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महावीर स्वामी : स्मृति के झरोखे मे
श्री शिवकुमार नामदेव, डिण्डोरी (म० प्र०) सम्पूर्ण विश्व को त्याग, अहिमा और सत्य की राह विचार था कि धार्मिक उपदेशकों या संतों की मूर्तियाँ मानव दिखाने वाले कुण्डलपूर के राजकुमार भगवान् महावीर को सत्कार्य की ओर प्रेरित करती है, अतएव उनकी चौबीसवें तीर्थकर के रूप में अवतरित हुए थे। उनकी मूर्तियों को ऐसे धार्मिक स्थान पर स्थापित किया गया, पुण्य जीवनगाथा दीन-हीनों में नवजीवन, असंयमी एव जिस स्थान से महान पुरुषों का सम्बन्ध रहा हो। जैनकामक जीवों मे संयम और निष्ठा पैदा कर देती है। प्रतिमानों में तीर्थकर के अतिरिक्त सभी मूर्तियां गौण जीवन-मरण मुख्य नहीं है । मुख्य है-पावागमन से मुक्ति। समझी जाती है। प्राज जो कुछ हम भोग रहे हैं, वह आज की कमाई नही,
___ भारतीय शिल्पकला मे पात्मजयी भगवान महावीर पूर्व कर्मों का प्रतिफल है, लेकिन भविष्य में क्या होगा वह आज पर निर्भर है। भगवान महावीर की ये शिक्षायें का प्रतिमाय सर्वत्र उपलब्ध होती है। महावीर प्रतिमायें आज मानव को अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानने हेतु पूर्णतः नग्न, नासाग्र दृष्टि और कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़ी प्रेरित कर रही है।
(खड्गासन) या ध्यान मुद्रा में पासीन (पद्मासनस्थ)
होती थी। महावीर बिंबों में यदा-कदा वस्त्रों का कुछ शिल्प दृष्टि
अंश भी प्रदर्शित किया जाता था, जो श्वेताम्बर सम्प्रदाय जैन मूर्तियाँ दो प्रकार की बताई गई है-कृत्रिम एवं
से सम्बन्धित होने का सूचक था। अधिकाश प्रतिमाओं अकृत्रिम । प्रकृत्रिम प्रतिमायें सम्पूर्ण लोकों में फैली हुई
के वक्षस्थल पर श्रीवत्स चिह्नाकित होने के साथ ही साथ है एव कृत्रिम प्रतिमायें मानव निर्मित है। इस कल्प काल में सबसे पहले ऋषभदेव के पुत्र प्रथम सार्वभौम सम्राट
हस्त-तल एवं सिंहासन पर धर्मचक और उष्णीष तथा भरत चक्रवर्ती ने जिन प्रतिमानों की स्थापना की थी।
ऊर्णा के चिह्न भी प्राप्त होते है । साथ ही प्रभावली एवं
दोनो पावों में शासन देवताओं के अतिरिक्त अन्य कई सहाजिस समय ऋषभदेव सर्वज्ञ होकर इस धरातल को पवित्र
यक प्राकृतियाँ भी उत्कीर्ण की जाने लगीं। सिहासन के दोनों करने लगे, उस समय भरत चक्रवर्ती ने तोरणों और
पावों पर सिंह एवं उसके मध्य में उनका विशिष्ट लांछन घंटानों पर जिन प्रतिमायें बनवा कर भगवान का स्मारक
सिंह उत्कीर्ण होता था। उनके कान स्कंधों तक लम्बे और कायम किया था। तत्पश्चात् उन्होंने ही भगवान के
भुजायें घुटनों तक प्रसारित होती थीं। निर्वाण घाम कैलाश पर्वत पर तीथंकरों की चौबीस स्वर्णमयी प्रतिमायें निर्मित कराई थीं।
भगवान महावीर का विशिष्ट लांछन सिंह और जिस भारतीय कला के आधार पर वह निश्चित रूप से कहा वृक्ष के नीचे उन्होंने कैवल्य प्राप्त किया था, वह शाल जा सकता है कि जैन मत में पूजा निमित्त प्रतिमायें प्रत्यंत का वृक्ष है। इनके यक्ष-यक्षिणी क्रमशः मातंग एवं अपरा प्राचीन काल में निर्मित हई।'जैन मतानुयायियो का या सिद्धायिका है । अपराजितपृच्छा एवं वास्तसार में यक्षों १. प्रादिपुराण १-८, जैन सिद्धांत भास्कर, भाग २, किरण ३. जैन मत में मूर्तिपूजा की प्राचीनता एवं विकास : १, सन १९३२, पृ०८।
शिवकुमार नामदेव, भनेकात, मई १९७४ । २. कामता प्रसाद जैन : जैन सिद्धांत भास्कर, भाग २, ४. 'तीर्थङ्कर प्रतिमामों की विशेषतायें' : शिवकुमार किरण १, सन १८३२, पृ०८।
नामदेव, 'श्रमण', फरवरी १६७४, पृ० २४.२६ ।