से ही सस्कृत और कन्नड़-साहित्य का अध्ययन विषयों की अनेक महत्त्वपूर्ण रचनायें लिखी गयी हैं। इस किया था। प्रारम्भ में ये शैव थे, किन्तु बाद में जैन धर्मा- युग में सर्वप्रथम और प्रसिद्ध ज्योतिषी दुर्गदेव हैं। दुर्गदेव नुयायी हो गये थे । इनकी गणितसार मौर ज्योतिर्ज्ञान विधि के नाम से यों तो अनेक रचनायें मिलती है, पर दो रचसंस्कृत भाषा में तथा जातकतिलक कन्नड़ भाषा मे रच- नायें प्रमुख हैं-रिट्ठसमुच्चय और अर्घकाण्ड । दुर्गदेव का नायें है । गणितसार में अभिन्न गुणक, भागहार, वर्ग, वर्ग- समय सन् १०३२ माना गया है । रिट्ठसमुच्चय की रचना मूल, घन, घनमूल, भिन्न, समच्छेद, भागजाति, प्रभाग- अपने गुरु संयमदेव के वचनानुसार की है। ग्रंथ मे एक जाति, भागानुबन्ध, भागमात्र जाति, त्रैराशिक, सप्तराशिक, स्थान पर संयमदेव के गुरु संयमसेन और उनके गुरु माधव नवराशिक, भाण्डप्रतिभाण्ड, मिश्रक व्यवहार, एकपत्री- चन्द्र बताए गये हैं। रिट्ठसमुच्चय शौरसेनी प्राकृत में करण, सुवर्ण गणित, प्रक्षेपक गणित, समक्रय-विक्रय, श्रेणी- २६१ गाथाओं में रचा गया है। इसमें शकुन और शुभाव्यवहार, खातव्यवहार, चितिध्यवहार, काष्ठक व्यवहार, शुभ निमित्तों का संकलन किया गया है। लेखक ने रिष्टों राशि-व्यवहार, एवं छाया व्यवहार मादि गणितों का के पिण्डस्थ, पदस्थ, पदस्थ और रूपस्थ नामक तीन भेद निरूपण किया है। किए हैं। प्रथम श्रेणी में अंगुलियों का टूठया, नेत्र-ज्योति _ 'ज्योतिर्ज्ञानविधि' प्रारम्भिक ज्योतिष का प्रन्थ है। की हीनता, स्साशाम की न्यूनता, नेत्रों से लगातार जलइसमें व्यवहारोपयोगी मुहुर्त भी दिये गये हैं। प्रारम्भ में प्रवाह एवं जिह्वा न देख सकना मादि को परिगणित संवत्सरों के नाम, नक्षत्र-नाम, योग-करण, तथा उमके किया है। रितीय श्रेणी में सूर्य और चन्द्रमा का अनेकों शुभाशुभत्व दिये गये हैं। इसमें मास शोध, मासाधिपति- स्पों में दर्शन, प्रज्वलित दीपक को शीतल अनुभव करना, शेष, दिनशेष एवं दिनाधिपति शेष प्रादि गणितानयन की चन्द्रमा को त्रिभंगी रूप में देखना, चन्द्रलांछन का दर्शन अद्भुत प्रक्रियायें बतायी गयी है। न होना इत्यादि को ग्रहण किया है। तृतीय में निजछाया, जातकतिलक-कन्नड़ भाषा में लिखिड होश या परछाया तथा छायापुरुष का वर्णन किया है। प्रश्नाभर,

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