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स्याद्वाद और अनेकान्त : एक सही विवेचन
श्री बाबू लाल जैन [अनेकान्त का यह अर्थ नहीं कि यह भी सच है, वह भी सच है। अनेक न्त का सही
अर्थ समझना आवश्यक है, अन्यथा अनेक भ्रान्तियों का जन्म हो जाता है। वस्तु मे अनन्त धर्म है। उसका कथन अस्ति नास्ति दृष्टि होनी ही चाहिए। ये दृष्टिया कोई वस्तु मे हेरफेर रूप से, (positive और negative) रूप से, किया जाना नहीं करती, यह तो जैसी वस्तु है, उसका उस रूप से है । अस्ति (positive) धर्म में एक की प्रधानता रहती प्रतिपादन करती है। नयो से वस्तु बदली नहीं जाती है नास्ति, (negative) धर्म बाकी के अप्रधान धर्मों को है, नय तो जो चीज वस्तु में है, उसका प्रतिपादन जिन्दा रखता है। इसलिए अस्ति व नास्ति (positive करते है। and neagtive) दोनो मिल कर पूरी वस्तु बनती है। इसी प्रकार वस्तु में उसका एक अकेला स्वरूप है जसे प्रात्मा में ज्ञान है, दर्शन है, सुख प्रादि धर्म है। और एकः संयोगी अवस्था है । एक दृष्टि अकेले स्वरूप को प्रात्मा का ज्ञानगुण ही ज्ञान रूप है। दर्शनगुण ज्ञानरूप बता रही है, दूसरी उसी समय जो सयोग है, उसको बता नही, सुखगुण ज्ञानरूप नहीं। याने दर्शन गुण और सुख गुण रही है। अगर सयोग मे एकपना मा जाएगा तब वस्तु ज्ञानरूप नहीं है, अथवा अज्ञानरूप है। जब यह हमा कि जैमी है, वैसी मगझ में नहीं आने से एकान्त हो जाएगा। पात्मा ज्ञानरूप है। इसमें ज्ञान धर्म की प्रधानता है और वस्तु का विपर्यय हो जाएगा। प्रात्मा प्रज्ञान स्वरूप है, इसमें ज्ञान के अलावा बाकी सब अनेकात वही बनता है जहाँ वस्तु स्वरूप को दिखाने धर्म मा गये। इमी प्रकार से अगर यह कहा जाये कि वाले दो विरोधी धर्मों का प्रतिपादन किया जाता है। मात्मा दर्शन स्वरूप है तब बाकी धर्म प्रदर्शन स्वरूप
अथवा यह कहना चाहिए कि सत्य का प्रतिपादन करना ठहरेगे : दर्शन स्वरूप कहने में दर्शन की प्रधानता
है और उस सत्य को बतलाने वाले अनेक दृष्टिकोणो रही पौर प्रदर्शन स्वरूप कहने में दर्शन के अलावा (view points) से उसका प्रतिपादन करना है। वे बाकी सारे धर्म आ गए और पूरी वस्तु का कथन सभी दष्टिकोण जो मत्य को बताने वाले हैं, हमें मजूर हो गया। इसलिए वस्तु कथचित ज्ञान स्वरूप है होते है। परन्तु जो मत्य को बताने वाले नहीं है, वे दृष्टिऔर कथचित अज्ञान स्वरूप है। मस्ति (positive) कोण स्यादवाद के नाम पर मंजूर नहीं हो सकते। सत्य रूप धर्मों के अलावा बाकी धर्मों का नास्ति स्वरूप एक प्रकार का है और एक ही है। अस्तित्व दिखाया गया है।
___मामान्य वस्तु स्वरूप से विशेष वस्तु का स्वरूप दूसरी प्रकार, वस्तु द्रव्य स्वरूप याने सामान्य स्वरूप विरोधी है। एक अकेले स्वरूप से सयोगी स्वरूप विरोधी है और पर्याय रूप याने विशेष स्वरूप भी है । क्योकि पूरी है। ज्ञान गुण से दर्शन गुण विरोधी है। इसी प्रकार वस्तु सामान्य विशेषात्मक है इसलिए पूरी वस्तु का कथन ध्रौव्य से उत्पाद-व्यय विरोधी है और क्योकि वस्तु करने के लिए द्रव्यदृष्टि से अगर नित्य रूप कहते हैं तो सामान्य विशेषात्मक, द्रव्य-पर्याय रूप है और अनंत गुणा. पर्याय दृष्टि से अनित्य रूप देखना जरूरी है और प्रमाण त्मक है इसलिए एक दृष्टि से पूरी वस्तु की जानकारी दृष्टि से एक ही समय में नित्य अनित्यात्मक देखना नहीं हो सकती जब तक दूसरी दृष्टि को जिन्दा नहीं रखा जरूरी है। इसलिए पूरी वस्तु का प्रतिपादन मात्र एक दृष्टि जाय, चाहे गौण रूप से ही क्यो न रखा जाय । नय से से नही हुआ, उस एक दृष्टि को पूरक दूसरी उसकी विरोधी वर्णन करना उसी को कहा जाता है जब वह पूरी वस्तु को