________________
५०, वर्ष २८, कि०१
अनेकान्त
है। चाहे कथन करने वाला विशेष दृष्टि से कहें, चाहे पूर्व सिद्धों को हो चुकी है । इस प्रकार चारों अनुयोगों की सामान्य दृष्टि से, चाहे अस्ति रूप से कथन करें, चाहे एकता होती है। नास्ति रूप से, जो कुछ धर्म वस्तु में है और जो वस्तु रूप । के कहने वाले हैं, वो हमें मन्जूर हैं । परन्तु जो धर्म वस्तु
हमें आँख मीच कर भी नहीं चलना चाहिए कि शास्त्र में नहीं, वह कैसे मन्जूर हो सकता है । इसलिए स्थाद्वाद
में ऐसा उदाहरण दिया है, हम उसी को पकड़े बैठे हैं । और अनेकान्त का अर्थ समझने से वस्तु का असली रूप हम शास्त्र की प्राज्ञा भी माननी है परन्तु आँख खोल कर जैसी वस्तु है, वैसी समझने में आता है।
माननी है। जैसे किसी ने कहा, इस बच्चे को टट्टी
करवा लो, वह लड़का पेशाब करने लगे तो कहे, यह प्राज्ञा भिन्न अनुयोगों का अध्ययन भी अनेकान्त दष्टि को नहीं । हमें शास्त्र का अभिप्राय समझना जरूरी है। उदाकायम रख कर ही किया जाना चाहिए। सबसे पहले यह हरण को उदाहरण ही रहने दें, उसको दृष्टान्त न बना समझना जरूरी है कि जो कथन है, वह किसके लिए है। लेवें । कथन शास्त्र में अनेक प्रकार के है । हमें देखना है अगर यह कहा है कि यह पाषाण है, इसको पूजने से क्या ।
कि हमारे किस जाति का रोग है और हमारे लिए कौन होगा तो वहां समझना चाहिए, यह उपदेश उसको नहीं सा कथन हितकारी है। बुखार तो जाडे से भी होता है, दिया जो मूर्ति पूजने को जाता ही नहीं, परन्तु उसको
गर्मी से भी होता है। दोनों की दवाई अलग-अलग है और दिया जो जिन-दर्शन से प्रात्मदर्शन नहीं कर रहा है ।
हमने सर्दी के बुखार में गर्मी के बखार का उपचार किया उसको जिन-दर्शन को गौणता दिखा कर प्रात्मदर्शन के
न तो नुकसान ही होगा। भगवान कुन्दकुन्द ने कहा है कि सम्मुख किया जा रहा है। इसी प्रकार हरेक कथन में सम
मैं जो कहूंगा, उसको अपने निज अनुभव से, युक्ति से, न्याय झना चाहिए । कथन तो कार चढ़ने को किया है, यह
से, समझ कर वस्तु वैमी हो तो मन्जूर करना; मात्र मेरे अपनी कषाय अनुसार नीचे-नीचे जाने का साधन बना लेता
कहने से मान लेने से तत्व ज्ञान नहीं होगा। है। चार अनुयोग है । हमारे विचार करने में, बोलने में,
बाहरी पकड़ तब तक रहती है जब तक वस्तु पकड़ चारों अनुयोगों की सापेक्षता रहनी चाहिए। अगर एक
मे नहीं पाती। जहाँ वस्तु पकड़ मे आ जाती है, वहाँ शब्दों का भी खण्डन होता है तो समझना चाहिए, हमारे कथन
की पकड़ छूट जाती है, पक्षपात छूट जाता है, खंचतान में कहीं गलती है । चार सुई है । हमारा धागा चारों में
खत्म हो जाती है। जैसे लाल मन्दिर है, उसको तो देखा से निकलना चाहिए तब तो ठीक है, अन्यथा मिथ्या है।
नहीं, उसके कथन को पढ़ कर पक्षपात को प्राप्त हो जाते अगर कोई चरणानुयोग से पूछता है कि मोक्ष-प्राप्ति का परन्तु जब लाल मन्दिर को देख लिया तो अब कोई क्या उपाय है तो वह बताता है कि मुनिव्रत धारण कर लो,
उसे जैन मन्दिर कहे चाहे लाल मन्दिर, चाहे मारवल का मोक्ष हो जाएगी क्योकि उसका विषय बाहरी पाचरण ।
मन्दिर, चाहे उर्दवाला मन्दिर, कोई पक्षपात रहता नहीं। मात्र है। अगर यही बात करणानुयोग से पूछी जाय तो
इसी प्रकार वस्तु पकड़ मे पाने पर न बाहर की क्रिया की यह कहेगा, कर्मों का नाश कर दो, मोक्ष हो जायेगी। पकड रहती है, न कोई पक्षपात रहता है। इसलिए शास्त्र अध्यात्म से पूछा जाय तो कहेगा प्रात्मा मे लीन हो जाओ, के शब्दों को न पकड कर वस्तू पकड़ने की चेष्टा करनी मोक्ष हो जायेगी। प्रथमानुयोग कहता है- जो पहले सिद्धो चाहिए । शास्त्र तो वस्तु को दिलाने का मात्र इशारा है। ने किया, वही करो मोक्ष हो जायेगी। बाहर से समझने ।
वस्तु को देखने की जरूरत है, इशारे को पकड़ने की नहीं। वाला समझता है कि चार तरह का जवाब है। असल मे
वस्तु जिनके पकड़ मे नहीं पाती, वे इशारे को पकड़े रहते जबाब एक ही है। इन चारों की एकता कैसे हो ? अगर
है और पक्षपात बना रहता है। यही प्रज्ञानता है। प्रात्मस्वभाव का माश्रय लेकर बाहर में मनिपना धारण करे, तो कर्मों का नाश होकर मोक्ष हो जायेगी, जैसे इससे