Book Title: Acharangasutram Sutrakrutangsutram Cha
Author(s): Sagaranandsuri, Anandsagarsuri, Jambuvijay
Publisher: Motilal Banarasidas

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Page 735
________________ 372 ___P. ___168 168 168 168 12 4 अय 169 169 170 170 170 170 170 170 170 170 164 170 171 P. L. शुद्धः पाठः 163 19 रूपां वितीर्णः 163 23-24 पर्यायाधिकेन समवयसा वा 163 25 संमत एवं चोदित इति, एवमनुशा 16333 अत्युत्थिता, यदि वा 163 35 स्थितयाऽपि कुपि॰ [प्र.] 16336 आत्माधमेनापि [प्र०] 164 ___4-5 न कुप्येत्, उक्त च-पाष्टेन [प्र.] 1647 तत्पीडाकारि [प्र०] 164 9 कश्चित् पुनः [प्र०] 164 12 अनुशासति 164 12-13 वतारणतोऽनुशासित [प्र०] 164 14 बुद्धा मां सम्यग [प्र.] 164 22 °मप्यपश्यन्न [प्र०] 23 दरी 164 35 शिक्षकोऽप्यभिनव 164 39 स्वर्गापूर्वदेवता [प्र.] 165 तदपकारेऽनपकारे वा [प्र.] 165 9 संयमादविचलन् [प्र.] 17 शकारी सदाज्ञाविधायी [प्र०] 16521 मनोवाक्कायगुप्तिभिः [प्र०] 16533 मोक्षाख्यं 166 9 पायरियसयासा धारिएग 166 10 होति 166 15 मन्यतरोनरो वा कश्चिदाचार्यादिः 166 18 समस्तशास्त्रार्थवेत्ता 166 21 बहुधनो दीर्घायु 166 24 जीवितं तद् मन्त्र [प्र०] 166 36-37 व्रतं--मृद्वी शय्या [प्र०] 166 37 भक्तं मध्ये [प्र०] 16639 तथ्यमपि 167 1 किञ्चिद° [प्र.] 1673 °मानं नो विक 4 अकषायी [प्र.] 167 19 वोच्चरितेने 20 अर्थ स्तोकं [प्र.] 20 शब्ददर्दुरेणा [प्र०] 38 प्ररूपयेद् [प्र.] L. शुद्धः पाठः 13 यथावस्थितप्ररू° [प्र०] 14 धर्म च श्रुत 19 ज्ञानादिकं भावसमाधि 32 ववदिसंती एतेन कारणेन 34 पड़प्पन्न अयवयतयणय गतौ [प्र०] 8 भवति दर्शनावरण 10 पृथगावरणप्रतिपादनेन 12 स्पर्शरसगन्ध 13 ऽपि विशेषहेतो 21 भवतीत्यतोऽहंन्नेव 23 °देव तीथिका 28 ब्रुवते क्वचित् । 39 तीर्थकृतोऽयं धर्मः 11 संसारोपरि वर्तमान 16 मोक्षावाप्तौ तथापि 15 अतिवर्तन्ते वा 40 कृत्वा, अतो येन 5 धारणतया 13 ऽन्तं पर्यन्तं सर्व॰ [प्र०] 14 क्रियया वा उत्पन्न [प्र.] 15 अनुशासति 28 प्रवेशनोपायभूतो 29 मतिनीय [प्र.] 3 मन्तवर्ती विव न्तप्रान्तानि [प्र.] 8 मानुष्यके [प्र०] मनुष्यलोके [प्र.] 14 सुयं च मे 31 'मर्थं धर्मार्थ 34 अनुतिष्ठन्तिच 35 अनन्यसदृशज्ञान [प्र०] 37 तथा चोक्तम् [प्र०] 8 यस्मात् स्थानात् तदनुत्तरं स्थानं, तच्च सत् संयमाख्यं ll सिद्धि मवाप्नुवन्तीति [प्र०] 22 भूताः सुव्रताः सत्सं 171 171 171 172 172 172 165 172 172 173 173 173 173 173 173 173 167 173 174 167 167 174 174 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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