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११०, वर्ष २८, कि०१
अनेकान्त
मिटा कर समता की स्थापना, दार्शनिक मतवादों में को भी विस्तृत पृष्ठभूमि प्रदान की। अहिंसा, अपरिग्रह समन्वय, धामिक प्राडम्बरों का बहिष्कार, पशुबलि का और अनेकान्त निश्चय ही महावीर के सामाजिक तथ्याहरा अनावश्यक धन-संचय की वर्जना, नारी-समाज का न्वेषण के परिणाम है। कोई भी मात्म-साधक महापुरुष
नादि कार्य-प्रक्रियाओं द्वारा सामाजिक आन्दोलन लौकिक या सामाजिक व्यवस्था के माधार भूत तत्वों की की गति को तीव्रता और क्षिप्रता प्रदान की थी। पूर्वोक्त उपेक्षा नहीं कर सकता । महावीर ने पद-दलित लोगों को
मा. अपरिग्रह और अनेकान्त के सिद्धान्त निश्चय ही सामाजिक सम्मान देकर उनमें प्रात्माभिमान की भावना जनिक समाज की समस्याओं के समाधान के लिए प्रति- को उबुद्ध किया। उन्होंने हरिकेशी जैसे चाण्डाल को शय उपयोगी है।
गले लगाया, तो स्त्रियों को पुरुषों के समकक्ष प्रतिष्ठा की निर्धनता, जातिवाद और सम्प्रदायवाद जैसी विषम अधिकारिणी घोषित किया। और व्यापक समस्याओं के अतिरिक्त व्यक्तिगत माचारविचार की समस्याओं के भी व्यावहारिक समाधान जैन- महावीर ने अपने विचारों की अभिव्यक्ति के लिए धर्म-दर्शन में प्रत्यक्षरूपेण उपलब्ध हैं । महावीर की दृष्टि तत्कालीन जनभाषा प्राकृत का माध्यम स्वीकार किया। में मतभेद संघर्ष का कारण नही, अपितु उन्मुक्त मस्तिष्क यह उनकी जनतान्त्रिक दृष्टि के विकास का परिचायक की प्रावाज है। इसी तथ्य को प्रकट करने के लिए उन्होंने पक्ष है । भाषा का जीवन के साथ अविच्छिन्न सम्बन्ध है, कहा कि वस्तु एकपक्षीय नहीं, अपितु अनेकपक्षीय है। इस तथ्य को वे जानते थे; इसलिए अपने समाजोद्धारक प्रत्येक व्यक्ति सत्य के नये पक्ष की खोज कर समाज की विचारों के प्रचार के लिए जनता की भाषा का प्रयोग समस्याओं का समाधान कर सकता है। निस्सन्देह, 'भनेका- करते थे। उन्होंने महर्निश जनभाषा में जन-जीवन के न्त' समाज का गत्यात्मक सिद्धान्त है, जो जीवन मे वैचारिक उन्नायक मूल्यवान तत्त्वों का ही वैज्ञानिक विवेचन किया प्रगति का माहान करता है। अपने को पहचाने बिना है, जो समसामयिक भारतीय समाज को सही दिशा दे समाज की नाड़ी को पकड़ पाना अशक्य है। प्रत एम. सकते है। महावीर का सम्पूर्ण जीवन प्रात्म-साधन के पश्चात् सामा- सम्पादक, जिक मूल्यो का प्रतिष्ठापना में ही व्यतीत हुआ । उन्होने परिषद, पत्रिका, व्यक्ति के पूर्ण विकास के लिए एक ओर आत्मविकास का
बिहार राष्ट्रभाषा-परिषद, पथ प्रशस्त किया तो दूसरी ओर लोक-कल्याण की भावना
पटना-४,
सत्य की खोज समिक्ख पंडिए तम्हा पास जाइपहे बह।
अप्पणा सच्चमेसेज्जा मेत्ति भूस्स कप्पए ॥ अर्थ-विद्वान पुरुष संसार-परिभ्रमण के कारणों को भली-भांति समझकर अपने पाप सत्य को खोज करे मोर सब जीवों पर मंत्री-भाव रखे।
विगिय च कम्मणो हेडं, जसं संचिणु खंतिए।
सरीरं पाढवं हिच्चा, उड्ढं पक्कमई विसं॥
कर्मबन्ध के कारणों को ढूंढो, उनका छेदन करो और फिर क्षमा प्रादि के द्वारा प्रक्षय यश का संचय करो। साधक पार्थिव शरीर को छोड़कर, उध्वं गति (मोक्ष) को प्राप्त करता है।