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भारतीय वाङ्मय को प्राकृत कथा-काव्यों की देन
तथा प्रात्मोन्नति के लिये धर्म की ओर उन्मुख होते है। छन्द की दृष्टि से इनमें प्राय: गाथा छन्द का प्रयोग इस प्रकार ये कथायें यथार्थपरक तथा मादर्शोन्मुख धर्म- है, जिसमे यतिभंग का दोष बहुलता से प्राप्त होता है। कथायें हैं।
वसुदेवहिण्डी, कुवलयमाला, जिनदत्तारुयान, नर्मदासुन्दरीधार्मिक तत्व प्राणो की तरह अनुस्यूत होने पर भी कथा, पाख्यानकमणिकोश, सुरसुन्दरीचरिय, कथाकोशइनका साहित्यिक सौन्दर्य कम माकर्षक नही है। समस्त प्रकरण, कुमारपाल प्रतिबोध मादि में गाथा छन्द के प्रतिरसों का चित्रण होने पर भी शान्त, शृंगार, वीर तथा रिक्त मंस्कृत और अपभ्रंश छन्दों के प्रयोग हुए है। रौद्ररस के प्रचर वर्णन है । शान्त रस के सुन्दर चित्रण ये ग्रन्थ पद्यात्मक तथा गद्यपद्यमिथ दोनों ही शैलियों सर्वत्र व्याप्त है।
__ में रचित है । प्राकृत कथा-काव्यो का अधिकांश भाग इसी पाख्यानकमणिकोश, समराइच्चकहा, कुवलयमाला, मिश्रकोटि का है। पटकथानों मे धूर्ताख्यान, निर्वाणधर्मोपदेशमाला-विवरण, नर्मदासुन्दरीकथा मादि मे लीलावती तथा श्रीपालकथा मुख्य है। गद्यप्रधान-काव्यों भावट्रिया, रुक्मिणी, विलासवती, प्रियंगुश्यामा, राजीमती, में वसुदेवहिण्डी, समराइचकहा, कुवलयमाला, रयणनर्मदासुन्दरी आदि के नख-शिख वर्णन प्राप्त होते है। चुड़रायचरिय, जिनदत्ताख्यान, रयणसेहर निवकहा, नर्मदानख-शिख वर्णन काव्य में प्राचीनकाल से होता रहा है। सुन्दरीकहा मादि उल्लेखनीय है। तरंगवती कथा को भी रीतिकाल में यह अधिक व्यापक रूप से प्रचलित हुआ।
तरंगलोला चम्पू कहा गया है, अत: यह रचना भी गद्यइन कथाकाव्यों में मार्मिक और हृदयाकर्षक सुभाषितों पद्यमिश्रित शैली में लिखित रही होगी, यद्यपि वर्तमान के प्रयोग हुए हैं । महेश्वरसूरि को ज्ञानपचमकिया इस उपलब्ध संक्खित्ततरंगवईकहा पद्यमय ही है। ततीय कथा. दृष्टि से अद्वितीय है। इसमे स्त्री-विषयक सुभाषित
कोश कोटि के ग्रन्थों में कुछ गद्यप्रधान पद्यमित्र है। गद्य मनोहारी हैं।
की चारों शैलियो मुक्तक, वृत्तगन्धि, उत्कलिकाप्राय और अलंकारों की दृष्टि से शब्दालंकारों मे यमक, अनुप्रास
चर्णक का उपयोग किया गया है । यद्यपि समासरहित, व सरल श्लेष के साथ-साथ शृखलायमक का प्रभूत
सुबोध, प्रसादगुणयुक्त गद्य का ही अधिक प्रयोग हुमा है, प्रयोग हुआ है । प्रचलित अर्थालकारो का सहज, स्वाभा
तथापि कही कही दीर्घ समासाढ्य पदावली का भी रुचिपूर्वक विक और सुरुचिपूर्ण ढग से प्रयोग किया गया है।
प्रयोग हमा है। इन स्थलों पर यह गद्य अलंकृत और ग्रन्थों की भाषा महाराष्ट्री प्राकृत है, जिसे अपभ्रंश
जटिलता के वैभव से मण्डित है तथा कादम्बरी की और अर्द्धमागधी से प्रभावित होने के कारण जैन महाराष्ट्री
गद्यच्छटा का स्मरण दिलाता है। जहाँ किसी वस्तु अथवा कहा गया है । काव्यो में बीच-बीच मे संस्कृत और अप
दृश्य का चित्रण करना होता है, कवि इसी समारबहुला भ्रंश के पद्य भी हैं । संस्कृत के पद्य प्रायः उद्धरण के रूप शैली को अपनाते है। सरलगद्य कथावस्तु के प्रवाह को में है। जनरुचि के अनुकूल देश्य शब्दों का प्रभूत प्रयोग आगे बढ़ाता है। संवादों में इसी सरल गद्य का प्रयोग इनकी महती विशेषता है। वास्तव में यही शब्द मन्त- है। निहित प्राशय को अभिव्यक्त करते है। भाषा-प्रयोग की तरंगवतीकथा, समराइच्चकहा, कुवलयमाला, दष्टि से कुवलयमाला दर्शनीय है। इसमें पैशाची प्राकृत आख्यानकमणिकोश, कुमारपालप्रतिबोध, धर्मोपदेशमालातथा तत्कालीम देशी बोलियों के प्रयोग है, साथ ही १८ विवरण प्रादि में सुन्दर प्रकृति-चित्रण प्राप्त होते है। देशों की भाषाओं की विशेषताओं को निदर्शित किया गया जिनदत्ताख्यान, नर्मदासुन्दरीकथा, श्रीपालकथा, धूर्ताख्यान, है। प्रायः सभी ग्रन्थों में अपभ्रंश और संस्कृत के उद्धरण रत्नशेखरनुपकथा, ज्ञानपंचमीकया, कथाकोशप्रकरण प्रादि हैं । कुमारवालपडिवोह तथा रयणसेहरमिवकहा में प्राचीन प्रकृति-चित्रण की दृष्टि से सामान्य हैं। इन ग्रन्थों में गजराती भाषा का प्रयोग है। भाषा में नादसौन्दर्य तथा चन्द्रोदय. चन्द्रास्त. सर्योदय. सर्यास्त के साथ पहनतयों लयात्मकता के साथ-साथ प्रथंगाम्भीर्य है।
के चित्रण अत्यन्त रमणीय हैं। इन वर्णनों में प्रकृति का