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५४, वर्ष २८, कि० १
निकान्त उस युग का समाज-व्यवस्था मेंशन कोऑति मनुष्य प्रयलों मे. खोजी जा सकती है। उन्होंने जनभाषा में • का भी परिग्रह होता था। स्त्री पुरुष बिकते थे। बिका अपनी बात कही और उनकी बात सीधी जनता तक हुआ आदमी दास होता था और उस पर मालिक का पहुची। जनता ने उसे अपनाया. पर कोई भी पुराना पूर्ण अधिकार रहता था । भगवान् महावीर ने इस संस्कार एक साथ नहीं टूट जाता । ढाई हजार वर्षों के प्रथा को हिंसा और परिग्रह दोनो दृष्टियों से अनुचित बाद हम अनुभव कर रहे है कि भगवान महावीर की बताया और जनता को इसे छोड़ने के लिए प्रेरित किया। वाणी के वे सारे स्फुलिंग पाज महाशिखा बनकर न केवल दास-प्रथा-उन्मूलन, परिग्रह, मानवीय एकता, स्वतंत्रता, भारतीय समाज को, किन्तु समूचे मानव-समाज को प्रकाश समानता, सापेक्षता, सहअस्तित्व, ग्रादि समता के विभिन्न दे रहे है। पहलुओं की मूलघारा भगवान् सहावीर के वचनो तथा
[पृ० ४६ का शेषांश] विवेचक ग्रन्थ में कुशल लाभ ने १०४ छन्दों का सोदाहरण अतः उसकी भाषा का जनता की भाषा होना अनिवार्य लाक्षणिक विवेचन किया है । उन्हीं में से कुछ छन्दों में भी था। कवि ने अपनी अनुभूति को विभिन्न कृतियों में वाणी दी साहित्य को समाज का सांस्कृतिक इतिहास कहा है । ये प्रमुख छन्द है-दूहा, चौपाई, गाहा, त्रोटक, हण- जाता है। कवि समाज में रहता है। अतः उसका समाज फाल, विपक्खरी, पद्घडी, मोतीदाम वस्तु, चावकी, रोम- की गतिविधियों से प्रभावित होना स्वाभाविक ही है। वती, हाटकी, कलश प्रादि। इन छन्दों की प्रधान विशे- सभी युगीन प्रवृत्तियों का चित्रण कुशल लाभ ने अपने षता यही है कि अनेक स्थलों पर ये छन्द लक्षण से मेल साहित्य मे किया है। ये वर्णन सामन्ती एवं जैन संस्कृति नहीं खाते। इसके अतिरिक्त तुक के प्राग्रह से छंदों के से सम्बद्ध है। कारण, कवि का साहित्य विशेष रूप से पदान्त हकार, इ-कार, प्रकार हो गये हैं । कवि ने छंदों हम दो समाजों से सम्बन्धित है । कवि ने अपने साहित्य को जनरुचि के अनुकूल बनाने के लिए तत्कालीन प्रचलित मे उस युग में प्रचलित अलौकिक शक्तियों में प्रास्था, शास्त्रीय एवं लौकिक राग-रागिनियों और बंधों को भी ज्योतिषियो की भविष्यवाणियों में श्रद्धा, स्वप्न-फल पौर ग्रहण किया है। इन रागों के प्रयोग से कवि के परिपक्व शक्नो में विश्वास रखने प्रादि का बड़ा सरल उल्लेख संगीत-ज्ञान का परिचय भी मिलता है।
किया है। पूर्व कर्म-फल के प्रति श्रद्धा का एक उदाहरण
प्रस्तुत है। कुशल लाभ के साहित्य का हिन्दी भाषा के विकास
पैले भव पाप में किया, तो तुझ विण इतरा दिन गया। की दृष्टि से विशेष महत्व है। कवि के साहित्य में मूलतः
Hd सैमष बात करे वाषाण, बीवन जन्म प्राण सुप्रमाण ॥ दो प्रकार की भाषा का प्रयोग हुमा है-प्रथम, शुद्ध हिंगल
00 पौर द्वितीय, मध्यकाल में प्रचलित लोक-भाषा राजस्थानी जिसे कुछ विद्वानों ने जूनी-गुजराती अथक प्राचीन राज- प्राध्यापक, हिन्दी विभाग, स्थानी नाम भी दिए है। कवि की अधिकांश रचनामा भूपाल नोबल्स महाविद्यालय, की यही भाषा है । वस्तुत: कुशल लाभ लोक-कवि था। उदयपुर ( राज.)
१. ढोला मारवणी चौपाई, चौपाई स०५५७ ।