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१५६, बर्ष २८, कि.१
भनेकान्त
नारायण का एक-सा प्रकाश विद्यमान है। विवेक-दृष्टि संसार से छटने का उपाय : द्वारा उनके कुछ भी भेद न जानकर सभी जीवों में भगवान सांसारिक कष्टों से छटकारा पाने के लिए जैन धर्म का एक-सा स्वरूप समझना चाहिए । जिस प्रकार सूर्य का मनुष्य को अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह प्रकाश सोना, चांदी, लोहा एवं मिट्टी प्रादि के बर्तनों पर महावों
पर महाव्रतों के पूर्ण पालन की प्रावश्यकता बतलाता है । श्रीएक जैसा पड़ता है, उसी तरह सभी जीवों में भगवान का
मद्भागवत में भी इन सभी गुणों की महिमा के बखान एक-सा प्रकाश समझना चाहिए। इसी सिद्धान्त का प्रति
है । इनके विपरीत कार्य करने वाले को जीते जी अनेक पादन एकादश व द्वादश स्कंध में भी हुआ है।
कष्ट व मृत्यु उपरान्त नरक होने की बात कही गई है। मात्मा की पूर्णता :
प्रथम स्कंध, सप्तम अध्याय में प्राततायी के छः लक्षण जैन धर्म के अनुसार प्रत्येक मनुष्य त्याग और शुद्ध
बताये गए है-प्राग लगाना, विष देना, गुरु की प्राज्ञा न भाव से कार्य करके कष्टों से स्थायी छुटकारा पा सकता मानना, ब्राह्मण होकर अधर्म करना, द्विजाति में जन्म ले है, पात्म साक्षात्कार द्वारा पूर्ण बन सकता है तथा परमा- कर मदिरा पान करना, और अन्य प्राणियों को मार कर स्मपद भी प्राप्त कर सकता है। श्रीमद्भागवत के अनुसार, खाना। वहाँ हिंसा को बुरा माना गया है । हिंसा करने जो ज्ञानी मनुष्य सब प्राणियों में एक मात्र भगवान
वाला अज्ञानी बन कर अन्य अपराध भी करता है। राजा त्रिलोकीनाथ को ही प्रकाशित देखता है, उसे ब्रह्मज्ञानी
परीक्षित ने अपने द्वारा समीक ऋषि के गले में मृत सर्प एवं भावागमन से मुक्त जानना चाहिए (२-७ अ.) ।
डालने का कारण यही माना था कि "वन में शिकार खेलते जप, तप एवं ईश्वर का पूजन करने से मनुष्य अनेक हुए जीव हिंसा करने से वह प्रज्ञानी बन गए थे और इसी प्रकार के सुखों को भोगने के पश्चात् मोक्ष-पद को प्राप्त कारण उनसे वह अपराध हुआ।" (१-१८)। जो मनुष्य होता है (१-१७ म०) । योगी सब प्राणियो में ईश्वर का सांसारिक सुख में लिप्त नहीं होते तथा किसी को कष्ट एक बराबर चमत्कार देखता है । श्रीमद्भागवत में अनेक
नहीं पहुंचाते, उन्हें कभी दण्ड नही भोगना पड़ता (३राजामों की कथा वर्णित है, जिन्होंने बद्धावस्था में राज्य- २७) । मनुष्य स्वभाव में काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि भार उत्तराधिकारी को सौंप कर सांसारिक लोभ, मोह व दुर्गुण समय-समय पर अवश्य ही प्रवेश कर जाते है, इसीऐश्वर्य त्याग कर, तपस्या व सत्संग करते हुए निर्वाण पद
लिए इन सबसे मोह त्याग कर केवल हरि-स्मरण करना प्राप्त किया। भगवान् ऋषभदेव जी ने भी ऐसा ही किया । सर्वोत्तम है। (४-११ म०)। साधु-सन्तों की सेवा करना १५-६ प्र०)।
एवं संगति करना मोक्ष का द्वार है और परस्त्री गमन कर्म की प्रधानता :
करना, चोरी, जुआ खेलना, विषयी होना व मदिरा पान
करना नरक का द्वार है, इसमें कुछ भी संदेह नहीं (५-- जैन धर्म के अनुसार जो मनुष्य जैसा आचरण करेगा
४ अ०)। उसे वैसा ही परिणाम भुगतना होगा । कर्मों से छुटकारा पाने पर स्थायी शांति व सुख प्राप्त होता है। श्रीमद्भा- महिंसा महाव्रत : गवत में भी इसी बात का प्रतिपादन है कि जो प्राणी जैन धर्म में अहिंसा को सर्वश्रेष्ठ स्थान है । किसी भी दुष्कर्म करता है उसे नरक की यातना भुगतनी पड़ती है प्राणी को मारना तो दूर, उसे दुःख पहुँचाने के लिए और जो सदाचारी होता है वह मोक्ष प्राप्त करता है । सोचना या सलाह देना भी पाप है । श्रीमद्भागवत में भी नरकों का वर्णन विस्तार से (५-६ ५० व १-१७ अ०) में अहिंसा की महिमा बताई गई है । एक भीलों के राजा किया गया है कि संसार मे समस्त जीव अपने-अपने पापों ने जब भद्रकाली के समक्ष अपनी पूर्व मनौती के अनुसार (दुष्कमों) के कारण दुःख पाते हैं। जब तक प्राणी इस एक ब्राह्मण की बलि चढ़ानी चाही तो भद्रकाली ने राजा संसार से विरक्त नहीं होता, तब तक वह जन्म-मरण से की तलवार छुड़ा कर उसी से राजा व उसके पुरोहित का मुक्त नहीं हो पाता (८-२४ म०)।
सिर काट लिया (५-६ प्र०) । जो कोई किसी मनुष्य