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११६, वर्ष २८, कि० १
भनेकान्त
शक-कषाण-युग (ई० पूर्व प्रथम शती से द्वितीय शती विक्रमादित्य का बड़ा भाई था। उक्त लेखो तथा रामगृप्त ई. के अन्त तक) मे कलाकेन्द्र के रूप में मथुरा की बड़ी नाम वाले बहुसस्यक सिक्को से रामगुप्त की ऐतिहासिकता उन्नति हुई। वहा जैन तथा बौद्ध धर्मों का असाधारण सिद्ध हो गई है। विकास हमा। मूर्ति-शास्त्र के महत्व की दृष्टि से मथुरा इन तीनों मूर्तियो की कला निस्सदेह मथुरा शैली से मे निमित प्रारम्भिक जैन एवं बौद्ध कलाकृतियां तथा प्रभावित है। ध्यानमुद्रा में पद्मासन पर स्थिति, अंगों का वैदिक-पौराणिक देवों की अनेक प्रतिमायें उल्लेखनीय है। विन्यास, सादा प्रभामंडल आदि से इस बात की पुष्टि विविध भारतीय धर्म पूर्ण स्वातंत्र्य तथा सहिष्णुता के होती है। मथुरा की प्रारम्भिक मूर्तियों की तरह ये तीनों वातावरण मे साथ-साथ, बिना ईया-द्वेष के मथुरा, प्रतिमाये भी चारों ओर से कोर कर बनाई गई है। विदिशा, उज्जयिनी प्रादि अनेक नगरी मे शताब्दियो तक प्रत्येक तीर्थङ्कर मूर्ति के दोनो ओर चँवर लिए हए देवपल्लवित-पुष्पित होते रहे। यह धर्म-सहिष्णुता प्राचीन तानों को प्रदर्शित किया गया है। मूर्तियों की चौकी पर भारतीय इतिहास की एक बहुत बड़ी विशेषता मानी चक्र बना हुमा है। विदिशा से प्राप्त ये तीनो नबीन मूर्तिया जाती है।
स्थानीय मटमैले पत्थर की बनी है। उनके लेख साँची शक कुषाण काल में मथुरा के साथ विदिशा का तथा उदयगिरि के गुप्तकालीन ब्राह्मी-लेखों जैसे है। संपर्क बहुत बढ़ा। इन वशो के शासको के बाद विदिशा मे नाग राजाम्रो का शासन स्थापित हुप्रा। उनके समय
गुप्तयुग में जैन कलाकृतियों का निर्माण विवेच्य क्षेत्र
के विविध भागों में जारी रहा। विदिशा के पास उदयमे मथुरा कला का स्पष्ट प्रभाव मध्यभारत के पद्मावती,
गिरि की गुफा सख्या २० मे गुप्त-सम्राट् कुमार गुप्त प्रथम विदिशा प्रादि नगरो की कला-कृतियों में देखने को।
के शासन काल में तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ की अत्यन्त कलापूर्ण मिलता है। कला में बाह्य रूप तथा आध्यात्मिक सौदर्य
मूर्ति का निर्माण हुआ। पन्ना जिले में सलेह के समीप के साथ रसदृष्टि का समावेश इस काल से मिलने लगता
सीरा पहारी से एक तीर्थङ्कर प्रतिमा मिली है, जिमका है, जिसका उन्मेष गुप्तकाल (चौथी से छठी शती ई०) मे
निर्माण-काल लगभग ५०० ई० है। विशेष रूप से हुआ।
झॉसी जिल की ललितपुर तहसील में स्थित देवगढ़ मुख्यत: मथुरा मे जैन तीर्थङ्कर प्रतिमानों को विशिष्ट
में गुप्तकाल मे तथा पूर्व मध्यकाल (लगभग ६५० से लाछन या प्रतीक प्रदान करने की बात प्रारम्भ हुई।
१२०० ई.) में कला का प्रचर उन्मेष हा। गुप्त काल श्री वत्स चिह्न के अतिरिक्त विविध मगल चिह्न तथा
मे वहां विष्णु के प्रसिद्ध दशावतार मन्दिर का निर्माण तीर्थड्रो से सम्बन्धित उनके विशेष प्रतीको का विधान
हमा । अगले काल में यहाँ वेतवा नदी के तट पर अत्यन्त उनकी प्रतिमानों मे मथरा की प्राचीन कला मे देखने को
मनोरम स्थल पर जैन मन्दिरो का निर्माण हुआ। यह मिलता है। जन सर्वतोभद्र (चौमुखी) प्रतिमायें भी
निर्माण कार्य सातवी से बारहवी शती तक होता रहा । मथुरा में कुषाण-काल से बनने लगी। इसका अनुकरण
इस कार्य में शासकीय प्रोत्साहन के अतिरिक्त व्यवसायी अन्य कला केन्द्रो में किया गया।
वर्ग तथा जनसाधारण का सहयोग प्राप्त हुमा । फलस्वरूप कुछ वर्ष पूर्व विदिशा से तीन दुर्लभ तीर्थङ्कर मूतियो
यहां बहुसख्यक कलाकृतिया निर्मित हुई। देवगढ़ मे जैन की प्राप्ति हुई। इन तीनो पर ब्राह्मी लिपि तथा संस्कृत
धर्म के भट्टारक संप्रदाय के प्राचार्यों ने समीपवर्ती क्षेत्र में भाषा में लेख खुदे है। दो प्रतिमानो पर तीर्थङ्कर चद्रप्रभ
जैन धर्म के प्रसार में बड़ा कार्य किया। का नाम तथा तीसरी पर तीर्थङ्कर पुष्पदत का उत्काण चंदेरी, थूबोन, दुधई, चाँदपुर आदि अनेक स्थलो से है। लेखो से ज्ञात हुआ है कि तीनों मूर्तियों का निर्माण जैन धर्म सम्बन्धी बहुसख्यक स्मारक तथा मूर्तिया मिली गप्तवंश के शासक 'महाराजाधिराज' रामगुप्त के द्वारा है। ये इस बात की द्योतक है कि पूर्व मध्यकाल में जनकराया गया। यह रामगुप्त गुप्तसम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय
[शेष पृ० १२० पर]