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तीर्थकर महावीर तथा महात्मा बुद्ध : व्यक्तिगत सम्पर्क
डा० भागचन्द्र जैन
भगवान महावीर और महात्मा बुद्ध ई० पू० पांचवीं- ने लोकधर्म का रूप ले लिया था। छठी शताब्दी के उत्क्रान्तिकारी व्यक्तित्व थे। उन्होंने जैसा हम जानते है, पावनाय का धर्म चातुर्माम था। तत्कालीन सामाजिक तत्त्वों की प्रसुप्त चेतना को जागृत इसका उल्लेख जैन और बौद्ध दोनों प्रागम साहित्य में करने का और सर्वसाधारण व्यक्ति की समस्याओं का मौलिक पर्याप्त हया है। जैन आगमों में पार्श्वनाथ परम्परानुपाकर उनका अपने-अपने ढंग से समाधान प्रस्तत यागियों को पासस्य Tar पाsala Fटा या मोर
यायियों को पासत्य अथवा पाश्र्वापत्य कहा गया हैं और करने का यथाशक्य प्रयत्न किया था। अमीर-गरीब और बताया
वहां यह निर्देश है कि साधुनों को इनका सहवास नहीं ऊँच-नीच के बीच की खाई को पाटने में सर्वाधिक प्रयत्न
करना चाहिएकरने वाले ये दोनों ही महापुरुष थे। सर्वोदय को अनुपम
पासत्यो सपण कुशील संथवो ण किर वट्टती काऊं। अजस्र धारा में समाजवाद का शुद्ध और सही चिन्तन
साधुगणानां पार्वे तिष्ठन्तीति पावस्था: तथा संयमा. इन्हीं की मानसिक चेतना का परिणाम है ।
नुष्ठानेऽवसीदन्ति इत्यवसन्नाः तथा कुत्सितं शील येषां ते दोनों ही महापुरुष एक ही क्षेत्र और एक ही काल कुशीलाः एतैः पावस्थादिभिः सह संस्तवः परिचयः सहमें समान रूप से विहार करते रहे। कुछ समय समान संवासरूपो म किल यतीनां वर्तते कर्तृ मिति । परम्परा का अनुगमन भी किया। परन्तु उनका व्यक्तिगत पाश्र्वापत्यों के प्रति ऐसी धारणा शायद इसलिए रही सम्पर्क कहाँ तक हुमा; यह अभी स्पष्ट नहीं हो सका। होगी कि उस समय तक उनमें शिथिलाचार बढ़ने लगा
करने के लिए आवश्यक है कि हम "व्यक्तिगत था, और इसे दूर करने के लिए ही महावीर ने पञ्च. सम्पर्क" को कुछ विस्तृत अर्थ मे ग्रहण करें। साथ ही
महाव्रतो की स्थापना की। पालि त्रिपिटक इस विकास का उनकी परम्पराओं और विहार-स्थलियों पर काल की
उल्लेख करता है। उदाहरणतः दीर्घनिकाय के सामञ्जदृष्टि से विचार करें।
फल सुत्त में निगण्ठ नातपुत्त को “चातुर्यामसंवर युत्तो" पाश्र्वनाथ-परम्परा:
कहा गया है। याम का तात्पर्य है महाव्रत । यहां तीर्थकर भ. पार्श्वनाथ भ० महावीर से ३५० वर्ष पूर्व काशी महावीर ने प्रथमतः अपनी पूर्व परम्परा का ही अनुगमन के उरगवंशीय नरेश अश्वसेन और वामा के घर अवतरित किया होगा और उसी का ध्यान महात्मा बुद्ध को रहा हुए थे। बालब्रह्मचारी के रूप में समूचा जीवन व्यतीत होगा । इसीलिए चातुर्यामसंवर का सम्बन्ध निगष्ठ नात. कर सौ वर्ष बाद सम्मेदशिखर से उन्होंने निर्वाण प्राप्त पुत्त से रखा गया है। वस्तुतः यह सम्बन्ध पार्श्वनाथ किया। इसी वंश में ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती हुए जिनका उल्लेख परम्परा से होना चाहिए था। एक और भूल यहां हुई। पालि साहित्य में बहुत अधिक प्राता है। इस समय सव्ववारिवारितो, सव्ववारियुतो, सम्ववारिघुतो और सव्वलिच्छवि मोर वज्जिगणों में पार्श्वनाथ द्वारा प्रवेदित धर्म वारिफुटो इन चारों महावतों की परम्परा सही नही है। १. सूत्र कृताङ्ग वृ. १०२ पृ. १७७
थे। इनको जैनागमों मे "पासावञ्चिज्ज" कहा गया उत्तराध्ययन सूत्र के २३वें अध्ययन का केशी है। प्राचारांग में भ. महावीर के माता-पिता को भी गौतम संवाद भी इस बात का निदर्शक है कि महा- पाश्र्वापत्यीय कहा गया है (२१५.१५) । वीर के संघ में पार्श्वनाथ परम्परा के अनुयायी भी २. ठाणांग, पृ.१ टीका