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भगवान महावीर : एक नवीन दृष्टिकोण
उस ज्ञान दीप से पालोकित होते है । जो भावना पूर्व जन्म सर्व प्रकार से रहित होकर, अपने मनन्त ज्ञान-दर्शन मानंद में प्राई थी कि मैं संसार के प्राणी 'पर' में सुख मान कर वीर्य की परिपूर्णता को लिए अनन्त-मनन्त काल तक अपने 'पर' में अपनापन मान कर विषय-भोगों में लग कर, निज स्वरूप में लीन रहेगी । सर्व कर्मों का प्रभाव होने अपनी आत्मा का कल्याण कर रहे है, उनका भला कैसे से फिर संसार में प्राकर न जन्म का सवाल है, न मरण हो, उस भावना को साकारता होती है । आत्म तत्व के का, जहां प्रानन्द ही भानन्द है। उपदेश द्वारा अनन्त जीवों का हित होता है । जीव अपनी महावीर से भगवान महावीर बन कर, मानव से गलती समझ कर निज मानन्द को प्राप्त करने का पुरु- महामानव बन कर, प्रात्मा से परमात्मा बन कर, उनक षार्थ करते हैं । अनन्तानन्त काल से जिस 'पर' को अपना
द्वारा जो प्रात्म-कल्याण का मार्ग दिखया गया वह भाज समझ कर पकड़ रखा था और प्राकुलता को प्राप्त हो
भी उपलब्ध है और उसी मार्ग का अवलम्बन लेकर माज रहे थे, अब जब समझ में पाया कि जिसको पकड़ रखा
भी यह व्यक्ति अपने आपको परमात्मा बनने का, अनन्तहै वह तो 'पर' है उसमें मेरा अपना कुछ नहीं, मैंने इतना
मानन्दमयी बनाने का, पुरुषार्थ कर सकता है । हरेक प्राणी लम्बा काल इस 'पर' के पीछे यों ही गवाया, तब यह
अपने सच्चे पुरुषार्थ के द्वारा क्रम से अपनी आत्मा को अत्यन्त खेद को प्राप्त होते हैं । अाज भी भगवान महावीर
शुद्ध बना कर मुझ जैसा परमात्मा बन सकता है यह भगके उस पात्मतत्व को पढ़ कर, उनके जीवन को समझ वान महावीर की ससार के प्राणी मात्र के लिए महान कर, समय-समय में जीव अपना कल्याण कर रहें हैं, और स्वतन्त्रता की घोषणा है। चुनाव तेरा है, चाहे संसार का करते रहेंगे।
कर ले चाहे मोक्ष का । पुरुषार्थ तेरा है। कार्तिक कृष्ण अमावस्या के रोज सवेरे उस महान मात्मा से प्रायु के अंत में पावापुर स्थान से इस नश्वर सन्मति विहार, शरीर का सम्बन्ध छूट जाता है और वह प्रात्मा यहां से २१०, दरियागंज, सात राजू ऊपर, जहाँ लोक का शिखर है, वहाँ 'पर' से दिल्ली-६;
उदभावनाएं प्रायश्चित् तभी अर्थपूर्ण होगा कि जब तत्संबंधी दोष के लिए वास्तविक खेद हो और भविष्य में उससे बचने की सावधानी की प्रतिज्ञा हो। यह नहीं कि दोष लगने दो, फिर प्रायश्चित करके उससे निवृत्त हो जायेंगे अथवा जान-बूझ कर दोष मे प्रवृत्त हुए और फिर प्रायश्चित् करके समझ लिया कि उसके फल से मुक्त हो गए।
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विज्ञान कहता है कि प्रात्महत्या बिना पागलपन के नहीं हो सकती। अध्यात्म कहता है कि प्रात्महत्या अतितीव्र कषाय की दशा में होती है। प्रतः कषाय-पागलपन इस प्रकार जितने अंश में कषाय रहेगा, पागलपन (बेहोशी) उतने अंश में रहेगी, स्वभाव का उतना हो पात रहेगा।
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X लगता है जीवन में तो थकान का स्थल प्रा गया है । परन्तु अनादिकाल के भ्रमण से थकान कब महसूस होगी?
-श्री महेन्द्रसेन जन