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१२ आनन्द प्रवचन : भाग १० अधिप महान होते हुए भी सहृदयता नहीं चूकता
अधिप को कुछ विशेष अधिकार जनता से मिलते हैं, उसे सम्मान और प्रतिष्ठा भी जनता से अधिकाधिक मिलती है। इन विशेषताओं को पाकर वह शक्तिशाली हो जाता है, लेकिन विशेषता और महत्ता प्राप्त होने के साथ-साथ अधिप का यह कर्तव्य हो जाता है कि वह मनुष्य के नाते बुद्धि और शक्ति में विशिष्ट होने की महत्ता से प्रेरित होकर जनता की अधिक सेवा करे, उसकी शोभा और सुख-सम्पन्नता में वृद्धि करे; श्रेयस्कर कार्यों को करे। सेवा के लिए छोटे बनने में उसे कोई झिझक नहीं होनी चाहिए। सच्चा अधिप सेवा के कार्य में सबके साथ रहता है, वह उस समय छोटे-बड़े का भेदभाव नहीं करता।
सन् १९१६ की बात है। रूस के राष्ट्राधिप जननेता लेनिन पर उसके शत्रुओं ने घातक हमला कर दिया था जिससे वे घायल होकर रुग्णशय्या पर पड़े थे । अभी अच्छी तरह ठीक भी नहीं हो पाये थे कि उन्होंने सुना रूस की एक महत्वपूर्ण रेलवे लाइन टूट गई है, उसकी शीघ्र मरम्मत किया जाना आवश्यक है। देशभक्त लोगों ने वैतनिक मजदूरों पर निर्भर रहना पर्याप्त न समझा और वे बहुत बड़ी संख्या में अवैतनिक रूप में इस मरम्मत को जल्दी पूरा करने में जुट पड़े। काम बड़ा था, फिर भी जल्दी पूर्ण हो गया। आप बता सकते हैं, ऐसा होने में प्रेरक कौन था ? स्वयं रुग्ण, किन्तु उत्साही सेवाभावी राष्ट्राधिप लेनिन । रुग्णता के कारण दुर्बल होने के बावजूद भी वे लट्ठ ढोने का काम बराबर करते रहे और अपने साथियों में उत्साह भरते रहे। काम पूर्ण होने पर जब हर्षोत्सव हुआ तो देखा कि लेनिन मामूली कुली की तरह उन्हीं मजदूरों की पंक्ति में बैठे हुए हैं। आश्चर्यचकित होकर लोगों ने पूछा-आप सरीखे जननेता एवं राष्ट्राधिप को अपने स्वास्थ्य की चिन्ता न करते हुए इतना कठिन काम नहीं करना चाहिए। लेनिन ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया-जो इतना भी न कर सके, उसे जननेता एवं राष्ट्राधिप कौन कहेगा? अधिप अपनी पूर्वस्थिति को नहीं भूलता
इसके अतिरिक्त जो अधिप बनता है, वह परमात्मा का प्रकाश और अनुग्रह प्राप्त करने पर सच्चे अर्थों में महान बनता है। इस प्रकार के महान् व्यक्ति में जनजन के प्रति प्रेम, वात्सल्य और सहृदयता आदि गुण ईश्वरीय अंश प्राप्त होने के कारण अवश्य होते हैं। वह महान् बन जाने पर भी अपनी पूर्वस्थिति को भूलता नहीं और सभी के साथ सद्व्यवहार करता है।
दक्षिण भारत के सुप्रसिद्ध सामाजिक नेता श्री श्रीनिवास शास्त्री एक समय विश्वविद्यालय के कुलपति थे। यह पद आधिपत्य और अधिकारों की दृष्टि से कम महान न था, फिर भी शास्त्रीजी में इस पद या उच्चाधिकार का जरा भी अभिमान न था । अध्यापक कई बार छात्रों पर भारी जुर्माना कर देते, तब वे छात्र प्रायः अपने
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