Book Title: Anekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 162
________________ भागवतपुराण और जैन धर्म १५७ व पशु-पक्षी को अपने भोजन के लिये या शत्रता से मारता श्रीमदभागवत में भी इसे बड़ा महत्व दिया गया है। परहै, उसे यमदूत महारौरव नरक में डाल देते है। जो कोई स्त्रीगमन या पराये पुरुष से अनैतिक सम्बन्ध बड़ा पाप हिरण व पक्षी आदि को बांध रखता है, उसे कुम्भी पाक है। ब्रह्मचर्य की महिमा पापों को नष्ट करने के लिए एक नरक होता है (५-२६ अ.)। देवी-देवताओं के नाम अावश्यक गुण के रूप में मानी गई है । व्रत के समय ब्रह्मसे अपने भोजन के लिए जीव हिंसा करने वाला भी नरक- चर्य का विशेष महत्व दर्शाया गया है। गामी होता है। सब धर्मो से उत्तम धर्म यह है कि मन, अपरिग्रह महावत: वचन, कर्म से किसी का अनिष्ट न करे (७-१५ प्र०) धन का परित्याग सांसारिक झगडों से मुक्ति पाने के जो मनुष्य अपने शरीर को पुष्ट करने के लिए जीव हिंसा लिए आवश्यक है। तृष्णा रखने से धर्म नहीं रहता और करते है, वे अवश्य ही नरक के भागी होते है (११- लज्जा छुट जाती है। धर्मात्मा व्यक्ति के लक्षणों में बताया २१ अ०)। गया है कि वह सत्यवादी हो, हृदय में दया रखे व दीनसत्य महावत : दुखियों का दुख हरण करने का यथाशस्ति प्रयत्न करे, दान हित, मित और प्रिय वचन बोलना ही सत्य बोलना दे और लालच का त्याग करे तथा जीव हिंसा न करे। है, जिसका जैन धर्म में विशेष महत्व है। श्रीमद्भागवत धन प्राप्त होने पर दान एवं पुण्य करना ही उत्तम है। के अनुसार, जो कोई किसी से द्रव्य लेकर झूठा न्याय जो लोभी मनुष्य धन संचय करके मर जाते है, उनको करता है, अथवा झूठी गवाही देता है, वह "विश्वासन" यमपुरी में चोरों में समान दंड भोगना पड़ता है। इन्द्रनामक नरक का भागी होता है (५-२६ अ.)। पापों पुरी "अमरावती" का वर्णन करते हुए कहा गया है कि को नष्ट करने के लिए ब्रह्मचर्य व्रत रख कर श्रेष्ठ धर्म वहां कामी, क्रोधी, लोभी तथा अहंकारी और केवल अपने तथा तपस्या करना, इन्द्रियों को अपने वशीभत रखना. शरीर का पालन करने की इच्छा रखने वाले प्राणी नहीं मन को सांसारिक मायाजाल से विरक्त रखना, सत्य पहुंच सकते । लालच करके अधिक दान लेना उचित नहीं बोलना, मन, वचन व कर्म से किसी का अनिष्ट न करना, होता । संतोष ही परम घन है । त्याग की महिमा का परोपकार में तत्पर रहना तथा किसी भी प्राणी को कष्ट वर्णन एकादश स्कंध के पाठवें मोर नौवें अध्याय में भी न पहुँचाना, ये सभी प्रयत्न आवश्यक है (६-१२ प्र.)। मिलता है। तृष्णा और क्रोष ही समस्त जीवों से प्रशुभ भगवान् ने अपने अनेक रूपों का वर्णन करते हए उद्धव कार्य कराते है । धन एकत्रित करने से दुःख के अतिरिक्त से कहा था कि सत्य वक्तायों में सत्य वही है। मुख नहीं मिलता। प्रचौर्य महावत: अनेकान्तवाद: चोरी करने से मनुष्य का व्यक्तिगत एवं सामाजिक धामिक विचारधारा को निश्चय तथा व्यवहार दोनों जीवन कलुषित हो जाता है, ऐसा जैन धर्म का मत है। दष्टियों से परिष्कृत करने में जैन धर्म विशेष सफल रहा। श्रीमद्भागवत में भी चोरी अत्यन्त बुरा कुकर्म माना सदाचार केवल बातोंही भरसे नहीं बल्कि मनसा, वाचा और गया है। स्वामी से बिना पूछे किसी भी वस्तु का लेना कर्मणा तीनों प्रकार से प्रतिपादित होने पर ही वास्तविक चोरी है। जो मनुष्य दूसरे का धन एवं स्त्री छल-बल कर कहा जा सकता है। जैन धर्म में मांसाहार. मदिरापान. ले लेता है वह "तामिस्र" नरक को जाता है । जो कोई व्यभिचार, शिकार, चोरी, धूतकर्म, प्रशुद्ध भोजन व पान किसी ब्राह्मण का धन ब खेत चोरी से या जबरदस्ती ले इत्यादि त्याज्य व्यसन माने गये हैं और इन्हें त्यागे बिना लेता है वह "सन्देदशन" नामक नरक का भागी होता कोई सच्चा जैन नहीं हो सकता । इन सभी व्यसनों को है (५-२६ म०)। श्रीमद्भागवत पुराण में भी निषिद्ध करार दिया गया है। ब्रह्मचर्य महाव्रत : अनेक कथानक ऐसे हैं जिनमें इन व्यसनों के वशीभूत हो जैन धर्म में ब्रह्मचर्य महाव्रत का बड़ा महत्व है। (शेष पृष्ठ १६२ पर)

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