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१२४, वर्ष २८, कि०१
अनेकान्त
मुखिया थी, और उसके अभयकुमार, वारिपेण, मेघकुमार नैतिक प्रतिद्वन्द्वी था और अन्तत. कृष्ण के छल-बल का प्रादि दस पुत्र उनके परम शिष्य थे और दीक्षित होकर उसे शिकार होना पड़ा। महाभारतोत्तर काल में वैदिक मुनि बने थे । प्रधान गणधर गौतम की निर्वाण भूमि धर्म एव संस्कृति का तथा वैदिक प्रार्य क्षत्रियो की राज्यगुणावा (मतान्तर से विपूलगिरि) भी मगध में ही थी। सत्ता एव संख्या में द्रत वेग से हास हा, तो श्रमण धर्म उनकी शिष्य परम्परा में लगभग दो सौ वर्ष पर्यन्त जितने पुनरुत्थान-पान्दोलन ने अभतपूर्व बल पकड़ा और नाग संघाचार्य हुए, वे प्राय सभी मगध निवासी थे । भगवान प्रभति अनेक प्रागार्य एवं अनार्य किन्तु देशज सत्ताएं पूरे की द्वादशागवासी (जैन श्रुतागम) की वांचना के लिए देश में यत्र-तत्र उभर उठी । अन्तिम पौराणिक चक्रवर्ती प्रथम सगीति भी मगध की राजधानी पाटलिपुत्र मे ही ब्रह्मदत्त भी इसी जाति का था, और तेइसवें तीर्थकर हुई थी। ऋषभादि महावीर पर्यन्त प्रायः चौबीसों ही पार्श्व का जन्म भी काशी के एक नाग क्षत्रिय या उरग तीर्थकरो का तथा उपरातकाल मे भी चिरकाल पर्यन्त वश मे हुआ था। उनके समय में उक्त आन्दोलन अपने जैन श्रमणो का इस प्रदेश में सतत बिहार होते रहने से चरम शिखर पर था और मगध देश उनका प्रिय बिहार ही वह बिहार नाम से प्रसिद्ध हुआ।
क्षेत्र था। उनके निर्वाण (ईसा पूर्व ७७७) के लगभग डेढ़
सौ वर्ष उपरात श्रमण परम्परा में यह विश्वास वल पकड़ मगध में श्रमण-वैदिक-संघर्ष :
रहा था कि अन्तिम तीर्थकर का उदय होने वाला है। पूर्व काल के प्रसिद्ध नरेश वसु और जरासघ के जैनसाहित्य मे विस्तृत विवरण प्राप्त होते है जिनका ब्रह्मणीय विविध श्रमण-सम्प्रदायों का उदय : विवरणो के साथ स्थूलतः अद्भुत सादृश्य है । वसु मूलतः फलस्वरूप ईसा पूर्व छठी शती में श्रमण परम्परा में अहिंसा धर्म का अनुयायी था, परन्तु अपने सहाध्यायी उत्पन्न अनेक चिन्तको ने उक्त प्रतिम तीर्थकर होने का नारद के विपक्ष मे दूसरे सहाध्यायपर्वत का पक्ष लेकर दावा किया। उनमे मक्खलिगोसाल, पूरणकास्सप, पकुभ याज्ञिक हिसा का समर्थन करने के कारण पतन को प्राप्त कच्चायन, अजित केशकम्बलिन, संजय बेलट्ठि पुत्र, शाक्य हा था । यह इस प्रान्त मे वैदिक प्रभाव के प्रथम प्रवेश पुत्र गौतम गुद्ध पोर निग्रंथ ज्ञातपुर (निगट नातपुत्त) का सकेत था । इस घटना के समय मगध के तीर्थकर वर्द्धमान महावीर के नाम तो प्राप्त ही होते है। ये सब मुनिसुव्रत के निर्वाण को पर्याप्त समय बीत चुका था । मगध अथवा उसके निकटवर्ती प्रदेशों के निवासी थे और अगले तीर्थकर मिथिला के नमिनाथ विदेह के जनकों के यह प्राचीन देश ही उनका प्रधान कार्यक्षेत्र था। इतना ही पूर्वज थे । उनके अहिसा प्रधान आध्यात्मिक उपदेशों के नही स्वय ब्राह्मण परपरा के सांख्य-दर्शन प्रणेता कपिलप्रभाव के फलस्वरूप इस प्रान्त मे वैदिक धर्म के प्रभाव मे मुनि और योगदर्शन के पुरस्कर्ता पतजलि ऋषि भी मगधप्राये क्षत्रिय मनीषियो ने याज्ञिक हिसा एवं वैदिक कर्म- वासी ही रहे बताए जाते है-ये दोनों दर्शन श्रमणकाण्ड का विरोध किया तथा प्रौपनिषदिक प्रात्मविद्या का विचारधारा से प्रभावित भी रहे प्रतीत होते है । मक्खलिविकास एवं प्रचार किया । अगले तीर्थकर अरिष्टनेमि गोसाल का प्राजीविक सम्प्रदाय लगभग डेढ़ सहस्र वर्ष महाभारत काल में हुए और नारायण कृष्ण के ताऊजात भाई पर्यन्त जीवित रहकर जैन-परम्परा में ही समाविष्ट हो थे । श्रमण धर्म पुनरुत्थान-पान्दोलन के वह प्रस्तोता थे। गया । बौद्ध धर्म के अतिरिक्त अन्य सम्प्रदाय अल्प-स्थायी इसी समय मगध का प्रबल प्रतापी नरेश प्रतिनारायण रहे । वौद्धधर्म ने भारत देश की सीमाओं के बाहर पहुंचजरासंध हुआ, जिसके पातक से त्रस्त होकर भी यादवगण कर अद्भुत विस्तार प्राप्त किया । बुद्ध का जन्म मगध अपने शरसेन देश का परित्याग करके पश्चिम तटवर्ती के बाहर शाक्य देश मे हुआ था किन्तु उन्होंने सत्यान्वेषण द्वारकापुरी में जा बसे थे। था तो जरासंध भी श्रमणों के के अपने प्रयोग और साधना मगध में ही किए, यही गया अहिसा धर्म का ही अनुयायी, इसलिए ब्राह्मणीय साहित्य में उन्होंने बोधि प्राप्त की और मगध विदेह प्रादि जनमे उसकी निन्दा हुई, साथ ही वह कृष्ण का प्रबल राज- पदों को अपने कार्य-क्षेत्र के भीतर भी रखा, तथापि