Book Title: Anekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 119
________________ ११४, वर्ष २८, कि० १ अनेकान्त की मुद्रा में मूर्तियां पूजी जाती थीं। मोहेंजोदड़ो और णानामृषीणाम्' आदि लिखा है, ये शब्द अनुमन्धान की हरप्पा से प्राप्त मोहरें जिन पर मनुष्य रूप में देवों की दृष्टि से महत्व के है। पाकृति अंकित है, मेरे इस निष्कर्ष को प्रमाणित करती तैत्तिरीय पार० में भी इसी प्रकार कहा है-'वात शना ह ऋषयः श्रमणा ऊर्ध्वपन्थिनो बभूवुः (२-७)। 'सिन्धुपाटी से प्राप्त मोहरों पर बैठो अवस्था मे ऋग्वेद (१०-१३६-२) मे भी मुनियो के लिये वातअंकित मतियां ही योग की मुद्रा में नहीं है किन्तु राड़ी रशना कहा है। अवस्था में अंकित मूर्तियां भी योग की कायोत्सर्ग मुद्रा को अथर्ववेद (२२५४३) मे इन्द्र के द्वारा यतियों का बतलाती है। मथुरा म्यूजियम में दूसरी शती की कायो- वय किये जाने को कथा आती है। स्सर्ग में स्थित ऋषभदेव जिन की एक मूर्ति है । इस मूर्ति यह कथा एतरेय ब्रा. (७-२%) और पञ्चविंश की शेली सिन्धु से प्राप्त मोहगे पर अकित खड़ी हुई ब्राह्मण (१३।४।७, ८।१४) में भी पाई है । देव-मतियों की शैली से बिल्कुल मिलती है । ऋषभ या सायण ने अपने भाष्य मे लिखा हैवृषभ का अर्थ बंल होता है और ऋषभदेव तीर्थकर का 'यतिन-पतयो नाम नियमशीला प्रासुर्या प्रजा: चिद्ध बल है। मोहर न. ३ से ५ तक के ऊपर अकित यद्वाऽत्र यतिगब्देन वेदान्तार्थविचारशन्या परिव्राजका देवमतियों के साथ बैल भी अकित है जो ऋपभ का पूर्व- विवक्षिता.। (अथर्व) रूप हो सकता है। अर्थात् यति का अर्थ है व्रत-नियम का पालन करने वाले इसी पर डा. राधाकुमद मुकर्जी ने अपनी हिन्दु असुर लोग । अथवा यहाँ यति शब्द वेदान्त के विचार से सभ्यता नामक पुस्तक मे लिखा है : श्री चन्दा ने ६ अन्य शून्य परिव्राजक लेना चाहिए।' मोहरों पर खडी हई मूर्तियों की ओर भी ध्यान दिलाया पञ्चविंश ब्राह्मण की व्याख्या में सायण ने एक है । फलक १२ और ११८ प्राकृति ७ (मार्शल कृति मोहे स्थान पर यति का अर्थ 'यजन विरोधी जना.' किया है। जोदडो) कायोत्सर्ग नामक योगासन में खडे हुए देवतायो अर्थात इन्द्र ने यतियो को मारा, वे सब यज्ञयागादि विरोधी को सचित करती है। यह मुद्रा जैन योगियों की तपश्चर्या और वेदविरुद्ध व्रतनियमादि का पालन करने वाले थे। में विशेष रूप से मिलती है; जैसे मथरा पंग्रहालय मे ऋग्वेद के वातरशन मुनि, ते. प्रा. के वातरशन श्रमण स्थापित तीर्थकर श्री ऋषभदेव की मूर्तियां । ऋषभ दा भिन्न प्रतीत नही होते । वे ही सम्भवतः यति भी हों। भर्य है बैल जो प्रादिनाथ का लक्षण है। मुहर संख्या श्री मद्भागवत् में उन्ही वातरशन श्रमणो के धर्म के साथ F.G. H. फलक दो पर अकित देवमूति में एक बैल ही ऋषभावतार को जोड़ा गया है । यह आकस्मिक प्रतीत बना है । संभव है यह ऋषभ का ही पूर्व रूप हो। यदि नहीं होता। इन सबके प्रकाश मे श्रमण परम्परा की ऐसा हो तो शेव-धर्म की तरह जैन-धर्म का मूल भी ताम्र प्राचीनता का दर्शन होता है। उमी परम्परा को भगवान युगीन सिन्धु सभ्यता तक चला जाता है। महावीर ने अपना कर ग्राज से २५०० वर्ष पहले पावा (हि. सं. २३-२४) से निर्वाण लाभ किया था। हम उनकी उस शुद्ध-बुद्ध उक्त तथ्यों के प्रकाश में जैन धर्म के प्रथम तीर्थकर प्रात्मा को नमन करके अपनी श्रद्धाञ्जलि अर्पित करते योगी ऋषभदेव की स्थिति पुरातत्त्वज्ञो के लिए अन्वेषण है। का रुचिकर विषय हो सकती है और उनकी स्थिति 10 स्पष्ट होने पर श्रमण परम्परा के उद्गम पर भी प्रकाश अधिष्ठाता-स्याद्वाद महाविद्यालय, पड़ सकता है। श्री मद्भागवत् में जो 'वासरगनानांपा. बी-३१८०, भदैनी, वाराणसी

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