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दर्शनीय ही बन पड़ा है। उसके अतिरिक्त पूजन की भुमरा और नचना के शिव तथा पार्वती मंदिर पूर्व सामग्री लेकर जाते हुए राजपुरुषों तथा क्रीड़ारत बालकों गुप्तकाल के अच्छे उदाहरण माने जाते हैं। इन्हीं मंदिरों प्रादि का अंकन भी हुआ है। तीर्थकर प्रतिमायो के परि- के पाव में, उसी काल मे सीरा पहाड़ की जैन गुफामों वार में शासनदेवियों का प्रायुध, वाहन आदि के साथ तथा उनमें स्थित मनोहर तीर्थकर प्रतिमानो का निर्माण बनाया जाना भी खण्डगिरि की अपनी विशेषता है। पुरा- हुमा तथा सिद्धनाथ की जटाजूट युक्त सुन्दर जैन मूर्तियां तत्व में शासनदेवियों का प्राचीनतम अस्तित्व संभवतः अस्तित्व मे पायीं। सीरा पहाड़ की मूर्तियो के इन्द्र यहीं प्राप्त होता है। इस स्थान की सामग्री की शोध और विद्याधर युगल अपनी सुन्दरता और सुघड़ता के कराकर उसे प्रकाश में लाने की बड़ी आवश्यकता है। कारण गुप्तकाल के उत्तम प्रतिनिधि हैं, तथा वहां से इस दिशा में स्व. बाब छोटेलाल जी का कार्य अधूरा पडा प्राप्त भगवान पारसनाथ की सप्तफणावलि युक्त उत्थित हना है जिसे भागे बढ़ाया जाना चाहिए। लोहानीपुर पद्मासन प्रतिमा-जो अब रामन (सतना) के तुलसी (पटना) से प्राप्त कतिपय तीर्थकर प्रतिमाएं भी जो पटना संग्रहालय में स्थित है-उस काल की प्राणवान् कला का संग्रहालय में संग्रहीत है, इस काल का अच्छा प्रतिनिधित्व एक श्रेष्ठ उदाहरण है। करती है।
उत्तर तथा मध्यभारत में गुप्तकाल के अवशेषों में गुप्तकालीन मूर्तिकला :
देवगढ, राजघाट, वाराणसी, मन्दसौर और पवाया आदि
अनेकों स्थानों से प्राप्त सामग्री की गणना की जाती है। कला और संस्कृति के विकास में गुप्तकाल (चौथी,
म गुप्तकाल (चाया, देवगढ में यद्यपि मध्ययुग का शिल्प ही अधिक है तथापि पांचवी और छठवी शती ई०) को इस देश का स्वर्णकाल
वहाँ की कतिपय मूर्तियां और एक दो मन्दिर निश्चित ही कहा जाता है। स्थापत्य, शिल्प, चित्रांकन और साहित्य
गुप्तकाल की रचना हैं। ये मूर्तियां सज्जा की विविधता रचना का जो कार्य इस काल में हुआ, वह उसके बाद उतनी तथा कला के अंकन में गूप्तकालीन कला के मान की विशिष्ट कलात्मक और मौलिक शैली में फिर कभी नहीं
रक्षा करती हैं। राजघाट से प्राप्त धरणेन्द्र-पद्मावती
। हो सका।
सहित पारसनाथ प्रतिमा भी कला की दृष्टि से उत्कृष्ट इस काल में भी कला के किसी भी शाखा के विकास मानी गयी है। यह मूर्ति भारत कला भवन, वाराणसी में और निर्माण में जनों का योगदान कम नही रहा । चित्रां- संगहीत है। कन तथा साहित्य-सृजन के अलावा शिल्प के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य हुमा है । इस काल में जैन धर्म की स्थिति,
दक्षिण का योगदान : देश में प्रायः हर जगह अच्छी थी। जगह-जगह नागर विख्यात पुरातत्त्वज्ञ श्री टी. एन. रामचन्द्रन के शैली के ऊंचे-ऊंचे शिखरबंद मंदिरों का निर्माण हमा। मतानुसार 'दक्षिण में जैनधर्म के प्रचार-प्रसार का इतिहास इन मंदिरों के शिखर नीचे की मोर से उत्तरोत्तर संकीर्ण द्रविड़ों को पार्य सभ्यता का पाठ पढ़ाने का ही इतिहास होते हुए ऊपर जाकर एक मंगलकलश के रूप में परि- है।' इस अभियान का प्रारम्भ तीसरी शती ई०पू० में वर्तित हो जाते थे। जैनों के प्रथम तीर्थकर ऋषभनाथ प्राचार्य भद्रबाहु की दक्षिण यात्रा से हुमा । सम्राट चन्द्रकी तपस्या भूमि और निर्वाण स्थली कैलाश थी। अतः ये गुप्त मौर्य इस यात्रा में साथ रहा और उसी समय से शिखर उसी की अनुकृति के रूप में निर्मित किए जाते थे। जैनकला और साहित्य की गतिविधिया दक्षिण में परिनागवंशियों द्वारा अपनी राज्य-सीमा के प्रतीकरूप में लक्षित होती हैं। नागर शैली के मंदिरों के प्रवेश-द्वार पर गंगा पोर यमुना प्राचार्य भद्रबाह के उपरान्त कालकाचार्य पौर का अंकन प्रारम्भ किया गया था। राज्यचिह्न होने के विशाखाचार्य द्वारा भी दक्षिण की यात्रा की गयी। पैठा कारण जैनों ने इस परति को बीमपनाया।
के राजदरबार में कामकाचार्य की बड़ी मान्यता थी।