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भारतीय वाङमय को प्राकृत कपा-काव्यों की देन
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नीलावई-कहा में वृहत्कथा, कादम्बरी, सुबन्धुकृत जा सकते है। कुवलयमालाकार (७७६ ई.) अभिनन्द वासवदत्ता, रत्नावली, रघवश, कुमार संभव, विक्रमोर्वशीय, (नौवीं शताब्दी का प्रारम्भ) ने पादलिप्तसरि और उनकी सेतुबन्ध, ममराइच्चकहा, गउडवही प्रादि से बस्तुगत तथा तरंगवती कथा की प्रशंसा की। कल्प प्रदीप के अनुसार भागवत साम्य है।
पादलिन ने भनेक ग्रन्थों की रचना की, जिसमें शत्रुजयशिलालेखों के अनुसार सातवाहन या सातवाहन वंश कल्प भी है । प्रभावकचरित्र के अनुसार उन्होने इस समय का अस्तित्व प्रमाणित है। मद्रामों में साद तथा राजा वीर स्तुति की। पादलिप्त नागहस्तसूरि के शिष्य थे। सातवाहन के उल्लेख उपलब्ध हैं। पुराणों में इस वंश की प्राकृत पादलिप्त प्रबन्ध के अनुसार प्रतिष्ठानपुर के सातमूची दी गई है । गाहासतसई के अन्तः साक्ष्य के अनुसार कर्णी ने भृगुकच्छ के राजा नरवाहन पर माक्रमण किया। गाथा सप्तशती का कर्ता हाल सालाहण ही कयानायक भद्रबाहु ने भी इस घटना का उल्लेख किया है। पट्टावलियों हाल, सालाहण या सालवाहन है। सम्भवत: यह कुन्तल के अनुसार यह घटना वीरसंवत् ४५३ (१७ ई० पू०) में जनपद का अधिपति था। बाणभट्ट अभिनन्द, राजशेखर, समाप्त हुई। गुणाढ्य सातवाहन के प्राथित कवि के रूप सोड्ढल ने हाल-कृत कोश का उल्लेख किया है. मेरुतुंग, में तथा नागार्जुन प्रभावकचरित्र में उल्लिवित है, यह राजशेखरसूरि, जिनप्रभसूरि ने भी गाथाकोश का उल्लेख पादलिप्त के शिष्य थे। बोदित, बोडिस, कुमारिल हाल किया है। इन उल्लेखों से एक सामान्य परम्परा का बोध के सहयोगी कवि है। कर्पूरमजरी में यह कोट्टिस है। होता है, जिसके अनुसार राजा हाल सातवाहन कवि संभव है ऐतिहासिक पादलिप्तमूरि, को वोदित, बोडिस, गाथा सप्तशती या गाथाकोश का निर्माता अथवा संकलन- कोट्टिस या पोट्रिस प्रादि विकृत रूप में स्मरण किया गया कर्ता माना गया है।
हो । एक सिंहल नरेश शिलामेध (८वी शताब्दी) ने
सियवसलकर की रचना की थी। सातवाहन शब्द किसी सातवाहन नामक राजा से प्रवर्तित होने वाले राजवंश का सूचक है। परवर्ती लेखकों कोऊहल के अनुसार ग्रन्थ की भाषा महाराष्ट्र देश की ने इसे इस वंशके अन्य शासकों के लिए भी ग्रहण किया है। प्राकृत भाषा है तथा कतिपय देशी शब्दों से सवलित है । अतः गाथाकोश का कर्ता कौन सातवाहन है यह निश्चित इस पर अपभ्रंश का प्रभाव है तथा यश्रुति प्राप्त होती है । करना कठिन है। भद्रबाहुमूरि ने हाल का उल्लेख कुछ शब्दों की तुलना प्राधुनिक मराठी से की जा किया है। उद्योतनमूरि, अभिनन्द, प्रभाचन्द्र, मेरुतुग मकती है। और राजशेखर ने हाल को पादलिप्तसूरि से सम्बद्ध किया लीलावई-कहा का प्रडीरस शृङ्गार है। इसमें है। अन्यत्र भी हाल का नाम एक राजा, एक व्यक्ति के
त्रमा हाल का नाम एक राजा, एक व्यक्ति के शृंगार के दोनो पक्षो का चित्रण है। इसके अतिरिक्त रूप में परिवर्ती काल में उपलब्ध है। पुराणो के अनुसार वीर. रौद्र तथा करुण के अच्छे चित्रण है। वैसे समस्त सामान्य रूप से यह कहा जा सकता है कि हाल का स्थिति- रसो का इसमे सन्निवेश है पात्रो की मनोदशामो के श्रेष्ठ काल प्रथम शती मे ६६ ई० पूर्व है। श्री हरप्रसाद शास्त्री बर्णन है। इसमें प्रमुखतया माधुर्य और प्रसाद गुण का तथा गौरीशंकर मोझा के अनुसार गाथासप्तशती का प्रयोग है, पर यथावसर प्रोज तथा दीर्घसघटना वाली गोड़ी लेखक हाल सातवाहन ईसा की प्रथम शती में राज्य रीति का भी प्रयोग है। करता था।
अलकारों की दृष्टि से लीलीवई-कहा मे उपमा, पादलिप्तकृत निर्वाण-कलिकाका प्रकाशन मोहनलाल उत्प्रेक्षा दृष्टान्त, रूपक, यथासंख्य, मालादीपक, कारकदीभगवानदास झवेरी ने किया है। इसकी भूमिका के अनु- पक, समोसोक्ति, भ्रान्तिमान्, उदात्त, अतिशयोक्ति, ब्याजसार भद्रबाहु स्वामी जैन परम्परानुसार १४ पूर्वो के स्तुति, विरोधाभास, व्यतिरेक, कायलिंग, समुच्चय, प्राक्षेप, ज्ञातानों में अन्तिम थे। पादलिप्त इनके समकालिक कहे सन्देह, विभावना, विशेषोक्ति, अर्थान्तरन्यास, मोलित मोर