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इसि-भासियाई-सूत्र का जापानी अनवाद
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भिक्षु बने और जिन्होंने बल के महापरिनिर्वाण के बाद मिला है, उसे पाद-टिप्पणियो में दिया है और जहां-तहाँ प्रथम धर्म संगीनि का प्राया जन नारवा कर बद्ध के उप- शब्दो की बनावट पर भी प्रकाश डाला है। अपने बौद्ध देशो का धम्म-विनय के रूप में मालन करवाया। धर्म की शिक्षा और अनुभव का भी उपयोग उन्होंने अनुइनके अतिरिक्त जिन; ममता बैठायी है, वे है -
वाद में किया है। अंबडा अध्ययन के प्रारम्भ में पाये महंत ऋपि बारका (१४) वाहिक, उक्कल (२०)
'देवाणुपिया' की समता बद्धानुशासन से बैठायी है। उक्कल, रामपुत्त (१३) उद्दकरामपुत, मावग (२६)
बुद्धानुशासन बद्ध और अनुशासन को सधि से नहीं, बल्कि
सात मातकपुत्त, पिंग (३२) पिगिय, सातिपुत्त (३८) सारि
बद्धानाम के नाम का न होकर बना लगता है। बुद्धानाम पुत, संजय (३६) सनय एव मजय वेलस्थिपुन, दीवारण
शासन की तरह देवानामप्रिय शब्द वना है जो प्रशोक के (४०) कण्हदीपायण, सोम (४२) सुत्त सोमा, जम
शिलालेखों में प्रयुक्त है। पर वहा यह श्रेष्ठ के अर्थ में (४३) यमक, वरुण (४४) वरुण, वेसमण (४५) वेस्स
पाया है जबकि यहा हेय अर्थ लिए है। मात्सुनामी जी ने मन । इनमें से कई थेग्गाथा में भी पाये है।
कही कही शब्दो के भिन्न अर्थ को लेकर गाथानों का
तर्कसंगत अर्थ लगाया है, जो स्पष्टीकरण के स्वरूप में है। वे अर्हत ऋपि, जिनकी समता बौद्ध परमरा मे नही
दविलभायण की प्राठवी गाथा का अर्थ श्री मनोहर मुनि है. वे है - ग्रहत ऋपि पुफ्फसालपुत्त (५), कुम्मापुत्त जी म. शास्त्री करते है.-"जैसे श्रेष्ठ दूध भी दही के (७), केतलीपुत्त (८) मखलिपुत्त (११), मधुरायण
मसर्ग से दुग्धत्व पर्याय को छोड़कर दही बन जाता है। (१५), विदु (१७) वरिसव कण्ह (१८) आरियायण
वैसे गृहस्थो के समर्ग दोष मे मनि भी पाप कर्म मे लिप्त (१६), गाहावतिपुत्त (२१), दगमाल (२२), हरिगिरि
हो जाते है।" मात्सुनामी जी अन्तिम पक्ति का “गृद्धि (२४) प्रबड (२५), तारायण (२६) इन्दानाग (४१)।
णा के टो मे कारण से | पाप कर्म बढ़ता जिन अर्हन ऋपियो के मम्बन्ध में मात्सुनामी जी ने ऐमा अर्थ करते है। उन्होंने गेहिप्पदोपण के 'गेहि' का कुछ नहीं कहा है वे है--ग्रहंत तेतलीप्त (१०), जण्ण. अथं गृह थ नहीं करके गति अर्थात् तृष्णा करते है । टीका बक्क (१२), मेतेज्ज भयाली (१३), सोग्यिायण (१६), में 'गंहि' का अर्थ 'गद्धि' ही है। मात्सुनामी जी का अर्थ वारत्तइ (२७), ग्रहह (२८), बद्धमान (२६), वम् । अधिक तर्कसगत है, कारण गहम्थो के ससर्ग को सर्वथा (३०), पास (३१), अरुण महासालपुत्त (३३), इसिगिरि पापकर्म में गिरना मान लेने में गायों को ऐसे निम्नस्तर (३४), अद्दालक (३५) सिरिगिरि (३७) ।
पर कर दिया जाता है कि गो एवं शास्त्रों में वर्णित
उज्ज्वल चरित्र के गहस्थो की कथा अमगन हो जाती है। मात्सुनामी जी ने अहंत ऋपियों का जो माम्य बौद्ध
प्राध्यात्मिक विकास का मार्ग गहम्थों के लिए भी है। परम्परा में पाया है अावश्यकता है उसे और विस्तृत रूप देने की । इसमे इन पत्रों के सम्बन्ध में विशेष जानवारी माईपुन अझपण (३भ) की गाथा--१४ का अर्थ मिलेगी एव पनकी गूक्तियो वं. तुलनात्मक अध्ययन में श्री मनोहर मनि जी म माथी मारा --"इन्द्रिय-जेत्ता अनेक अस्पष्ट स्थलो पर प्रकाश मिलेगा।
के लिए जंगल क्या और दान्त (दमनशील) व्यक्ति के
लिए पाश्रम पा ? अर्थात् उसके लिए वन-पाथम दोनों अनुवाद की कुछ विशेषताए :
सम है। गेग से अतिक्रान्त मक्त व्यक्ति के लिए पौषध की मात्सुनामी जी ने अपने अनुवाद में मुख्य रूप से प्रो० आवश्यकता नहीं है और शास्त्र के लिए अभेद्यता नहीं है। सुरिंग की पुस्तक Isibhasaiyaim, Ein Jaina-Text वह मवको भेद सकता है ।" इसकी अन्तिम पक्ति (णातिder Frithheit की सहायता ली है। पिसेल की भी कं तस्स भेसज्ज ण वा मत्थस्स भेज्जता ।) का मात्सुसहायता ली गई है। अनुवाद के क्रम में मात्सुनामी जी नामी जी के शब्दों में व्याधि से मुक्ति प्राप्त व्यक्ति के ने टीका प्रादि में जहां कही भी सूत्र का भिन्न पाठान्तर लिए प्रौषध नहीं अथवा शल्य शस्त्र से चीरने-फाड़ने की