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मध्य प्रदेश की प्राचीन जैन कला
0प्रो० कृष्ण दत्त वाजपेयी, सागर
ललित कलाप्रो के विकास को दष्टि से भारत के में देश के विभिन्न भागो मे जैन धर्म का जो इतना मध्यवर्ती क्षेत्र का विशेष महत्व है। प्रागैतिहासिक युग से अधिक प्रसार हुम्रा, उसका एक मुख्य कारण व्यापारियों लेकर उत्तर-मध्यकाल तक इस भू भाग मे ललित कलाये द्वारा बहुत बड़ी संख्या मे जैन मन्दिरों, मठों, अनेक रूपो में संवित होती रही। नर्मदा के उत्तर मे विध्य मूर्तियो आदि का निर्माण कराना तथा विद्वानों को की उपत्यकामो में आदिम जन एक दीर्घकाल तक शिला- प्रोत्साहन प्रदान करना था। श्रयों में निवास करते थे। वे अपनी गृहाम्रो की दीवालो मध्यप्रदेश क्षेत्र में भरहुत तथा साची बौद्ध कला के और छतो पर चित्रकारी करते थे। अधिकाश प्राचीन प्रारम्भिक केन्द्रों के रूप मे प्रख्यात है। विदिशा, एरन, चित्र अाज भी इन गुहायो में सुरक्षित है पीर तत्कालीन मुमरा, नचना आदि अनेक स्थलो पर वैष्णव तथा शवधर्मों जन-जीवन पर रोचक प्रकाश डालते है ।
का विकाम मौर्य युग मे लेकर गुप्त युग तक बड़े रूप में
हमा। जहा तक जैन धर्म का सम्बन्ध है, अन्धति द्वारा इस क्षेत्र में से होकर अनेक बडे मार्ग जाते थे। ये इस क्षेत्र में इस धर्म के उदभव तथा प्रारम्भिक विकास मार्ग मुख्यत. व्यापारिक सुविधा हेतु बनाये गये थे। धर्म- पर रोचक प्रकाश पडता है। जैन साहित्य में विदिशा प्रचार तथा साधारण आवागमन के लिए भी उनका उप- नगरी का उल्नव बड़े सम्मान के साथ किया गया है और योग होता था। एक बड़ा मार्ग इलाहाबाद जिले के प्राचीन यह कहा गया है कि इम नगरी में भगवान् महावीर की कौशाम्बी नगर से भरहुन (जि० मतना), एरन (प्राचीन
पूजा प्रारम्भ में 'जीवन्त म्वामी' के रूप मे होती थी। ऐरिकिण, जि. सागर), ग्यारसपुर तथा विदिशा होते अनति के अाधार पर, अवन्ति के गामक प्रद्योत ने इस हए उज्जन को जाता था। उज्जैन से गोदावरी तट पर
प्रतिमा को गेरुवा (सिधु-सौवीर राज्य) मे लाकर विदिशा स्थित प्रतिष्ठान (अाधुनिक पठन) नगर तक मार्ग जाता
में प्रतिष्ठापित किया था। इस प्रतिमा के सम्मान मे रथथा। अन्य बडा मार्ग मथुरा से पद्मावती (ग्वालियर के यात्रामो के उत्मव बड़े समारोह के माथ निकलते थे। पास पवाया), कान्तिपुरी (मुरेना जिले का कुतवार), विदिना के अतिरिक्त उज्जयिनी (उज्जैन) में भी तुम्बवन (तुमैन, जिला गुना), देवगढ (जि. झासी) जैन धर्म के प्रारम्भिक प्रचार का उल्लेख 'कालकाचार्यहोता हा विदिशा को जाता था। तुम्बवन से एक मार्ग कथानक' प्रादि ग्रन्थों में उपलब्ध है। कौशाबी को जोड़ता था। इन मागों पर अनेक नगरी के ग मातवाहन काल (ई० पूर्व दूसरी शती से लगभग अतिरिक्त छोटे गाँव भी थे। व्यापारी तथा अन्य लोग जो २०० ई. तक) मे विदिशा में यक्ष-पूजा का प्रचलन था। इन मार्गों में यात्रा करते थे, इन मार्गों के उपयुक्त स्थानो यक्षों तथा यक्षियों की अनेक महत्त्वपूर्ण मूतिया विदिशा से पर मन्दिरी, स्तुपों, धर्मशालायो ग्रादि का निर्माण कराने मिली है। कुछ वर्ष पूर्व बेतवा नदी रो यक्ष यक्षी की थे। बड़े नगरो, गावो तथा वन्यस्थलो मे अनेक मन्दिरो विशाल प्रतिमायें प्राप्त हुई, जो अब विदिशा के संग्रहालय प्रादि के अवशेष मिले है। इन जैन स्मारको तथा कला- में सुरक्षित है । नाग-पूजा का भी प्रचार विदिशा, पनाकृतियो की संख्या बहुत बड़ी है। तुमन, देवगढ, चंदेरी, वती, कान्तिपुरी ग्रादि स्थानो में बड़े रूप मे हुमा । नागबोन, प्रहार, विदिशा, खजुराहो आदि स्थान जैन वास्तु नागियो की प्रतिमायें सर्पाकार तथा मानवाकार दोनों तथा मूर्तिकला के प्रमुख केन्द्र बने । मध्यकाल रूपो में बनाई जाती थी।