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तीर्थकरों शासन-देव पोर देवियां
प्रर्थात् ये भक्ति से मंयुक्त चौबीस यक्ष ऋषिमादक करने में परम्परागत मान्यता का भाषार प्राप्त हुआ तीर्थकरों के निकट रहते हैं।
होगा। ___ यह विधान जिस परिप्रेक्ष्य में किया गया है. वह जैन शास्त्रों में शासन देवताओं के मूति-निर्माण का विशेष ध्यान देने योग्य है। तीर्थकरो के समवसरण का स्पष्ट उल्लेख प्राप्त होने और ईसा की प्रारम्भिक शताविस्तृत वर्णन करने के बाद ग्रन्थकार ने बताया है कि २४ ब्दियों की यक्ष-यक्षी मूर्तिया उपलब्ध होने पर भी यक्षयक्ष और २४ यक्षियां भक्तिसंयुक्त हो तीर्थक्री के यक्षियों की जैन मान्यता के सम्बन्ध में कुछ विद्वानों को निकट रहते है । जिनालय समवसरण के प्रतीक होते है। भ्रम है, ऐसा प्रतीत होता है । सुप्रसिद्ध विद्वान् श्री यू. पी. जब समवसरण में प्रत्येक तीर्थकर के निकट एक यक्ष और शाह का अभिमत है कि ईसा की नौवीं शताब्दी में जैनएक यक्षी रहते है तो जिनालय में तीर्थकर मति के साथ प्रतिमा शिल्प में शामन देवताओं का प्रवेश हुमा । इससे भी यक्ष-यक्षी रहे यह तर्कसगत बात है। इसी को प्राधार एक शताब्दी पूर्व, पर्थात् पाठवीं शताब्दी में जैन साहित्य मानकर प्रतिष्ठापाठों के रचयिता प्राचार्यों और विद्वानो में शासन देवतानों का समुल्लेख प्रारम्भ हुमा । "तिलोय. ने तीर्थकर-मति के साथ यक्ष-यक्षी की मति बनाना प्राव. पण्णत्ती" में दी गई यक्ष-यक्षियों की सूची के सम्बन्ध में श्यक बताया, ऐसा प्रतीत होता है।
श्री शाह का मत है कि वह अंश पश्चात्काल में जोड़ा गया शासन देवता-मति मां और उनका निर्माण-काल : जन है। प्रतिमा-शिल्प में शासन देवताओं का प्रवेश किस काल में श्री शाह ने 'तिलोयपण्णत्तो' के यक्ष यक्षी सम्बन्धी हुअा, यह एक महत्त्वपूर्ण विचारणीय प्रश्न है। हमारे उल्लेख को प्रक्षिप्त अंश माना है। उसका क्या प्राधार है, विनम्र मत में शासन देवतामों के रूप में यक्ष-यक्षियों ने यह हम नही समझ सके। ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी अथवा ईसा की प्रथम शताब्दी में श्री शाह का यह मत भी कि नौवी शताब्दी में जैन ही जैन प्रतिमा-शिल्प में अपना उचित स्थान बना लिया प्रतिमा शिल्प में शासन देवतापों का प्रवेश हुमा, अधिक था। इससे पूर्ववर्ती काल में उन्हें तीर्थडगें के सेवक के तर्क संगत प्रतीत नहीं होता, क्योंकि शासन देवतामों की रूप में तो मान्यता प्राप्त रही, किन्तु शासन देवताओं के अनेक मूर्तियाँ इससे पूर्व काल की प्राप्त होती हैं। रूप में उन्होंने ईसा की प्रथम शताब्दी के पास-पास ही उदयगिरि (उड़ीसा) की नवमुनि गुम्फा और बारह स्थान ग्रहण किया। साहित्य में तो उन्हें पांचवीं शताब्दी भजी गम्फा में भित्तियों पर तीर्थकर मूर्तियाँ, उनके चिह्न में सर्व प्रथम स्थान मिला। प्राचार्य यतिवृषभ ने 'तिलो. और उनके अधोभाग में उनकी शासन देवियों बनी हुई यपण्णत्ती' में तीर्थडुरों के निकट यक्ष-यक्षी के रहने का है। बारहभुजी गुम्फा में महावीर की यक्षा सिद्धाय विधान करके यक्ष-यक्षी की परम्परागत मान्यता को साहि- षोडशभुजी है तथा इसी गुम्फा में चक्रश्वरा दवा का त्यिक समर्थन प्रदान किया । इसके पश्चात् तो अनेक मूर्तियां बारहमुजी हैं । उनके ऊपर प्रादिनाथ तीर्थङ्कर प्राचार्यों ने इस बात की पुष्टि की तथा यक्ष-यक्षियों का की मूर्तियाँ हैं । पार्वनाथ मूर्ति के नीचे पद्मावती की जो सविस्तार रूप-निर्धारण किया। इस रूप-निर्धारण में मति है, उसके सिर पर सप्तफण-मण्डप बना हुआ है । उनका रूप, प्रायुध, वाहन, मुद्रा, प्रासन, प्रलंकार मादि खण्डगिरि के ऊपर बने हुये माधुनिक मन्दिर में कुछ सम्मिलत हैं । लोक-व्यवहार में भी परम्परा-प्रचलन के प्राचीन मूर्तियां रखी हुई हैं। कहा जाता है कि ये मूर्तियाँ पश्चात् ही नियम और विधान निर्मित किये जाते हैं, देवसमा (उपर्युक्त मन्दिर के पीछे भग्न जिनालय) से जिससे परम्परा में एकरूपता और अनुशासन रखा जा लाकर यहां विराजमान की गई थीं। यह ध्वस्त जिनालय सके । किन्तु इन नियम-विधानों मे परम्परा प्राचीन होती सम्राट खारवेल द्वारा निर्मित बताया जाता है । सम्भवतः है । परम्परा का भी कोई प्राधार होता है । लगता है कि यह वही मन्दिर है जिसका उल्लेख हाथी-गुम्फा शिलाशासन-देवताओं को तीर्थर-मतियों के साथ स्थान प्राप्त मेख में हुमा है, जिसका निर्माण बारवेल ने अपनी दिग्वि