Book Title: Anekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 159
________________ १५४ वर्ष २० कि० १ यशोविजयजी ने दिक्पट चौरासी बोल' पं० हेमराजजी के 'सितपट चौरासी बोल' का खण्डन करने के लिए लिखी थी। इनके विषय में प० सुखलाल जी का यह अभिमत है कि उपाध्याय जी पक्के जंन और धुरंधर पडित थे । यह ठीक ही प्रतीत होता है क्योंकि उन्होंने 'अध्यात्म मत खण्डन' मे तार्किक खण्डन- मण्डन का श्राश्रय लिया है । 'दिवपट चौरासी बोल' की उन्नीसवी शताब्दी की लिखी हुई एक हस्तलिखित प्रति अभय जैन ग्रंथालय, बीकानेर में उपलब्ध है। इसमे १६१ पद्म है । इनकी 'साम्य शतक" नामक रचना में १०५ पद्य है । यह ग्रन्थ श्री विजयसिंह सूरि के 'साम्य शतक' के आधार पर मुनि हेम विजय के लिए लिखा गया था। कविवर के दूहा नामक ग्रन्थ में १०४ दोहों मे समाधितन्त्र का पद्यानु वाद है तथा 'नवनिधान स्तवन' मे नो स्तवन है । यशोविजय की रचना 'जसविलास', 'सज्झाय पद घने स्तवन सग्रह' नाम के पद-संग्रह में छपी है। इसमें ७५ मुक्तक पद है जो सभी जिनेन्द्र की भक्ति से सम्बन्धित हैं। इनके अतिरिक्त भी कविवर के अनेक पद विभिन्न शास्त्र भंडारों में उपलब्ध होते है यशोविजय के पदो मे भावनाएं तीव्र और प्रावेशमयी हैं भोर सगीतात्मक प्रवाह के साथ अवतरित हुई है । भाषा में लाक्षणिक वैचित्र्य न हो कर सरसता और सरलता है। पदो में प्रधानतया आध्यात्मिक भावों की अभिव्यंजना है। अपने धाराध्य के प्रति प्रगाढ़ बढ़ा मौर भक्ति की भावना यशोविजय में तीव्र रूप में पाई जाती है। इनके अनेक पदो मे बौद्धिक शान्ति के स्थान पर प्राध्यात्मिक शान्ति की भावना दृष्टिगोचर होती है । प्राध्यात्मिक विश्वासों और प्रास्थानों की भाव भूमि पर मानव आत्मानन्द मे कितना विभोर हो जाता है, यह इस पद मे दर्शनीय है :-- अनेकान्त प्रभु गुन अनुभव चन्द्रहास ज्यों, सो तो न रहे म्यान में । चम्पक 'जस' कहे मोह महा हरि, जीत लियो मैदान में ||हम० ॥६॥ यशोविजय जी के पदो की भाषा अत्यन्त सरल है। इनके पदों में सारमनिष्ठा और वैयक्तिक भावना भी विद्य मान है। इनके पदो मे भक्ति और अध्यात्म का स्रोत बड़े निर्मल रूप में प्रवाहित हुआ है। इसी प्राशय का इनका एक पद इस प्रकार है--- हम मगन भये प्रभू ध्यान में || टेक || बिसर गई दुविधा तन मन की प्रचिरा-सुत-गुनगान में ॥० ॥२॥ हरि-हर-ब्रह्म- पुरन्दर को रिषि, भावत नहिं कोउ भान में । चिदानंद की मौज मची है. समता रस के पान में X X X ।।म० ॥२॥ X १. राजस्थान में हिन्दी के हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज, भाग ४, उदयपुर, सन् १९५४, पृष्ठ १३६ । परम प्रभु सब जन सबदं घ्यावं । जब लग अन्तर भरम न भाजै, तब लग कोउ न पायें ||परम० ॥१॥ सकल अंस देखें जग जोगो, जो खिनु समता प्राये । ममता अंध न देखें याको, चित चहूँ पोरं ध्यावे |परम० ॥२॥ पढ़त पुराण वेद र गीता, मूरख अर्थ न पर्व इत उत फिरत गहत रस नाहीं, ज्यों पशु चरवित चार्व || परम० ||३|| 1 पुद्गल धापू छिपाये भ्रम कहाँ भागी जाये || परम० ॥४॥ पुद्गल से न्यारो प्रभु मेरो उनसे अन्तर नाहि हमारे यशोविजय के सभी पदों में ग्रात्मानन्द की मस्ती झलकती है तथा सभी में भक्ति, ज्ञान और अध्यात्म की पुट दृष्टिगोचर होती है, जो कि इन पदो से स्पष्ट हैचिदानन्द अविनासी हो, मेरो चिदानन्द अविनासी हो । कोरि मरोरि करम की मेट, सुजस सुभाव विलासी हो ॥ X X X X तथा चेतन जो तूं ज्ञान अभ्यासी 1 श्रापही बांधे प्रापही छोड़े, निजमति शक्ति विकासी || १ || X X X X एव चेतन अव मोहि दर्शन दीजं । तुम दर्शनं शिव सुख पाइ तुम दर्शने भव छीजे ||१|| X ― X X X इनके पद सोरठा, धनाधी (आशावरी), काफी, जगलो आदि रागों में मिलते है। पद पूर्णतया गेय है। भाषा पर कहीं कही गुजराती एवं राजस्थानी का प्रभाव परिलक्षित होता है । OO ३, राम नगर, नई दिल्ली-५५ , २. राजस्थान में हिन्दी के हस्तलिखित प्रथो की खोज, भाग ४, उदयपुर, सन् १९५४ ।

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