________________
दुष्टाधिप होते दण्डपरायण–१ १३ जुर्मानों की अपील लेकर सीधे शास्त्रीजी के पास जा पहुँचते । शास्त्रीजी उनके जुर्मानों को माफी लिख देते।
एक दिन अध्यापक मिलकर शास्त्रीजी के पास पहुँचे और कहने लगे"हम जुर्माना करते हैं और आप उसे माफ कर देते हैं, इस तरह से क्या अनुशासन बिगड़ेगा नहीं ?"
शास्त्रीजी ने सहानुभूतिपूर्वक अध्यापकों की बात सुनी, और औचित्य भी माना। पर अपनी भावनागत कठिनाई बताते हुए कहा-"जब मैं छोटा था, तब बड़ी निर्धन स्थिति थी। साबुन खरीदने के लिए मेरी माँ जब एक आना न जुटा सकी तो मुझे मैले कपड़े पहनकर स्कूल जाना पड़ा। इस पर अध्यापक ने मेरे पर आठ आना जुर्माना कर दिया। एक आना साबुन के लिए ही न था तो आठ आने जुर्माने का कैसे भरता ? अपनी इस स्थिति का स्मरण करके मुझे छात्रों का जुर्माना माफ करने पर विवश होना पड़ता है।"
बन्धुओ ! अगर इस सज्जन अधिप के बदले दुष्ट अधिप होता तो उसका एकमात्र दण्ड ठोकने पर जोर रहता, वह दण्ड्य व्यक्ति की भावना, परिस्थिति आदि पर बिलकुल ध्यान न देता । वास्तव में सहृदय, नम्र एवं निरभिमानी अधिप ही दूसरों के प्रति सहानुभूति एवं सहृदयता दिखा सकता है।
सच्चा अधिप गुणवृद्धि के लिए प्रयत्नशील सच्चा अधिप गुणवृद्धि के लिए प्रयत्नशील रहता है। उसे आडम्बर, वाचालता, प्रदर्शन एवं तड़क-भड़क से नफरत होती है। वह किसी भी अधिकार एवं पद को इसलिए ग्रहण करता है कि उससे जनता की सेवा हो, संसार में सुख-शान्ति की वृद्धि हो और मेरे में सेवा के साथ-साथ सहानुभूति, क्षमा, दया, करुणा, समता, कष्टसहिष्णुता आदि गुण बढ़ें। वह जानता है कि गुणों के विकास के लिए या गुणों की अधिकता देखकर ही मुझे यह अधिकार या आधिपत्य मिला है, अब यदि मैं गुणों की वृद्धि के बदले अवगुणों का ही अधिक संग्रह करता रहूँगा तो उससे न तो मैं जनता के हृदय पर आधिपत्य जमा सकूँगा, और न ही अपनी प्रतिष्ठा रख सकूँगा, बल्कि अवगुण-वृद्धि से दुःख और चिन्ताएँ ही बढ़ेगी। इसी प्रकार दूसरों के दोष देखने या अपनी भूल या त्रुटि को दूसरों पर मढ़ देने में कोई लाभ नहीं है; लाभ है, एकमात्र गुणग्रहण से। इसलिए अधिप का मूलमन्त्र होता है—गुणों को बढ़ाना, गुणग्राहक बनना । नीतिशास्त्र भी यही बात कहता है
गणेषु क्रियतां यत्नः किमाटोपैः प्रयोजनम् ?
विक्रीयन्ते न घण्टाभिर्गावः क्षीरविवजिताः ॥ -आप तो गुणों को बढ़ाने का ही प्रयत्न कीजिए, बाह्याडम्बरों से क्या प्रयोजन है ? जो गायें दूध नहीं देतीं, उनके गले में बड़े-बड़े घंटे बाँध देने पर भी उन्हें कोई नहीं खरीदता, क्योंकि उनका मूल्य तो दूध पर निर्भर है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org