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६२, वर्ष २८, कि०१
अनेकान्त
करेंगे जिससे पवित्र एवं उत्तम पुरुष उनके पास आयें और ज्येष्ठ जनो के सम्मान के नियम का पालन नहीं होता। पाकर सुख-शान्ति प्राप्त करे;
प्रत्येक स्वय को 'राजा' समझता है । 'मैं राजा हूँ ! मैं तब तक भिक्षु-सघ का पतन नहीं होगा, उत्थान ही
थान हा राजा हूँ !' कोई किसी का अनुयायी नहीं बनता।". इस
राजा है। कोई किसी का नया होगा। जब तक भिक्षुग्रो मे ये सात धर्म विद्यमान है, जब
उद्धरण से स्पष्ट है कि कुछ महत्त्वाकाक्षी सदस्य गण
रण तक वे इन धर्मो मे भली-भाँति दीक्षित है, तब तक उनकी राजा (अध्यक्ष) बनने के इच्छुक थे। उन्नति होती रहेगी।
रांसत्सदस्यो की इतनी बड़ी संख्या से कुछ विद्वानी महापारानब्बान सुत्त क उपयुक्त उद्धरण से वशाला- का अनुमान है कि वैशाली की सत्ता कुछ कुलो (७७०७) गणतन्त्र की उत्तम व्यवस्था एवं अनुशासन की पुष्टि होती में निहित थी और इसे केवल 'कूल-तन्य' कहा जा सकता है। वैशाली के लिए विहित सात धर्मों को (कुछ परि- बाबा,
है। इस मान्यता का प्राधार यह तथ्य है कि ७७०७, वर्तित करके) बुद्ध ने अपने संघ के लिए भी अपनाया;
राजाग्रो का अभिषेक एक विशेषतया सुरक्षित सरोवर इससे स्पष्ट है कि २६०० वर्ष पूर्व के प्राचीन गणतन्त्रों में
(पुष्करिणी) में होता था।". स्वर्गीय प्रो. आर. डी.वैशाली गणतन्त्र श्रेष्ठ तथा योग्यतम था।
भण्डारकर का निष्कर्ष था . 'यह निश्चित है कि वैशाली लिच्छवियो के कुछ अन्य गुणा ने उन्हें महान् बनाया। संघ के अंगीभत कुछ कलों का महासंघ ही यह गणराज्य उनके जीवन में प्रात्म-सयम की भावना थी। वे लकड़ी था।" श्री जायसवाल तथा श्री अल्तेकर जैसे राजशास्त्र के तहत पर सोते थे, वे सदैव कर्तव्यनिष्ठ रहते थे। जब विद इस निष्कर्ष से सहमत नही है । श्री जायसवाल ने तक उनमे ये गुण रहे, प्रजातशत्रु उनका बाल बाँका भी हिन्दू राजशास्त्र' (पृष्ठ ४४) में लिखा है-"इस साक्ष्य न कर सका।"
से उन्हें 'कुल' शब्द से सम्बोधित करना आवश्यक नहीं। शासन-प्रणाली:
छठा-शताब्दी ई०पू० के भारतीय गणतन्त्र बहुत पहले लिच्छवियों के मुख्य अधिकारी थे-राजा, उपराजा,
समाज के जन-जातीय स्तर से गुजर चुके थे । ये राज्य, सेनापति तथा भाण्डागारिक । इनसे ही सभवत. मन्त्रि
गण और संघ थे, यद्यपि इनमे से कुछ का आधार राष्ट्र मंडल की रचना होती थी। केन्द्रीय ससद का अधिवेशन
या जनजाति था; जैसा कि प्रत्येक राज्य-प्राचीन या अाधुनगर के मध्य स्थित सन्थागार (सभा-भवन) म हाता था। निक का होता है।
ससद के १७०७ सदस्या (राजा' नाम स डा० ए० ऐम. अस्तकर का यह उद्धरण विशेषत. यक्त) में निहित थो।" सम्भवत: इनमें से कुछ 'राजा' द्रष्टव्य हे-यह स्वीकार्य है कि यौधेय, शाक्य, मालव तथा उग्र थे और एक दूसरे की बात नहीं सुनत थे। इसी कारण लिच्छवि गणराज्य प्राज के अर्थो में लोकतन्त्र नही थे। ललितविस्तर-काव्य मे ऐसे राजाग्यो की मानो भर्त्सना अधिकाश आधुनिक विमित लोकतन्यो के समान सर्वोच्च की गई है-"इन वैशालिको में उच्च, मध्य वदध एव एवं सार्वभौम शक्ति समस्त वयस्क नागरिकों की सस्था १७. देखिए श्री भरतसिंह उपाध्याय - कृत 'बद्ध कालीन मगधराज वैदेहि-पुत्र अजातशत्र को उनके दांव-पेंच भारतीय भूगोल' (पृष्ठ ३८५-८६) का निम्नलिखित
मिल जायेगा।" उद्धरण ("संयुक्त निकाय पृष्ठ ३०८ से उद्धृन. १८. तस्य निचकालं रज्जं कारेत्वा वसंमानं येव राजन "भिक्षुत्रों ! लिच्छवि लकड़ी के बने तस्ते पर सोते
सतसहस्सानि सतसतानि तत्र च । राजानो होति तत्त है। अप्रमत्त हो, उत्साह के साथ अपने कर्तव्य को पूरा
का, ये व उपराजायो तत्तका, सेनापतिनो नत्तका, करते है। मगधराज वैदेही पुत्र अजातशत्रु उनके तत्तका भंडागारिका। J. I. S. 0. 4. विरुद्ध कोई दाव-पेंच नही पा रहा है । भिक्षुओं ! १६. नोच्च-मध्य-वृध्ध ज्येष्ठानपालिता, एकक एव मन्यते भविष्य मे लिच्छदि लोग बड़े सुकूमार और कोमल अहं राजा, अहं राजेति, न च कस्यच्छिष्यत्वमुपगच्छति। हाथ-पैर वाले हो जायेगे । वे गद्देदार विछावन पर २०. वैशाली-नगरे गणराजकुलाना अभिषेकमंगलपोखरिणी गुलगुले तकिए लगाकर दिन-चढ़े तक सोये रहेंगे । तब -जातक ४११४८.