Book Title: Anekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 186
________________ भारतीय संस्कृति को नकला का योगदान पठन प्रतिष्ठान के नाम से प्रसिद्ध था और यहीं चतुर्थकाल की ऊंचाइयां भी जितनी इस मूर्ति ने पाई है, उतनी अन्यत्र में तीर्थकर मनि सुव्रतनाथ की प्रतिमा स्थापित किये देखने में नही आती। अपनी उसी महानता पौर विशिजाने का उल्लेख पद्मपुराण में है। पैठन के सातवाहन ष्टता के कारण यह प्रतिमा संसार के माश्चर्यों में गिनी राजाओं द्वारा निर्मित दूसरी शती ई० पू० का स्थापत्य जाती है तथा भारतीय मूर्तिकला में जैन कलाकारों का उपलब्ध है। छठवीं शती ई० में कवि रविकीति द्वारा यह संभवतः सबसे निराला, बहुमूल्य और महत्त्वपूर्ण योगऐहोल मे विशाल जैन मन्दिर का निर्माण हमा । चालुक्धों दान है। के राज्यकाल में इसी समय ऐहोल तथा बदामी में अन्य कतिपय विशाल-प्रतिमाएं: अनेक मन्दिरों, मूर्तियों तथा गृहामन्दिरों का निर्माण बाहुबलि की खड़गासन मूर्तियों की स्थापना दक्षिण हुमा । ऐहोल मे रविकीर्ति के शिलालेख में इस राज्याश्रय भारत को अपनी विशेषता रही है। ऐहोल और बादामी का उल्लेख है। यहाँ की विशाल अम्बिका मूर्ति भी कला की गुफानों तथा मन्दिरों में छठवी शती में निर्मित बाहुकी दृष्टि से उल्लेखनीय है। बलि की अनेक सुन्दर मूर्तियां उपलब्ध हैं। आठवीं, नौवीं कर्नाटक मे जैनकाल के लिए स्वर्णयुग का प्रारम्भ और दसवी शती में एलोरा की जैन गुफामों का निर्माण गंगवंश के राज्यकाल से हा। कहा जाता है कि इस राजवंश की स्थापना में जैनाचार्य सिहनन्दि का बड़ा हाथ हुआ जो जैनकला का एक अद्वितीय उदाहरण है । यहाँ भी बाहुबलि की स्थापना की यह परम्परा वर्तमान रही था और वंश के प्रथम राजा को उनका परामर्श भी प्राप्त है जिसके प्रमाण में हम कारकल की ४२ फुट ऊंची तथा या। इसी राजवंश का तीसरा राजा दुविनीत (६०५-५० बेलूर की ३५ फुट की उन प्रतिमामों को ले सकते हैं ई०) हुआ जो प्राचार्य पूज्यपाद का बड़ा भक्त था। जिनका निर्माण क्रमशः १४३२ मोर १६०४ ई. में हुआ। दुविनीत के पूत्र मश्कर ने तो जैनधर्म को राज्यधर्म ही घोषित कर दिया। उत्तर भारत में बाहबलि की स्थापना प्राचीनकाल में इसी वंश में राजल्ल प्रथम (८१७-२८ ई०) हुमा प्रायः नहीं हई। खजुराहो, देवगढ़, बिलहरी, तेवर आदि जिसने अरकाट जिले मे वल्ली मलई ग्राम में एक विशाल में जहां उनका अंकन हुआ भी, वहाँ प्राय: छोटी-छोटी जैन गुफा और कुछेक मन्दिरों का निर्माण कराया। इस मूर्तियां बनाकर ही सन्तोष कर लिया गया, परन्तु प्रायः राजवंश के दीर्घ शासनकाल में दक्षिण में अनेक जगह इन सभी स्थानों पर सोलहवें तीर्थङ्कर शान्तिनाथ की समय-समय पर जो मूर्तियाँ, मन्दिर और गुफायें निर्मित मूर्ति अथवा तीनों चक्रवर्ती तीर्थडुरों-शान्तिनाथ, कुन्थुहुई, वे दक्षिण भारत मे जैनकला के एक मुनियोजित और नाथ, अरहनाथ-की एकत्र प्रतिमायें एक से एक बढ़कर क्रमिक विकास की साक्षी है। यह राजवश जैनधर्म के विशाल और सुन्दर बनायी गयी। उन मूर्तियों के सन्दर्भ प्रति इतना प्रास्थावान तथा श्रद्धालु था कि इसके एक में अहार, देवगढ़, खजुराहो, वानपुर, बजरंगगढ़, ऊन, प्रतापी राजा मारसिह तृतीय (९६१-७४ ई.) द्वारा ग्वालियर ग्रादि के नाम उल्लेखनीय हैं। इनमें प्राहार अन्त में सल्लेखना मरण अगीकार करने का उल्लेख मिलता क्षेत्र पर १२३५ ई० में स्थापित १४ फुट ऊंची भगवान है। इसी मारसिंह के स्वनामधन्य सेनापति श्री चामण्डराय शान्तिनाथ की चमकदार पालिश से युक्त प्रतिमा सर्वाधिक हुए जिनके द्वारा श्रवणबेलगोल की अद्भत गोम्मटेश्वर सुन्दर और आकर्षक है । इसे 'उत्तर भारत का गोमटेश्वर प्रतिमा का निर्माण हुमा। कह सकते है। दशवीं शती ई. के अन्तिम चरण में निर्मित भगवान् विशाल प्रतिमानों का यह वर्णन तब तक पूरा नहीं बाहुबली की यह विशाल एवं सौम्य प्रतिमा ५७ फोट कहा जा सकता जब तक इसमें कुण्डलपुर (दमोह, म. ऊंची है। इस मूर्ति में केवल माकार में ही ऊंचाई नहीं प्र.) की विशाल पद्मासन प्रतिमा का उल्लेख न कर हैबरन शरीर-सौष्ठव, अनुपात, कला पौर भाव-प्रवणता दिया जाय। भव्य मासन भोर सौम्यरूप में विराजमान

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