Book Title: Anekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 90
________________ अथ धी नेमिनाथ व्याह ८५ नब रतननि नवाग्रह सी चमकति रुकति सीस सेहरा री। कई झालर माल लाल बह लटक बंधी सुतोरन मालनिसों कर कंकन प्राभूषन सोहत मोहत माल रतनारी। छंद बोहरा-रतन जटित मंदिर जहाँ बने सुबहुत असेल, झिलिमिलि झिलिमिलि झिलमिलाति सिर पेंच तुरारी। धुजा कलसिन से सोहये चौखूटे ग्रह गोल ५८ सुन्दर सार सुभग प्रति सोहति नाना विधि सों रगधारी। छंव-प्रासाद विराज दुति प्रति लाज सोभ समाज सोहतिह प्रति चंचल सो चलति-चलति गति स्वर मदंग रवि उनहारी तिन में चित्राम खच्च अभिराम लखे नर वाम सुकोहत है मनौप रवि को सिंधन तजि करि महा विप्तन दुतिधारी। मन जटि कवि लागे बहु द्वार सु देखत ही मन मोहत है। कर सिंगार तयार भए तव निरखत छवि कोऊ पटनारी। बोहरा छंद-महलनि में गोखें बनी सु सुन्वरि बहुत सुहात माता सिवदेवी करत वधाए वारति रतन सुभरि थारी। तिन मे महलनि करि देखन चढ़ी बरात ।६० माह सपाइ सुअस वारिन द्वारनि प्रानि करि घोरी ठाढ़ी। ठाढ़ा। कैइक महल महल चढ़ि सुकढे बहु मंगल भाषत हैं। सरल.मरल जड़त जड़ाव रतन मनि मानिक झल झूलत पाखर भारी। कई केसर सिंगार कर कई सखियन के कछु नाखति है। जिन लगाम जति हरि निकरि कलगी सोहति है न्यारी। कंडक गोद घर पर बालक रोवति ताहि सु राखति है। असे अस्व महा प्रति सोहति नेम कुंवर करि प्रसवारी। कईक चाव भरी प्रति चंचल अंचल पट वै झांकति हैं ।६१ छत्र सई जड़वा जई मानो रवि ते सोभा अति भारी। दोहरा-चौरासी दौरति फिरै, सभरी सुन्दर गात । हरिहल इत उत चंवर कर वर उजलि ससि सम उनहारी गोरी मन-मोहन अधिक, सूचंचल चालि सुहाति ॥ सभद विजै प्रादिक सब भ्राता चले सुभूप मुकुटधारी।४५ छंद-चंचल चकला-सी चन्द्रकला-सी बलि चकला-सी तव वसुदेव वरात बनाई महा उछाह कियो भारी। चलति चलै १६२ नाना विधि सौं तखत संभारे लिए अखारे वरु लारी। चंचलता भासी चल चपला-सी चलि चपला-सी चलत हले। छप्पन कोटि चले जादौवंसी ऐक-ऐक ते अधिकारी।४६। चंचल गति जोहै चलति जु मोहै चंचल सोहै चमकि चले। केयक तरवत रमा चढ़ि चाल केयक चड़े मुहाकारी। चंचल गति धरती चलि मनहरती चंचलती चलति भले। चंचल चपल तुरंगनि चादत कई चढ़े गज अम्भारी। दोहरा छंद-करि-करिक सिंगार वह पहिरे वसन सुलाल । कहक बैठि सुखासन चाले सिंगनि कोर खड़ी न्यारी ।४६ कईक मारग के विष खड़ी खिलावे बाल ६४ मातसबाजी चली खाइसि कोतिल हय ही से भारी। छंद-चली जाति गलिन में कोऊ मगन में मापुस में बतमन मतंग बदन के हलके मन पाई स्यार घटा कारी। रावति है। लाल निसान वनि यो एमक दमकति बाजू छटाकारी। सखी भूल गई कछु सुधि न रही मोहि, असे कहति सहा. चलति वरात बाबह बाजति नौवति बाजे धंधकारी। वति है। अखी सुतर की छव छाजत करत सधनि रन धारी। अब खड़ी रहै मम हाथ गहै हमहू तं चलि पावति है। तुरही सुरही शब्द कर बहु बाजत सुर सोहै सो नारी। कई साज सभ रति चीर सुघारति इस विधि नारि. नेम कुवर को चली बरात जु पहुंचो भुनागढ़ सारी। सुहावति है ।६५॥ वने सुमंदिर अम्बर के जहं उतरी जाह सु सुखकारी। दोहरा छव-सजि-तजि कुल को कानि सब भई सुधि-बुधिउततें उग्रसेन चलि पाए भेंट सुघरि फिरि गृहगारी। बलिहीन । दो० उग्रसेन जब जाइ करि, रचौ नगर सुभसार दोन भई पूछन लगी सखियन से जु प्रवीर ।६६। सोवरनन कवि को कर, सुभहि भा अगर अपार। छंद-कदक सार-सिंगार कर कई काहू टेरि बुलाबति है। छंद-सभसार बजार अपार छाए मखमल और लाल- कई मारग में सु-कहें यह बात बराय इतंही प्रावत है। ___ बनातिन सौ। सकटि के भुषन गल में सुघर पग-पेजन सीस चढ़ावति है। कहूँ किरखाव के बंधे चंदोए रेशम डोरी लालनि सों। तसव बलेकी बांधी चादर झलकत मुतियन झालरसों दोहरा छंद-प्रब सजि के सबही जहां वाहन च मनोज ।

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