Book Title: Acharangasutram Sutrakrutangsutram Cha
Author(s): Sagaranandsuri, Anandsagarsuri, Jambuvijay
Publisher: Motilal Banarasidas

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Page 247
________________ श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी० ) ॥ २७८ ॥ श्रीआचा राङ्गवृत्तिः (शी० ) ॥ २७९ ॥ 186 रित्यागं कुर्वतः साधोस्तपोऽभिसमन्वागतं भवति, कायक्लेशस्य तपोभेदत्वात् उक्तं च - "पंचेहिं ठाणेहिं समणाणं निगंधाणं अचेलगत्ते पसत्थे भवति, तंजहा - अप्पा पडिलेहा १ वेसासिए रूवे २ तवे अणुमए ३ लाघवे पसत्थे ४ विउले | इंदियनिग्गहे ५ " ॥ एतच्च भगवता प्रवेदितमिति दर्शयितुमाह जमेयं भगवया पवेइयं तमेव अभिसमिच्चा सव्वओ सव्वत्ताए सम्मत्तमेव सम भिजाणिजा ( सू० २१४ ) यदेतद्भगवता - वीरवर्द्धमानस्वामिना प्रवेदितं तदेवाभिसमेत्य - ज्ञात्वा 'सर्वतः सर्वैः प्रकारैः सर्वात्मतया सम्यक्त्वमेव | समत्वं वा - सचेलाचेलावस्थयोस्तुल्यतां 'समभिजानीयात् ' आसेवनापरिज्ञया आसेवेतेति ॥ यः पुनरल्पसत्त्वतया भगवदुपदिष्टं नैव सम्यग् जानीयात्स एतदध्यवसायी स्यादित्याह - जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ - पुट्ठो खलु अहमंसि नालमहमंसि सीयफासं अहियासित्तए, से वसुमं सव्वसमन्नागयपन्नाणेणं अप्पाणेणं केइ अकरणयाए आउट्टे तवसिणो हु तं सेयं जमेगे विहमाइए तत्थावि तस्स कालपरियार, सेऽवि तत्थ १ पश्चभिः कारणैः श्रमणानां निर्मन्थानामचेलकत्वं प्रशस्तं भवति, तद्यथा— अल्पा प्रतिलेखना १ वैश्वसिकं रूपं २ तपोऽनुमतं ३ लाघवं प्रशस्तं ४ विपुल इन्द्रियनिग्रहः ५. Jain Education International विअंतिकारए, इच्छेयं विमोहायतणं हियं सुहं खमं निस्सेसं आणुगामियं तिबेमि ( सू० २१५ ) ॥ ८-४ ॥ विमोक्षाध्ययने चतुर्थ उद्देशकः ॥ 'णम्' इति वाक्यालङ्कारे यस्य भिक्षोर्मन्दसंहनन तया एवम्भूतोऽध्यवसायो भवति, तद्यथा-स्पृष्टः खल्वहमस्मि रोगातकैः शीतस्पर्शादिभिर्वा रुयाद्युपसर्गैर्वा ततो ममास्मिन्नवसरे शरीरविमोक्षं कर्त्तुं श्रेयो 'ना' न समर्थोऽहमस्मि 'शीतस्पर्श' शीतापादितं दुःखविशेषं भावशीतस्पर्श वा रूयाद्युपसर्गम् 'अध्यासयितुम्' अधिसोदुमित्यतो भक्तपरिज्ञेङ्गितमरणपादपोपगमनमुत्सर्गतः कर्त्तुं युक्तं, न च तस्य ममास्मिन्नवसरेऽवसरो यतो मे कालक्षेपासहिष्णुरुप सर्गः समुस्थितो रोगवेदनां वा चिराय सोढुं नालमतो वेहानसं गार्द्धपृष्ठं वा आपवादिकं मरणमत्र साम्प्रतं न पुनरुपसर्गितस्त| देवाभ्युपेयादित्याह - 'स' साधुः वसु-द्रव्यं स चात्र संयमः स विद्यते यस्यासौ वसुमान्, सर्वसमन्वागतप्रज्ञानेनात्मना कश्चिदर्द्ध कटाक्षनिरीक्षणादुपसर्गसम्भवे सत्यपि तदकरणतया आ-समन्ताद्वृत्तो व्यवस्थित आवृत्तो, यदिवा शीतस्पर्शवातादिजनितं दुःखविशेषमसहिष्णुस्तच्चिकित्साया अकरणतया वसुमान् सर्वसमन्वागतप्रज्ञानेनात्मना आवृत्तो व्यवस्थित इति, स चोपसर्गितो वातादिवेदनां चासहिष्णुः किं कुर्यादित्याह - हुर्हेतौ यस्माच्चिराय वातादिवेदनां सोढुमसहिष्णुः, यदिवा यस्मात् सीमन्तिनी उपसर्गयितुमुपस्थिता विषभक्षणोद्बन्धनाद्युपन्यासेनापि न मुञ्चति ततस्तपस्विनः प्रभूततरकालनानाविधोपायोपार्जिततपोधनस्य तदैव श्रेयो यदैकः कश्चिन्निजैः सपत्नीकोऽपवरके प्रवेशितः आरूढ प्रणयप्रेयसीप्रार्थितस्तन्निर्गमोपायमलभमान आत्मोद्बन्धनाय विहायोगमनं तदाऽऽदद्याद्विषं वा भक्षयेत् पतनं वा कुर्याद् | दीर्घकालं वा शीतस्पर्शादिकमसहिष्णुः सुदर्शनवत् प्राणान् जह्यात् । ननु च वेहानसादिकं बालमरणमुक्तं, तच्चानर्थाय, तत्कथं तस्याभ्युपगमः ?, तथा चागमः - "ईच्चेएणं बालमरणेणं मरमाणे जीवे अणंतेहिं नेरइयभवग्गहणेहिं अप्पाणं संजोएइ जात्र अणाइयं च णं अणत्रयग्गं चाउरंतं संसारकंतारं भुज्जो भुज्जो परियट्टइ'त्ति, अत्रोच्यते, नैष दोषोऽत्रास्मा| कमाहतानां, नैकान्ततः किञ्चित्प्रतिषिद्धमभ्युपगतं वा मैथुनमेकं विहाय, अपि तु द्रव्यक्षेत्रकालभावानाश्रित्य तदेव प्रतिषिध्यते तदेव चाभ्युपगम्यते, उत्सर्गोऽप्यगुणायापवादोऽपि गुणाय कालज्ञस्य साधोरिति, एतद्दर्शयितुमाह - दीर्घकालं संय| मप्रतिपालनं विधाय संलेखनाविधिना कालपर्यायेण भक्तपरिज्ञादिमरणं गुणायेति, एवंविधे त्ववसरे तत्रापि वेहानसगा| र्द्धप्रष्ठादिमरणे अपि कालपर्याय एव यद्वत्कालपर्यायमरणं गुणाय एवं वेहानसादिकमपीत्यर्थः, बहुनाऽपि कालपर्यायेण | यावन्मात्रं कर्म्मासौ क्षपयति तदसावल्पेनापि कालेन कर्मक्षयमवाप्नोतीति दर्शयति- 'सोऽपि ' वेहानसादेर्विधाता, न | केवलमानुपूर्व्या भक्तपरिज्ञादेः कर्त्तेत्यपिशब्दार्थः, 'तत्र' तस्मिन् वेहानसादिमरणे 'विअंतिकार'त्ति विशेषेणान्तिर्व्यन्तिः -अन्तक्रिया तस्याः कारको व्यन्तिकारकः, तस्य हि तस्मिन्नवसरे तद्वेहानसादिकमौत्सर्गिकमेव मरणं, यतोऽनेनाप्यापंवादिकेन मरणेनानन्ताः सिद्धाः सेत्स्यन्ति च, उपसजिहीर्षुराह --' इत्येतत् पूर्वोक्तं वेहानसादिमरणं विगतमोहानामायतनम्--आश्रयः कर्त्तव्यतया तथा हितम् अपायपरिहारतया तथा सुखं जन्मान्तरेऽपि सुखहेतुत्वात् तथा 'क्षमं' युक्तं १ इत्येतेन बालमरणेन म्रियमाणो जीवोऽनन्तैर्नैरयिकभवग्रहणैरात्मानं संयोजयति यावदनादिकं चानवदयं चातुरन्तं संसारकान्तारं भूयो भूयः परिवर्तते. For Private Personal Use Only विमो० ८ उद्देशकः४ ॥ २७८ ॥ विमो० ८ | उद्देशकः४ ॥ २७९ ॥ www.jainelibrary.org

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