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१६२. वर्ष २८, कि.१
सम्बन्धित है। उनकी संगति किसी के साथ भी बैठाई जा उल्लेख है। इन दोनों अभिलेखों (सुदर्शन झील, परे भाई) सकती है। परन्तु प्रयोदश अभिलेख प्रशोक का है, और के आधार पर यही निष्कर्ष निकलता है कि प्रशो महत्व तथा समयचक्र की दृष्टि से यह उसका प्रथम अभि- उत्तराधिकारी तथा पूर्वज सभी प्रियदर्शी कहलाते थे। लेख ही हो सकता है। प्रत: यह निष्कर्ष निकलता है कि संक्षेप में, सभी मौर्य सम्राटों के लिए प्रियदर्शी का प्रयोग इससे पहले के बारह अभिलेख अशोक के पूर्वजों के ही है। होता था।
भातीय वाङ्मय का अध्ययन करने से ज्ञात होता है प्रियदर्शी
कि अशोक वाटिका में रावण सीता को 'प्रियदर्शने' तथा शङ्का-रूपनाथ प्रादि ग्यारह अभिलेखों के प्राधार
मथुरा में काली कृष्ण और बलदेव को "प्रियदर्शी' पर प्रियदर्शी अशोक का उपनाम है । उपर्युक्त वणित
कह कर सम्बोधित करते है। निमित्त ज्ञानी भी महाराज बारह अभिलेखो में भी प्रियदर्शी का उल्लेख है। अतः ये
सिद्धार्थ से कहते है कि तुम्हारा पुत्र प्रियदर्शी होगा। सभी चतुर्दश अभिलेख अशोक के ही होने चाहिए।
इससे स्पष्ट है कि जिन व्यक्तियों के दर्शन से सुखानुसमाधान - प्रियदर्शी अशोक का उपनाम नहीं है।
भूति होती थी, उन्हे प्रियदर्शी कह कर सम्बोधित किया यदि ऐसा हो तो मास्को और गुर्जरा अभिलेखों में अशोक
जाता था। सम्भव है इसी आधार पर जनता मौर्य सम्राटों के साथ प्रियदर्शी का भी उल्लेख होता । सुदर्शन झील के ।
को प्रियदर्शी कह कर सम्बोधित करती हो । मभिलेख से विदित होता है कि प्रशोक के समय में तुष्प नामक राज कर्मचारी ने इसका जीर्णोद्धार कराया। तत्प- इनके अतिरिक्त और भी बहुत से मौर्यकालीन अभिश्चात यह कार्य प्रियदर्शी द्वारा कराया गया । भाषा- लेख है। इनमें से कुछ अशोक के तथा शेष सम्प्रति विशेषज्ञों के अनुसार अरे भाई अभिलेख चन्द्रगुप्त अथवा के है।
03 विन्दुसार के समय का है और उसमें भी प्रियदर्शी का
(पृष्ठ ५७ का शेष)
कर शक्तिशाली व्यक्ति भी दुःख व संताप के भागी हए। सिद्धान्त का प्रतिपादन हुमा है कि संसार के सभी प्राणियों इस प्रकार के अवगुणों वाले व्यक्तियों के लिए नरक में एक समान ही परमात्मा का चमत्कार है। ज्ञानी मनुष्य निश्चित है। (पृ. २६ प्र.)। जैसा लोग दूसरे की भमि, को किसी की निन्दा अथवा स्तुति नही करनी चाहिए, घन और स्त्री को लेने के लिए परिश्रम करते हैं और उसे सब जीवों में परमेश्वर का एक-सा चमत्कार जानना अपने पराये को मार डालते हैं, वैसा परिश्रम यदि काम, चाहिए (११-२७ प्र०)। किसी को दुःख न दे मोर । कोध, लोभ प्रादि बलवान शत्रु षों को जीतने में करें तो मन, कर्म, बचन से जहां तक बन पड़े परोपकार करता रहे इनका परलोक सुधर जाए । जो मनुष्य सम्पूर्ण जीवों में तथा जब तक प्राणी ब्राह्मण और चाण्डाल के शरीर में श्री नारायण की शक्ति को एक समान देखता है तथा एक ही ईश्वर का प्रकाश नहीं देखता, तब तक वह मज्ञानी काम, क्रोध, लोभ, मोह मादि के वशीभूत होकर किसी बना रहता है । से शत्रुता अथवा मित्रता नहीं रखता, वही मुक्ति पद को प्राप्त होता है। श्रीमद्भागवत में भनेक प्रसंगों में इस . १५६०, नेपियर टाउन, जबलपुर