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भमण-साहिल : एक दृष्टि
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पर किस पद्धति का किस पर प्रभाव पड़ा है, यह पसं- सही है कि बुद्ध के वचनों का बहुलांश भाग बौद्ध भिक्षयों दिग्ध रूप से नहीं कहा जा सकता। इस विषय में हमें में प्रचलित था और उन्हीं का संग्रह पिटकों में किया यह नहीं भुला देना चाहिए कि कोई भी साहित्य पारि- गया है। परन्तु वर्तमान में पिटकों के विभिन्न अंश, उन पाश्विक यातावरण के मादान-प्रदान से मुक्त नहीं रह का वर्तमान व्यवस्थापन और विभाग निश्चित ही बहुत सकता। इस विषय पर हम आगे चर्चा करेंगे।
काल बाद का है। जन प्रागम-साहित्य के ऐसे अनेक स्थल है जिनकी बौद्ध पिटक का बहुलांश भाग अशोक के समय में तुलना बौद्ध-साहित्य से तथा ब्राह्मण-साहित्य से भी की लिखा गया और उसको पूर्णरूप बहुत मागे तक मिलता जा सकती है। हजारों श्लोक ऐसे है जिनमे शब्द-साम्य रखा। तपा अर्थ-साम्य है। इस प्रकार की रचनामों से पाठक के
बौद्ध साहित्य महात्मा बुद्ध तथा उनके उत्तरवर्ती मन में यह प्रश्न उभर पाता है कि पहले कौन ! इस प्रश्न प्राचार्यों द्वारा प्रन्थित है। इससे पूर्व उनका साहित्य किसी का उत्तर इतना सहज नहीं है। जैन मागम वीर निर्वाण
म वार निवाण भी रूप में रहा हो, यह नहीं माना जाता। जो वर्तमान की दशवीं शताब्दी (६६३) मे लिपिबद्ध किए गये । इससे जैन मागम है, वे भगवान महावीर की परम्परा के हैं। पूर्व वे नहीं लिखे गये-यह प्रसंदिग्ध रूप से नहीं कहा .
उत्तरवर्ती प्राचार्यों ने इन पर व्याख्यात्मक ग्रन्थ लिखे जा सकता। इस एक सहस्राब्दी में स्मृतिभ्रश मादि दोषों
और उसे सुबोध बनाने का प्रयास किया; परन्तु भगवान् के कारण अनेक स्थल पूर्ण विस्मृत हो गए, अनेक स्थल
महावीर से पूर्व भगवान् पार्श्व की परम्परा का साहित्य अर्द्ध-विस्मृत हुए और अनेक नए स्थलों का यथा-स्थान
उपलब्ध था और अनेक पापित्यीय श्रमण उस साहित्य समावेश हुमा । स्वयं पागम इसके साक्षी हैं।
के उद्गाता थे। भगवान महावीर के समय में वे काफी बौद्ध साहित्य भी इसका अपवाद नहीं रहा। उसमें संख्या में थे। पापित्यीय श्रमणोंपासकों का उल्लेख भी नए-नए समावेश हुए और बौद्धाचार्यों ने उसे साहि
प्रागम साहित्य में भी पाया है। जब पार्श्व की परम्परा त्यिक रूप देकर जन योग्य प्रणाली में प्रस्तुत किया। इस
भगवान् महावीर की परम्परा में विलीन हो गयी, तब उस कार्य पद्धति से अनेक प्राचीन स्थल बदल गए । नए स्थलों
परम्परा से चतुर्दश पूर्व का ज्ञान भी उसी में अन्तनिहित को यथा स्थान बैठाया गया।
हो गया। अतः जैन परम्परा भगवान् महावीर से प्राचीन भिक्ष प्रानन्द कौशल्यायन ने लिखा है-"प्रश्न हो है और उसका साहित्य भी पुराना है। उस साहित्य को सकता है कि त्रिपिटक तो बुद्ध के ५०० वर्ष बाद लिपि- लिपिबद्ध करने के लिए तीन प्रमुख वाचनायें हुई और बद्ध किया गया। इतने समय में उसमे कुछ मिलावट की
अन्तिम वाचना वीर (९९३) में उसे व्यवस्थित रूप दिया काफी संभावना है। हो सकता है लेकिन फिर त्रिपिटक
गया। इस वाचना में अनेक प्राचीन घटनायें संगहीत पर किस दूसरे साहित्य को प्राथमिकता दें? यदि यह
हई। इससे उन घटनाओं की प्रामाणिकता बढ़ी। अतः माम भी लिया जाय कि बुद्ध की अपनी शिक्षाओं के साथ
जैन साहित्य को केवल लिपिबद्धता के प्राधार पर प्रर्वाकहीं-कहीं त्रिपिटक में कुछ ऐसी शिक्षाएँ भी दृष्टिगोचर
चीन और अविश्वसनीय मानना उचित नहीं लगता। होती हैं जिनकी संगति बुद्ध की शिक्षाओं से प्रासानी से नहीं मिलायी जा सकती, तो भी हम बुद्ध की शिक्षामों के जैन, बौद्ध और वैदिक साहित्य में अनेक समान लिए त्रिपिटक को छोड़कर और किसी दूसरे साहित्य की कथानक माते है । कहीं-कही वे एक से लगते हैं, कहीं-कहीं शरण लें।"
उनकी व्याख्या-पद्धति और कथावस्तु में अन्तर भी लगता डा० भार० सी० मजूमदार ने मामा-'यह कोई मही है। उत्तराध्ययन सूत्र मे भनेक कथायें ऐसी हैं जिनका मानता कि पिटकों में केवल बुद्ध के ही वचन है। यह उल्लेख बौद्ध तथा वैदिक साहित्य में भी हुमा है । जैसे3. बुख वचन (द्वितीय संस्करण) भूमिका पृ० २ . Ancient India, Page 182.