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१५०, वर्ष २८, कि०१
अनेकान्त
विदेह-जनपद का कुण्डग्राम महावीर के प्राविर्भाव से इतना
लोक-कल्याण के लिए सर्वस्व-त्याग पावन एवं गरिमामयी हो गया कि मनीषी उमकी वरीयता जैसे-जैसे अवस्था बढ़ती गई, महावीर की सांसा. का वर्णन करते नहीं अघाते। हरिवशपुराण मे तो म्वर्ग से रिक वैभव विलाग की पोर अरुचि परिलक्षित होती रही। इसकी तुलना की गई है, यथा
त्याग का अकर उनके अतस् में उभरने लगा । माताअथ देशोस्ति विस्तारी जम्बूद्वीपस्य भारते। पिता तथा भाई नन्दिवर्द्धन इसे भांप कर उन्हे सांसारिविदेह इति विख्यातः स्वर्गखण्डसमः श्रिय ।
कता में रिझाना चाहते थे, किन्तु उनके सारे प्रयास विफल तत्राखण्डनेत्राली पद्मिनी खण्डमण्डनम् । रहे। महाबीर तो मानवता के कल्याण के लिए आये थे. सुखाम्भकुण्ड माभाति नाम्ना कुण्डपुर पुरम् ॥ प्रत ३० वर्ष की भरी जवानी में उन्होंने अपने अपर मुख,
अर्थात स्वगिक समृद्धि को भी मात देने वाला विदेह धन-दौलत और राज-पाट की ठोकर मार कर श्रमण दीक्षा जनपद का कुण्डग्राम कितना गौरवशाली है जहाँ २४वें को ग्रहण कर लिया। उन्होंने स्पष्ट कहातीर्थकर वर्द्धमान महावीर का शुभ प्राविर्भाव हुआ।
"सव्वं में प्रकरणिज्ज पाप कम्म" ये उद्धरण विशेष रूप से इसलिए देने पड़े है कि कुछ
अर्थात् प्राज से सभी पाप कर्म प्रकरणीय होगे।
तथालोगों के उलट-फेर से महावीर का जन्मस्थान कुण्डपुर
"करेमि सामाइयं सव्व सावज्ज जोगं पच्चक्खामि" (लिछपाड़), अंग जनपद मे दीर्घकाल तक माना जाता रहा
समस्त सावदाकर्मों का तीन करण और तोन योग में है। प्राज की ऐतिहासिक कसौटी पर यह गलत सिद्ध
त्याग करता हूं। महावीर ने अत्यधिक साधनामय जीवन हमा है। अब निर्विवाद रूप से वैशाली के पास वासुकुण्ड
बिताना प्रारम्भ कर दिया । ही उनका जन्म-स्थान माना जाता है, जहाँ डा. राजेन्द्र
साधनामय जीवन प्रसाद द्वारा एक शिलालेख लगाया हुआ है। इस स्थान
न प्रीतिमदगदेवासः स्थंय प्रति मया सह । को स्वयं मैंने देखा है। इन समस्त स्थानों की परख के
न गहिविनय कार्यों, मौन पाणौ च भोजनम् ।' बाद भी शोध अपेक्षित है।
अर्थात् अप्रीतिकारक स्थानो पर कभी नहीं रहूगा । बाल्यकाल की उपलब्धियाँ
सदा ध्यानस्थ रहकर मौन रहँगा। हाथ में ही भोजन राजा सिद्धार्थ की धर्म-पत्नी त्रिशला की कोख मे करूँगा तथा गहस्थों का विनय नही कहोगा । 'प्राचाराङ्ग पाते ही असीम समृद्धि उमड़ने लगी। अतः राजा ने पंदा सूत्र' के अनुसार उन्होने कभी भी पर-पात्र मे भोजन नह। होते ही तदनुरूप उस बालक का नाम समृद्धि सूचक वर्द्ध- किया। महावीर ने कठोरतम साधना की। उनके कानों मान रख दिया, यथा
मे कास ठमी गई, कुत्तों से कटवाया गया, गावों मे धूल तदूगर्भतः प्रतिदिनं स्वकुलस्य लकमी। फेकी गई, अनेक देवों ने प्रसहनीय वेदनाएँ दी, किन्तु दृष्ट्वा मुदा विषुकलामिव बर्द्धमानम् ॥
महावीर विचलित नही हुए। महीनों-महीनो वे बिना साधं सुरभंगवतो दशमेहि तस्य । खाये रह जाते. यहाँ तक कि पानी का भी त्याग कर देते, श्रीवर्द्धमान् इति नाम चकार राजा।।' पर ध्यानस्थ वे कंटकाकीर्ण पथ से विचलित नही हुए।
असाधारण प्रतिमा-सम्पन्न वर्द्धमान की बौद्धिक वरी- पूरे १२ वर्ष ६ मास १५ दिन की तपस्या में महावीर यता जहाँ सब को मोह लेती, वहीं कोड़ा में रत, संगम- ने केवल ३५० दिन (पारणा के) भोजन किया तथा देव द्वारा परीक्षा ली जाने पर उनके साहस, वीरता, प्रादि शेप दिन निर्जल उपवास में व्यतीत किये। धनघोर के कारण उन्हें 'वीर' और 'महावीर' की महत्ता से सम. साधना मे उन्होंने शरीर को तपा डाला। अन्ततः वैशाख लंकृत किया गया। अब वे वर्द्धमान से महावीर हो गये। शुक्ला दशमी के दिन जम्भिका ग्राम में ऋजुवालुका नदी १. हरिवंशपुराण, सर्ग २.
१ कल्पसूत्र सुवो. पृ० २८८. १. बर्द्धमानचरित, १७।६१.
२. प्राचाराङ्ग १६१, गाथा १६.