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मगध और जैन संस्कृति
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उन्होंने अपना धर्म-चक्र प्रवर्तन गया से चलकर वाराणसी के प्रारमण ने (१२वी शती ई० के लगभग) इस प्रदेश के निकट सारनाथ में किया। उन्होने अपने उपदेशो की में बौद्धो को नामशेष कर दिया। भाषा प्राकृत का पानि रूप रखा जिसे श्रावस्त भाषा परन्तु जैनो ने, अपनी पुण्यभमि मगध को कभी (उत्तरी कोसल की राजधानी श्रावस्ती की भाषा ) भा विस्मत नही किया । उसका चप्पा-चप्पा जैनों के सांस्कृकहा जाता है। उनका स्वय का प्रभाव-क्षेत्र भी मगध तिक इतिहास से रगा है। राजगह, पंच पहाड़ी, पावापुर, विदेह मादि प्राच्य देशो की अपेक्षा मध्यदेश अधिक रहा। ...
नालन्दा (बड़ागाव), गया, गोरथगिरि, (चराचर पर्वत) वही मल्ल भूमि के कुशिनगर मे इनका परिनिर्वाण हुआ। जभिकग्राम, काकदी, भद्दिव, गुणावा, नवादा, बिहार इसके विपरीत. तीर्थकर महावीर की द्वादशवीय साधना शरीफ). सम्मेदशिखर. पाटलिपत्र (पटना) मरमार. का अधिकांश मगध मे ही व्यतीत हुआ । यही उन्हें केवल- नगर (मसाद), पचार पहाड़, श्रावक पर्वत, चौसा, आरा ज्ञान की सम्प्राप्ति हुई। यहो उनका धर्मचक्र प्रवर्तन
प्रादि अनेकों स्थानों में प्राचीन एवं मध्यकालीन जैन पुराहया। इसी प्रदेश में तीस वर्षीय तीर्थकरत्व काल का तत्त्वावशेष, जिन मूर्तियों, पवित्र स्मारक प्रादि प्राप्त है। बहु भाग बीता और यही उन्होंने निर्वाण लाभ किया।
इनमे अधिकांश स्थल तीर्थक्षेत्रों के रूप में पूज्यनीय है। उनके उपदेशो की भाषा भी मागधी का वह अर्धमागधी
भारतवर्ष के कोने कोने से प्रतिवर्ष सहस्रो जैन यात्री रूप था जिसे अन्य पास-पास के प्रदेश की बोलियो के
मगध के इन पवित्र तीर्थ-स्थानो की यात्रा के लिए चिरसमचित मिश्रण के कारण एक अति विस्तृत भूभाग एव
काल से आते रहे है। जन समुदाय को लोकभाषा का स्थान प्राप्त हुआ।
सक्षेप मे, मगध देश का जैन धर्म और जैन संस्कृति जैन धर्म एवं मगध .
के साथ अत्यन्त चिरकालीन, अटुट एवं घनिष्ट सम्बन्ध मगध के शिशनागवंशी ( बिबिसार, अजातशत्रु, रहता आया है। एक से पृथक् करके दूसरे के विषय में उदायी आदि) शिशुनाग नदिवर्द्धन, महानन्दी आदि, नंद- सोचा-समझा ही नही जा सकता। वशी और मौर्यवनी सम्राट जी सभी व्रात्य क्षत्रिय थे, मगध का अस्तित्व और इतिहास उसकी मागध महावीर के धर्म के अनुयायी एव प्रबल पोषक रहे । उनके संस्कृति, श्रमण परम्परा और जैनधर्म के अस्तित्व एव अभयकुमार, वर्धकार, शकटार, राक्षस और चाणक्य आदि इतिहास के अभिन्न अंग है; उन दोनों के प्रभ्युदय अथवा महामन्त्री भी मगध निवासी तथा जैन धर्म के अनुयायी उत्थान और पतन भी अन्योन्याश्रय रहे है। मगध ने थे। अशोक मौर्य के समय में श्रमण परम्परा के ही बौद्ध यदि जैनधर्म को पोषण दिया और उसे उसका वर्तमान सम्प्रदाय का प्रचार बढ़ा तो मगध के सिंहासन पर अशोक ऐतिहासिक रूप दिया तो जैनधर्म ने भी मगध का सर्वतो. के उत्तराधिकारी दशरथ से आजीविक सम्प्रदाय का मखी उत्कर्ष-साधन किया और उसे विश्व-विश्रत बना विशेष प्रश्रय मिला। सेनापति पुष्पमित्र शंग ने अपने दिया। स्वामी अंतिम मौर्य नरेश का वध करके मगध का सिहा
सहायक संदर्भ सूची सन हस्तगत करके ब्राह्मण धर्म के पुनरुद्धार का प्रयत्न (प्रयोजन भूत प्राचीन जैन, ब्राह्मणीय एव बौद्ध ग्रंथों किया और श्रमणों पर अत्याचार किया, तो जैन सम्राट् अतिरिक्त) कलिग-चक्रवर्ती महामेघवाहन खारवेल का उसे कोपभाजन कामता प्रसाद जैन-दी रिलीजन प्राव तीर्थराज बनना पड़ा। इसके पश्चात् मगध में सामान्यतया सभी
(एटा, १९६४) श्रमण सम्प्रदायों को और विशेषकर जैनधर्म को फिर कृष्ण दत्त वाजपेयी---दी ज्योमिटिकल इनसाइक्लोपीडिया कभी राज्याश्रय प्राप्त नही हुमा । पूर्वमध्य काल में पाल
प्राव एशेंट ऐंड मेडिवल इंडिया, वंशी नरेशो के समय में बौद्धधर्म को पुन: प्रभूत प्रोत्सा
(वाराणसी, १६५२ ) हन मिला, किन्तु उनके उपरान्त ही, विशेषकर मुसलमानो
(शेष पृ० १३२ पर