________________
उड़ीसा में जैन धर्म एवं कला
D श्री मारुति नन्दन प्रसाद तिवारी, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय उड़ीसा में जैन धर्म की प्राचीनता पार्श्वनाथ के काल परम्परा से स्पष्ट है कि पार्श्वनाथ के समय में ही जैनधर्म तक स्वीकार को जाती है। जैन परम्परा मे १८वें तीर्थ- कलिग (उड़ीसा) में प्रविष्ट हो चुका था, और तब से कर अरनाथ के सम्बन्ध मे उल्लेख है कि उनको रायपूर चेदि शासक खारवेल (लगभग प्रथम शती ई०पू०) के मे पहली भिक्षा मिली । रायपुर की पहचान महाभारत समय तक निरन्तर लोकप्रिय रहा । यह ज्ञातव्य है कि में वणित कलिंग की राजधानी रामपुर से की जाती है। उडीसा में जैन धर्म के पुरातात्विक प्रमाण लगभग द्वितीय भवदेव सरि कृत पार्श्वनाथ चरित्र (१४वीं शती) मे शती ई० पू० से ही प्राप्त पार्श्वनाथ और प्रभावती के विवाह की कथा और साथ
मौर्य साम्राज्य के अन्त और शुगो के प्रारम्भ के साथ
ही कलिंग एक प्रमुख राजनीतिक क्षेत्र हो जाता है। ही पाश्र्वनाथ द्वारा कलिंग-शासक यवन के पंजे से प्रभावती को मुक्त कराने के उल्लेख प्राप्त होते है। इनके
दूसरी पहली शती ई० पू० शुंग कालीन जैन गुफाएँ उड़ीसा अतिरिक्त भी जैन साहित्य मे विभिन्न सन्दर्भो मे कलिंग
की उदयगिरि-खण्डगिरि पहाड़ियों पर उत्कीर्ण हैं। उदय
गिरि पहाड़ी पर स्थित हाथी गुम्फा मे चेदि शासक खारराज्य का उल्लेख प्राप्त होता है । कुछ स्पष्ट उल्लेख महाभारत में भी प्राप्त होता है, जिसमे उल्लेख है कि कलिंग
वेल का लेख अभिलिखित है, जिसका काल लिपि के के प्रधार्मिक लोगो को त्यागना चाहिए, जो बिना वेदों
आधार पर दूसरी शती ई०पू० का उत्तरार्ध या पहली एवं यज्ञ के रहते हैं । स्वय देवता भी उनके हाथो की
शती ई० पू० निर्धारित किया जाता है । इस लेख में स्पष्ट पूजन सामग्री नही स्वीकार करते है। बोधायन सूत्र भी
उल्लेख है कि कलिंग की जिस जिन प्रतिमा को नन्दराज कलिंग को अशुद्ध देश बतलाता है।
'तिवससत' वर्ष पूर्व कलिंग से मगध ले पाये थे, उसे खारसाहित्यिक साक्ष्यों से महावीर के भी कलिंग से सब- वेल पुनः अपने देश वापस ले पाये । 'तिवससत' शब्द का न्धित होने की पुष्टि होती है। हरिभद्रीय वत्ति एव अर्थ विवादास्पद है। सम्प्रति लगभग समस्त विद्वान इसे हरिवंश पुराण से महावीर के कलिंग-प्रागमन की पुष्टि ३०० वर्ष का सूचक मानते है। यह लेख प्ररहतों एवं होती है । अावश्यक सूत्र में तीसलि एवं मौसलि में महा. सिद्धों को नमस्कार से प्रारम्भ होता है और साथ ही प्ररवीर के उपदेश देने का उल्लेख है। प्राचीनकाल में तोसलि हतों (अहंतों) के स्मारक अवशेषो का उल्लेख करता है। महत्वपूर्ण जैन केन्द्र रहा है। ववहारभाष्य (६-११५) में इस लेख के आधार पर जिन-मूर्ति की सम्भावित प्राचीशासक तीस लिक द्वारा सुरक्षित जिन मूर्ति का उल्लेख नता लगभग चौथी शती ई० पू० तक स्वीकार की जाती प्राप्त होता है । विद्वानों ने तौसलि को उडीसा में कटक है। यह अभिलेखिकी प्रमाण जहाँ एक मोर लोहानीपुर के समीप स्थित स्वीकार किया है। उत्तराध्ययन सूत्र में (पटना के समीप) से प्राप्त मौर्य युगीन मूर्ति के तीथंकर चंपा के एक व्यापारी का उल्लेख पाया है, जो महावीर मूर्ति होने को प्रमाणित करता है, वही चौथी-तीसरी शती का शिष्य था। इस व्यापारी के व्यापार के सिलसिले मे ई०पू० में जिन-मूर्ति निर्माण की परम्परा के प्रचलन का पिथुण्ड जाने का उल्लेख है। पिथण्ड निश्चित रूप से भी समर्थन करता है । यद्यपि खारवेल के लेख से स्पष्ट कलिग का प्रमुख नगर था, जिसका उल्लेख खारवेल के है कि उसने जैन धर्म को विशेष समर्थन दिया, तथापि हाथी गुम्फा लेख मे भी प्राप्त होता है । डा० के० पी० जन कला की दृष्टि से उसका योगदान नगण्य रहा है । जायसवाल खारवेल के लेख की १४वी पंक्ति के माधार पर स्वयं लेख में वणित जिन-मूर्ति भी सम्प्रति प्राप्त नहीं महावीर द्वारा स्वय कलिंग के कूमारी पहाड़ी पर उपदेश होती है। केवल लेख के प्रारम्भ एवं अन्त में जैन धर्म में दिए जाने की धारणा व्यक्त करते हैं । इस प्रकार जैन प्रचलित कुछ प्रतीकों को उत्कीर्ण किया गया है ।ज्ञातम्य