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३२, वर्ष २८, कि०१
अनेकान्त
है। उसकी दूरियां बढ़ गई है। जातिवाद, रंगभेद, के अनुपालन की स्वतन्त्रता है। ये परिस्थितियां मानव भुखमरी. गुटपरस्ती जैसे सूक्ष्म जहारी कीटाणो से वह इतिहास में इस रूप में इतनी सार्वजनिक बन कर पहले ग्रस्त है । वह अपने परिचितो के बीच रह कर भी अपरि- कभी नही पाई। प्रकारान्तर से भगवान महावीर का चित है, अजनवी है. पराया है। मानमिक कुण्ठानों, अपरिग्रह व अनेकान्त सिद्धान्त ही इस चिन्तन के मूल में वैयक्तिक पीड़ामो और युग की कडवाहट से वह त्रस्त है. प्रेरक रहा है। सन्तान है। इसका मूल कारण है-यात्मगत मुल्यो के वर्तमान परिस्थितियों ने प्राध्यात्मिकता के विकास प्रति उनकी निष्ठा का प्रभाव । इस प्रभाव को वैज्ञानिक के लिए अच्छा वातावरण तैयार कर दिया है। आज प्रगति प्रऔर ग्रा.यागिक स्फुरणा के सामंजस्य से ही दूर अावश्यकता इस बात की है कि भगवान महावीर के तत्वकिया जा सकता है।
चिन्तन का उपयोग समसामयिक जीवन की समस्याग्रो के _आध्यात्मिक स्फुरण की पहली शर्त है-व्यक्ति के समाधान के लिए भी प्रभावकारी तरीके से किया जाय । स्वतन्त्रचेता अस्तित्व की मान्यता जिस पर भगवान महा- वर्तमान परिस्थितिया इतनी जटिल एवं भयावह बन गयी वीर ने सर्वाधिक बल दिया और आज की विचारधारा भी है कि व्यक्ति अपने ग्रावेगों को रोक नही पाता और यह व्यक्ति में वादित मुल्यो की प्रतिष्ठा के लिए अनुकूल परि- विवेकहीन होकर आत्मघात कर बैठता है । प्रात्महत्याग्रो स्थिति के निर्माण पर विशेष बल देती है। अाज सरकारी के ये प्राकडे दिल दहलाने वाले है। ऐमी परिस्थितियों
और गैर-सरकारी स्तर पर मानव-कल्याण के लिए नाना- से बचाव तभी हो सकता है जबकि व्यक्ति का दृष्टिकोण विध संस्थाए और एजेन्मिया कार्यरत है। गहरी सम्पत्ति प्रात्मोन्मखी बने। इसके लिए पावश्यक है कि वह जड की सीमाबन्दी, भूमि की सीलिग और अायकर-पद्धति तत्व में परे चेतन तत्व की सत्ता में विश्वास कर यह प्रादि कुछ ऐसे कदम लो आर्थिक विषमता को कम चिन्तन करे कि मै कोन ह. कहा से प्राया है. किससे करने में सहायक सिद्ध हो सकते है। धर्म निरपेक्षता का
सकत ह । धम निरपेक्षता का बगहूं मुझे कहा जाना है? यह चितन-क्रम उसमें सिद्धान्त भी मुलत इस बात पर बल देता है कि अपनी- प्रात्म-विश्वास, स्थिरता, धर्य. एकाग्रता जैसे सद्भावों अपनी भावना के अनुकूल प्रत्येक व्यक्ति को किसी भी धर्म का विकाम करेगा।
जैन साहित्य में पद्गल सृष्टि जिन मूल ६ द्रव्यों से रची हुई है, पुद्गल उनमें से एक है। स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, ये चार पुद्गल के गुण हैं । पुद्गल को गलन मिलन की प्रक्रिया में द्वितीयक गुण उत्पन्न होते है, जिसमें भारहीनता एक है । स्निग्ध स्पर्श गुण को प्रत्यधिक वृद्धि से पुद्गल भारी हो जाता है तथा रुक्ष स्पर्श गण की अत्यधिक वृद्धि से हल्का हो जाता है। विज्ञान की भाषा में स्निग्ध विद्यत ऋणात्मकता का कम होना और रुक्षता विद्युत ऋणात्मकता का बढ़ना है। परमाणों का बन्ध विशेष नियमों से होता है। जैन विचार के अनुसार स्निग्ध तथा रुक्ष अपने ही सदृश्य गुण वाले परमाणपों से जब बन्ध करता है। तो परस्पर में दो अथवा दो से अधिक प्रशों का अंतर होना चाहिए। प्राधनिक विज्ञान की दृष्टि में ये परमाणु को नाभि अधिक स्थाई होते हैं तथा बहुतायत में ऐसे तत्त्व पाये जाते हैं जिनमें प्रोटीन की संख्या में वो का भाग जा सके। स्कन्ध दो प्रकार के हैं स्थूल, सूक्ष्म । सूक्ष्म स्कन्ध भी दो प्रकार के हैं -प्रष्ट स्पर्शी तथा चतुस्पर्शी। चतुस्पर्शी पुद्गलों का व्यवहार अत्यन्त निराला है। ये भारहीन होते हैं। विज्ञान की वृष्टि में भारहीन की कल्पना कठिन है किन्तु क्योंकि भौतिक कण वे ही माने जाते है। जिनमें 'प्रापर मास' तथा गति हो। जैन विचार के अनुसार भौतिक कण भार तभी ग्रहण करते हैं जब उनमें विद्यत ऋणात्मकता को गहरी कमी होती है। पदार्थ सम्बन्धी ज्ञान जो जैन साहित्य में उपलब्ध है वह माधुनिक विज्ञान के लिए बहुत उपयोगी हो सकता है।