Book Title: Acharangasutram Sutrakrutangsutram Cha
Author(s): Sagaranandsuri, Anandsagarsuri, Jambuvijay
Publisher: Motilal Banarasidas
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मूत्रकृताङ्ग शीलाङ्का- चार्याय
तियुतं
178 व्यवहारस्यापि सामान्यविशेषरूपतया सामान्यविशेषात्मनोः संग्रह स्त्रयोरन्त वात्संग्रहर्जुस्त्रशब्दालयः, 'ते च द्रन्यास्तिकपर्यायास्तिकान्तर्भावाद्रव्यास्तिकपर्यायास्तिकाभिधानौ द्वौ नयौ, यदिवा सर्वेषामेव ज्ञानक्रिययोरन्तर्भावात् ज्ञानक्रियाभिधानी
१६गाथ द्वौ, तत्रापि ज्ञाननयो ज्ञानमेव प्रेधानमाह, क्रियानव कियामिति । नयानां च प्रत्येकं मिथ्यादृष्टिखाज्ज्ञानक्रिययोश्च परस्परा
18षोडशका पेक्षितया मोक्षाङ्गलादुभयमत्र प्रधानं, तच्चोभयं सत्कियोपेते साधौ भवतीति, तथा चोक्तम्-णायम्मि गिव्हियवे अगिहिय
ध्ययनं. छमि चेव अत्थंमि । जइयत्वमेव इति जो उवएसो सो नओ नाम ॥१॥ संवेसिपि णयाणं बहुविवत्तत्वयं णिसामेत्ता । तं सबनयविसुद्धं जं चरणगुणट्टिओ साहू ॥ २॥"ति, समाप्तं च गाथाख्यं षोडशमध्ययनं, तत्समाप्तौ च समाप्तः प्रथमः श्रुतस्कन्ध इति ॥ [ग्रन्थाग्रम् ८१०६]
TRATEEORE-STREATRES-STAT ESTareTRASTRASTRASTRA ॥ इति श्रीमच्छीलावाचार्यविरचितविवरणयुतः सूत्रकृताङ्गीयः प्रथमः श्रुतस्कन्धः॥
॥२६६॥
२६॥
१ तेऽपि च। २ फलसाधकं, अन्यथा प्रमाणवाक्यतापातात् । ३ाते ग्रहीतव्येऽग्रहीतव्ये चैवार्थे यतितव्यमेवेति व उपदेशः स नयो नाम ॥१॥ ४ सर्वेषामपि नयानां बहुविधां वक्तव्यतां निशम्य तत्सर्वनयविशुदं यचरणगुणस्थितः साधुः ॥१॥
ॐ नमः श्रीवीतरागाय ॥ अथ श्रीद्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीयः श्रुतस्कन्धः।
प्रथमथुतस्कन्धानन्तरं द्वितीयः समारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः, इहानन्तरश्रुतस्कन्धे योऽर्थः समासतोऽभिहितः असावेवानेन श्रुतस्कन्धेन सोपपत्तिको व्यासेनाभिधीयते, त एव विधयः सुसंगृहीता भवन्ति येषां समासव्यासाभ्यामभिधानमिति,
यदिवा पूर्वश्रुतस्कन्धोक्त एवार्थोऽनेन दृष्टान्तद्वारेण सुखावगमार्थ प्रतिपाद्यत इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य श्रुतस्कन्धस्य सम्ब18न्धीनि सप्त महाध्ययनानि प्रतिपाद्यन्ते, महान्ति च तान्यध्ययनानि, पूर्वश्रुतस्कन्धाध्ययनेभ्यो महत्त्वादेतेषामिति, तत्र महच्छ
ब्दाध्ययनशब्दयोनिक्षेपार्थ नियुक्तिकृदाहणामंठवणादविए खेसे काले तहेव भावे य । एसो खलु महतंमि निक्खेवो छम्बिहो होति ॥ १४२॥ णामंठवणादविए खेत्ते काले तहेव भावे य । एसो खलु अझयणे निक्खेवो छव्विहो होति ॥१४३॥ णामंठवणादविए खेप्से काले य गणण संठाणे। भाचे य अट्ठमे खलु णिक्खेबो पुंडरीयस्स ॥१४४ ॥ जो जीवो भविओ खलुववजिकामो य पुंडरीयंमि । सो दव्यपुंडरीओ भावंमि विजाणो भणिओ ॥ १४५ ॥
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सूत्रकृताङ्गे २श्रुतस्कन्धे शीलाकीयायां
१ पौण्डरीकाध्य. पुण्डरीकनिक्षेपाः
वृत्ती
॥२६७॥
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एगभविए य बद्धाउए य अभिमुहियनामगोए य । एते तिन्निवि देसा व्वंमि य पोंडरीयस्स ॥ १४६ ।। तेरिच्छिया मणुस्सा देवगणा चेव होंति जे पवरा । ते होंति पुंडरीया सेसा पुण कंडरीया उ॥१४७ ॥ जलयर थलयर खयरा जे पवरा चेव होंति कंता य । जे अ सभावेऽणुमया ते होंति पुंडरीया उ॥१४८॥ अरिहंत चक्कवट्टी चारण विजाहरा दसारा य । जे अन्ने इड्डिमंता ते होंति पोंडरीया उ॥॥१४९.॥ भवणवइवाणमंतरजोतिसवेमाणियाण देवाणं । जे तेसिं पवरा खलु ते होंति पुंडरीया उ॥ १५० ।। कंसाणं दृसाणं मणिमोत्तियसिलपवालमादीणं । जे अ अचित्ता पवरा ते होंति पोंडरीया उ ॥ १५१ ॥ जाई खेत्ताई खलु सुहाणुभावाइं होंति लोगंमि । देवकुरुमादियाई ताई खेत्ताई पवराई ॥ १५२॥. जीवा भवहितीए कायठितीए य होंति जे पवरा । ते होंति पोडरीया अवसेसा कंडरीया उ ॥ १५३ ॥ गणणाए रजू खलु संठाणं चेव होंति चउरंसं । एयाइं पोंडरीगाई होंति सेसाई इयराइं॥ १५४॥ ओदइए उपसमिए खइए य तहा खओवसमिए अ। परिणामसन्निवाए जे पवरा तेवि ते चेव ॥ १५५ ॥ अहवावि नाणदंसणचरित्तविणए तहेव अज्झप्पे । जे पवरा होंति मुणी ते पवरा पुंडरीया उ ॥ १५६॥ एत्थं पुण अहिगारो वणस्सतिकायपुंडरीएणं । भावंमि अ समणेणं अज्झयणे पुंडरीअंमि ॥१५७॥
नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावात्मको महति षड्विधो निक्षेपो भवति, तत्र नामस्थापने सुज्ञाने, द्रव्यमहदागमतो नोआगमअचित्त मीसगेसु दम्वेमु जे य होंति पवरा उ । ते होंति पोंडरीया, सेसा पुण कंडरीया उ ॥१॥ इति प्रत्यन्तरेऽधिका गाथा ।।
॥२६७॥
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