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श्रमण और समाज : पुरातन इतिहास के परिप्रेक्ष्य में
1] श्री चित्रेश गोस्वामी, दिल्ली
(प्रस्तुत लेख में विद्वान् लेखक ने ऐतिहासिक दृष्टि से श्रमण एव समाज के पारस्परिक सम्बन्धों का विशद विवेचन किया है । लेखक ने 'श्रमण' एव 'पुरोहित' शब्दो का संकुचित अर्थ न ले लेकर व्यापक अर्थ ग्रहण किया है तथा विश्व की अति प्राचीन सभ्यताओं-मिस्र, सुमेर, असुर, बाबुल, यूनान, रोम, चीन, मध्य एशिया, प्राचीन अमेरिका, सिन्ध-घाटी एवं वैदिक आदि--के इतिहासो मे श्रमण-तत्त्वों का अन्वेषण किया है । इस लेख में प्रस्तुत कुछ मान्यताए विवादास्पद हो सकती हैं। विस्तार-भय से इसमे उद्धरण एवं प्रमाण प्रस्तुत नही किए गए है, अतः जिन पाठकों के मन मे लेखक की मान्यताओं के सम्बन्ध में किसी प्रकार की शंकाए उत्पन्न हों, वे 'अनेकान्त-कार्यालय को भेजे। हम लेखक से उनके समाधान का निवेदन करेंगे। -सम्पादक)
भमिका
प्रागैतिहासिक काल सृष्टि के प्रारम्भ से अब तक, समार के प्रत्येक क्षेत्र वर्तमान इतिहास के दप्टिकोण से अगण्य ब्रह्माण्डो में दो विचार-धाराम्रो का प्राधान्य रहा है-निवृत्तिपरक में से हमारी इस धरती की ग्रायु इस समय पाच अरब नीर प्रवृत्तिपरक । इमी को यों भी कह सकते है कि वर्ष से एक अरब वर्ष के मध्य बूती गयी है। मानव का मग्कृति के दो रूप रहे, श्रमण और गृहस्थ । इन दोनो इतिहास भी एक लाख वर्ष से अधिक का है । परन्तु स्पो में टकराव भी रहा है, यह सत्य है, पर वास्तव मे विश्वसनीय इतिहास गुहावासी मानव से प्रारम्भ होता है, दोनो परस्पर पूरक है । जब भी दोनो में से एक भी अग जब से उसमे सामाजिकता का आभास होने लगा। निर्बल पड़ा, समाज का ह्रास हुआ है; इतिहास इसका एशिया और युगेप ने अनेक स्थानो पर गुहावासी
गृहस्थ क बिना श्रमण-पुसहित, नाव, प्रास्ट मानवों के स्मृति-चिह्न प्राप्त हुए है। स्पेन की अल्लामीरा, गगन कुछ भी कहो--शरीर-यापन ही नहीं कर पाएगा फास की लासोक्स प्रादि गुहायो में गृहा-मानव की चित्रऔर उमके बिना गहस्थ का मार्ग-दर्शन नहीं होगा, वह कला के जो नमुने प्राप्त हुए है, उनमें कई स्थानो पर
कागी होकर भटक जाएग।। श्रमण गृहस्थ का मार्ग- साम्प्रतिक मानव-समाज के अगुवा पुरोहित-वर्ग का भी निदेशक है, वह सदा उसे स्मरण दिलाता रहता है कि चित्रण है, जो उस समाज के कल्याण के लिए विविध केवल अपने ही प्रति नहीं, अपितु समाज के प्रति भी उस अनुष्ठान करते थे। समाज अपने मन्चय मे से अंशमाग का कर्तव्य है। दोनो ही विचार-धारामों के मध्य पवित्र- देकर उनके भरण-पोषण की व्यवस्था करता था। यही आज त्रिवेणी की गुप्त-सरस्वती है, लोक-हितपणा। लोक- की पुरोहित, संन्यासी या श्रमण-परम्परा का बीज है। हितपणा के विना श्रमण का त्याग और तप और गृहस्थ मिस्त्र, सुमेर, असुर, और बाबुल का मनय दोनो ही व्यर्थ है, इतना ही नहीं अपितु समाज प्राचीन सभ्यताओ मे, मिस्र की सभ्यता अत्यन्त के स्वस्थ विकाम के लिए घातक भी है।
प्राचीन है, जिराको परम्परा भारत की ही भाति सान