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श्रमण-परम्परा को प्राचीनता
पं० कलाशचन्द्र शास्त्री, वाराणसी
माज सर्वत्र भगवान महावीर के निर्वाण के पच्चीसवीं समय तक यह नदी पार्यों के संसार की सीमा मानी जाती शती महोत्सव के रूप में मनाई जा रही है। भगवान थी। इसके भागे यथेच्छ उनका माना-जाना नहीं था। महावीर का जन्म विहार प्रदेश में हुआ था। इसी प्रदेश
बृहदारण्यक उपनिशद शतपथ ब्राह्मण का अन्तिम में कठोर तपस्या के द्वारा उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त किया भाग माना जाता है। इसी से विद्वान् उसका रचना-काल था। इसी प्रदेश के विपुलाचल पर उनकी प्रथम धर्मदेशना पाठवीं शताब्दी ईस्वी पूर्व मानते हैं। यही समय भगवान हुई थी और जिस लोक-भाषा में हुई थी, उसका नाम भी
महावीर के पूर्वज तीर्थकर पाश्वनाथ का है जो काशी इसी प्रदेश के नाम पर अर्धमागधी है। इसी प्रदेश से नगरी में जन्मे थे। उनके जीवन की घटना है कि एक उन्होंने निर्वाण-लाम किया। इस तरह यह प्रदेश भगवान
या । इस तरह यह प्रदश भगवान दिन वह गंगा के तट पर गये। वहां कुछ तापस पंचाग्नि महावीर के जीवन के साथ इतना सुसम्बद्ध है कि न तो तप करते थे। बृहदारण्यक उपनिषद् (४-३-१२) में हा इस प्रदेश के विना भगवान महावीर को रखा जा सकता हम तापसी और श्रमणों का निर्देश मात्र पाते हैं। याशहै और न महावीर के विना इस प्रदेश की ही गरिमा का
वाल्क्य जनक से प्रात्मा का स्वरूप बतलाते हुए कहते है बखान किया जा सकता है।
कि "इस सुषुप्त अवस्था में श्रमण प्रश्रमण और तापस तीर्थङ्कर तो अनेकों हुए किन्तु जिनके पांचों कल्याणक प्रतापस हो जाता है।" अपने जन्म-प्रदेश में ही हुए, ऐसे एकाकी तीर्थकर महा
यश-प्रधान ब्राह्मण-संस्कृति वीर हैं। सर्वस्व त्याग देने पर भी मानो वह अपनी इस
शतपथ ब्राह्मण में तप से विश्व की उत्पत्ति बतजन्म भूमि का मोह नहीं त्याग सके थे। मातृ भूमि और .
लाई है। प्रतिदिन अग्निहोत्र करना एक प्रधान कर्म था। मातृभाषा सचमुच में माता से भी बढ़कर है।
इसकी उत्पत्ति की कथा इस प्रकार बतलाई है-"प्रारम्भ पूर्वी भारत में वैदिक सभ्यता का प्रवेश-मनीषियो
में प्रजापति एकाकी था। उसकी अनेक होने की इच्छा का विचार है कि अंग, मगध, काशी, कोसल और विदेह हुई। उसने तपस्या की। उसके मुख से अग्नि उत्पन्न में वैदिक सभ्यता का प्रवेश बहुत काल पश्चात् हुआ था। हई। चंकि सब देवताओं में अग्नि प्रथम उत्पन्न हुई; शत० ब्रा० (१-४-१) में लिखा है कि 'सरस्वती नदी से इसी से उसे पग्नि कहते हैं। उसका यथार्थ नाम अग्नि अग्नि ने पूर्व की भोर प्रयाण किया। उसके पीछे विदेष, ।
पछि विदधा है। मुख से उत्पन्न होने के कारण अग्नि का भक्षक होना माधव और गौतम राहगण थे। सबको जलाती और मार्ग
स्वाभाविक था। किन्तु उस समय पृथ्वी पर कुछ भी नहीं की नदियों को सुखाती हुई वह अग्नि सदानीरा के तट पर था। अतः प्रजापति को चिन्ता हुई, तब उसने अपनी पहुंची। उसे वह नहीं जला सकी। तब माधव ने अग्नि
वाणी को माहति देकर अपनी रक्षा की। जब वह मरा से पूछा-'मैं कहां रहूं?" उसने उत्तर दिया-- "तेरा
"तरा तो उसे अग्नि पर रखा गया; किन्तु अग्नि ने उमके शरीर
हो निवास इस नदी के पूरब में हो। अब तक भी यह नदी पर
नदा को ही जलाया।" प्रतः प्रत्येक व्यक्ति को अग्निहोत्र का कोसलों पौर विदेहों की सीमा है।"
चाहिए। यदि नया जीवन प्राप्त करना चाहते इसे वैदिक आयों के सरस्वती नदी के तट से सदा- अग्निहोत्र करो। नीरा के तट तक बढ़ने के रूप में लिया जाता है। बहुत ऋग्वेद का पहला मंत्र है 'पग्निम या पार योगी