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शुद्धोपयोग वि. ग्रंथ ४.
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4
श्रीमद बुद्धिसागरसूरिग्रन्थमाला. ग्रन्थाङ्क ६९-७०-७१-७२.
*
जैनाचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरिविरचितसंस्कृत ग्रन्थो
६९ शुद्धोपयोग. ७० दयाग्रन्थ. ७१ श्रेणिकसुबोध. ७२ कृष्णगीता.
Co
श्री अध्यात्मज्ञानप्रसारक मण्डल. हा. वकील, शाह, मोहनलाल हिमचंदभाइ.
मु. पादरा. (गुजरात)
************************
प्रथमावृत्ति. वीर मं. २४५.०.
प्रत १०००.
सन १९२४.
वि. सं. १९८०.
वसंत मुद्रणालयमां चीमनलाल इश्वरलाल महेताए छाप्यु.
सिवील होस्पितालनी सामे,
अमदावाद.
किंमत ०-१२-०.
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આ અત્યંત ઉપયોગી ગ્રંથના પ્રકટનાર્થે નીચે જણાવેલ બંધુઓ તરફથી સહાય મળી છે જે માટે તેમને અંતઃકરણપૂર્વક આભાર માનવા સાથે ધન્યવાદ આપવામાં આવે છે.
૧૦૦) બઈ બબુ સંઘવી લીલાચંદ પાનાચંદ મુ. મહેસાણું. ૧૦૦) શા. જેસંગભાઈ જમનાશા. હા. મેહનલાલભાઈ મુ. વિજાપુર ૫૦) સાંકળચંદ હાથીભાઈની વિધવા બાઈ મણી મુ. મહેસાણા પ૦) હાલાભાઈ ખેમચંદ મુ. મહેસાણા. ૫૦) બાઈ હેમકુંવર દિીક્ષા પ્રસંગ] મુ. જામનગર ૧૫) એક જેન ગૃહસ્થ. ૯) ઉમેદમલ રાજમલ.
૩૭૪
અ. જ્ઞા. પ્ર. મં.
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निवेदन.
श्री अध्यात्मज्ञानप्रसारकमंडल तरफथी श्रीमद् बुद्धिसागरसूरिग्रन्थमाळाना ग्रन्थांक नं. ६९-७०-७१ -७२ तरीके शुद्धोपयोग. दयाग्रन्थ, श्रेणिकसुबोध, अने कृष्णगीता. ए चार आध्यात्मिक संस्कृतग्रन्थ बहार पाडवामां आव्या छे. तेनी किंम्मत ०-१२-० राखवामां आवी छे. अध्यात्मज्ञानप्रसारकमंडल तरफथी सस्ता किंमते पुस्तको बहार पाडवामां आवे छे के जेथी वाचकोमा तेओनो बहोळो फेलावो थाय. जैनधर्मीबंधुओए आवां पुस्तको छपाववामां द्रव्यनी सहाय आपवी जोइए. जैनअध्यात्मज्ञाननो प्रकाश करनारां आवां उपयोगीपुस्तकोनो बहोळो प्रचार करवामां अमारा धर्मीबंधुओए अर्पाइ जq जोइए.
अध्यात्मज्ञानप्रसारक मंडळ. हा. वकील शा. मोहनलाल हिमचंद.
मु. पादरा (गुजरात)
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तैयार छे !
जल्दी मंगावो! श्रीमज्जैनाचार्यबुद्धिसागरसूरीश्वरजीनी कसायेली
कलमथी लखायेला तद्दन नवीन पुस्तको.
पूजासंग्रह.
जेनी अंदर जूदी जूदी जातनी बावीश पूजाओ के जे अध्यात्म तत्त्वज्ञानथी भरपूर छे एटलुंज नहि पण अत्यार अगाउ नहि रचायेली पंचधायोगपूजा, अष्टांगयोगपूजा, दानशीयलतपभावपूजा, षडावश्यकपूजा, महावीरजन्मजयंतीपूजा, गुरुपूजा तथा जैनशासनश्रीघंटकर्णमहावीरपूजा वगेरे पूजाओ अनेक नवीनविषयोथी ओतप्रोत अने तद्दन नवीनढवथी चालु जमानाने अनुसरती रीते सुंदर रागरागिणीओथी बनावेली छे, के जेओ अनेक मनुज्योना मन हरी लेशे. सुंदर पाकुं बाइन्डींग पृष्ट ४१५ किंमत मात्र रु. १-८-० पोस्टेज अलग.
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प्रस्तावना.
वि. सं. १९७९ नी सालन चोमासु विजापुरमा कयुः चोमासामां शुद्धोपयोग नामनो ग्रन्य लखवामां आव्यो तेमां आध्यात्मिकदृष्टिनी अनेकांत अपेक्षाए मुख्यता छे. ६९ दयाग्रन्थमां दयाना अनेक भेदोनुं वर्णन करवामां आव्युं छे. दयाना अने हिंसाना अनेकप्रकारोनु अनेक नयदृष्टिओनी अपेक्षाए वर्णनकर्यु छे. जेटला दयाना भेदो छे तेटला स्हामा हिंसाना भेदो छे. हिंसा अने अहिंसा अपेक्षाए छे. हिंसानां अने अहिंसानां लक्षणोने अनेकनयदृष्टिए जणाव्यां छे. भजनसंग्रह नवमाभागमां गुजरातीभाषामां श्रेणिकसुबोधग्रन्थ रच्यो छे तेनुं सुधारा वधारा साथे संस्कृत भाषांतर, पद्यमां कयु छे. नोवेलनी दृष्टिए तथा वस्तुतः आध्यात्मिक औपदेशिक दृष्टिए कृष्णगीता. वि.सं. १९७५मां पादरामां चोमासु कयु हतुं ते वखते रची हती. दयाग्रन्थ महुडीमां रच्यो छे. श्रेणिकसुबोधसंस्कृत ग्रन्थ विजापुरना वि. सं. १९७९. ना चोमासामा रचवामा सुधारा वधारा साथे आव्यो छे. भूलचूक दोष वगेरेनो द्वितीयावृत्तिमा सुधारो . करवामां आवशे. सुज्ञो जे कंड सूचनाओ करशे ते संबंधी द्वितीयावृत्तिमां
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१९८०
वि. सं. फाल्गुन पूर्णिमा.
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खुलासो सुधारो वधारो करवामां आवशे. संस्कृत ग्रन्थोमां जे कंइ अशुद्धियो थइ छे तेनुं अशुद्धि शुद्धिपत्रक करवामां आयुं छे. छापाना घसायला टाइपो वगेरेथी जे स्खलनाओ थइ छे, तेओनो द्वितीयावृत्तिमां सुधारो करवामां आवशे. वीतरागनी आज्ञाविरुद्ध कंह लखायुं होय तेनो संघनी आगळ प्रथमथी मिच्छामिदुक्कडं देवामां आवे छे. श्रीगौतमप्रभुनी अनुपयोगे आनंदश्रावक साथे वातचित करतां भूल थइ तो मारा जेवा पामरनी भूल थाय ते संबंधी म्हने सूचनाओ जेओ करशे तेनो द्वितीया वृत्तिमां सुधारो करवामां आवशे.
}
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मु. प्रांतिज. ली. बुद्धिसागर.
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श्री अध्यात्मज्ञानप्रसारक मंडळ तरफथी
श्रीमद् बुद्धिसागरसूरिजीग्रन्थमाळामां
प्रगटथयेला ग्रन्थो.
ग्रथांक
पृष्ठ किंमत.
१ क भजन संग्रह भाग ? लो. २०० ०-८-. * १ अध्यात्म व्याख्यानमाळा. * २ भजनसंग्रह भाग २ जो. ३३६ ०-८-० * ३ भजनसंग्रह भाग ३ जो. २१५ ०-८-० * ४ समाधिशतकम्.
६१२ ०-८-० ५ अनुभवपच्चिशी.
२४८ ०-८-० ६ आत्मप्रदीप.
३१५ ०-८-० * ७ भजनसंग्रह भाग ४ थो. ३०४ ०-८-० ८ परमात्मदर्शन.
४०० ०-१२-० * ९ परमात्मज्योति.
५०० ०-१२-० * १० तत्वबिंदु.
२३० ०-४-० * ११ गुणानुराग. (आवृत्ति बीजी) २४ ०--१-० * १२--१३. भजनसंग्रह भाग ५ मो तथा ज्ञानदीपिका.
१९० ०-६-० * १४ तीर्थयात्रानु विमान (आ. बीजी) ६४ ०-२-०
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* १५ अध्यात्मभजनसंग्रह * १६ गुरुबोध.
ग्रंथांक
* १७ तत्त्वज्ञानदीपिका
१८ गहूंलीसंग्रह भा. ?
* १९-२० श्रावकधर्मस्वरूप भाग १ - २ (आवृत्ति त्रीजी )
* २१ भजनपदसंग्रह भाग ६ ठो.
२२ वचनामृत.
२३ योगदीपक.
२४ जैनऐतिहासिक रासमाळा.
* २५ आनन्दघनपद ( १०८ ) संग्रह भावार्थ सहित.
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* ३६ विजापुरवृत्तांत. ३७ साबरमतीकाव्य.
३८ प्रतिज्ञापालन.
१९०
१७४
पृष्ठ
१२४
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०--६--०
0--8-0
किंमत
०--६--0
११२ ०--३--०
४०--४० ०-१-०
९६
* २९ कुमारपाल ( हिंदी )
२८७
३० थी ४ -- ३४ सुखसागर गुरुगीता. ३००
३५ षड्द्रव्यविचार.
२४०
९०
२०८ ०-१२-०
८३०
०-१४-०
३०८
0-28-0
४०८
८०८
* २६ अध्यात्मशान्ति (आवृत्ति बीजी) १३२ ० -३ -०
२७ काव्यसंग्रह भाग ७ मो.
१५६
०--८--०
* २८ जैनधर्मनी प्राचीन अने अर्वाचीनस्थिति.
१--०--०
२--०-०
०--२-०
०--६--०
०--४-०
०--४--०
0-18--0
१९६०--६--० ११० . ०--५--०
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३९-४० - ४१ जैनगच्छमतप्रबंध, संघप्रगति, जैनगीता.
४२ जैनधातुप्रतिमा लेखसंग्रह भा. १
४३ मित्र मैत्री.
४४ शिष्योपनिषद्.
४५ जैनीपानषद.
४६-४७ धार्मिक गद्यसंग्रह तथा सदुपदेश भाग १ लो.
४८ भजनसंग्रह भा. ८
४९ श्रीमद् देवचंद्र भा. १ ५० कर्मयोग.
५१ आत्मतत्त्वदर्शन.
५२ भारतसहकारशिक्षण काव्यं
५३ श्रीमद् देवचंद्र भा. २
५४ गहुँली संग्रह भा. २ ५५ कर्मप्रकृतिटीकाभाषांतर ५६ गुरुगीत गुहलासंग्रह.
५९ देववंदन स्तुति स्तवन संग्रह.
६० पूजासंग्रह भा. १ लो.
६१ भजनपदसंग्रह भा. ९
५२ भजनपदसंग्रह भा. १०
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३०४
?--0--0
४८ ०-८-०
४८
५७-६८ आगमसार अने अध्यात्मगीता ४७०
१--०-०
०-८-०
९७६ ३-०-०
९७६
१०२८ २-०-०
१०१२ ३-०-० ११२
१६८ 0-20-0
१२००
१३०
१७५
४१६
५८०
०-२-०
२००
३-०-०
०-१०-०
८०० ३--०-०
३--८०-०
१९० ०-१२-०
०--६--०
0--8--0
०--४-०
१-०-०
१-८-०
?-0-0
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६३ पत्रसदुपदेश भा. २ . ५७५ १-८-०
नीचेना ग्रन्थो बे मासमां बहार पडशे. ६४ धातुप्रतिमालेख संग्रह भाग २ ६५ जैनदृष्टिए ईशावास्योपनिषद् भावार्थविवेचन. ६६ पृजासंग्रह द्वितीयावृत्ति तथा अन्यपूजाओ
सहित-भाग २ बीजो. ६७ स्नानपूजा.
०-२-० ६८ श्रीमद् देवचंद्रजी अने तेमनुं जीवनचरित्र.
संस्कृत ग्रन्थो. नं. ६९ शुद्धोपयोग ७३ संघकर्तव्यग्रन्थ
७० दयाग्रन्थ ७४ प्रजासमाजकर्तव्यग्रन्थ ७१ श्रेणिक सुबोध ७५ शोकविनाशक ७२ कृष्णगीता ७६ चेटकबोधग्रन्थ ७७ सुदर्शनासुबोध.
हाल छपाता ग्रन्थो.
आत्मप्रकाश. कन्याविक्रयनिषेध. ध्यानविचार. तत्त्वविचार. चिन्तामणि. जैनधर्म अने खोस्तीधर्मनो मुकाबलो
* आ निशानीवाळा ग्रन्थो सीलीकमां नथी.
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११
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उपरनां पुस्तको मळवानुं ठेकाणुं. वकील मोहनलाल हीमचंद. (गुजरात) पादरा
शा. आत्माराम खेमचंद. साणंद.
भांखरीया - मोहनलाल नगीनदास. मुंबई कोटबजार गेट नं. १९२-९४ बुकसेलर, मेघजी हीरजी. पायधुनी मुंबई.
शेठ नगीनदास रायचंद भांखरीया.
मु. मेसाणा. शेठ रतिलाल केशवलाल मु. प्रांतिज.
शेठ चन्दुलाल गोकलदास मु. विजापुर (गुजरात ) जैनज्ञानमन्दिर ||
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आत्मशुद्धोपयोगादिग्रन्थानां शुद्धिपत्रम्.
१८
शुद्धिः रूपं संस्थितः प्राप्तौ बहिर्मुखो आत्मना मोक्षलक्ष्यो
नृणां
Bar mms cover w9 vv 222222222
पंक्तिः श्लोकः अशुद्धिः
रूप सत्थितः प्राप्ता वहिर्मुखी आत्मर्ना माक्षलक्ष्यो . नणां मग्र जानातिसी तार्थ दद्वेष मन्नानां सः प्रातक्षणं भिमत्त
स्वर्गाद ११३ चारत्र ०१३ निमत्ता
बुद्वतः संभय मलन्ति
मग्रे जानात्यसौ तीर्थ द्वेष मनानां
प्रतिक्षणं निमित्त स्वर्गादि चारित्र निमित्ता बुद्धित: संभूय मिलन्ति वृत्तिः माविकः वासनां स्थिरो संस्थित: तिरो
११४ ११९ १३३ १३९
सात्वका वासनां स्थिरो सीस्थत तिरो
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पंक्तिः _____ श्लोकः
wwwww mr m m mm m000
oroM.
अशुद्धिः नेच्छात कांक्षिाम भोगेडाप कारणाम् नश्यात निकाचतं बध्नाति । भघाज्जनः संघा वृात्त शाक्ति
१५४
शुद्धिः नेच्छति कांक्षिभिः भोगेऽपि कारिणाम नश्यति निकाचित बध्नाति भवेन्जिनः संघो वृत्तिः शक्ति शिवं भिन्न देवो
ON
१६४
शिवं
१७० १७४ १७४ १७५
१९
भिन्न देवः
१७९
हाद सम्यच्छ्रद्धा धर्माद सम्यग
१८१
१८१ ૨૮૨
सम्यच तहर्याप
૨૮૨
हृदि सम्यक्छूद्ध धर्मादि सम्यग दृष्टि सम्यक तद्यपि मिथ्या दृष्टि भूता विवेकेन किञ्चित जाग्रत
मिथ्या.
१८२ १८२ १८४
द्वाष्ट भता विवेकन कश्चित् आग्रन्
१९४
२०७
२१३
ब्रता
व्रता
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पृष्ठं
पंक्तिः श्लोकः अशुद्धिः शुद्धिः
२१५ १५ दशा . २१५ दशां
क
२०१३ २० १९
२३२ २३५ १३८ રકર
२५० २५१
२६४
२६८
यागतो
२६९ २७६ २८५ ३०२
३०२
शुद्धयार्थ
হযর্থ भास्य भावस्य जोवन्ती जीवन्तो ईदृज इदृग् म्तृप्ति स्तृप्ति शाताऽशातो साताऽसातो शातो सातो वतिनाम् वर्तिनाम्
तत्तु काटि कोटि
योगतो आववर्मूतो आविर्भूतो साम्प्रात सम्प्रति यागिनः योगिनः कषायेन कषायेण यागेभ्यः योगेभ्यः भतेषु भूतेषु
आ श्यसो श्यमा विरद्धेषु
विरुद्धेषु नणां नृणां जीवन्ता जीवन्त जावन्तो जीवन्तो आत्मधाना आत्माधीना प्रवृत्तिप्पु प्रवृत्तीच प्रवृत्ता प्रवृत्ती भिन्नां मिन्नो
३३४
m mmm
३३५
. श्चा
રૂ૮૪ ३९३
३९४
४०७
२४
४१४
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पंक्तिः
श्लोकः
४१६
३६ ३६
१२ १३
४२० । ४२१
४२५
४२५ ૪ર૭
४४४ ४६१
४६४ ४६७ ४६८ ४७१ ४७५ ४७५ ४९२
अशुद्धिः शुद्धिः कालता शुभः कालताऽशुभः रूपेभ्या रूपेभ्यो लाभार्थ
लाभार्थ
दृष्टि शाताऽशाता साताऽसात शुद्धयार्थ
शुद्धयर्थ जात
जाति सम्यग् सम्यक् तपा
तपो सों
मुक्तिः भाक्त
भक्ति भाक्त
भक्ति नावृतोह नावृतोहि सात्वका सारिवका निबोधत निबोधत श्रद्धान छ्रद्धान चारित्रं
चारित्रं मृत्युता
मृत्युतो त्तापोऽास्त तापोऽस्ति
द्वेष तर्ण तूर्ण विनन्यान विना न्यान् सापक्ष सापेक्ष सुपुम्णैव सुषुम्णैव नजा
निजा सो सोबोध्यो बोध्यःस
४९९
६१६
६२०
५९७ ४८८
५९२ ६९७
सो
नामान
नामानि
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____पंक्तिः
श्लोकः
कत्री
६२३
६२६
६७३ ६८२
म
६०२ ७१२
अशुद्धिः शुद्धिः
की कमाणि
कर्माणि
बलं सम्यग्शु सम्यक्छु जीवनो जीवनो जापन
जापेन वीर
वीरः सो प्रमाणं प्रमाण पदाथै पदार्थ शसा
शमी. सो दृशां दशां शत्रुर्न ।
शत्रुन ऐवं
एवं द्वेषिणा द्वेषिणा शमादि शर्मादि ना कोऽपि. नोकोऽपि आत्मेव आत्मैव कृत्व
कृत्वा गुर
गुरु गर्वा गुर्वा गुर गुरु
गुरु शान्ति
शान्ति वज्ञः सर्वज्ञः चन्द्रार्क
चन्द्रार्क अपृ
अष्ट वुद्धि
७२५ ७३०
३९ ७७०
७७७ ७९० ७९१ ७९२
११
गरु
७९२
१ ६८४
७९९ ८०० ८०२ ८०३
१०
बुद्धि
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७१
(0.
७१
पृष्टं पंक्तिः श्लोकः अशुद्धिः शुद्धिः
दयाग्रन्थ:
समाचरम् समाचर ७० २ १० हिसका हिंसका
पुण्याद्यर्थ पुण्याद्यर्थ सः प्रभो प्रभो शौचार्थ
शौचार्थ च्छाञ्च च्छीघ्र हिसके
हिंसके १६ २९ ईवर ईश्वर
प्रोतये प्रीतये टेवी गवादी गवादि कुर कुर
कुरु घ्रवम् ध्रुवम् वृद्धर्य धमिणः धर्मिणः
देवी
૯૨
कुर
दुष्टि
० WWWW
० (०
२४४४ २४६
कूरव कुरुष्व नास्तक नास्तिक हिंसा हिंसा वृद्ध वृद्धिं वरिषु वैरिषु रक्षणोः रक्षिणी ज्ञात्वां ज्ञात्वा नाति नास्ति वुद्धयादि बुद्धयादि बुद्धि बुद्धिं
७४ १
५८
७४
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पृष्ट
पंक्तिः श्लोकः अशुद्धिः
शुद्धिः
दयाग्रन्थः
Ce
७७ ७८ ७८
१०७
वुद्धाः
१२०
१२६
०
निर्दभ निर्दभ आर्वदेशी आर्यदेशो स्वाऽविकारे स्वाऽधिकारे
बुद्धाः जोवानां जीवानां जोवन्तु जीवन्तु वणित वर्णित मजिाविका माजीविका यज्ञार्थ यज्ञार्थ रधिरं रुधिरं यया
यथा भक्षणार्थ भक्षणार्थ वोरेण वीरेण सम्यज सम्यगू वुद्धया बुद्धया आहसा अहिंसा युद्धार्थ हसक हिंसक हिसक
हिंसक शत्रणां মুলা • जातिष जातिषु दयाकाषु दयाकार्येषु
રટર
१४२
N
२६२
V
युद्धार्थ
१७१ १७४ १७५ १७८ १८३
at
४
४
तोर्थ
१९
१८७ १९० १९१
તી रक्तो रुको स्वार्थ कुष्य . कुरुष्व 'स्वात्मानन्द स्वाऽऽत्मानन्दं
स्वार्थ
१९६
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पृष्टं
VV१ १ १ १ VVVVVVV F F F F F F 2 2 2
८५.
८५
८७
८७
८७
८७
८७
८८
८८
८८
८८
८८
८९
८९
८९
८९
पंक्तिः
१९
२४
१४
१६
१८
५
१३.
१५.
२२
५
१२
८ ३१६
२१९
२२०
१६
१९
ર૪
३
११
१४
ક
१५
१३
१८
१९
२
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૨.
श्लोकः
१९९
२०१
२०४
२०८
२०९
२१०
२१५
२३२
२२७
२३०
२३२
२३४
२३६
२३८
२४२
२४३
१९
अशुद्धिः
२५९
२५९
दयाग्रन्थः
दृष्य्यालाभ
प्रवतन्ते
विन्धपुण्येन बन्धिपुण्येन
समप्राप्त्या
सम्प्राप्त्या
दृष्ट्यादिलाभ
कुवन्तु
स्थिरोभय
सर्वे
कतव्वं
जोवान्
सहर्त्ता
विश्वस्मिन् :
हस्र
रक्षाथ
धमिणः
वुध्या
वजनम्
वुध्या
भोति
देष
वर्तव्यंच
दान
धमिषु
२४३
૨૦૦
२४३
२४५ ४४५ वितं
२४७ ४४६ पारतीय
२४९
रे. हि
हिसा
स्वार्थेण
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शुद्धिः
प्रवर्तन्ते
कुर्वन्तु
स्थिरीभूय
सर्वे
कर्तव्यं
जीवन,
संहर्त्ता
लोकेषु
हिंस्र
रक्षार्थ
धर्मिण:
बुद्धया
वर्जनम
बुद्धया
भीर्ति
द्वेष
वर्तितव्यं
दानं
धर्मिषु
२४५ वित्तं
२४६ पारतंत्र्यं
रैहि
हिंसा
स्वार्थेन
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पृष्टं
९१
९१
९१
९१
९१
९१
९१
९२
""
९३
"
९७
९७
९९
33
6
""
""
१००
""
१०२
१०३
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पंक्ति: श्लोकः
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अशुद्धिः
दयाग्रन्थः
वुध्या
वश्याः
कम
धर्मिर्मि
धमिभि
सः
शास्त्रषु
हिसा
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कार्य
अरिष्ठ
यावद्विसा
याग
रोश्वरो
यिता
गुर
तेः
कर्म
विवे
श्चि
सत्य
द्विता
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शुद्धिः
बुद्धया
वैश्याः
कर्म
धर्मिभिः
धर्मिभि
स
शास्त्रेषु
हिंसा
59
कार्य
अरिष्ट
यावर्द्धिता
योग
रीश्वरो
पिता
गुरु
ते
कर्म
विवे
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सत्यं
द्विती
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पृष्ट
श्रेणिकसुबोध ग्रन्थः पंक्तिः श्लोकः अशुद्धिः
स्मनि
शुद्धिः
यास्त्व
यान्स्त्व सव वित्तिः अप ततमा
१११
WW.
विधिः भूप तमा प्रताद वी भोगे
वणी
११४
भोगु
साक्षी
११५
साक्षी खिला त्यामाऽत्माय
खिला
११७
.
१०३
यमाऽऽत्मा धर्म दुःखि
दुःसि
१२३
२४
११३
भृतं
भूतं वशः
१२४
११४
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पृष्ट
१३२
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पंक्तिः
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श्लोकः
३५
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२२
श्रीकृष्णगीता.
अशुद्धिः
पूर्णान्द
जोवा
सबं
ज्ञानाति
स्वाध
मदा
विका
ज्ञानो
किंश्चि
निज़रा
लेभ्या
मुक्तिजै
जनैनू
प्रभोभे
योऽास्त
बाह
जीवानां
चतुविधे
न
गीता
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शुद्धिः
पूर्णानन्द
जीवा
सर्व
ज्ञानीति
स्वाधि
महा
विका
ज्ञानी
किञ्चि
निर्जरा
तेभ्यों
मुक्तिर्जे
जनै
प्रभोर्भ
योऽस्ति
बहि
जीवाना
चतुर्विधे
जैन
गता
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जैनाचार्यबुद्धिसागरसूरिकृत
आत्मशुद्धोपयोगः
॥१॥
प्रणम्यपरमानन्दं, महावीरं जिनेश्वरम् आत्मशुद्धोपयोगंतं, वच्मिस्याद्वादबोधतः शुद्धाssस्मैव महावीरो, व्यक्तानन्दचिदात्मकः ॥ निजाssत्मानमहावीरं, जानाति वीर एव सः ॥२॥ शुभाशुभपरीणामाद् भिन्न आत्माऽस्ति वस्तुतः पुण्यपापा विभिन्नोऽस्ति, स्वाऽऽत्मारामोवपुः स्थितः। अक्षयोनिर्मलः शान्तः पूर्णानन्दमयो महान् अनाद्यनन्तकालीनः सर्वोपाधिविवर्जितः अनादिकालतः कर्म, - संगयुक्तोऽपिसत्तया सिद्धोबुद्धोपरेशान, - आत्मैवास्ति प्रभुर्विभुः सत्तातः पूर्णआत्माऽस्ति, व्यक्तितः पूर्णएव सः हृदिजानातियस्त्वेवं, सएवज्ञानवान्स्वयम् शुडाssत्मनः स्वरूपं यः - स्मरत्येवप्रतिक्षणम्, सशुद्धाssत्माभवत्येव, परब्रह्मजिनेश्वरः
॥५॥
॥६॥
॥७॥
በሪዞ
शुद्धात्मभावनाधारी, शुद्धाऽऽत्माजायते स्यात् । शुभाशुभोपयोगेन, - विनिर्मुक्तः स्वयंभवेत् मनोविकल्प संकल्प-वर्जितं च निरञ्जनम् रागद्वेषविनिर्मुक्तं - शुद्धरूपंनिजाऽऽत्मनः
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॥४॥
॥९॥
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जन्ममृत्युजरातीत-माधिव्याधिविवर्जितम् । वपुर्मनोवचोऽतीतं, जडभिन्नंचनिर्भयम् ॥१०॥ वर्णातीतं निराकार, निर्विकारं निरामयम् नामरूपविनिभिन्नं,-विशुद्धरूपमाऽऽत्मनः ॥११॥ समत्वेनजगत्पश्यन् , जानंश्चब्रह्मरांस्थितः शुद्धोऽसौ क्षणमात्रेण, भवत्याऽऽत्मा स्ववेदकः॥१२॥ शुद्धोपयोगिनांनान्यत् , साधनस्यप्रयोजनम् सर्वसाधनसंसाध्या, शुद्धोपयोगसाध्यता ॥१३॥ शुद्धोपयोगसंप्राप्तौ। मुक्ताऽऽत्माजायतेखलु । देहेसत्यपिवैदेहो, जीवन्मुक्तदशांव्रजेत् १४॥ सर्वजातीयसंकल्प-विकल्पोपशमेसति पूर्णानन्दरसास्वादः प्रत्यक्षमनुभूयते ॥१५॥ निर्विकल्पदशायांतु-ब्रह्मशर्मसमुल्लसेत् । ब्रह्मरसंसमासाद्य-शुद्धाऽऽत्मानिःस्पृहोभवेत् ॥१६॥ शुभाऽशुभपरीणामो, विद्यतेनैवचेतने, समत्वंचान्तरेबाह्ये, तदाऽऽत्माभगवानस्वयम् ॥१७॥ देहेन्द्रियपदार्थानां, सम्यग्दृष्ट्या विलोकनम् शुभाऽशुभविपाकेषु, समत्वंतर्हि मुक्तता ॥१८॥ शुभाशुभपरीणामे-नष्टेशुद्धोपयोगतः । आत्मशुद्धविचाराणां, भवेच्छुद्धोपयोगता ॥१९॥ शुभाऽशुभेचनोभातो, हृदि साम्यंच भासते तदासिद्धाऽऽत्मनः शर्म, स्वनुभूयेत संप्रति ॥२०॥ शुद्धोपयोगकालेतु, संप्रतिवपुषिस्थिते; परानन्दरसास्वादो, मयासंवेद्यते खलु ॥२१॥
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क्षायोपशमिकध्यान-कालेशुद्धोपयोगता, अन्तर्मुहूर्तमानंच, यातिनश्यत्यनेकशः ॥२२॥ आत्मशुद्धोपयोगस्तु, सर्वयोगशिरोमणिः यत्प्राप्ताविद्यतेनैव, निमित्तानांप्रयोजनम् ॥२३॥ शुद्धोपयोगएवास्ति, शुद्धोपादानकारणम् हृदिशुद्धोपयोगश्चे, बमुक्तिसुखंध्रुवम् !२४॥ शुद्धोपयोगऐश्वर्य, यस्याऽसौ भगवान् स्वयम् क्षायोपशमिकध्यानी, जीवन्मुक्तोह्यपेक्षया ॥२॥ शुद्धोपयोगवेलाया, मात्मनः परमात्मता, चिदानन्दस्वरूपेण, व्यक्ताऽनुभूयते मया ॥२६॥ शुद्धोपयोगसामर्थ्य, मनन्तं कर्मनाशकृत् अनन्तशक्तिरूपाऽऽत्मा, तत्समाकोऽपिनोमहान् ॥२७॥ आत्मन आत्मनोद्धार, आत्मनिक्रियते ध्रुवम् भवोऽशुद्धोपयोगेन, मुक्तिः शुद्धोपयोगतः ॥२८॥ आत्मानमुद्धरेदाऽऽत्मा, स्वाऽऽत्मधर्मोपयोगतः नाऽन्यः शक्तः समुहर्तु, ज्ञातुमाऽऽत्मानमुडर ॥२९॥ अन्तर्मुखोपयोगेन, स्वाऽऽत्मारामोभवेत् प्रभुः वहिर्मुखोपयोगेन, जन्मदुःखपरम्परा ॥३०॥ परात्मानंहृदिध्यात्वा, स्वाऽऽत्माव्यक्तो भवेत् प्रभुः आत्मानमन्तरामह्यां, कोऽपिनाऽस्तिप्रकाशकः ॥३१॥ शुद्धोपयोगवेलायां, पूर्णानन्दप्रकाशता। व्यक्तभिवेबृदि स्पष्टा, प्रत्यक्षमनुभूयते ॥३२॥ जडविषयिभोगेषु, सत्यानन्दो न वर्तते । भोगेरोगश्चदुःखञ्च, जन्ममृत्युपरम्परा ॥३३॥
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॥३९॥
वपुरिन्द्रियभोगेन, सुखं तु दुःखमेव च स्वोपमं प्रविज्ञाय, योगीतत्र न मुह्यति लाभेऽलाभेसुखेदुःखे, माने माने शुभाशुभम्, कल्पितं मोहवुद्ध्यायत्, तत्रज्ञानी न मुह्यति ॥३५॥ निन्दायांनैवशोकोऽस्ति स्तुतौगर्वो न जायते, मोहो न नामरूपेषु, ज्ञानीमुक्तस्तदाभवेत् शुद्धोपयोगिनः शुद्धिः कृतेषु सर्वकर्मसु स्पृशन्खादंश्चपश्यन् सः कुत्राऽपि नैव मुह्यति ॥३७॥ आत्मरसं समासाद्य, पश्चाद्भोगे न मुह्यति, ज्ञानी भोगेषु निर्भीगी, निर्मोहवृत्तियोगतः यथान्धौसरितोमान्ति, सर्वयोगास्तथाऽऽत्मनि, शुद्धोपयोगसंप्राप्तौ नान्ययोगप्रयोजनम् तपोध्यानं समाधिश्व, मान्तिशुद्धाऽऽत्मसंस्मृतौ ॥ वैषयिकरसाः सर्वे, निवर्तन्ते स्वभावतः यत्रतत्रसमाधिर्हि, शुद्धोपयोगयोगिनाम् ॥ शुद्धोपयोगएवास्ति, राजयोगः सतांसदा शुद्धोपयोगतः सिद्धिः स्वाऽऽत्मना स्वनुभूयते ॥ शीघ्रंमनोजयः स्वेन, क्रियते नैवसंशयः आद्यः शुद्धोपयोगस्तु, सविकल्पः प्रजायते निर्विकल्पस्ततो भूयाद्, घातिकर्म विनाशकृत् ॥४३॥ सम्यग्दृष्टिमनुष्याणां, मुक्तेरिच्छा प्रजायते मुक्त्यर्थिनांक्रियाः सर्वा भवन्ति मोक्षहेतवे ॥४४॥ शुद्धोपयोगसंप्राप्ति, मुक्त्यर्थिनां भवेत्खलु परीणामः शुभस्तेषां शुद्धोपयोगसम्मुखः
॥४०॥
॥४१॥
॥४२॥
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॥३६॥
॥३८॥
॥४५॥
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आत्मज्ञानीभवत्येव, शुद्धोपयोगवान्जनः स्वाधिकारेणकर्माणि, कुर्वन्नपिसनिष्क्रियः ॥४६॥ पूजादिधर्मकार्येषु, भत्त्यादिपरिणामतः बाह्यतोहिंसकोऽपिस्यात्, सनिहिंसकभाववान् ॥४७॥ व्यक्तस्वाऽऽत्मोपयोगे तु, सक्रियोवापिनिष्क्रियः गृहीत्यागीजनाकोऽपि, मुक्ताऽऽत्माजायते जिनः॥४८॥ मुक्तिरसंख्ययोगैः स्याज्जिनेन्द्रैः परिभाषिता। असंख्यदृष्टियोगाना, सापेक्षीस्वाऽऽत्मयोगिराट् ॥४९॥ अतआत्मोपयोगेन, ज्ञानीशुद्धोपयोगवान् । सर्वत्रसर्वथाकर्म-, निर्जराकृदबन्धकः ॥५०॥ आत्मोन्नतिक्रमयुक्तः सम्यग्डष्टिर्यदातदा । यत्रतत्रस्थितः कर्म-कुर्वन्मुक्तोभवेद्रयात् ॥५१॥ याक्ताहगवस्थाया, माऽऽत्मज्ञानीस्वभावतः बाह्यतउच्चनीचोऽपि, मुक्तास्यात्कर्मभोगवान् ॥१२॥ कर्मोपाधिकृताभावा, स्तद्भिन्नोनिश्चयात्स्मृतः सोऽहंतत्त्वमसिप्रोक्त आत्माऽसंख्यप्रदेशकः ॥५३॥ अनन्तदर्शनज्ञान,-चारित्रवीर्यवान् स्वयम् अनन्तगुणपर्याय, रुत्पाव्ययधारकः आत्मनांसत्तयाध्रौव्य, मेकत्वं च प्रवर्तते अनित्यत्वं स्वपर्याय-गुणैराऽऽत्मसु वर्तते ॥५५॥ नित्योऽनित्यः स्वभावेन, सदसनिळयोव्ययः अनक्षरोऽक्षरोव्याप्यो, व्यापकोऽस्तिह्यपेक्षया ॥५६॥ सर्वदर्शनधर्माणां, दृष्टियुक्तो नयैर्मतः नयभङ्गविकल्पेभ्यो, भिन्नोऽस्तिनिर्विकल्पकः ॥१७॥
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3
कृत्स्नकर्मक्षयोमोक्ष, एवलक्ष्यस्यधारकः माक्षलक्ष्योऽस्तियच्चित्ते, सम्यग्दृष्टिः स धर्मवान् ॥ ५८ ॥ शुभः शुडोपयोगश्च स्वर्गदोमोक्षदः क्रमात् । सम्यग्दृष्टिमनुष्याणां द्वयोः प्राप्तिरनुक्रमात् लक्ष्यीकृत्यस्वमुक्तिं ये, स्वाऽधिकारप्रवर्तकाः आत्मशुद्धिक्रमयाताः कुर्वन्ति कर्मनिर्जराम् जीवाऽजीवादितत्त्वानां ज्ञानविश्वासकारिणाम् हेयोपादेयबुद्धीनां सम्यग्दृष्टिः प्रजायते सम्यग्दृष्टिमतांन्रणां, दूरासन्नादिभेदतः नूनंमोक्षोभवत्येव, मिथ्यात्वगामिनामपि एकशोऽपि यदा यस्य, सम्यग्दृष्टिः प्रजायते तदाssत्मनो मोक्षो, जायते घोरकर्मिणः आत्मशुद्धोपयोगेन त्वनन्तभवकर्मणाम्, क्षयोक्षणाद्भवत्येव, तत्रकिञ्चिन्नसंशयः स्वाऽऽधिकारेणकर्माणि कुर्वतांसर्वदेहिनाम् आत्मशुद्धोपयोगोऽस्ति, समर्थोमोक्षदायकः
॥६५॥
सच्चिदानन्दरूपोऽस्ति, चाऽऽत्मोपयोग आन्तरः आत्मोपयोगिनामधे, किंचिन्न कर्मणोबलम् ॥६६॥ जानातिह्येकमाssत्मानं, सर्वजानातिसोनरः सर्वजानातिसएक, माऽऽत्मानं वेत्तिवस्तुतः आत्मनिपरितोज्ञाते, नयनिक्षेपभङ्गतः सर्वज्ञातं श्रुतज्ञानं, सविकल्पसमाधिकृत् आत्मनिपरितोज्ञाते, स्याद्वादश्रुतबोधतः सविकल्प शुभध्यानं, निर्विकल्पं समुद्भवेत् ॥६९॥
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॥५९॥
॥६०॥
॥६९॥
॥६२॥
॥६३॥
॥६४॥
॥६७॥
॥६८॥
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आत्मोपयोगरूपाऽस्ति, ध्यानवृत्तिर्मनीषिणाम् ; आत्मशुद्धोपयोगेऽन्त-, आँवं यांति समाधयः ॥७॥ कषायोपशमेजाते, चित्तवृत्तिसमाधयः प्रादुर्भवन्ति शान्तानां, योगिनामुपयोगतः ॥७१॥ आत्मोपयोगएवाऽस्ति, समाधि ज्ञानिनां सदा सर्वकार्यप्रकुर्वन्सन, ज्ञानीसत्यसमाधिमान् ॥७२॥ हठादनंतशिष्टोऽस्ति, शुद्धोपयोगआत्मनः हठयोगोबहिर्हेतुः शुद्धोपयोगआन्तरः ॥७३॥ स्मारस्मारंचिदाऽऽत्मान, मुपयोगीभवेत्प्रभुः देहस्थोऽपि स निर्देही, सर्वविश्वप्रकाशयेत् ॥७॥ अनन्तपुण्ययोगाच्च, सांभक्तिप्रतापतः सद्गुरोराशिषोव्यक्तः स्यादुपयोग आत्मनि ॥७॥ कोटिकोटितपोयज्ञ-, तार्थयात्रादिकमतः अनन्तउत्तमः श्रेष्ठः शुद्धोपयोग आत्मनः ॥७६॥ शुद्धोपयोगतोमुक्तिः सर्वदर्शनधर्मिणाम् समत्वमुपयोगोऽस्ति, ह्यकतालीनतातथा ॥७७॥ व्यक्तसाम्योपयोगेहि, केवलज्ञानभास्करः हृदिप्रादुर्भवत्येव, लोकालोकप्रकाशकः ॥७८॥ माम्योपयोगिनांमुक्तिः सर्वधर्मस्थदेहिनाम: अनार्याणांतथाऽऽर्याणां, नारीणांचनृणांभवेत् ॥७९॥ शुद्धाऽऽत्मनः स्मृतिधृत्वा, हृदिशुद्धाऽऽत्मधारणम् ; कुर्वन्नाऽऽत्मनिमग्नोयः स शुद्धाऽऽत्माभवेद्रयात्॥८॥ शुद्धोपयोगिनो धर्म्य-, कर्मकुर्वन्तिभावतः दानपूजादयायैस्ते, कुर्वन्तिकर्मनिर्जराम् ॥८ ॥
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धर्म्ययुद्धादिकर्माणि, कुर्वन्तउपयोगतः आत्मशुद्धिप्रकुर्वन्ति, मोहासक्तिविवर्जकाः ॥८२॥ क्षेत्रकालानुसारेण, कर्तव्यमुपयोगतः कुर्वन्तोमानवा मुक्तिं, यान्तिसर्वाश्रमस्थिताः ॥८॥ जैनधर्मस्यसारोऽस्ति, शुद्धोपयोग आत्मनः शुद्धोपयोगलाभेन, नान्यधर्मप्रयोजनम् ॥८४॥ आत्मशुद्धोपयोगेन, संक्षयो द्वेषरागयोः आत्मैवशुद्धसिद्धाऽऽत्मा, स्यात्षटकारकवानप्रभुः॥८॥ सिद्धास्सिद्ध्यन्तिसेत्स्यन्ति, नग्नाश्चोपधिधारिणः आत्मशुद्धोपयोगेन, त्यागिनश्चगृहस्थिताः ॥८६॥ पूर्णानन्दसमुल्लास, आत्मनिसंप्रकाशते आत्मानुभवएवात्र, साक्षादाऽऽत्मनि वेद्यते. ॥८७॥ शुद्धब्रह्मरसास्वाद, कृत्वाशुद्धोपयोगिनः। बाह्योपाधिपरित्यज्य, भवन्तिध्यानतत्पराः ॥८॥ शुद्धोपयोगएवास्ति, स्वाऽऽत्मानुभवआत्मनि । आत्मानुभविभिर्वेद्य, आत्मैवानुभवः प्रभुः ॥८॥ ज्ञानवैराग्ययोगैस्तु, ब्रह्मणि लीनताभवेत् । ब्रह्मणिपूर्णमन्नानां, सर्वैश्वर्य प्रकाशते. ॥९॥ आदेयत्यागवृत्तिस्तु, नास्तिबाह्येषु योगिनाम्, शुद्धोपयोगिनां त्याज्यं, ग्राह्यं च नैव मोहतः ॥११॥ प्रारब्धाद्ग्रहणंत्यागो, मनोवाकायतोभवेत्; कायादीनांप्रवृत्तिषु, साक्षी शुद्धोपयोगवान् ॥१२॥ दृश्याऽदृश्यपदार्थेषु, साक्षिणउपयोगिनः मनोवाकायचेष्टासु, प्रारब्धेष्वपिसाक्षिणः ॥१३॥
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विश्वंप्रभुमयंभाव्यं, परब्रह्मानुभूतये अनुभूयपराऽऽत्मानं,स्वाऽऽत्मानंभावयेत्प्रभुम् ॥१४॥ विश्वेनसार्धमात्मैक्य, मनुभूय प्रभुर्भवेत् । आत्मशुद्धोपयोगेन,विश्वैक्यानुभवोभवेत् ॥१५॥ शुद्धात्मनिमनोदत्वा, नान्यत्किञ्चिद्विचिन्तयेत् यदास्थिरोपयोगीस्या, त्तदात्मेश्वरतां व्रजेत् ॥१६॥ आत्मानमन्तरा मयां, किञ्चित्सारो न भासते, तदाब्रह्मानुभूत्यर्थ, योग्योभवतिमानवः ॥९७॥ यदाब्रह्मानुभूयेत, पूर्णानन्दरसोदधिः तदाप्रसन्नताव्यक्तः शुद्धाऽऽत्माभवतिस्वयम् ॥१८॥ यदाब्रह्मरसोव्यक्तः स्यात्तदाऽऽत्मास्वयंप्रभुः नेच्छतिजडभोगानसः जडानन्दविनिस्पृहः ॥१९॥ आत्मन्येवरतिंप्राप्य, स्वाऽऽत्मन्येवस्थिरोभवेत् , नामरूपेषुनिर्मोह, आयुर्योगेनजीवति ॥१०॥ प्रारब्धकर्मतो दुःखं, सुखंचवेद्यनस्वयम् , आत्मोपयोगतः साक्षी, भूत्वाजीवति भूतले. ॥१०१॥ दुर्गुणव्यसनत्यागः ग्राह्यं सात्त्विकभोजनम् । सतांसंगाचचित्तस्य-, शुद्ध्या ब्रह्म प्रकाशते.॥१०२॥ रागद्वेषविमुक्ताऽऽत्मा, शुद्धब्रह्मस्वयंभवेत् । देशजात्यादिनिर्मोही, व्यक्तब्रह्ममहाप्रभुः ॥१०॥ देहाध्यासादिनिर्मुक्तो, जीवन्मुक्तोभवेज्जनः समः सर्वत्रभूतेषु, सर्वधर्मेषुचप्रभुः ॥१०४॥ व्यक्तः प्रभुर्निजाऽऽत्मैव, साम्यं प्राप्य प्रजायते । वीतरागः स्वयंबुद्धः शंकरः परमेश्वरः ॥१०॥
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૧૦
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आत्मोपयोगसामर्थ्या, दाऽऽत्माऽनन्तबलीभवेत् । अनेकलब्धिसम्पन्नो, भवत्येवन संशयः
॥१०६॥
मंत्रयंत्र महातंत्र - बलमाध्यात्मिकंमहत्, आत्मन एव बोद्धव्य, - मतआत्मैव शक्तिमान् ॥ १०७॥
स्थिरोपयोगतः स्थेय, मात्मन्येवाऽऽत्मना स्वयम् प्रतिक्षणंनिजध्यानं, कर्तव्यंस्थिरदीपवत्
॥१०८॥
रागद्वेषनिरोधाख्यो, योगोमोक्षप्रदायकः मनोवाक्काययोगानां, व्यापारो योग एवसः ॥१०९॥ यमानां नियमानांचे योगत्वमासनस्थच, प्राणायामस्ययोगत्वं ज्ञेयंनिमित्तहेतुतः प्रत्याहारस्य योगत्वं, धारणायाश्वसम्मतम् ध्यानान्तरसमाधेश्च, योगत्वमुपयोगिनाम् ॥ १११ ॥ सम्यग्दृष्टिमनुष्याणां - योगा मोक्षस्यहेतवः मिथ्यादृष्टिमनुष्याणां स्वर्गाभव हेतवः दर्शनज्ञानचा रत्र - तपोयोगो विवेकिनाम् : उपादाननिमित्तास्ते, योगाः सम्यगृहशांशुभाः॥११३॥ त्यागिनांचगृहस्थानां व्रतादीनांसुयोगता, स्वाधिकारेणधर्मस्य, साधकाउपयोगिनः
आन्तरबाह्ययोगाये, विचाराचारभेदतः सम्यग्दृशांच मोक्षार्थ, सन्तिसापेक्षवाद्धतः ॥ ११५ ॥
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॥११०॥
॥१९२॥
॥११४॥
असंख्यामोक्षपन्थानः परब्रह्मप्रदायकाः सम्भूयसर्वयोगास्ते, साम्यायोगे मलन्तिहि ॥ ११६ ॥ शुद्धोपयोगसंप्राप्तौ नान्ययोगप्रसाधनम्
आत्मस्मृतिप्रवाहेण, वृत्तिरन्तर्मुखा सदा ॥११७॥
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शुद्धात्मसंस्मृतिश्चैव, शुद्धोपयोग उच्यते. औदयिकमनोवृात्त-निरोधस्तुततोभवेत् ॥११८॥ आर्तध्यानविचाराणां, संरोधउपयोगतः रौद्रध्यानविचाराणां, रोधः शुद्धोपयोगतः ॥११९॥ धर्मध्यानविचाराणां, प्राकट्यमुपयोगतः शुक्लध्यानसमुत्पादः श्रुतज्ञानोपयोगतः ॥१२०॥ पिण्डस्थंचपदस्थंसद्-ध्यानंशुद्धोपयोगतः रूपातीतंचरूपस्थं, ध्यानंशुद्धोपयोगता.. ॥१२१॥ शुद्धाऽऽत्मनोविचाराणां, मताशुद्धोपयोगता, आत्मशुडिकराः सर्वे, विचारा योगरूपिणः ॥१२२॥ सात्त्विकाऽऽहारबुडीनां, सात्त्विककर्मणांतथा, सात्त्विज्ञानभक्तीनां, हेतुतास्वाऽऽत्मशुद्धये.॥१२३॥ आत्मशुद्धोपयोगेन, सर्वसम्यविमुक्तये, जायतेकर्महेतूनां, मध्येऽपिवासिनां ध्रुवम् ॥१२४॥ वनेनिवासिनांदुःखं, जायते ज्ञानमन्तरा, बाह्यतस्त्यागिनांमोहो, भवेद्विज्ञानमन्तरा. ॥१२५॥ इन्द्रस्थाने वनेगेहे, शुद्धोपयोगमन्तरा, आत्मानन्दोभवेन्नैव, दुःखंसर्वत्रमोहतः ॥१२६॥ चक्रिणांनसुखाऽवाप्ति, धनसत्तादिभोगतः, आत्मन्येवमुखंसत्यं, नान्यत्रास्तिजगत्रये, ॥१२७॥ आत्मानमन्तराऽन्यत्र, मूढा भ्रमन्ति शर्मणे, पूर्णानन्दमयस्स्वाऽऽत्मा, तत्राऽऽनन्दप्रशोधय.॥१२८॥ देहेन्द्रियसुखभ्रान्स्था, भोगेषुभ्रमणंभृशम्; केवलंदुःखभोगार्थ, ज्ञात्वाऽऽत्मनि स्थिरोभव॥१२९॥
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भोगतृष्णोधेः पारं, यातःकोऽपि न यास्यति, ज्ञात्वाशुद्धोपयोगेन, भोगबुद्धि निवारय ॥१३०॥ सच्चिदानन्दपूर्णोऽय, मात्मास्वाऽन्यप्रकाशकः शुद्धोपयोगतोज्ञाता, कर्मनाशकरोभवेत् ॥१३१॥ औदयिकेषुभावेषु, साक्षीसमोयदाभवेत् आत्मातदास्वरूपस्य, स्यादनुभववान्स्वयम्. ॥१३२॥ षड्द्रव्यात्मकलोकोऽस्ति, द्रव्यरूपेण शाश्वतः । अनाद्यनन्तकालीनः पुरुषाकारसास्थतः ॥१३३॥ पर्यायेणह्यनित्यः स, नित्योद्रव्यस्वरूपतः अनाद्यनन्तकालीन-षड्द्रव्यात्मकसम्मतः ॥१३४॥ आत्मद्रव्याणिसन्त्यत्र, ह्यनन्तानि निबोधत। अनादिकर्मयुक्तानि, ज्ञानेनकर्मणः क्षयः ॥१३५॥ अनादिः कर्मयुक्तोऽपि, मुक्तः स्यात्कर्मनाशतः । सद्गुरुदेवधर्माणां, श्रद्धयाज्ञानमुद्भवेत् ॥१३६॥ देवेगुरौचधर्मेच, श्रद्धाभक्तिप्रतापतः सम्यग्दर्शनसंप्राप्ति, भव्यानांजायतेशुभा ॥१३७॥ सम्यग्दर्शनसामर्थ्या-चारित्रमोहनाशतः आत्मापराऽऽत्मतांयाति,शुद्धज्ञानादिसद्गुणैः॥१३८॥ आत्मास्वाऽन्यंयदासम्यग्, जानातिचेत्तदास्वयम् ॥ तिरोभूतगुणानांस, आविर्भावंकरोतिवै ॥१३९॥ तिरोभूतगुणानांयत् , प्राकट्यंसर्वथा भवेत् मोक्ष एवपरिज्ञेय, आत्मनितत्त्ववेदिभिः ॥१४०॥ शुद्धोपयोगतोमोक्ष, आत्मनआत्मनि स्थितः तज्ज्ञाता सिद्धिमामोति,शुद्धाऽऽत्मरसवेद्वान्॥१४१॥
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૧૩
कामोदयस्यसङ्कल्पान्, निरोधयति बोधतः शब्दरूपरसस्पर्शान, नेच्छतिसुखबुद्धितः ॥१४२॥ सर्वोपाधिषु निःसङ्गः लोकसङ्गविवर्जितः हृदिसाक्षात्करोत्येव,स्वाऽऽत्मानंस्वात्मरगवान् ॥१४३।। शुद्धाऽऽत्मचित्तलग्नस्य, योग्याहारविहारिणः साक्षिभावोपयोगस्थ, हृदि ब्रह्म प्रकाशते. ॥१४४॥ मनोवाकायगुप्तस्य, पंचसमितिधारिणः शुद्धाऽऽत्मप्रेममग्नस्य, शुद्धब्रह्म प्रकाशते ॥१४॥ कषायोत्पादकस्त्याज्यो, नृणांसङ्गो विवेकिभिः गीतार्थसद्गुरोःसङ्गः कर्तव्यो मोक्षकांक्षिाभः॥१४६॥ शुद्धप्रेम दया सत्यं, क्षमा निर्लोभता तथा, संयमश्च दमोदान, मात्माऽऽनन्दोऽस्तिमुक्तये॥१४७॥ अविद्यामोहवृत्तीनां, क्षयेण स्वाऽऽत्मशुद्धता, आत्मनः पूर्णशुद्धिःसा, मुक्तिरेवसतांमता ॥१४८॥ विश्वेनसार्धमेकत्व, मात्मनो ब्रह्मसत्तया । भावयन् व्यापकोह्याऽऽत्मा,भवेद्वाह्यान्तरोविभुः१४९ सर्वविषयकामेच्छा, मन्तरा सर्वदेहिनाम् , सार्धं शुद्धात्मनःप्रीत्या, वर्तनंतत्तुमुक्तये ॥१५॥ रागद्वेषौविना सर्व-,जीवैः सह प्रवर्तनम् , भवेच्छुद्धोपयोगेन, मुक्तानां देहवर्तिनाम् ॥१५१॥ प्रारब्धकर्मभोगेडाप, साक्षीभूयप्रवर्तिनाम् ॥ शुद्धोपयोगिनां मोहो, नोद्भवेत् कर्मकाारणाम्॥१५२॥ कर्मविपाकरोधार्थ, ज्ञानवैराग्यवीर्यतः कृतप्रयत्ननैष्फल्यं, प्रारब्धं कम तन्मतम् ॥१५॥
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तद्भोगावलिकर्माऽस्ति, सर्वोपायर्न नश्यात बद्धं निकाचितं कर्म, ददाति स्वविपाकताम् ॥१५४॥ प्राप्तकर्मविपाकोयः शुभोवाप्यशुभोभवेत् वेद्यन्तं सुखं दुःखं, ज्ञानी तत्र न मुह्यति ॥१५॥ ज्ञानानन्देनजीवन्सन् , बद्धकर्मोदये सति । पुनः कर्म न बध्नाति, शुद्धाऽऽत्मसाम्यदर्शकः॥१५६॥ जन्मनि मरणे ज्ञानी, समभावेन वर्तयन् । ज्ञानाऽऽनन्दसमुल्लासा, दान्तरंजीवनवहेत् ॥१५७॥ घातिकमविनाशेन, चाऽघातिकर्मवेदयन्, सयोगी केवलज्ञानी, जीवन्मुक्तो भवेजिनः ॥१५८॥ अघातिकर्मसंभुज्य, कृत्स्नकर्मक्षयात् प्रभुः सिद्धोबुद्धो भवेन्मुक्तः शुद्धोऽरूपी निरञ्जनः ॥१५९॥ पूर्णोऽसङ्ख्यप्रदेशाऽऽत्मा, पूर्णज्ञानप्रकाशवान् , पूर्णानन्दमयोनित्यः सोऽहंध्येयो मुहुर्मुहुः ॥१६०॥ अनंतवीर्य आत्माऽह, मनन्तज्योतिषः प्रभुः देहस्थोऽपिनदेहोऽहं, बहिरन्तःप्रकाशकः ॥१६१॥ सर्वधर्मास्तुसद्पाः आत्माऽऽधारप्रजीवकाः ध्रौव्योत्पादव्ययीरूप, आत्माऽहं द्रव्यपर्यवैः ॥१६२॥ पर्यायः सदसद्पैः सर्वविश्वमयोविभुः आत्माऽस्मिसत्तयाचैको,व्यष्टिसमष्टिमानस्वयम्१६३॥ संसारिविश्वजीवानां, संघा वैराट्प्रभुमहान् ॥ षड्द्रव्यात्मकलोकस्य, जगत्त्वंचसमष्टिता ॥१६॥ आत्मैवास्तिमहाब्रह्मा, केवलज्ञानतः स्वयम् । आत्मैवास्तिमहाविष्णुः शुद्धचारित्रयोगतः ॥१६॥
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शुद्धाऽऽत्मैवमहादेवः कर्मसृष्टिविनाशनात् आत्मैवाऽस्तिमहारुद्रो, मोहशत्रुविनाशनात, ॥१६६॥ रागद्वेषहरादात्मा, हरः क्षायिकलब्धिमान् : दुष्टमोहोहृतोयेन, सआत्माहरिरुच्यते ॥१६७॥ आत्मैवशंकरः प्रोक्तः शुद्धशक्तिस्तुपार्वती; आत्माऽऽनन्दोवृषोज्ञेयः स्वयंभुर्भगवान् हरः ॥१६८॥ आत्मैवश्रीहरिबर्बोद्ध्यो, राधातुशुद्धचेतना ॥ रामआत्मैवसीताऽस्ति, शुद्धवृत्तिश्चिदात्मिका.॥१६९॥ अल्लाखुदाऽस्तिसद्ब्रह्म, निराकारंनिरञ्जनम् करीमहीचिदानन्द-वीर्याऽऽत्मासर्वशाक्तमान् १७० आत्मनः शक्तयः सर्वा, एवव्यः सदान्तराः बाह्यतः प्रकृतेर्दैव्यो, सन्त्योदयिकशक्तितः ॥१७॥ रजोगुणसमष्ट्याऽस्ति, बाह्यब्रह्मांऽगिनांगणः बाह्योहरोऽस्तिजीवानां, संघस्तमासमष्टितः ॥१७२॥ सर्वसात्त्विकजीवानां, संघो विष्णुर्हिबाह्यतः सर्वविश्वस्थजीवानां, त्रिदेवत्वंहिकल्पनात् ॥१७॥ बौद्धा बुद्धमिति प्राहुः शवं शैवाश्च वैष्णवाः हरिं प्राहु स्तथाराम, मात्मानं भन्नलक्षणैः ॥१७४॥ आत्मना ज्ञायते देवः ह्यसङ्ख्यनामपर्यवैः अन्याकोऽपिनजानाति, स्वाऽऽत्मानमन्तरा प्रभुम्१७५ सत्याऽऽत्मनिजगत्सर्व, भासते नान्यथा कदा यज्ज्ञानंतन्निजाऽऽत्मैव, ज्ञानाऽऽत्माभाषितः श्रुते दर्शनज्ञानचारित्र-मनन्तशक्तिसंयुतम् देहस्थं नित्यमाऽऽत्मानं,मूढा जानन्ति नो स्वयम्॥१७७॥
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१६ स्वाऽन्यप्रकाशकं ज्ञानं, प्रत्यक्षवेद्यते हृदि ॥ तद्विज्ञानमयःस्वाऽऽत्मा, स्वेनाऽनुभूयते स्वयम्॥१७८॥ नयभङ्गप्रमाणैश्च, यदाऽऽत्मा ज्ञायते हाद । तदाप्रकाशतेज्ञानं, सम्यच्छूडानपूर्वकम् ॥१७९॥ सर्वधर्मादशास्त्राणां, नयैः सापेक्षवेदिनाम् सम्यग्दृष्टिमनुष्याणां, ज्ञानंसम्यक्तथा भवेद् ॥१८०॥ सम्यगदृष्टिजुषां सर्व,-मिथ्याशास्त्रमपिस्वतः सम्यज्ज्ञानतयाभाति, सम्यग्हाष्टप्रतापतः ॥१८॥ मिथ्यादृष्टिजुषांसम्य-च्छास्त्रंताीपमोहतः मिथ्यारूपतयाभाति, मथ्याहाष्टप्रतापतः ॥१८२॥ देहादिवासनां मिथ्या, शास्त्रादिमोहवासनाम् त्यजन्ति ज्ञानिनश्चैवं, दर्शनमोहवासनाम् ॥१८३॥ सात्त्विकज्ञानचारित्र-गुणेभ्य आत्मसद्गुणाः भिन्ना आत्मविशुद्ध्यर्थ-हेतुभृताश्वधर्मिणाम्॥१८४॥ ज्ञानदर्शनचारित्र-वीर्याद्या आत्मसद्गुणाः भक्तिदानदयाघाये, ज्ञातव्याः सात्त्विका गुणाः॥१८५॥ सात्त्विकाचारधर्मेषु, सात्त्विकसद्गुणेष्वपि आत्मबुद्धिन संध्याज् , ज्ञानी शुद्धोपयोगवान्॥१८६॥ सत्त्वरजस्तमोवृत्त्या, भिन्न आत्माऽस्तिवस्तुतः ज्ञात्वैवमाऽऽत्मनः शुद्धिं, कुर्वन्ति झुपयोगिनः॥१८७॥ गीतार्थगुरुनिश्रांये, कृत्वाब्रह्मोपयोगिनः स्वाधिकारेण वर्तन्ते, तेस्युर्मुक्ताः स्वभावतः ॥१८८॥ स्वाऽऽत्मायत्तं मनः कृत्वा, शुद्धाऽऽत्मानं स्मर स्वयम् । आत्मन्येव स्थिरीभूय, शुद्धब्रह्म भविष्यसि ॥१८९॥
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१७
सतां सङ्गं तु मा मुश्च, व्यक्तशुद्धोपयोगिनाम् ; सतां सङ्गात् प्रभुळक्तो दीपाद्दीपो भवेद्यथा ॥१९०॥ एकंक्षणं भवेत् प्रीत्या, यदा चेत् साधुसङ्गतिः अनन्तभवपापानि, नश्यन्ति ब्रह्मबोधतः ॥१९॥ सतांसङ्गः सदाकार्यः सन्तःसेव्या विवेकतः सेवाकार्या सतांप्रीत्या, तेभ्य आत्मा प्रकाशते ॥१९२॥ साधवो बहुधा सन्ति, नानाचारविचारिणः तेषां सङ्गो विवेकेन, कर्तव्य आत्मशुद्धये ॥१९३॥ सुखंभोगेषु नो ।कश्चित् , स्वाऽऽत्माऽस्तिसुखसागरः स्वाऽऽत्मन्येवस्थिरीभूय, सुखास्वादं करिष्यसि।१९४॥ सर्वदर्शनशास्त्रेभ्यः सत्यं गृहाण बुद्धितः गृहाण सत्यं धर्मेभ्यो, निन्दा माकुरु धर्मिणाम् ॥१९५॥ आत्मोपयोगतोजीव !! माजीव !!! मोहवृत्तितः सुखाद्यर्थं जडेषु त्वं, ग्राह्यत्याज्यमतिं त्यज ॥१९६॥ जीवनं स्वाऽऽत्मभावेन, मृत्युर्हि मोहभावतः मोहमृत्यु परित्यज्य, नित्यं जीव निजाऽऽत्मनि॥१९७।। मोहभ्रान्त्या चिदाऽऽत्मानं, स्वाऽऽत्मानं नैव विस्मर !!! स्वयंस्वाऽऽत्मनि विज्ञाय, स्वस्यस्मर्ता स्वयंभव ॥१९८॥ शुद्धोपयोगतोजाग्रन् , भव त्वं हि प्रतिक्षणम् , ज्ञातेसर्वजडेकिंस्या, दात्मानं विद्धि बुद्धितः ॥१९९।। ग्राह्यत्याज्यमनोवृत्ति, विन्मोहात् प्रवर्तते; तावदाऽऽत्मनिचाञ्चल्यं, पूर्णस्थैर्य न जायते ॥२००॥ ग्राह्यत्याज्यप्रवृत्तिस्तु, यदाप्रारब्धकर्मतः स्यात्तदास्वाऽऽत्मनोमुक्ति,र्जीवन्मुक्तमहात्मनाम्.२०१
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प्रारब्धादन्तरामोह, शाताऽशाताप्रवृत्तयः सुखंदुःखं च जायेत, योग्यकर्मव्यवस्थितिः ॥२०२॥. समीभूय प्रवर्तस्व, प्रारब्धमर्वकर्मसु; शुद्धोपयोगतः साक्षी, भूय कर्म समाचर ॥२०३॥ कोटिकोटिमहोपायै, भोगात् सुखं न लप्स्यसे; आत्मन्येवसुखंपूर्ण, ज्ञात्वा तत्रस्थिरो भव ॥२०४॥ क्षायोपशमिकप्रज्ञा-ध्यानचारित्रयोगतः अनुभूतं परब्रह्म-, ज्ञानानन्दं मयामयि ॥२०॥ निजाऽऽत्मैव परब्रह्म, विज्ञाय स्वाऽऽत्मसंस्थितः शुद्धोपयोगतःसत्यां, भावय ब्रह्मभावनाम् ॥२०६॥ स्थिरदीपकवद्ध्यान, मात्मनः स्याद्यदातदा; आत्माप्रकाशते साक्षात्-स्वस्मिनस्वानुभवः स्वतः थाह्यतः कर्मकुर्वन्स, नाऽऽत्मानं हृदि चिन्तय; स्वयंस्वस्मिन्परीणामी,भव शुद्धाऽऽत्मभावतः॥२०८॥ बाह्यदृश्येषुनैवाऽस्ति, किञ्चिदपिनिजाऽऽत्मनः अतोबाह्येषुनोकुर्या, मत्तवृत्तिंतु मोहतः ॥२०९॥ जडपदार्थविज्ञान, कृत्वास्वाऽऽत्मोपयोगिनीम्, प्रवृत्तिमाचर त्वं ता, मात्मप्रगतिहेतवे ॥२१० ॥ प्रतिबन्धो न सर्वत्र, सर्वकर्मसु धर्मिणाम् : प्रवृत्तिषुनिषेधेषु, निबन्धाः साधवः सदा ॥२११ ॥ शुद्धोपयोगतः सन्तो, मुक्ता धार्मिकबन्धनैः तथापिबन्धनाचारै, वर्तन्ते तेयथातथा ॥२१२ ॥ बताचारेषु नैयत्य, नोगुणानां निजाऽऽत्मनः बेषव्रतक्रियायैस्तु, भिन्ना आत्मगुणा:सदा ॥२१३॥
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एकान्तेन निमितत्त्वं, नैव वेषक्रियादिषु, आत्मनः शुद्धयेज्ञेया, चैकान्तात्सात्त्विकागुणाः ॥२१४ सर्वनिमित्तहेतूनां, निमित्तत्त्वमपेक्षया, सम्यग्दशाभवत्येव, द्रव्यं भावस्यकारणम् ॥ १५॥ शुद्धोपयोगिनांनृणां, सर्वनिमित्तहेतवः ।। ग्राह्यास्त्याज्याच सापेक्षो-,पयोगत्वविवेकतः॥२१६॥ ग्राह्यास्तेऽपिचहेयास्युहेयास्यु ह्यरूपिणः देशकालदशायैश्च, निमित्तानां च हेतुता ॥२१७॥ अतःस्याद्वाबोधेन,धर्मकर्मप्रवृत्तिषु । शुद्धोपयोगिनोलोका, वर्तन्ते च यथातथम् ॥२१८॥ शुद्धप्रेमदयादान-भक्तिसेवाप्रवृत्तिभिः सात्त्विक सद्गुणैस्सन्तो, वर्तन्ते च यथातथम्॥२१९॥ असंख्यातनिमित्तानां, हेतुता स्वोपयोगिनाम् । एकैकयोगतोजीवा, अनन्ता मुक्तिसंश्रिताः ॥२२०॥ शुद्धोपयोगिनां सर्व, विश्वमाऽऽत्मविशुद्धये: आस्रवाअपिमुक्त्यथै, परिणमन्तिभावतः ॥२२१॥ उत्तरोत्तरहेतूनां, हेयोपादेयताभवेत् ; नृणां नानाप्रभेदत्वं, हेतूनांचपरस्परम् ॥२२२॥ शुद्धोपयोगिनां यत्तद्, कर्तुयुज्येत वा न तद्, अयोग्ययच्चयोग्यतद्, जानन्ति ते विवेकतः ॥२२३॥ शुद्धोपयोगिनां सर्व, स्वाऽन्योपकृतिहेतवे; स्वल्पदोषमहाधर्म-, हेतवेचयथातथम् ॥२२४ ॥ ज्ञानानन्दमयंपूर्ण, मात्मानं हृदिचिन्तय; स्वाभाविकविवेकस्तु, ततःसंजायते स्वयम् ॥२२॥
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२०
भावनायाः प्रवाहस्य, सन्तत्याबलमाऽऽत्मनः
प्रादुर्भवतिनूनं तद्, पूर्णमैश्वर्यकारकम् औपशमिकभावेन, क्षायोपशमिकत्वतः क्षायिक भावसंजन्या, ज्ञानाद्याआत्मनोगुणाः ॥ २२७ ॥ क्षायोपशमिकत्वेन, सात्त्विकाचाऽऽत्मसद्गुणाः प्रादुर्भवन्ति गीतार्था, जानन्ति सूत्रबोधतः ॥ २२८ ॥ क्षयोपशमभावीय-, ज्ञानानन्दादिसद्गुणाः आत्मन्येव समुद्भूता, अनुभूताश्च सात्त्विकाः ॥ २२९ ॥ क्षयोपशम भावस्य, स्थिरत्वं न सदाभवेत्; क्षायिक भावमासाद्य, स्थिरा आत्मगुणाः सदा ॥ २३० ॥ मयाक्षायिकभावेन, प्राप्ता नो स्वाऽऽत्म सद्गुणाः अनुभवोऽद्यपर्यन्त, मेवं शास्त्रादितस्तथा ॥२३१॥ तथाऽपिस्वाssत्मशुद्ध्यार्थ, क्षयोपशमभावतः
ज्ञानसंयमयोगाना, मभ्यासः क्रियतेऽधुना ॥ २३२ ॥
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,
शुद्धाऽऽत्मरमणाऽभ्यासाज्ज्ञानध्यानोपयोगतः
क्षायिककेवलज्ञानं, प्राप्स्येऽहं भाविजन्मनि ॥२३३॥ क्षयोपशमजन्या ये, गुणास्तेक्षायिकान्प्रति;
आन्तराहेतवोनूनं वीर्योत्साहप्रवाहतः
क्षयोपशमा, स्युर्येनिमित्तहेतवः
"
आलम्ब्याहेतवस्तेभ्यो जायन्ते स्वाऽऽत्मसद्गुणाः २३५ शुद्धाऽऽत्मजीवनं लक्ष्यं कृत्वाजीवन्तिपुद्गलैः आत्मजीवनलाभार्थ, जीवन्ति ते वपुःस्थिताः ॥ २३६ ॥ शुद्धात्मजीवनलक्ष्यं नास्तियेषांहृदिस्फुटम् ॥ जीवन्तोऽपिनजीवन्ति, पुद्गलैर्ज्ञानमन्तरा ॥ २३७ ॥
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॥ २२६ ॥
॥२३४॥
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૧
,
जीवन्तोऽपिमृतास्तेस्यु, ब्रह्मजीवनमन्तरा; शुद्धrssत्मप्रेमबोधाद्यैः प्राणनाशेऽपिजीविनः ॥ २३८ ॥ संकीर्णदृष्टिमन्तोये, देशकालाद्युपाधिभिः
11 280 11
॥ २४३ ॥
परब्रह्म न संयान्ति, जडव्यामोहधारकाः ॥ २३९ ॥ मत्तद्बुद्धिविनासन्तो, मत्तद्भावोपचारिणः व्यवहारात्प्रवर्तन्ते, यथायोग्यस्वकर्मसु कषायाणांनिमित्तेभ्यो येषांमोहोनजायते ॥ तेषांमोहनिमित्तानां संगेऽपिनैवदोषता ॥ २४९ ॥ मोहनिमित्तसंस्थोऽपि, निर्मोही चोपयोगतः ईहजज्ञानी भवेन्मुक्तो भोग्यविभोगवर्जितः ॥ २४२ ॥ स्थूलभद्रादिकल्पाना, माऽऽत्मशुद्धोपयोगिनाम् ; सर्वदा सर्वथाब्रह्म, पूर्ण हृदि प्रकाशते कामरसो न भोगेषु, यस्य ब्रह्मरसोद्भवः कामोत्पादक सङ्गोऽपि तस्यनिष्कामकारणम् ॥ २४४ ॥ अनुभूय निजाssस्मानं, पूर्णानन्दमयंप्रभुम् । बहिरन्तश्च सर्वत्र, पूर्णानन्दमयोभव शब्दरूपरसस्पर्श - गन्धेषु साम्यभावतः प्रारब्धेन प्रवृत्तिःस्या - तदाब्रह्मरसोद्भवः क्षयोपशमभावेतु, स्वाऽऽत्मानन्दः प्रजायते; वेदनीयविपाकेन, सुखं दुःखं च वर्तते केवलिनां सुखं दुःखं, वेदनीयविपाकतः पूर्णानन्देसमुत्पन्ने, सतित पिजायते ॥ २४८ ॥ क्षयोपशमभावीय-, ज्ञानध्यानोपयोगतः
॥२४५॥
।। २४७ ।।
आत्मानन्दस्तथादुःखं, सुखं च वेद्यते मया ॥ २४९ ॥
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॥२४६॥
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૧૨
शाताऽशातोदयाच्छर्म, दुःखं चाऽऽत्मोपयोगिनाम् । आत्मानन्दरसास्वाद, चैवं स्वानुभवोहृदि ॥ २५० ॥ शातोदये समुत्पन्ने, सुखे चाऽऽत्मोपयोगिनाम् ; बाह्यसुखे न रागःस्याद्, ब्रह्मानन्दस्य भोगतः ॥ २५९ ॥ पूर्णब्रह्मनिमग्नोऽस्मि, पूर्णब्रह्मस्वरूपतः पुद्गलैः पुद्गलास्तृसिं, यान्तिस्वाऽऽत्मानिजाऽऽत्मना२५२ आत्मनः सत्यतृप्तिस्तु, स्वाऽऽत्मानन्देन जायते: आत्मानन्दर सावाप्तेः पुद्गलेच्छा विनश्यति ॥ २५३ ॥ क्षयोपशमभावीय-, ज्ञानचारित्रयोगतः आत्मन्येव सुखाम्भोधिः स्वयंस्वेनाऽनुभूयते ॥ २५४ ॥ क्षणिकं हृदि विज्ञाय, सर्व वैषयिकं सुखम् ; आत्मानन्दस्य भोगार्थ, मात्मन्येव स्थिरोभव ॥ २५५ ॥ अनन्तगुणपर्याय, शक्तिरूपं सनातनम् ; देहस्थ तं विजानीया, देहाध्यासं भृशं त्यज ॥ २५६ ॥ मा मुा जड भोगेषु, किञ्चिच्चाऽपि ततः सुखम् ; न स्यात्परन्तु दुःखानां प्राप्तिः पश्चात्समुद्भवेत् ॥ २५७ भोगाद् रोगादिदुःखानां, पारम्पर्यं प्रजायते: भोगे रोगभयोत्पादो, देहनाशोऽल्पसौख्यता ॥ २५८ ॥ जायते च महादुःखं, विश्रान्तिरपि नोद्भवेत् भोगजन्यसुखं दुःख, मेवजानीहि निश्चयात् ॥ २५९ ॥ भुक्ता अनादितो भोगाः प्रत्युत दुःखदाः सदा । ज्ञात्वैकामभोगांस्त्वं त्यजाऽऽत्मसुख निश्चयात् ॥ २६० ॥ जन्ममृत्युजरादुःखं, व्याधिदुःखं पुन भ्रंशम् : आधिजं सर्व सम्बन्ध-जन्यं दुःखमुपाधिकम् ॥ २६९ ॥
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नास्तिशर्मच पुत्रायै, लक्ष्मीदारादिभिर्न च: यशोविद्यादिभिर्नास्ति, किञ्चिन्न बाह्यवस्तुभिः ॥२६२॥ मैथुनेन सुखंनाऽस्ति, प्रत्युत दुःखकृद् भवेत् ; मनोवाकाययोगेन, ब्रह्माराधनतः सुखम् ॥२६३ ॥ भ्रमतां बाह्यसौख्याथै, सर्वत्र चक्रवर्तिनाम् : मिलिता सत्यशान्तिनों, सत्यशान्तिर्निजाऽऽत्मनि॥२६४॥ वैषयिकस्य शर्माशा-, सागरोऽस्ति भयङ्करः तत्पारंकोऽपि न प्राप्तः पारं यास्यसि नो ध्रुवम् ॥२६५॥ जडानन्दाप्तये यद्यत् , कल्प्यते तत्तु दुःखकृत् ; जायतेऽनुभवं प्राप्य, तत्रकि परिमुह्यसि ॥२६६ ॥ यशःसन्मानकीत्यर्थ, नामरूपप्रमोहतः कृतं यत्तन्न शान्त्यर्थ, स्यात्प्रत्युतच दुःखकृत् ॥२६७॥ बाह्यानन्दाय यद्यच्च , क्रियते तत्त दुःखकृत्; जायते मोहिनां नृणां, नच ब्रह्मसुखैषिणाम् ; ॥२६८॥ कोटिकोटिमहोपाय, नित्यानन्दो न बाह्यतः आत्मन्येव सुखं सत्यं, बाह्य त्वं मा परिभ्रम ॥२६९॥ विद्यया न सुखं सत्यं, नच शान्तिरविद्यया: शास्त्रेभ्यो न सुखं शान्ति, विवादाच न जायते ॥२७०॥ सत्त्वरजस्तमोजन्यं, सुखं तु नैव तात्त्विकम् । सत्त्वादिप्रकृतेभिन्न, मात्मसुखं प्रवेदय ॥२७१ ॥ शुभाऽशुभमनोवृत्ति-लयेनैव प्रकाश्यते; निर्विकल्पं सुखं सत्य, मात्मनःस्वनुभूयते ॥२७२ ।। अन्तर्बहिश्च सर्वत्र, सुखभाऽऽत्मोपयोगिनाम् । मर्वथा मर्वदा नित्य. मस्ति भोगाप्तिमन्तरा ॥२७॥
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२४
कामभोगादितोजातं, सुखं स्वप्नोपमं मतम् । तत्रनो मुह्यति ज्ञानी, शुद्धोपयोगशक्तितः ॥ २७४ ॥ काम्यस्पर्शेषु मामुह्य, ख्यादिरूपेषुमुह्य मा; जडत्वं स्पर्शरूपेषु, तेभ्यः शर्म न जायते ॥ २७५ ॥ सुखत्वं न जडेष्वेव, तेभ्यः शर्म कथं भवेत् ? आत्मोपयागतोज्ञात्वा, ज्ञानी तत्र न मुह्यति ॥ २७६ ॥ आत्मायत्तं मनः स्याच्चे-दिन्द्रियाणि तथाऽऽत्मनः वश्यानि तर्हि साधूना, मत्रैवमुक्तिसिद्धयः ॥ २७७ ॥ रागद्वेषविनिर्मुक्तं, सर्वसंकल्पवर्जितम् । आत्मायत्तं मनः स्याच्चेन् , मुक्तिरत्रानुभूयते ॥२७८॥ अहंत्वंतद्विनिर्मुक्तं, लिंगाध्यासविवर्जितम् ; मनः शुद्धोपयोगेन, भवेत् तत्र न संशयः ॥२७९ ॥ लोकसंज्ञादिभिर्मुक्ता, अवधूताः सुखैषिणः उन्मत्ता इव संसारे, वर्तन्ते ब्रह्मदर्शिनः . ॥ २८० ॥ आत्मशमनिमग्नानां, वेषाचारमतादिषु; बन्धननैवचोन्मत्त, इव सर्वत्र वर्तनम्
॥२८१ ॥ केषांचिन भवेदेवं, नानाशुद्धोपयोगिनाम् । जानाति ज्ञानिनं ज्ञानी, गुप्तं व्यक्तस्वबोधतः ॥२८२॥ लोकाचारविचारेण, विरुद्धा इव वर्तिनः ब्रह्ममग्ना महासन्तो, ज्ञायन्ते ब्रह्मदर्शिभिः ॥२८३।। बाह्यवेषादिभिः सन्तो, ज्ञायन्ते न कदाचन: उन्मत्ता आत्ममग्नास्ते, ज्ञायन्ते च स्वबोधतः ॥ २८४ ॥ आत्मोन्मत्तावधूतानां, हृदि शुद्धेश्वरो महान् ; आवर्भूतोऽस्ति विज्ञाय, तेषां भक्तौ रतोभव ॥ २८५ ॥
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૫
॥ २८७ ॥
॥ २८७ ॥
द्वेषरागादिभिर्मुक्ताः शुद्धात्मानो महर्षयः वीतरागा जिनाः शुद्धा, ईश्वरा देहसंस्थिताः ॥ २८६ ॥ सत्त्वप्रकृतिसंयुक्ता, ईश्वरा ब्रह्मरूपिणः एतैः प्रबोधितो धर्मो, जैनधर्मोऽस्ति शाश्वतः सर्वज्ञा वीतरागा ये, तैर्हि विश्वस्थदेहिनाम् ; मुक्त्यर्थं स्थापितो धर्मो, जैनधर्मः स उच्यते ॥ २८८ ॥ त्यागिनां च गृहस्थानां, स्वाधिकाराद् द्विधाशुभः गृहस्थैस्त्यागिभिः सेव्यो, जैनधर्मः स्वमुक्तये ।। २८९ ।। अन्यधर्मेषु सत्यं यत्, सापेक्षनयबोधतः तत् सापेक्षतया ग्राह्यं, गीतार्थगुरुनिश्रया शुद्धोपयोगिनां सर्व, जगत् सम्यग्दृशां सदा, आत्मानन्दस्य हेत्वर्थ, सर्व सम्यकतया स्थितम् ॥ २८८ ॥ निश्चयाद् व्यवहारायो, जैनधर्मो द्विधा सदा व्यवहारो न मोक्तव्यो, निश्चयदृष्टिधारिभिः व्यवहारनयोच्छेदा, ज्जैनधर्मक्षयो भवेत्; संघतीर्थक्षयश्चेति, सर्वार्हद्भिः प्रभाषितम् शुद्धोपयोग लाभार्थ, व्यवहारस्य हेतुता; आत्मनो निश्चयोधर्मः शुद्धोपयोग आत्मनि आत्मन्येवाssत्मनो धर्मः शुद्धोपयोग इष्यते; शुद्धोपयोगिनां सर्व, विश्वमानन्दहेतवे आत्मानन्दोपयोगार्थं, निमित्तं च जगद्भवेद्: ज्ञानेज्ञेयं जगत्सर्वं सुखाय स्वोपयोगिनाम् बाह्यमह्यां सुखनास्ति, तर्ह्यपि शर्महेतवे; ज्ञाने ज्ञेयतया भाति, ज्ञानात्सुखं निजात्मनि
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॥ २८९ ॥
॥ २९० ॥
॥२९१॥
॥ २९२ ॥
॥२९३॥
॥२९४॥
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बाह्यान्तरं जगत्सर्व, शुद्धब्रह्मोपयोगिनाम् ; ब्रह्मानन्दप्रदं भूयान् , मूढानां दुःखहेतवे ॥ २९५ ॥ सर्वविश्वस्थलोकानां, भक्तिरन्नादिदानतः कर्तव्या सर्वसाधूनां, यथाशक्ति यदा तदा ॥२९६ ॥ आत्मशुद्धोपयोगार्थ, सेवाभक्तिप्रसाधनम् । दयादानादिभिःसेवा, कर्तव्या देहिनां सदा ॥२९७ ॥ आत्मोपयोगिनां किञ्चित् , कर्तव्यं नावतिष्ठते; मुक्त्यर्थं च तथा कर्म, कुर्वन्ति व्यवहारतः ॥२९८ ॥ मनोवाकाययोगाना, मुपयोग सुयोगिनः उपकाराय कुर्वन्ति, शुडोपयोगजीविनः ॥२९९ ॥ उपग्रहोऽस्ति सर्वत्र, जीवानां च परस्परम् ; उपग्रहप्रवृत्तिस्तु, जीवन्मुक्तसयोगिनाम् ॥३०० ॥ सत्कर्म देहपर्यन्तं, कुर्वन्ति वीतरागिणः अत आदेहमहन्तो, विश्वजीवोपकारिणः ॥३०१॥ अहतां मार्गमालम्ब्य, संप्रति ज्ञानयागिनः यद्योग्य तत्प्रकुर्वन्ति, कर्म स्वपरशर्मदम् ॥३०२॥ धर्मजातिक्रियावर्ण-, देशभेदाद्युपाधितः निहित्वं समाश्रित्य, प्रवर्तन्ते मुनीश्वराः ॥ ३०३ ॥ अन्धश्रद्धात्वयातानां, विरुद्धभिन्नधर्मिणाम् : उपकाराय वर्तन्ते, जैनाः शुद्धोपयोगिनः ॥३०४ ॥ स्वोपयोगेन धर्मोऽस्ति, बन्धोऽस्ति मोहभावतः कर्मबन्धः कषायेन, मुक्तिः साम्येन देहिनाम् ॥३०५॥ रागद्वेषपरीणाम, एव संसारकारणम् ; रागद्वेषारिहन्तणां,-मोक्ष एव करस्थितः ॥३०६ ॥
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૨૭ आत्मशुद्धिर्भवेन्नैव, रागद्वेषक्षयं विना; ईश्वरः सपरब्रह्म, रागद्वेषक्षयङ्करः
॥३०७॥ आत्मशुद्धोपयोगेन, रागद्वेषारिसंक्षयः जीवः स्वयं सशुद्धाऽऽत्मा, वीतरागो जिनः शिवः॥३०८॥ सर्वविश्वस्वरूपोऽस्ति, स्वाऽऽत्मा स्वपरपर्यवैः पूर्णानन्दमयं ब्रह्म, स्वाऽऽत्मानं प्रेमतः स्मर । ॥३०९॥ आत्मनो दर्शनेनैव, सर्वतीर्थादिदर्शनम् ; जायते सर्वतीर्थानां, यात्राच धर्मकर्म वै. ॥३१०॥ आत्माऽहं व्यापको भिन्नः, सर्वपुद्गलपर्यवैः मनोऽसंख्यविचारेभ्यः, पृथकू शुद्धाऽऽत्मब्रह्मराट् ॥३१॥ मनोमतोद्भवै र्धमै, र्योद्धव्यं न जनैः सह; मनोमतोद्भवद्धर्मा-, ऽधीना मोहमनीषिणः ॥३१२॥ रागद्वेषमयैः सबै मनोवृत्त्युद्भवैर्मतः व्याप्तं जगद्तो ज्ञानी, सापेक्षदृष्टिधारका ॥३१३॥ मनोमतैर्विभिन्नास्यु, रात्मशुद्धोपयोगिनः आत्मज्ञाननयैः सर्वै, मनोमतविचारिणः ॥३१४॥ मनोमतोद्भवाः सर्वे, धर्मास्युरात्मवेदिनाम् ; सापेक्षदृष्टितः सत्य-, धर्माय साम्ययोगिनाम् ॥३१५॥ मनोमतविभिन्नानां, नृणामसंख्यधर्मिणाम् : आत्मधर्मस्य लाभार्थ, देयं स्याद्वादशिक्षणम् ॥३१६॥ रागद्वेषक्षयेनैव, शुद्धज्ञानं प्रकाशते, शुद्धाऽऽत्मज्ञानतः सम्यग्-सत्यतत्त्वं प्रकाशते ॥३१७॥ अध्यात्मपरिभाषायां, रागद्वेषमयं मनः कथ्यतेऽध्यात्मसामान्य-, ज्ञानिभि व्यवहारतः ॥३१॥
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सर्वज्ञे द्रव्यभावाभ्यां, प्रज्ञप्तं द्विविधं मनः पौद्गलिकं मनोद्रव्यं, संज्ञिनां वर्तते ध्रुवम् ॥३१९॥
मतिश्रुतविचाराणां मनस्त्वं भावतः स्मृतम् ; द्विविधं तु मनोज्ञेयं, तत्त्वज्ञानविवेकतः शुद्धप्रेमपरीणाम - साम्यज्ञानसुभक्तितः सर्वदर्शनलोकानां, मुक्तिराssत्मनि निश्चिता सर्वदेहस्थजीवाना, मात्मवद्दर्शनं यदाः वर्तनं च भवेत्सत्यं, तदा मुक्तिस्तनौस्थिते शुद्धप्रेममयी भक्ति, यंदा संजायते हृदि । तदाऽऽत्माहि परब्रह्म, स्वाऽऽत्मना दृश्यते स्वयम् ॥ ३२३॥ आत्मनो व्यापक प्रेम, यदा सँञ्जायते तदा । सर्व विश्वस्य सेवास्या, दात्मवद् दर्शनं भवेद् ॥ ३२४ ॥
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॥३२० ॥
॥३२१॥
॥३२२॥
लज्जाभेदश्च खेदश्व, लोकसंज्ञादिवृत्तयः
भेदो न विद्यते भक्तौ, सेवायां च सदाऽऽत्मनाम् ॥ ३२५ ॥ ऐक्यरूपं जगत्सर्व, महंत्वं भेदनिर्गतम् ; शुद्धप्रेम्णा प्रकाशेत, पराभक्तिजुषां सदा ॥ ३२६ ॥ शुद्धोपयोगिनः सन्तो, व्यापकाः सर्वदेशिनः असंख्यधर्मभेदानां, सापेक्षज्ञानधारकाः || ३२७|| पराभक्त्या प्रकाशेत, स्वाऽऽत्मन्येव प्रभुः स्वयम् ; पराभक्तिमयाः सन्तः सर्वविश्वोपकारिणः ॥३२८॥ सेवाभक्त्यादयः सर्वे, योगाः शुद्धोपयोगिनाम् ; विश्वपरोपकाराय, सम्भवन्ति स्वभावतः ॥ ३२९ ॥ समत्वेन प्रभोः प्राप्तिः सर्वदर्शनधर्मिणाम् ; स्याद्वादज्ञानतः प्राप्यः समयोगो महात्मभिः ॥ ३३० ॥
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૨૯
मुक्तिः साम्यंविनानैव, सर्वदर्शनधर्मिणाम् ;
साम्यं विना प्रभोः प्राप्ति, नस्ति शुद्धाऽऽत्मनः खलु ॥३३१॥ साम्यमेव सतां धर्मः, सात्त्विकप्रकृतेः परः साम्योपयोगतो मुक्ति, जीवन्मुक्तमहात्मनाम् ॥३३२॥ साम्योपयोगमा लम्ब्य, याता यास्यन्ति यान्ति च; अनन्तदेहिनो मुक्ति, तत्र कश्चिन्न संशयः ॥ ३३३ ॥ सेवाभक्त्यादियागेभ्यः श्रेष्ठोऽनन्तगुणो महान् ; समो योगः स्वभावेन समासेव्यो महात्मभिः ॥ ३३४॥ समो यस्सर्वभूतेषु सर्वजातीयधर्मिषु
समो यः शत्रुमित्रेषु, शुभाशुभेषु कर्मसु ॥ ३३५ ॥ शुभाशुभ विपाकेषु यः समः साक्षिभाववान्; क्षणमात्रमपि व्यक्तः स्यात् सः शुद्धोपयोगवान् ॥ ३३६ ॥ एकक्षणिकशुद्धोय, उपयोगो यदा भवेत् :
तदाऽनन्तभवैर्बद्धं कर्म नश्यति तत्क्षणात् ॥३३७॥
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अन्तर्मुहूर्त कालोन, शुद्धोपयोगशक्तितः जायते केवलज्ञान, मात्मनि सत्यनिश्चयः ॥ ३३८ ॥ समः सर्वत उत्कृष्टः शुद्धोपयोग इष्यते; बहिरन्तः परब्रह्म, भासते ब्रह्मयोगिनाम् ॥ ३३९ ॥ मनोवाक्काययोगानां व्यापारकारकाश्चते: प्रारब्धाऽघातिकर्माणः सर्वत्र समसाक्षिणः ॥ ३४० ॥ असंख्यभेदतो ज्ञेयः क्षयोपशमभाववान् : शुद्धोपयोग वाssस्मैव भव्यजीवेषु सम्प्रति ॥ ३४९ ॥ ज्ञानदर्शनचारित्र - परीणाममयः शुभः
क्षायोपशमिको व्यक्तः शुद्धयोगोऽप्रमादिनाम् ॥ ३४२ ॥
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औत्सर्गिकापवादाभ्यां, क्रियमाणेषु कर्मसु; प्रभोः स्मृतिप्रवाहोय-उपयोगः स इष्यते ॥३४३॥ शुद्धाऽऽत्मसंस्मृते र्धारा, वर्तते या प्रतिक्षणम् ; शुद्धोपयोग इष्यास, आत्मशुद्धिप्रदो महान् ॥३४४॥ सर्वकर्मविनाशार्थ, पूर्ण शुद्धाऽऽत्मसंस्मृतिः धार्या प्रतिक्षणं कर्म-, कुर्वद्भिः कर्मयोगिभिः ॥३४५॥ शुद्धाऽऽत्मश्रीमहावीर, स्मृति भृशं सुरागतः उपयोगः प्रविज्ञेयो, हृदि धार्यो विवेकिभिः ॥३४६।। आत्माऽऽहं सच्चिदानन्दो, गुणपर्यायभाजनम् , इत्येवं या स्मृतिः सैव, शुद्धोपयोग इष्यते ॥३४७॥ क्रियमाणेषु कार्येषु, प्रतिक्षणं प्रभोः स्मृतिः सोपयोगोऽस्ति विज्ञेय, स्ततो मोहो न जायते ॥३४८॥ धर्म्ययुद्धादिकार्येषु, प्रवृत्ताः स्वाधिकारतः शुद्धोपयोगिनो भव्याः, कुर्वन्ति कर्मनिर्जराम् ॥३४९।। त्यागिनश्च गृहस्थाये, स्वाधिकारप्रवर्तकाः शुद्धोपयोगतो मुक्ति, यान्ति तत्र न संशयः ॥३५०॥ क्षणमात्रमपि प्राप्त, उपयोग य एकशः मुक्तिमवश्यं सो याति, सम्यग्दृष्टिः स्वभावतः ॥३५१॥ परस्परविरुद्धानां, वेषाचारादिकर्मणाम् : सापेक्षया निमित्तत्व, मात्मोपयोगिनां भवेत् ॥३५२॥ परस्परविरुद्धत्वं, धर्मनिमित्तकर्मसुः मिथ्यादृशां भवेदेव, मिथ्यात्वमोहवर्धकम् ॥३५३॥ असंख्यधर्महेतुनां, भिन्नानां स्वाधिकारतः आत्मोपयोगहेतुत्वं, ज्ञायते ज्ञानिभिः सदा ॥३५४॥
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अनुलक्ष्य निजाssस्मानं, वर्तन्ते योग्यहेतुभिः अविरोधो विरुद्धेषु-, हेतुषु ब्रह्मवेदिनाम् ||३५५ || परस्पर विभिन्नेषु, बाह्येषु धर्महेतुषु; व्रतक्रियाणां सापेक्ष - हेतुत्वमुपयोगिनाम् || ३५६ ॥ मनोवाक्कायसंशुद्ध्या, सात्त्विकान्नादिना तथा; सात्विकबुद्धियोगेन, शुद्धब्रह्म प्रकाशते ॥ ३५७|| उपादाननिमित्ता ये, शुद्धोपयोग हेतवः स्वाधिकारेण संसेव्या, गोतार्थगुरुनिश्रया ॥ ३५८ ॥ श्रीचतुर्थगुणस्थान, मारभ्य स्वोपयोगताम् ; आप्नुवन्ति जना ब्रह्म-, शक्तीश्चात्मोन्नतिक्रमात् ॥ ३५९ ॥ कर्मणां निर्जरा बहव्य, चाल्पबन्धः प्रजायते; सम्यग्दृष्टिमनुष्याणा, मास्रवारम्भकारिणाम् ॥ ३६० ॥ आत्मोपयोगिनां नृणा, महिंसा आन्तरा यतः हिंसाभावं विनानैर्व, हिंसातः कर्मबन्धता ॥ ३६९ ॥ आत्मोपयोगिनां दोषा, नश्यन्ति पूर्णवेगतः आत्मशुद्धिर्भवेत्तूर्ण, तत्र किञ्चिन्न संशयः ॥३६२॥ आत्मोपयोगिनः सन्तो, गृहस्थाश्च विवेकतः बहिरन्तः प्रवर्तन्ते, मोक्षार्थं तत्प्रवृत्तयः ॥ ३६३॥ गच्छादिमतभेदाये, क्रियादिभेदवृत्तयः तत्रोपयोगिनः सन्तो, मुह्यन्ति न कदाग्रहात् ॥ ३६४ ॥ सर्वगच्छस्थिताः सन्तो, गृहस्थाश्चोपयोगिनः स्वस्वगच्छक्रियावन्तः समत्वान्मुक्तिगामिनः ॥ ३३५ ॥ सर्वगच्छक्रियादीनां तात्पर्यमाऽऽत्मशुद्धये; क्रियादिमतभेदेषु, क्लिश्यन्ति न समत्वतः ॥ ३६६॥
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૩ર
सम्प्रदायादिभेदस्थ, नृणां मुक्ति हि साम्यतः गच्छक्रियादिनिर्मोहा, याता यास्यन्ति सद्गतिम् ॥ ३६७॥ आत्मोपयोगिनः सर्व, कुर्वन्ति व्यवहारतः संलक्ष्य शुद्धमात्मानं, वर्तन्ते स्वाधिकारतः ॥ ३६८ ॥ सर्वधर्मीयशास्त्राणां मतानां चावलोकिनः असंख्यनयसापेक्ष-, सत्यार्थिनस्तु मुक्तये ॥ ३३९॥ असंख्यनयसापेक्ष - सत्यज्ञानस्य सागराः महावीरस्यदेवस्य, भक्ता जैना हि मुक्तिगाः || ३७०|| शुद्धात्मैव स्वगच्छोऽस्ति, सम्प्रदायो निजाऽऽत्मनि सर्वदर्शनरूपाऽऽत्मा, जानाति योऽस्ति साम्यवान् ||३७१ ॥ आत्मनः स्वांशरूपास्ता दृष्टयः सर्वधर्मिणाम् : अनुभूतो मयास्वाऽऽत्मा, नयैरेवमपेक्षया ॥ ३७२ ॥ बन्धोऽस्ति मोहभावेन, बाह्यतो निष्क्रियावताम् ; मोहविना तु निर्बन्धा, बाह्यतः कर्मकारिणः ॥ ३७३ ॥ परस्परोपकाराय, जीवाऽजीवाश्च सर्वदा: विश्वस्थ सर्वजीवानां परस्परमुपग्रहः ॥ ३७४ ॥ जीवाजीव सहायेन, जीवा जीवन्ति भूतले; मनुष्याणां विशेषेण, जीवाऽजीव सहायता ॥ ३७५ ॥ महीचन्द्रार्कसाहाय्या, ज्जीवानां जीवनं भवेत्, मातुः पितुश्च वृद्धानां निमितैरस्ति जीवनम् ॥ ३७६ ॥ अन्नपानाद्युपायैस्तु, लोकानामस्ति जीवनम् : जीवाजीवादितः सर्व, मन्नादिकं मिलेयतः ॥ ३७७|| नरा जीवन्ति धर्मार्थ, जीवाऽजीव सहायतः पारम्पर्येण मोक्षार्थ, जीवाद्या उपकारकाः ॥ ३७८ ॥
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अतो जीवादिरक्षार्थ, मनुष्यैः सर्वयत्नतः यतितव्यं स्वभावेन, विश्वोपग्रह हेतवे ॥ ३७९ ॥ पशुपक्षिमनुष्याणां, रक्षणं स्वीयशक्तितः वृक्षाणां रक्षणकार्य, विवेकेन यथातथम् ॥ ३८० ॥ मातुः पितुश्च वृद्धानां सद्गुरूणां सुभक्तये; frontमबुद्धितो नित्यं, यतितव्यं स्वशक्तितः ॥ ३८१ ॥ आत्मोपयोगिभिर्भक्तैः स्वाऽन्योपकारिणःप्रति; वर्तितव्यं सुसेवाभिः सेवाधमेोऽस्ति धर्मिणाम् ॥ ३८२॥ स्वापणेन सदा सेव्यः सम्यक्त्वज्ञानदायकः आत्मोपयोगलाभार्थ, सन्तः सेव्याः सुभावतः ॥ ३८३॥ परोपकारिणां नृणां, कार्या सेवा सुभावतः सेवाधर्मसमो धर्मा, नैवभूतो भविष्यति ॥ ३८४॥ स्वोत्पन्नैः सद्गुणैः सेवा, कार्या विश्वस्थदेहिनाम्; प्रतिफलं न चाकांक्ष्यं-, सन्तो निष्कामकर्मणः || ३८५|| सात्त्विकसद्गुणैः सेवा - भक्तिकर्मादिभिर्जनैः आत्मशुद्धिः प्रकर्तव्या, साध्यं सिद्ध्यति साधनात् ॥ ३८६ ॥ विश्वसेवा सदाकार्या, प्राप्तशुद्धोपयोगिभिः; शुद्धोपयोगिनः सन्तः, सेवायामधिकारिणः || ३८७|| आत्मज्ञानं विना सेवा-, कारिणः पापबन्धकाः निष्पापा ज्ञानिनो ज्ञेया, यतस्ते स्वोपयोगिनः ॥ ३८८ ॥ क्षयोपशमभावेन, प्राप्तशुद्धोपयोगिनाम्; सतांसेवा भृशं कार्या, उपायैरपिकोटिभिः ॥ ३८९ ॥ शुद्धात्मप्रभुलीनानां, देहाध्यास विवर्जिनाम् : आत्मोन्मत्तममुष्याणां हृदिव्यक्तो प्रभुर्महान् ॥ ३९० ॥
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शुद्धब्रह्मरसास्वाद-, प्राप्तमाधुर्यजीवनात्; जीवन्ति ते यतः सन्तः, प्रभोर्जीवनजीविनः ॥ ३९२ ॥ आन्तरं जीवनं ज्ञान, मनन्तमुपयोगिनाम्; अनन्तवीर्यसम्पन्नं, जीवनं निर्मलं शुभम् ॥ ३९२ ॥ बाह्यजीवनजीवन्त, आन्तरं जीवनंविना; जीवन्ता स्ते मृताज्ञेयाः मोहजीवनजीविनः || ३९३ || बाह्यजीवननाशोऽस्ति, चानन्तं ब्रह्मजीवनम् : ब्रह्मजीवनजावन्तो, वैदेहाऽऽत्मस्वरूपिणः ॥ ३९४ ॥ आत्माधीनं मनःकायो-, वचश्च यस्य वर्तते; मनोवाक्कायपावित्र्या, त्तस्य स्वातंत्र्यजीवनम् ॥ ३९५ ॥ सद्बुड्या वर्तनं यस्य - दुर्बुड्या नैववर्तनम्, इन्द्रियाणां न दासोऽस्ति स्वतन्त्रश्चोपयोगवान् ||३९६ ॥ आत्मजीवनजीवन्तो, बाह्यजीवनजीवकाः अन्तर्बहिः स्वतन्त्रास्ते, प्रतिबन्धविवर्जकाः ||३९७ ॥ मनोवाक्कायगुतीनां -, धारकादोषवारकाः समितिवाहकाः सन्तः स्वतन्त्रा धर्मचक्रिणः ॥ ३९८ ॥ योग्याचारेण जीवन्तो, योग्याहारविहारिणः आत्माधानाश्च सर्वत्र, स्वाऽऽत्मोपयोगजीविनः || ३९९ || विवेकेन प्रवृत्ताये, आजीविकादिकर्मसु बाह्यजीवनसापेक्ष-, सर्वाचारविचारिणः ॥४०० ॥ मैत्रीभावेन वर्तन्ते -, माध्यस्थभावधारकाः प्रमोदभावसम्पन्नाः कारुण्यभाववाहकाः || ४०१ || सूपयोगं प्रकुर्वन्तो मनोवाक्काय कर्मणाम् ; आत्मानन्दरसोन्मत्ताः प्रभोर्जीवनजीविनः ॥ ४०२ ॥
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बाह्यजीवननिर्बन्धा, बाह्यतोजीविनोऽपिते; साक्षिभावेनसर्वत्र, ब्रह्मजीवनजीविनः ॥४०३॥ प्रवृत्तिषुनिवृत्तिषु, वर्तनं वा निवर्तनम् । तत्र स्वतन्त्रबुड्याते-वर्तिनश्चनिवर्तिनः ॥४०४॥ आत्मोपयोगिनां सर्व-, जगदाऽऽत्मिकशुद्धये; आत्मोन्नतिक्रमार्थञ्च, स्यादन्तस्तउपाधिषु ॥४०५॥ अशातायां च शातायां, वने गृहे च सागरे; आत्मनः परिणामाय, सर्वस्यादुपयोगिनाम् ॥४०६।। सात्त्विकाचारवृत्तिषु, सात्त्विकसद्गुणेष्वपि: नाऽभिमानश्चयच्चित्ते, प्रवृत्तौ चोपयोगवान् ॥४०७॥ सधनोनिर्धनो वास्याद्, भोगीरोगी च राज्यवान् , आरण्यो वा गृही त्यागी, मुक्तः शुद्धोपयोगतः ॥४०८॥ नपुंसको नरोनारी, यः कोऽपि स्वोपयोगवान् ; यादृक्ताहगवस्थायां, मुक्तः स्यान्नवसंशयः ॥४०९॥ ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्चस्वोपयोगतः म्लेच्छामुक्तिपदयान्ति, नानालिङ्गादिधारिणः ॥४१०७ नाऽहंबालोयुवावृद्धो, नवा नारीपुमानहम् . नाऽहंदेहश्चदेहीवा,-पुद्गलस्थो न पुद्गली ॥४११॥ सर्वपुद्गलपर्याया-दहं भिन्नोऽस्मिनिश्चयात्, पुद्गलेषुसुखंनाऽस्ति, सुखंब्रह्मणिशाश्वतम् ॥४१२॥ निरञ्जनोनिराकारो, रूपस्थोऽपिनरूप्यहम् । विभावपरिणामस्थो, वस्तुतोऽहंस्वभाववान् ॥४१३॥ रागद्वेषपरीणामो, वैभाविकः सउच्यते ततोभिन्ना निजाऽऽत्माऽस्ति, रागद्वेषंच मा कुरु।४१४॥
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सर्वपुद्गलतोभिन्नो, रागः शुद्धात्मनः शुभः आत्मरागेण शुद्धात्म-, ज्ञानी ब्रह्मरसी भवेत् ॥४१५॥
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आत्मपुद्गलसंयोगा-दनादिकालतोऽशुभः वैभाविकपरीणामो, वर्तते सर्वदेहिनाम् ॥४१६ ॥
वैभाविकपरीणाम - नाशआत्मोपयोगतः आत्मोपयोगिनां शुद्धः, परीणामः प्रजायते ॥ ४१७॥ आत्मानन्दस्य वाञ्छाचेत्, कामवृत्तिंनिवारयः यत्रकामोनतत्राऽस्ति, स्वाऽऽत्मारामोप्रवेदय - ||४१८॥ यावत्कामविकाराणां पूर्णक्षयो न जायते, तावत् स्त्रीस्पर्शरूपेभ्या, दूरंस्थेयं सुयोगिभिः ॥ ४१९ ॥ पौद्गलानन्दवन्तःस्यु, र्गृहस्था मुख्यभावतः आत्मानन्दस्य लाभार्थ - सम्यग्दृष्ट्या प्रवर्तकाः ॥४२०॥ अविरता गृहस्थाः स्युः सम्यग्दृाष्टप्रधारकाः व्रताद्यैविरताजैनाः - शुद्धसम्यक्त्वशालिनः ॥४२१ ॥ सर्वकर्मक्षयार्थं ते, गृहस्थधर्मपालकाः पौद्गलानन्दभोक्तारो, हृदिब्रह्मसुखार्थिनः ॥४२२ ॥ पौद्गलानन्दतोऽनन्तं सुखं नित्यं निजाऽऽत्मनि; तत्सुखाऽवासयेदृष्टि, गृहस्थानां प्रवर्तते ॥४२३॥ पौद्गलानन्दभोगार्थ - मुद्यताश्चगृहस्थिताः आत्मानन्दाऽसयेतेस्यु, देशविरतिधारिणः ॥ ४२४ ॥ शाताऽशाताप्रभोक्तार, आत्मशुद्ध चार्थमुद्यताः सन्तआत्मोपयोगेन, प्रवर्तन्तेत्रतस्थिताः || ४२५ ॥ आत्मशुद्धोपयोगेन, व्रताव्रतेषुसाम्यवान; जीवन्मुक्तो भवेज्ज्ञानी, मुच्यते धर्मसाधनैः ||४२६||
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3७ असंख्यजातिविद्यानां, ग्रन्थकोटिस्तु भूतले, तत्पारमाऽऽत्मबोधेन, पार्यते स्वोपयोगिभिः॥४२७॥ दर्शनधर्ममार्गाणां, सर्वसत्यं निजाऽऽत्मनि; विज्ञायचाऽऽत्मशुड्यर्थ, जैनधर्म प्रसाधय ॥४२८॥ षड्द्रव्यनवतत्त्वानां-, नयनिक्षेपभङ्गतः श्रद्धानपूर्वकं ज्ञानं, सम्यग्दर्शनमुच्यते-॥४२९॥ सम्यग्दर्शनलाभेन, सत्फलाधर्मसाधना; निष्फलंधर्मकृत्यं स्यात् , सम्यग्दर्शनमन्तरा ॥४३०॥ सम्यग्दर्शनमेवाऽस्ति, शुद्धोपयोगात्मनः सम्यग्चारित्रमेवाऽस्ति, शुद्धोपयोगआन्तरः ॥४३१॥ शुद्धोपयोगिनांसर्व,-वाणीकायादिवर्तनम् । स्वर्गायमुक्तयेवास्या, त्तत्रकिञ्चिन्न संशयः ॥४३२॥ दया सत्यं तपादान,-मस्तेयंचापरिग्रहः आत्मदृष्टिश्च सत्सेवा, शुद्धोपयोगहेतवः ॥४३३॥ भक्तानां भावतः सेवा, प्रमाणिक प्रवर्तनम् । पारतन्त्र्यं न भोगानां, रोगादौ न च दीनता ॥४३४॥ साहाय्यंदुःखभोक्तृणा, मनीतिवर्जनं सदा; सत्यांशेषु महारागः शुद्धोपयोगहेतवः ॥४३५॥ सर्वविश्वस्थजीवाना, मुपकारप्रवृत्तयः सर्वथा मदिरात्यागो, मांसस्यपरिवर्जनम् ॥४३६॥ व्यभिचारस्य संत्यागो, दुष्टव्यसनवर्जनम् ; पशुपक्षिमनुष्याणां, हिंसात्यागो विवेकिता ॥४३७॥ चारित्रिणां महाभक्तिः स्थिरप्रज्ञाक्षमार्जवाः इत्यादिसद्गुणैर्मोक्षो, विश्वस्थदेहिनांभवेत् ॥४३८॥
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3 मुक्तिस्वर्गश्च नारीणां, शूद्राणां म्लेच्छदेहिनाम् । पापकर्मपरित्यागात् , सद्गुणाचारतश्ववै ॥४३९॥ पापाचारविचाराणां, पश्चात्तापो भृशंभवेत् ; ईश्वरप्रार्थनायोगात् , पवित्राऽऽत्मास्वयंभवेत् ॥४४०॥ पूर्वोक्तसद्गुणाचार, जैनधर्मों जगत्रये; सर्वजातीयलोकानां, मुक्तिदोऽस्तिस्वभावतः॥४४१॥ पापाद्दुःखसुखं धर्मात्, सर्वत्र विश्वदेहिनाम् ; इतिविज्ञायधर्मार्थ, जीव!! वारय दुर्गुणान् ॥४४२॥ दुष्टव्यसनदासाये, दुर्गुणैर्येच जीवकाः । दुष्टप्रवृत्तिदासाये, मुक्तिंयान्ति न हिंसकाः ॥४४३॥ विनेयस्तत्त्वजिज्ञासु, राहतःसत्यपालक शुद्धोपयोगयोग्यासो, मृतःसन्यश्चजीवति ॥४४४॥ सद्गुणैर्येच जीवन्तो, मृताये दुष्टवृत्तिभिः येचजीवन्ति मोक्षार्थ, शुद्धाऽऽत्मानोभवन्तिते ॥४४५।। अनन्तमात्मसामर्थ्य, प्रादुर्भवतिचेतने: आत्मोपयोगतः पूर्ण, परब्रह्म प्रकाशते॥४४६ ॥ वैभाविकपरीणामाद्, भिन्नो निजाऽऽत्मनि स्फुटम्; स्वाभाविकपरीणामः शुद्धोपयोग उच्यते ॥४४७॥ वैभाविकपरीणामाद्, भिन्नः स्वाभाविकाऽऽत्मनि उपयोगपरीणाम-कुरुष्व भव्यचेतन !! ॥४४८॥ सर्वविश्वसमाजानां, कल्याणायकलौमहान् : शुद्धोपयोग एवास्ति, सर्वथा मोक्षदायकः ॥४४९॥ सर्वदोषविनाशाय, सर्वसद्गुणहेतवे; कृत्स्नकर्मक्षयार्थच, शुद्धोपयोगमाचर ॥४५०॥
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रोगादिजन्यदुःखेऽपि ब्रह्मतत्त्वविचारिणाम् ; आत्मोपयोगिनांनित्य-, मानन्दोल्लास आत्मनि ॥४५१ ॥
उपयोगेनवेत्तारं स्मारं स्मारं विचिन्तयः
विस्मृत्यबाह्यभावं त्वं-, लीनोभवनिजाऽऽत्मनि ॥४५२ || दूरीकृत्यप्रमादास्त्वं शुद्धाऽऽत्मानंस्मर द्रुतम्, एकमाऽऽत्माजगत्सारः सत्यंहृदिप्रधारय ॥४५३॥
सर्वसारस्यसारोऽय-, माऽऽत्मातत्त्वमसि स्वयम् सोऽहं प्रज्ञानमाऽऽत्माऽस्मि, कालस्य कालजित्त्वहम् ||४५४॥ वादाश्चप्रतिवादांश्च कुर्वन्तः सर्वपण्डिताः आत्मसुखं न संयान्ति, शुद्धोपयोगमन्तरा ॥ ४५५ ॥ दर्शनधर्मशास्त्राणां, मोहाल्लोकाः परस्परम्, युयन्तिकर्मबध्नन्ति, यान्तिजन्मपरम्पराम् ॥ ४५६ ॥ सर्वदर्शनधर्माणां सारंसत्यंवदाम्यहम् ; रागद्वेषक्षयः कार्यः कर्तव्यास्वाऽऽत्मशुद्धता ॥ ४५७॥ सर्वयोगादिसारोऽस्ति - संसाध्यावीतरागताः आत्मोपयोगता साध्ये, त्येवंब्रुवन्ति पण्डिताः ॥४५८ ॥ मनोवाक्कायपावित्र्या - दात्मनः पूर्णशुद्धता; कर्तव्यासासतांप्राप्या-, सत्यमेवंवदाम्यहम् ॥ ४५९ ॥ आर्याः स्युः सद्गुणैः सर्वे, सदाचारैर्भुवस्तले; मनोवाक्कायशुद्ध्याये-, स्वाऽऽत्मशुद्धिविधायिनः ॥ ४६० ॥ आत्मशुद्धिविनादेव - देवोभिर्भक्तदेहिनाम् ; मुक्तिप्रदीयतेनैव, स्वाऽऽत्मनानिजमुद्धरेत् ॥ ४६१॥
जायतेनकदामुक्ति, राविर्भूतगुणैर्विनाः
ईश्वरेणाऽपिनोदेया, सत्यमेतद्विवारय ॥४६२॥
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देवस्थसद्गुरोभत्त्या-स्वाऽऽत्मशुद्धिः प्रजायते. सेवाभाक्तपरीणामाद्-भवन्तिसात्त्विकागुणाः ॥४६३॥ सेवाभाक्तपरीणामो, जायेताऽऽत्मनआत्मनि; आत्मनाजायतेचित्ते-सात्त्विकमोहमिश्रकः ॥४६४॥ सेवाभक्तिपरीणामः प्रशस्थमोहसंयुतः केवलज्ञानतः पूर्व, वर्तते सर्वधर्मिणाम् ॥४६५॥ शुद्धाऽऽत्मरूपदीपाग्रे, स्फटिकाच्छादनंयथा; तथासात्त्विकमोहीय-मिश्रस्वाऽऽत्मिकसद्गुणाः ॥४६६॥ स्फटिकेन यथादीपो, नावृतोह भवेत्तथा; सात्त्विकेभ्यो निजाऽऽत्मीय, गुणाः स्यु वृताः खलु।४६७॥ आत्मशुद्धोपयोगेन, सेवाभक्त्यादिकारिणाम; सात्त्विका नैवबन्धाय, प्रत्युतमुक्तिहेतवे ॥४६८॥ मुक्तिंप्रति समादेथा, अतः सात्विकसद्गुणाः सात्त्विकसद्गुणाद्भिन्ना, ज्ञानाद्या आत्मसद्गुणाः॥४६९॥ सात्त्विकगुणकर्मभ्यो, भिन्नोऽहं ज्ञानदर्शनी; तथाऽपिस्वान्यशुड्यर्थ, यतेऽहंतत्प्रसाधनैः ॥४७०॥ सात्त्विकगुणकर्माणि; साधनानिनिबोधत; आत्मोपयोगतस्तानि, व्यापृणीहि यथातथम् ॥४७१॥ सात्त्विकगुणकार्येषु, सम्यक्साधनबुद्धितः प्रवर्तस्वोपयोगेन-, स्वाऽन्योपग्रहहेतवे ॥४७२॥ सात्त्विकगुणकर्माणि, पुद्गलांश्चविशेषतः स्वान्योपकारहेत्वर्थ, व्यापृणीहिविवेकतः ॥४७३॥ आत्मोपयोगिनोलोकाः, साधनसाध्यवेदिनः यथायोगप्रवर्तन्ते, सम्यविश्वावलोकिनः ॥४७४॥
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सम्यश्रद्धानसम्यक्त्व-लाभात्पश्चात्प्रकाशते; अल्पकालेचिरंकाले, चारनं चाऽऽत्मनः स्फुटम् ॥४७॥ स्वाऽऽत्मानंस्वं परिज्ञाय, शीघ्रमुत्तिष्ठजागृहि स्वपर्यायगुणानांत्व, माविर्भावंकुरुद्रुतम् ॥४७६॥ आत्मनः पूर्णशुद्धिर्या, सैवसाध्या जिनोदिता साध्यलक्ष्योपयोगेन, स्वाऽऽत्मशुद्धिकुरुद्रुतम् ॥४७७॥ साध्यलक्ष्यं हृदिध्यात्वा, कर्तव्यकार्यमाचर !!! आत्मोत्साहेनवर्तस्व, प्रमादाँश्चनिवारय ॥४७॥ प्रतिक्षणंपरब्रह्म-, शुद्धरूपंविचारय; भूयाः शुडाऽऽत्ममग्नस्त्वं, विस्मृत्यमोहभावनाम् ॥४७९॥ निर्ममोभवसर्वत्र, दृश्याऽदृश्येषुवस्तुषु, नाऽहंकारीभव व्यक्त-, दृश्यादृश्येषु सर्वथा ॥४८०॥ साक्षिभावेनसर्वत्र, वर्तस्वस्वोपयोगतः औपचारिककार्येषु, निर्लेपोभवबोधतः ॥४८१॥ मृत्युतानि यीभूय-स्वाऽऽत्मनिनिर्भयचर; जातस्यवपुषोनाशः स्वयंत्वमविनाशवान् ॥४८२॥ जातानांहि विनाशोऽस्ति, तेषांशोकंनिवारय; आत्माऽसिसच्चिदानन्दः स्वस्वरूपंविचारय ॥४८३।। साधयस्वाऽऽत्मनः शुद्धि, वारय मोहवासनाम् जनान् स्मारय सद्ब्रह्म-धारय स्वोपयोगिताम्-॥४८४॥ जीव !! शुद्धोपयोगेन, नियस्व मोहभावतः विस्मर मोहभावास्त्व, मात्मरूपंच संस्मर-॥४८॥ असंख्यमार्गा मोक्षस्य, सन्तिस्वाऽऽत्मोपयोगिनाम् : तेषामेकमपिमाप्य-सिद्धाः सेत्स्यन्ति देहिनः ॥४८६॥
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सम्यक्त्वदर्शनंव्यक्त, माऽऽत्मोपयोग इष्यते आत्मोपयोगिनां सर्वे-मार्गा मोक्षाय भाषिताः ॥४८७॥ सम्यक्त्वदर्शनं प्राप्य-, मा प्रमादं कुरुष्वभोः आत्मन् !! शुद्धस्वरूपंते, चिन्तय स्वस्थिरोभव ॥४८८॥ सत्याऽऽसत्यंच विज्ञाय, मा मुख्य मोहकर्मणि; असत्ये वर्तमानोऽपि, तत्र सत्यं न वेदय ॥४८९॥ सम्यग्दृष्ट्या प्रविज्ञाय, स्वाऽऽत्मधर्मे रतिं कुरु प्रारब्धकर्मभोगेषु, रति मा कुरु चेतन !!! ॥४९०॥ वैषयिकरतित्यक्त्वा , शुद्धाऽऽत्मनि रतिं कुरु: पवित्राऽऽत्मा भवस्पष्ट, परब्रह्ममयोभव ॥४९१॥ सम्मील्य सागरे बिन्दु, यथाब्धिरूपतांभजेत् तथा परात्मा प्राप्य, स्वाऽऽत्मासिद्धो भवेत्स्वयम् ॥४९२॥ मनोवाकायजान दोषान् , वारय निजशक्तितः धारय सद्गुणान् सर्वान् , जीव ! स्वाभाविकैर्गुणैः ॥४९३॥ सन्त्यज्य दुर्मतिं दुष्टां, सन्मतिं भज भावतः शुभाऽशुभविपाकेषु, हर्ष शोकञ्च संत्यज ॥४९४॥ कर्माधीना जगज्जीवा, मित्राणि शत्रवो न ते; आत्मोपयोगभावेन, सर्वजीवान् क्षमापय ॥४९५॥ रागद्वेषौ न मे सर्व-, विश्वस्मिन् देहिनः प्रति उत्थितोऽहं स्वमुत्त्यर्थ, समोऽहं सर्वदेहिषु ॥४९६॥ परब्रह्मपदाऽवाप्त्यै, मनोवाकायसाधनैः उत्थितोऽहंपरप्रीत्या, सद्गुरु कृपयाभृशम् ॥४९७॥ परब्रममहावीर-कृपां याचे स्वमुक्तये; सतां कृपाकटाक्षेण, मदुद्धारो भवेद् ध्रुवम् ॥४९८॥
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पश्चात्तापोजस्त दोषाणां, गुणानामनुमोदना; सर्वसङ्घस्य दासाऽनु, दासोऽहमुपयोगवान् ॥४९९॥ दासोऽहं सर्वसाधूनां, साध्वीनांच विशेषतः तत्कृपया मदुद्धारो, भूयात्तत्प्रार्थयाम्यहम् ॥५००॥ सर्वसङ्घस्य सेवायां, स्वार्पणभाववानहम् । आत्मशुद्धोपयोगार्थ, यते निष्कामभक्तितः ।।५०१॥ आत्मनोगुणदोषाणां-, कर्तव्यंच निरीक्षणम् । पश्चात्तापादियोगेन-, कर्तव्या चाऽऽत्मशुद्धता ॥५०२॥ गुप्ताव्यक्ताश्चयेदोषा, हर्तव्या पूर्णयत्नतः दोषाभवाय मोक्षाय, गुणाज्ञेया विवेकतः ॥५०३॥ गुणा निजाऽऽत्मनोरूपं, मोहरूपंतु दुर्गुणाः दोषवृन्दविनाशेन, स्वाऽऽत्मशुद्धिकुरु द्रुतम् ॥५०४॥ मुक्तिःकदापि नस्याद्धि, रागद्वषक्षयं विना, अतोरागादिदोषाणां, नाशाय त्वं यतस्वभोः ॥९०५॥ दोषप्रमादनाशार्थ-, माऽऽत्मरूपं विचारय; गुणान्व्यक्तान् कुरुष्वत्वं, प्रमादं मा कुरुक्षणम् ॥५०६॥ गारुडिको यथा सर्प-विषमुत्तारयेद् द्रुतम् , जागुलीमन्त्रयोगेन, ज्ञानी मोहविषं तथा ॥५०७॥ शुद्धोपयोगमन्त्रेण, मोहाहेविषमुत्तरेत् । ब्रह्मविद्भवतिब्रह्म निर्भयोब्रह्मविज्जनः ॥५०८॥ अग्निरूपा भवेन्नून, मग्नियोगेन वर्तिका; शुडाऽऽत्मभावनालीनः शुद्धाऽऽत्माजायते तथा ॥५०९॥ यथाऽऽत्मकथनं तद्वद्, वर्तनं शक्तितो भवेत् : तदानिजाऽऽत्मनःशुद्धि, स्तथा मुक्तिश्च जायते ॥५१०॥
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पालनंच प्रतिज्ञायाः पूर्ण शुद्धाऽऽत्मसंस्मृतिः चतुर्विधमहासंघ- सङ्गसेवाप्रवर्तनम् ॥५११॥ निरुपाधिदशाप्राप्ते, हेतूनामवलम्बनम् बाह्यसनेषुनिःसङ्ग, वर्तन मान्तरं कुरु ॥५१२॥ आत्मपक्वदशाप्राप्त्यै - मोहकृत्सङ्गवर्जनम् ; यथायोग्यं प्रकर्तव्यं, यत्रतत्रयदातदा ॥५१३॥ शुद्धाऽऽत्मभावनावेगा - दाविर्भावो निजाssस्मनि; आत्माऽऽनन्दसमुद्रस्य, जायतेऽनुभवोहृदि ॥५१४॥ प्रतिक्षणं हृदिव्यक्ता, कर्तव्या ब्रह्मभावना; यत्रतत्र सदाभाव्यः शुद्धाऽऽत्मा ध्यानयोगतः ॥ ५१५ ॥ सद्गुरुभक्तिसेवाद्यै, रात्मपातो न जायतेः
3
निपातोऽपि भक्तानां गुर्वादिभक्तिकारिणाम् ॥५१६ ॥ दोषान् मुक्त्वा निजाऽऽत्मानं, प्रति क्रमणयोगतः आत्मशुद्धिर्भवेत्तृर्ण, तत्रमग्नोभवस्वयम् ॥५१७॥ सद्गुणानां प्रकाशाय दोषाणांनाशहेतवे; यद्योग्यंतत्प्रकर्तव्यं, योग्योपायैर्यथातथम् ॥ ५९८ ॥ आत्मनिभवमग्नस्त्वं, पूर्णप्रीत्याभृशं स्वयम् ; आत्माऽनुभवसंप्राप्त्या, निर्विकल्पो भविष्यसि ॥५१९ ॥ शुद्धाऽऽत्मानं विनाहान्यान्, सङ्कल्पस्त्वं भृशंत्यज सर्वथाऽऽत्मोपरिप्रेम-, धारयोत्साहवीर्यतः ॥५२०॥ यादृग्भावोभवेद्यस्य, फलतस्याऽस्तितादृशम् ; आत्मशुद्धोपयोगेन, फलंमुक्तिर्निजाऽऽत्मनः ॥ ५२१ ॥ आत्मभावेनमोक्षोऽस्ति भव्यानां भावनावताम् : भरताद्या गतामुक्ति, माऽऽत्मनो भावनाबलात् ॥५२२ ॥
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इलापुत्रोगतो मुक्ति, माऽऽत्मनोभावनाबलात्; आत्मशुद्धोपयोगेन, आषाढाकेवलीप्रभुः ॥५२३॥ आत्मभावनया मुक्ति, मनन्ताः खलुलेभिरे; भावनारूढजीवानां, शुद्धोपयोग आन्तरः॥५२४॥ दानादिधर्मकार्याणि, न फलन्ति च तां विना; शुभाच्छुडा प्रजायेत, भावना मुक्तिदायिनी ॥५२॥ आत्मोपयोगदातृत्वे, भावनाया महबलम् । बाह्यक्रियांविनाभावाद्, यथायोगं फलं भवेत् ॥५२६॥ आत्मनःशुद्धपर्यायाः सिद्धाऽऽत्मादिप्रभेदतः ज्ञातव्या उपयोगेन, सद्गुरुबोधयुक्तिभिः ॥२७॥ अर्हन्नस्तिनिजाऽऽत्मैव, सिद्धआत्मैवशाश्वतः आचार्योऽस्तिनिजाऽऽत्मैव, स्वाऽऽत्मैववाचकप्रभुः ॥२०॥ साधुरस्तिनिजाऽऽत्मैव, स्वाऽऽत्मैव परमेष्ठिराट् ; शुद्धदर्शनमाऽऽत्मैव, ज्ञानमाऽऽत्मैव सर्वथा ।५२९॥ स्वाऽन्यप्रकाशकंज्ञानं, ज्ञानेनाऽऽत्माप्रलक्ष्यते; स्वभाव आत्मनो मुख्यो, ज्ञानं ब्रह्मैवसर्वदा ॥५३०॥ निजाऽऽत्मैवाऽस्तिचारित्रं, रमण स्थैर्य माऽऽत्मनि; शुद्धोपयोग एवाऽस्ति, चारित्रं कर्मनाशकम् ॥५३१॥ आत्मवीर्य निजाऽऽत्मैव, वर्तते तनिजाऽऽत्मनि: आत्माऽसङ्ख्यप्रदेशेषु, पर्यायगुणशक्तिदम् ॥५३२॥ निजाऽऽत्मैव तपो बोध्यं, सर्वेच्छारोधकंमहद्; कर्मणां निर्जरायेन, भवेन् मुक्तिप्रदायकम् ॥५३३॥ गुणाश्चमर्वपर्याया, अनन्ता आत्मसंस्थिताः स्यादाऽऽत्माऽभेदतस्तेषा, मैक्यंजानन्तिपण्डिताः ॥३४॥
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आत्मनः सद्गुणाः सर्वे, स्वाऽऽत्मरूपा अनादितः सत्तातो विद्यमानास्ते, भवन्ति व्यक्तरूपिणः ॥५३५॥ आत्मशुद्धस्वभावेन, मोक्षोऽस्तीति विनिश्चितम् । रागद्वेषविभावेन, संसारोऽस्तोति निश्चितम् ॥५३६॥ जीवनस्वाऽऽत्मभावेन, मृत्युमोहेन निश्चितम् जीवन मरणं ज्ञात्वा, प्रमादं मा कुरुष्वभोः ॥५३७॥ मुक्तिराऽऽत्मनि विज्ञेया, माऽन्यत्रत्वं परिभ्रम; आत्मन्येवनिर्जराज्य, बाह्यराज्येषु मामुहः ॥५३८॥ स्वाश्रयेणैव जीव !! त्वं, मा जीव !! त्वं पराश्रयात्: पारतन्य महामृत्युः स्वातन्त्र्यमाऽऽत्मजीवनम् ॥५३९॥ स्वाऽऽत्मन्येवसुखं सत्यं, दुखं हि जडमोहतः आत्मानमन्तराकोऽपि, कदाचिन्नाऽस्तिशर्मवान् ॥५४०॥ आत्मनोरिपुरात्मैव, रागद्वेषादिसंयुतः आत्मनो मित्र माऽऽत्मास्ति, साम्येन कर्मनाशकृत् ॥५४१॥ आत्मनो बन्धुरात्माऽस्ति, मैत्र्यादिभावसंयुतः । आत्मन ईश्वरः स्वाऽऽत्मा, ज्ञानचारित्रसंयुतः ॥५४२॥ आत्मनः सूर्य आत्माऽस्ति, शुद्धब्रह्मप्रकाशवान् । आत्मनश्चन्द्र आत्माऽस्ति, शमसंवेगसंयुतः ॥५४३॥ कर्मकर्ता निजाऽऽत्मास्ति, कर्मभोक्ता तथाऽऽत्मराट्, कर्महर्तानिजाऽऽत्माऽस्ति, बडोमुक्तोऽस्त्यपेक्षया ॥५४४॥ अनन्तशक्तिमान् ह्याऽऽत्मा, निजाऽऽत्मशक्तियोगतः अनन्तशक्तिमत्कर्म, पौद्गलिकक्रियाबलात् ॥५४५।। कुत्राऽपिबलवकर्म, कुत्राप्याऽऽत्मा बली भवेत्; ज्ञानसाम्यबलोपेत, आत्मा कर्मारिनाशकृत् ॥५४६॥
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अनादिकालसंयोग, आत्मनः कर्मणो द्वयेाः आत्मा निजाssत्मभावेन, कर्महन्ता स्वयंभवेत् ॥५४७॥ सर्वशक्तिमयः स्वाऽऽत्मा, दैन्यं किञ्चिन्न धारय सर्वशक्तिप्रकाशार्थं, यतस्व पुरुषार्थतः ॥५४८ ॥ आत्मोल्लाससमुत्साहा, ज्जीव !! शुद्धाऽऽत्मनिस्वयम् । आत्मानन्दरसास्वादं कुरुष्व स्वाऽऽत्मभावतः ॥ ५४९ ॥ आत्मानन्दाऽमृतंपीत्वा भवमग्नो निजाऽऽत्मनि; सर्वसाधनतः साध्य, माऽऽत्मानन्दस्यजीवनम् ॥५५० ॥ स्वलक्ष्ये निश्चितं ध्येयं, पूर्णानन्दरसोदधेः कर्तव्यं सर्वथा पानं, त्यक्त्वा मोहविषं द्रुतम् ॥५५१ ॥ मनः स्वर्गों मनःश्वभ्रे, संसारो मन एवच मोहरूपं मनो जित्वा, मुक्तो भवति चेतनः ॥५५२ ॥ मनोनाशाद्भवेन्मृत्यु महादि कर्मणां द्रुतम् । मोहक्षयेन मोक्षोsस्ति, मोक्षेऽनन्तं सुखं सदा ॥ ५५३ ॥ पर्यायाणां गुणानाञ्च व्यक्तभावोऽस्तिसिद्धता, सन्तस्तेव्यक्तिरूपेण भवन्ति गुणपर्ययाः ॥५५४ ॥ व्यक्तो भवन्तिनाऽसन्तः सन्तोव्यक्ताभवन्तिते; नाऽसतोजायते सत्त्वं, सतोऽसत्त्वं न जायते ॥ ५५५ ॥ गुणा अनन्तपर्याया, आत्मनिसन्ति सत्तया: . सद्भ्यः सामर्थ्यपर्याया, अनन्ता व्यक्तभावतः ॥ ५६६ ॥ आत्मा सामर्थ्य पर्याय-, व्यक्तीभावात् भवेत्प्रभुः सिद्धोबुद्धोजिनेशाऽऽत्मा, स्वयम्भुर्भगवान् विभुः ॥५५७ ॥ अव्यक्तः सत्तया स्वाऽऽत्मा, व्यक्तोऽव्यक्तगुणादिभिः अव्यक्ताः सन्ति सद्व्यक्ताः पर्यायाश्चगुणा निजे ॥ ५५८ ॥
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आत्मनोऽनन्त सामर्थ्य, मात्मन्येवस्फुटं भवेत् ; कायादिमिश्रवीर्यात्स्वं, भिन्न शुद्ध महबलम् ॥५५९॥ आत्मवोर्येणदेहस्य, सन्ति कम्पादिकाः क्रियाः आत्मान मन्तरादेहो, मृतो भवति निश्चलः ॥५६०॥ आत्मानमन्तरादेहे-, ज्ञाता कोऽपि न विद्यते; देहस्थोऽपि न देहोऽसौ, देहोमे ज्ञानवाँश्वसः॥५६१॥ स्थूलः कृशश्चमेदेहो, ज्ञाता भिन्नोऽस्तिदेहतः गृहाद्गृहीयथाभिन्न, स्तथाऽऽत्मादेहसंस्थितः ॥५६२॥ देहयोगेन यो देही, नष्टे देहे न नश्यति: आत्माऽस्तिदर्शनज्ञान-, चारित्रगुणवानस्वयम् ॥५६॥ आत्मानःसङ्ख्ययाऽनन्ता, भिन्नाः प्रतिशरीरिणः अनादिकालतःकर्म-, सङ्गिनः शाश्वताऽव्ययाः ॥५६४॥ सर्वकर्मविनाशाद्यो जीवो मुक्तो भवेत्प्रभुः आत्मा पराऽऽत्मतां याति, सिद्धोबुद्धो भवेद्विभुः ॥५६५॥ स्वार्थ न शुभं कर्म, कामयेव्यवहारतः सर्वजीवोपकाराय, करोमिस्वाऽधिकारतः ॥५६६॥ सर्ववेदादिशास्त्राणां, सारोऽस्तितं वदाम्यहम् । आत्मशुद्धिः प्रकर्तव्या, रागद्वेषविनाशतः ॥५६७॥ सर्वविश्वस्थधर्माणां, शास्त्राणां मर्म वेम्यहम् । पुण्यं स्वर्गाय मुत्त्यर्थ, पापस्यानरकायच ॥५६८॥ सर्वदर्शनसारोऽस्ति, मनोवाकायशुद्धितः आत्मशुद्धिः प्रकर्तव्या, वदामीतिसुनिश्चयात् ॥५६९॥ सर्वदर्शनशास्त्रेषु, यत्सत्यतत्समाचर; स्याद्वाददृष्टितःसर्व-, सत्यांशान यान्ति योगिनः ॥५७०॥
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सम्यग्दर्शनलब्धारो, सर्वदर्शनधर्मतः सत्यंगृह्णन्ति सापेक्ष-, दृष्ट्या जैनाः शिवार्थिनः॥५७१॥ सम्यग्दृष्टिं हृदि प्राप्य, पश्चाद् भूत्वोपयोगिनः स्वाऽन्यलिङ्गेषुसिद्धाये, सेत्स्यन्तिते च सर्वथा ॥५७२॥ सम्यग्दर्शनसम्प्राप्त्या, प्रादुर्भवति चेतने; शुद्धोपयोगसामर्थ्य, सर्वकर्मविनाशकम् ॥५७३॥ अनेकान्तमताऽम्भोधिः सम्यग्दृष्टिजनोऽस्तियः सर्वधर्मस्यमर्माणि, जानाति साध्यलक्ष्यवान् ॥५७४॥ स्याद्वादनयसापेक्षा, ज्जिनाङ्गे सर्वदर्शनम् माति मया परिज्ञातं, स्यावादनयबोधतः ॥५७५॥ सर्वदर्शनसत्यांश-, दर्शकं जैनदर्शनम् । सर्वकदाग्रहान्मुक्तं, शुद्धोपयोगदर्शकम् ॥५७६॥ रुणडिसत्यबोधेन, सर्वविश्वकदाग्रहान् ; सर्वदर्शनसद्रूपं, जयताज्जैनदर्शनम् ॥५७७॥ जैनदर्शनमाऽऽत्माऽस्ति, स्वाऽऽत्माऽहंजैनदर्शनी; जिनश्चजैनरूपोऽहं, साध्यसाधनभावतः ॥५७८॥ मुक्त्यर्थयोजिनैर्दिष्टो, जैनधर्मःसउच्यते, आदर्शध्येयरूपोऽस्ति, पूर्णाऽऽत्मशुद्धिकारकः ॥५७९॥ आत्मनःपूर्णशुड्यर्थ, जैनधर्मोऽस्ति साधनम् । द्रव्यभावारिजेतारो, जैना जिनाऽनुयायिनः ॥५८०॥ जैनास्तु साधकाऽऽत्मानो, मोहनाशनतत्पराः रागद्वेषविजेतारो, केवलज्ञानिनो जिनाः ।।५८१॥ जैनधर्मो जिनो जैन, आत्मैवचाऽऽत्मपर्यवाः आत्मनःशुद्धपर्याय-, सिद्धरूप मुपास्महे ॥५८२॥
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सर्वदर्शनरूपाऽऽत्मा, दर्शनान्याऽऽत्मनःस्फुटम् श्रुतज्ञानस्य पर्याया, मिथ्यासम्यक्स्वरूपिणः ॥५८३॥ साधिते जैनधर्मेस्युः सर्वधर्माः प्रसाधिताः सर्वेधर्माःप्रगच्छन्ति, जैनधर्म प्रति ध्रुवम् ॥५८४॥ सर्वदर्शनपर्यायाः संस्पृष्टास्त्याजिताश्चये; केवलज्ञानलाभेन, प्रजायन्ते न ते पुनः ॥५८॥ आत्मनः क्षायिकाद् भावात, केवलज्ञानदर्शनम् प्राप्तेरनन्तरं स्वाऽऽत्मा, परमाऽऽत्माध्रुवैभवेत् ॥५८६।। शुद्धप्रज्ञासुषुम्णैव, भक्ति रिडैवसात्त्विकी; पिङ्गलैव स्थिरप्रज्ञा, मेरुदण्डोऽस्ति धीरता ॥५८७॥ षट्स्थानकस्ययच्चक्र, षट्चक्रंतन्निजाऽऽत्मनः सम्यकचारित्रमेवाऽस्ति, ब्रह्मरन्ध्रनिजाऽऽत्मनि ॥५८८॥ अन्तराऽऽत्मा निजाऽऽधार-, चक्र मध्याऽऽत्मभावतः स्वाऽधिष्ठानं स्थिरज्ञानं, ज्ञेय माऽऽत्मोपयोगतः ॥५८९॥ मणिपूरकचक्रस्यात्, सम्यग्ज्ञानं प्रतिष्ठितम् । धर्मध्यानंतु हृच्चक्रं, कण्ठचक्रं श्रृंतमहद् ॥५९०॥ दर्शनज्ञानचारित्र, मेवाऽस्ति त्रिपुटी शुभा; निर्विकल्पोपयोगोऽस्ति-, ब्रह्मरन्ध्रस्थितमहः ॥५९१॥ प्राणायामस्तु सो बोध्यो, मार्गानुसारिसद्गुणाः नेतिश्चित्तस्यसंशुद्धि, धोतिः सेवैव सात्त्विकी ॥५९२॥ बस्तिरेवगुरोर्बोधो, नौलिकमैव सक्रिया: षट्चक्रदेवदेव्यस्तु, स्वाऽऽन्तरा आत्मवृत्तयः ॥५९३॥ ज्ञानयोगी विजानाति, षड्धास्थानकमाऽऽत्मनः आत्मोपयोगतः षड्धा-, स्थानकचक्रमाऽऽत्मनि ॥५९४॥
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પદ્મ
ज्ञातं येन स मुक्तः स्यात्, सम्यग्दर्शननिश्चयात्; आत्मोपयोगलीनत्वं प्राप्यते ज्ञानयोगिभिः ॥५९५ ॥ मोहादिसर्ववृत्तीनां लयो मोक्षो भवेत् खलु; महावीरस्यनाम्ना त्वं, वीरे लीनो भवद्रुतम् ॥ ५९६ ॥ स्वयंभव महावीरो, वीराद्वीरः प्रकाशते; सत्तयाऽऽत्ममहावीरो, व्यक्तःसो भवतिध्रुवम् ॥ ५९७ ॥ सत्वरजस्तमोवृत्ति, महप्रकृतिरेवसा; प्रकृतेभिन्नमाऽऽत्मानं, पुरुषमेव बोधत ॥ ५९८ ॥ आत्मनोऽसङ्ख्यनामानि तैराऽऽत्मानंविचारय; त्वत्तः प्रकाशते विश्वं, स्वाऽऽत्मानंविद्धिसत्प्रभुम् ॥५९९ ॥ मां नय तमसो ज्योतिः परंब्रह्मजिनेश्वर !! आत्माब्रूते निजाऽऽत्मान, मलक्ष्यो नैव लक्ष्यते ॥ ६०० || आत्मोपयोगतोलक्ष्योs - लक्ष्य आत्मा निजाऽऽत्मना अनुभवी विजानाति, स्ववेद्योऽहं चिदाऽऽत्मना ॥ ६०१ ॥ आनन्दज्ञानरूपोऽस्ति, सर्वजीवस्तथाऽऽत्मनः ज्ञाता आत्मोपयोगेन, शुद्धनिश्चयबोधतः ॥ ३०२ ॥ एकाssस्मा संग्रहणस्या, चित्सत्तातः प्रवेदक: आत्मसत्तोपयोगेन, सद्ब्रह्मैक्यं प्रवेद्यहम् ||६०३|| सिद्धदेवसमाः पूर्णा, आत्मानः सन्ति सत्तया; आत्मोपयोगतः सिद्धो - भविष्यामि न संशयः ॥ ६०४॥ गच्छादिसम्प्रदायानां चर्चासु न पतेत् सुधीः सर्वगच्छेषु मोक्षोऽस्ति, साम्योपयोगतो ध्रुवम् ||६०५|| गच्छादिमतभेदानां, मोहान्मुक्तिर्न जायते मुक्तिः कषायमुक्त्याऽस्ति, साम्यात् कषायमुक्तता ।६०६ ।।
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स्वगच्छे व्यवहारेण, वर्तिनां समभावतः कषायमुक्तितो मुक्ति, र्भवेत्तत्र न संशयः ॥ ६०७ || श्वेताम्बरमतेमुक्ति, स्तथा दैगम्बरे मते सर्वकषायमुक्तानां समशुद्धोपयोगिनाम् ||६०८ || वैष्णवानाञ्च शैवानां, बौद्धानां खोस्तिधर्मिणाम् : महंमदीयलोकानां भवेन्मोक्षः समत्त्वतः ॥ ६०९ ||
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रागद्वेषपरीणाम -, कषायत्यागमन्तरा; सर्वधर्ममनुष्याणां, मोक्षः कदाऽपिनोभवेत् ॥ ६१० ॥ उपयोगेन धर्मोऽस्ति, बन्धोऽस्ति परिणामतः अधर्मोऽनुपयोगेन, क्रियातः कर्मबन्धनम् ॥ ६११ ॥ कर्मबन्धनकर्त्रीस्याद्, रागद्वेषयुक्ता क्रिया;
कर्मबन्धनमुक्त्यर्थं क्रिया स्वाऽऽत्मोपयोगिनी ॥ ६१२ ॥
सम्यग्दर्शनयुक्तानां प्रशस्यपरिणामतः
अल्पोऽस्तिकर्मणांबन्धो, जायते निर्जराभृशम् ||६१३॥
स्वल्पदोषमहाधर्म, विज्ञाय सर्वकर्मसु सम्यग्दर्शनिजैनानां, वर्तनञ्च भवेत्सदा ॥६१४॥
त्यागिनाञ्चगृहस्थानां, सम्यग्दर्शनधारिणाम् ; आत्मोपयोगिनां सर्वाः प्रवृत्तयश्च मुक्तये ।। ६१५ ।।
सम्यग्दर्शनयुक्तानां, पारम्पर्येण मुक्तये; गार्हस्थ्ययोग्यकर्माणि भवन्त्याऽऽत्मोपयोगिनाम् ॥६१६ ॥ पञ्चवर्णीयमृद्भोक्ता, शङ्खः स्वपरिणामतः
स्वयंश्वेतो भवेन्नूनं, तथा सम्यक्त्त्ववान्जनः ॥ ६१७|| सविषोऽस्तियथा सर्पों, लोकानां प्राणनाशकः
तथा मिथ्यात्वयुक्तोऽस्ति, जीवः स्वाऽन्यविनाशकः । ६१८ ।।
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निर्विषोऽस्ति यथा सो, दंशन नाऽन्यविनाशक: सम्यग्दर्शनवान्जीव, स्तथास्वाऽन्याऽविनाशकः ॥६१९॥ पञ्चेन्द्रियैर्भवेद्भोगी, सम्यग्दर्शनवान् जनः आत्मशुद्धोपयोगेन, स्वाऽल्पबन्धश्च मुक्तये ।।६२०।। पशूनां रक्षणं काय, पक्षिणाश्चविशेषतः यतना सर्वकार्येषु, कार्य स्ववीर्यरक्षणम् ॥६२१॥ अन्नंजलञ्चवस्त्रञ्च, देयं तदर्थिने शुभम् ; यत्काले यच्चयोग्यं स्या, त्तदेयं मुक्तिकामिभिः ॥६२२॥ मनोवाकाययोगानां, बलवृद्धिश्चरक्षणम् : आरोग्यहि सदारक्ष्यम् , नारीभिश्चनरैर्धवम् ॥६२३॥ आत्मशुद्धोपयोगाय, आन्तरा बाह्यशक्तयः प्राप्तव्याः सर्वथोपाय, वृद्धयुवकबालकैः ।।६२४॥ आजीविकादिसद्यत्नै, ह्यिदेहादिजीवनम् ; धार्यसर्वजनैः सम्यग, शुद्धोपयोगहेतवे ॥३२॥ देहादिजीवनोपायै, र्जीव्यस्वाश्रयिभावतः स्वतंत्रंजीवनंधार्य, निर्दोषमाऽऽत्मशुद्धिकृत् ॥६२६॥ क्षात्रकर्मचसद्विद्या, कृषिापारकर्मच; सेवा चेतैगृहस्थैर्हि, जीव्यमाऽऽत्मोनतेः कृते ।।६२७|| आन्तरंजीवनं पोष्यं, प्रामाण्यस्वोद्यमादिकैः आत्मोपयोगशुड्यर्थ, सत्त्वजीवनकारणम् ॥६२८।। रोगिभ्यऔषधादीनां, दानं शक्त्यऽनुसारतः विद्यादानश्च बालेभ्यो, देय माऽऽत्मोपयोगिभिः ॥६२९॥ गृहाऽऽगतस्यसत्कारः कर्तव्यो भोजनाऽऽदिभिः आपत्कालेचदुर्भिक्षे, कर्तव्यं लोकपालनम् ॥६३०॥
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પ૪ सूरिवाचकसाधूनां, वैयावृत्यं सुभावतः कर्तव्यञ्च तथा सेवा, भक्तिराऽऽत्मोपयोगिभिः ॥६३१।। दानाद्यैराऽऽत्मशुद्धिःस्था, तथा सद्गुरुसङ्गतः प्रादुर्भवति मोक्षार्थ, माऽऽत्मोपयोग आन्तरः ।।६३२॥ जातेलिङ्गस्यलक्ष्म्याश्च, देशस्यमोहवृत्तिभिः धर्माऽभिमानवृत्त्याच, मोक्षोनृणां न जायते ॥६३३॥ आत्मनिगुणपर्यायाः, सत्तातः सन्त्यनादितः सन्तोये कर्मणोनाशा, दाविर्भूता भवन्ति ते ॥६३४॥ आत्मनोगुणपर्याय-, व्यक्तये हेतवश्चये; तेषां सदुपयोगेन, स्वाऽऽत्मा सिद्धोभवेत्स्वयम् ॥६३५॥ स्थावरतीर्थयात्राभि, राऽऽत्मशुद्धिः प्रजायते: जङ्गमतीर्थयात्राभि, राऽऽत्मशुद्धिर्भवेद्रुतम् ॥६३६॥ ॐ अहेमन्त्रजापन, चित्तशुद्धिर्भवेत्खलु; ॐही अहमहावीर-, जापात् कर्मक्षयो भवेत् ॥६३७॥ आत्मोपयोगसिद्ध्यर्थ, भव्यैश्च विधिपूर्वकम् ; मन्त्रजापः सदाकार्यः पञ्चानां परमेष्ठिनाम् ॥ ॥६३८॥ सर्वयज्ञोत्तमोजापो, यज्ञः सेव्यो मुहुर्मुहुः मानसिकमहाजापा, मोहवृत्तिलयोभवेत् ॥६३९॥ .मन्त्रयोगेन शक्तीनां, प्रादुर्भावोभवेद्धृदि शुद्धोपयोगहेतूनां, मन्त्राणां जाप इष्यते ॥६४०॥ परब्रह्मोपयोगार्थ, स्मारकश्चाऽऽत्मतेजसाम् : जाप्योऽहंश्रीमहावीर, पूर्णतेजोमयः प्रभुः ॥६४१॥ आत्मोपयोगतोऽनन्त-तेजोरूपश्चिदाऽऽत्मकः प्रकाशेत हृदिव्यक्त, आत्मारामः सनातनः ॥६४२॥
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चित्तैकाऽऽयंयदाध्येये, परब्रह्मणि जायते तदाऽऽत्माऽऽनुभवःस्पष्टो, हृद्येवं वेदितो मया ॥६४३॥ दृष्टिंसंस्थाप्यनाभौये, हृत्पद्मेच स्थिराऽऽत्मना ध्यायन्ते ब्रह्मभूतास्ते, भवन्ति ब्रह्मदर्शनात् ॥६४४॥ साक्षात्कारः परायांस्या, नाभौत्राटकयोगतः आत्मपारं न संयाति, वैखरी शब्दशक्तितः ॥६४५॥ सर्ववाचो निवर्तन्ते, ब्रह्मणोऽनुभवे स्फुटम् ; अनुभवः परायांस्याद्, ब्रह्मलीनमहर्षिणाम् ॥६४६॥ आत्मोत्थितापराभाषा, स्वाऽऽत्मज्ञानाऽवगाहिनी सत्यप्रकाशतेब्रह्म, वैखर्या नैव वर्ण्यते ॥६४७॥ नाभौसंयमकर्तारो, ब्रह्मरूपं विजानते; हृदिसंयमकर्तारः पश्यन्तीपारगामिन; ॥६४८॥ कण्ठेसंयमकर्तारो, मध्यमापारगामिनः योगाऽनुभविनःसन्तो, भवन्तिब्रह्मरूपिणः ॥६४९॥ स्वाऽधिष्ठानेतथाऽऽधारे, चक्रेचमणिपूरके: चक्षुषो सिकाऽग्रेच, देयादृष्टिनिजाऽऽत्मनः ॥६५०॥ दृष्टिंधृत्वाभ्रुवोर्मध्ये, ब्रह्मज्योतिःप्रलोकनम्; त्राटकदृष्टितोध्येयं, ब्रह्मज्योतिःप्रकाशते ॥६५१॥ ब्रह्मरन्ध्रेमनोधृत्वा, तत्राऽऽत्मनः प्रधारणम्; कर्तव्यंसविकल्पेन, पश्चात्स्यानिर्विकल्पता ॥६५२॥ पिण्डस्थेनपदस्थेन, रूपस्थेननिजाऽऽत्मनः ध्यानेनसत्परंज्योति, ब्रह्मपश्यन्ति योगिनः ॥६५३॥ निर्विकल्पंपरब्रह्म, ब्रह्मरन्ध्र विचिन्तयेत् : अन्यन्न चिन्तयेत्किञ्चि, निर्विकल्पोभवेत्ततः॥५४॥
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निर्विकल्पदशाकाले, ब्रह्माऽऽनन्दः समुल्लसेत् ; ततः पश्चादुपादेयं, शुद्धब्रह्मैव केवलम् ||३५५॥ नाsन्यत् किञ्चिदुपादेयं भवेदाऽऽत्मापयोगिनाम् शुद्धोपयोगआदेयः स्वभावेन भवेत् स्वयम् || ६५६ ॥ शुभोपयोग एवास्ति, सविकल्पसमाधयः शुद्धोपयोग एवाsस्ति, निर्विकल्पसमाधयः ॥ ६५७ ॥ प्रशस्यरागयोगेन, सविकल्पत्वमिष्यते; रागद्वेषौ यत्रस्त, स्तद्ध्यानंनिर्विकल्पकम् ||६५८ || शस्यराग विकल्पाना, मुपयोगेऽस्तिसम्भवः शुभोपयोग इष्यः सः शुद्धोविकल्पमन्तरा ॥ ३५९ ॥ रागद्वेषादिसङ्कल्प-विकल्पानांसमुद्भवः
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नाऽस्तियत्र सोजन्यः शुद्धोपयोगइष्टदः ॥६६० ॥ मनोवाक्कायगुप्त्याच, निर्विकल्पोपयोगतः प्रादुर्भवन्तिवेगेन, स्वाऽऽत्मनोलब्धि सिद्धयः ||६६१॥ प्रथमः सविकल्पोऽस्ति, स्वोपयोगः शुभङ्करः विकल्पध्यानतः पश्चा, निर्विकल्पंप्रकाशते ॥ ६६२॥ निर्विकल्पोपयोगेन, केवलज्ञानभास्करः प्रादुर्भवतिसःसत्य-लोका लाकप्रकाशकः ॥ ६६३।। आत्मधर्मपरीणामः शुभः शुद्धश्चहार्दिकः समाधिरेवबोद्धव्यः सम्यग्दृष्टिमनीषिभिः ॥ ६६४ ॥
मनोवाक्काययोगाना, माssरोग्यंचप्रवर्तनम् ; समितिगुप्तिसत्कर्म, समाधियोगउच्यते ॥ ६६५|| मनोवाक्काययोगानां धर्ममार्गप्रवर्तनम् ; बाह्य आभ्यन्तरोयोगो, द्रव्यतोभावतस्तथा ॥ ६६६ ॥
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षट्चक्रेषुमनः स्थैर्य, कृत्वाब्रह्मविचारणा : कर्तव्यास्वोपयोगेन, सर्वशक्त्युद्भवस्ततः ॥६६७॥ ध्यानसमाधियोगाद्याः सन्ति मोक्षस्यहेतवः मोक्षसाधनतोभिन्नं, शुद्धाऽऽत्मानंविचारय ॥ ६६८ || चित्तस्यमोहवृत्तीनां निरोधोयोगउच्यते ; योगस्यलक्षणंयेतत् क्षायिकभावयौगिकम् ॥६६९ ॥
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अप्रशस्यकषायाणां, निरोधोयोगउच्यते सम्यग्दृष्टिगुणस्थान, माssरभ्यवर्त्तते हृदि ॥६७० || शस्यकषाययुक्तानां, सेवाभक्त्याऽऽदिकर्मणाम् व्यापारः शुभयोगोऽस्ति; जायतेमुक्तिकाङ्क्षिणाम् ॥६७१॥ सर्वज्ञधर्मवाञ्छात, इच्छायोगः प्रवर्त्ततेः सदेवगुरुसेवार्थे, तीव्रेच्छा हृदिजायते ॥ ६७२॥
सर्वकर्मविमोक्षार्थ, मिच्छाऽपूर्वा हृदिस्फुटाः इच्छायोगोऽस्तिचाद्यः सो, मार्गानुसारिणांचयः ॥६७३ ॥ सर्वज्ञोक्ते महाश्रद्धा, शास्त्रयोगः स उच्यते; धर्मशास्त्रं समाश्रित्य सम्यग्दृष्टिः प्रवर्त्तते ॥ ६७४ ॥ सर्बज्ञवीरदेवोक्त-, धर्मशास्त्रावलम्बनम् ; स्याद्वाददृष्टिसापेक्ष-, शास्त्रयोगः प्रवर्तते ॥ ६७५॥
शास्त्रयोगबलेनैव, सामर्थ्ययोग आत्मनि उद्भवेद्धर्मकार्याणां, व्यापारेण व्रतैषिणाम् ॥६७६॥ देशविरतिमाऽऽरभ्य, सामर्थ्ययोगवर्त्तनम् ; क्षीणमोहगुणस्थानं, यावदस्तिसयोगिनाम् ||६७७ ||
श्रावकाणाञ्चसाधूनां व्रतादिधारणंशुभम्, षडाssवश्यककृत्याद्यैः सामर्थ्ययोग इष्टदः ॥ ६७८ ||
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दानशीलतपोभावैः सामर्थ्य योगवर्धनम् ; देवसद्गुरुपूजाऽऽयै, राऽऽत्मवीर्यप्रकाशते. ॥६७९ ॥ योगिनांकेवलज्ञानं, सामर्थ्ययोगतोभवेत् : सर्वकर्मक्षयोमोक्षो, जायते च सयोगिनाम्. ॥ ६८० ॥ आत्माऽसंख्यप्रदेशाना, मरूपिणांनखण्डनम् : छेदनंभेदनं नैव पृथक्त्वं न स्वभावतः ॥ ६८१ ॥ आत्माऽसंख्यप्रदेशास्ते; कर्मसम्बन्धयोगतः देहं प्रमाणसंकोचं, विकाशं चधरन्तिये ॥ ६८२ ॥ कर्मसम्बन्धमुक्तास्ते, निर्मलाएकरूपिणः न संकोचंविकासं ते, प्राप्नुवन्ति सदास्थिराः ॥ ६८३ ॥ प्रतिप्रदेशमा नन्त्यं, ज्ञानादीनामनादितः अनन्तागुणपर्याया, आत्मनि सन्ति सर्वदा ॥ ६८४ ॥ मनोवाक्कायगुप्त्यायत्, सामर्थ्य माssत्मनः स्फुटम् ; व्याप्रियते हि मुक्त्यर्थ, सामर्थ्ययोग इष्यते ॥ ६८५ ॥ सन्तियोगा असंख्याता, बाह्यान्तरप्रभेदतः एकैकयोगमाश्रित्य, अनन्ता मोक्षगाजनाः ||६८६ ॥ उपशमादिभावेन, स्वाऽऽत्मन आन्तराः खलु शुभशुद्धपरीणाम - योगा भवन्ति धर्मिणाम् ॥६८७॥ आत्मनः पूर्णशर्मार्थ, मसंख्ययोगहेतुता; ज्ञात्वाऽऽत्माऽऽनन्दलाभार्थ, निश्चयंकुरुभावतः ||६८८|| मुक्त्वाऽऽत्मानं त्रिलोकस्य, पदाधैर्न सुखं भवेत्; सुखाम्भोधिस्वयं ज्ञात्वा, स्वाऽऽत्मनि त्वं स्थिरो भवा६८९ भ्रामं भ्रामं भृशं भ्रान्त्वा, जगत्सर्व मनेकशः सुखार्थी न सुखं प्राप्त, आत्मनि शर्म शोधय ॥ ३९०॥
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बाह्यसुखस्य कामाऽब्धेः पारं यातो न यास्यसिः इन्द्रादिकभवेष्वेव, भोगा भुक्ता अनन्तशः ॥६९१॥ ज्ञात्वैवं भ्रान्तिमुत्सृज्य, स्वाऽऽत्मनि सुखनिश्चयम् ; कुरु शुद्धोपयोगेन, बाह्येषु निःस्पृहो भव ॥६९२॥ यदा पूर्णः प्रजायेत, स्वाऽऽत्मनि सुखनिश्चयः तदासन्तोषवानाऽऽत्मा, भवत्येव महाप्रभुः ॥६९३॥ यावद्वा सुखाशाऽस्ति, तावद् दुःखं प्रजायते सन्तोषो न भवेत् पूर्णी, मनो भ्राम्यति भूतवत् ॥६९४॥ बाह्यसुखाय यत्प्रेम, तत्प्रेम दुःखदं भृशम् । सुखीभूतो न लोकेऽस्मिन् , कोऽपिसत्यं विचारय ॥६९५॥ शुद्धोपयोगतः प्रेम, सुखार्थ मुत्तरोत्तरम् । क्रमेणजायते शुद्ध, माऽऽत्मसिद्धिप्रदायकम् ॥६९६॥ जातेशुद्धोपयोगेहि, बाह्येषुकामवासना; नश्यति निश्चयं तस्य, यान्ति शुद्धोपयोगिनः ॥६९७॥ बाह्यभोगपराधीनो, जडमोही प्रजायते; भूत्वा दासस्यदासोऽसौ, मृत्वा याति च दुर्गतिम् ॥६९८॥ बाह्यभोगेषु निर्लेपः स्वाश्रयीच दमी शमा स्वतन्त्रोयोऽस्ति सन्तोषी, मृत्वा सो याति सद्गतिम् ६९९ निद्रा मिथ्यात्वबुद्धिर्या, स्वप्नो वैभाविकीदशा, अन्तराऽऽत्मदशा जाग्रद्, क्षयोपशम भावतः ॥७००॥ तुर्योज्जाग्रहशापूर्णा, केवलज्ञानरूपिणी आत्मज्ञानोद्भवाजाग्र,-दशा सम्यक्त्वसंजुषाम् ॥७०१॥ आत्मोपयोगिनो जाग्रद्,-दृशां यान्ति विवेकतः अतिजाग्रहशां प्राप्य, जीवन्मुक्ता भवन्ति ते ॥७०२॥
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देहेस्थितेऽपिवैदेहा, श्वाघातिकर्मभोगिनः । सर्वविश्वस्यकल्याण, कुर्वन्ति देशनादिभिः ॥७०३॥ त्यक्त्वा निद्रादशां घोरां, स्वमस्यविकलांदशां; जाग्रद्दशां च संप्राप्य, सम्प्रति जागृहि स्वयम् ॥७०४॥ उत्तिष्ठ जागरूकस्त्व, मात्मधर्मे रतो भव । आत्मनि स्वाऽऽत्मबुडित्वं, धारय स्वीयवीर्यतः ॥७०५॥ अन्यतीर्थेषुसिद्धानां, सम्यग्दर्शनमस्तिता: सम्यगदर्शनलाभेन, समभावः प्रजायते ॥७०६॥ सम्यक्त्वमन्तरासाम्यं, नोद्भवेत् सर्वधर्मिषु; मिथ्याबुद्धिः प्रणश्येन, सम्यग्दर्शनमन्तरा ॥७०७॥ अन्यदर्शनधर्मेषु, यत्सत्यंदृश्यतेसता, तत्सत्यं श्रीजीनेन्द्राणां, वचोवारिधिनिःसृतम् ॥७०८॥ नयसापेक्षबोधेन, स्वाऽन्यशास्त्रप्रवाचनम्। सम्यग्दृशाश्चतत्सर्व, सम्यग्ज्ञानस्य पुष्टये ॥७०९॥ अध्यात्मज्ञानचारित्र,-लाभः सम्यक्त्वदर्शनात् ; जागर्तिस्वाऽऽत्मनो दृष्टिः शुद्धोपयोगरूपिणी ॥७१०॥ कर्मकर्ताचतभोक्ता,-हर्ता स्वाऽऽत्मास्वयंभवेत् । कर्मविपाकवेलायां, परो नैमित्तकस्तथा ॥७११॥ कर्मजन्येसुखदुःने, मित्रं शत्रु नै कल्पते; अन्यंच कर्मरूपज्ञः शुष्होपयोगवानजनः ॥७१२॥ कर्मजन्यं सुखंदुःख, माऽऽत्मना तदुपार्जितम् ; स्वकृतकर्मभोगेषु, कुप्य मा तुष्य देहिषु ॥७१३॥ सुखदुःखप्रदकर्म, तत्कर्ताऽऽत्माऽस्ति सर्वथा; ज्ञात्वैवं समभावेन, कर्म भुञ्जन्ति पण्डिताः ॥७१४॥
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जानन्तिज्ञानिनः सत्यं, कर्मणो गहनां गतिम् ; प्राप्ते सुखे च दुःखे ते नैव मुयन्ति मोहतः ॥ ७१५ ॥ कर्म कस्तिकमैव, शुद्धनिश्चयदृष्टितः कर्मकर्ताsस्ति चाऽऽत्मैव, नया व्यवहारतः ॥७१६ ॥ रागद्वेषादिकं भाव, कर्माऽस्ति जिनभाषितम् अष्टधाकर्मणां भेदा, द्रव्यकर्माsस्ति निश्चिनु ॥७१७॥ दिव्यमौदारिकं देहं, नोकर्म कर्मबन्धने; हेतुश्च कर्ममुक्त्यर्थ, मोहिनां ज्ञानिनांक्रमात् ॥७१८ ॥ अन्तर्मुहूर्तवेलायां, सर्वकर्मक्षयङ्करः, आत्मज्ञानीभवत्येव, शुद्धोपयोगशक्तितः ॥७१९॥ जीवेऽजीवे न तुष्यन्ति द्विष्यन्ति न जडाऽऽत्मसु; कर्मरूपं हि विज्ञाय; ज्ञानिनः समदर्शिनः ॥ ७२०॥ तीव्रनिकाचितव्यक्त- प्रारब्धकर्मवेदिनः नवकर्म नबध्नन्ति, स्वाऽऽत्मोपयोगधारिणः ॥७२१ ॥ उच्चत्वंनचनीचत्वं, शुभाशुभेषुकर्मसु; अध्याऽऽत्मज्ञानिनोज्ञात्वा, वर्तन्ते कर्मभोगिनः ॥७२२ ॥ औदयिकशुभेनैव, निजमुच्चा न जानते;
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औयिका शुभेनैव, नीचा निजं न जानते ॥७२३॥ कर्मजन्योच्चनीचत्वाद्, भिन्नजानन्ति ते निजम् ; आत्मास्वभावतोनीच उच्चोन चाऽगुरुलघुः ॥७२४ ॥ ऐवं विज्ञायवर्तन्ते, शुद्धोपयोगिनोजनाः द्वेषिणामुपरिप्रेम, कारुण्यभावधारकाः ॥७२५ ॥ शत्रु शत्रुबुद्धिर्न, प्रेम्णा द्वेषोपशामकाः स्वस्याsशुभप्रकर्तारं नाऽन्यंजानन्ति कोविदाः ॥७२६ ॥
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कोटिशास्त्रस्य पाण्डित्या, न्नकिञ्चिद्गर्वधारकाः चक्रवत्तिपदं प्राप्य, मन्यन्ते न निजं प्रभुम् ॥७२७|| आत्मोपयोगिनोरङ्क, - दशायां नैवदुःखिनः लघुत्वंच प्रभुत्वं स्वं मन्यन्ते नैव कर्मतः ॥७२८ ॥ लोकरूद्यनुदासैर्य, च्छुभाशुभं च कल्पितम् ; शुद्धोपयोगिनः सन्तः, स्तत्रस्वातन्त्र्यवर्तिनः ॥७२९ ॥ प्रतिष्ठामान सत्कीर्ति, - बाह्यशर्मादिहेतवे
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यावच्चित्तस्य चाञ्चल्यं, ताव दुःखोदधिः स्वयम् ॥७३० ॥ प्रतिष्ठामान सत्कीर्ति, बाह्यशर्म विनिर्गतम् ; मनोयस्य सदातस्य, ब्रह्मशमेदधिः स्वयम् ॥ ७३१ ॥ सद्गुरुकृपया तूर्ण, मुत्थित आत्मशुद्धयेः आत्मोपयोगसामर्थ्यात् करिष्ये स्वाऽऽत्मशुद्धताम् ॥७३२॥ दुष्कृतमद्यपर्यन्तं कृतं कारापितं च यत्; मनोवाक्काययोगैस्त, निन्दामि स्वोपयोगतः ॥७३३ ॥
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अनन्तभवबर्द्धयत् कर्म शुद्धोपयोगतः तत्सर्वेक्षणमात्रेण, नश्येत्तत्र न संशयः ॥७३४ ॥ क्षयोपशमभावेन, स्वाऽऽत्मनः प्रासिराऽऽत्मना भूता पूर्णञ्च सद्भावि - न्येव क्षायिकभावतः ॥ ७३५ || आत्मनः शुद्धरागेण, यथाशक्तिप्रवृत्तितः पूर्ण शुद्धात्मलक्ष्येण, सञ्जीवामि यथातथम् ॥७३६ ॥ सद्गुरुकृपयाऽवाप्त, माऽऽत्मज्ञानं सुखावहम् ; अनन्तं जीवनं नित्यं प्राप्तं सत्यं वहाम्यहम् ॥७३७॥ बहिरन्तर्जगत्सर्व, चिदानन्दाय साधनम् ; जातं निःसाधनं चैव, जानताऽपि न कथ्यते ॥ ७३८ ||
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नाऽहं कस्याऽपिनाकोऽपि, ममैवं पूर्णनिश्चयः सर्वस्थोऽपि न सर्वोऽह, मलक्ष्यो बाह्यलक्षणैः ।।७३९॥ सचिदानन्द आत्माऽस्मि, स्वाऽऽत्मनि स्वोऽनुभूयते; तद्वक्तुं न समर्थोऽस्मि, ब्रह्मज्ञोऽऽपि स्वभावतः ॥७४०॥ ज्ञाता ज्ञेयंच ज्ञानं त, दाऽऽत्मैवाऽह मपेक्षया; अन्तवन्तस्तु देहाद्या, अनन्त आत्मराट् स्वयम् ॥७४१॥ अन्तवत्सु न मुह्यामि, पुद्गलेषु न पुद्गली; सिद्धोऽहमाऽऽत्मसाध्योऽस्मि, निमितभिन्नवानहम् ॥७४२॥ निर्लेपीभूयसज्ज्ञानं, प्राप्य शैलूषवच्चये; सम्बन्धेषुचकार्येषु, वर्तन्ते ज्ञानिनः स्फुटम् ॥७४३॥ सर्वसम्बन्धकार्येषु, स्वाऽऽत्मानंसाक्षिभाविनः कर्तारं चैव हर्तारं, निजं जानन्ति वस्तुतः ॥७४४॥ अतः शुभाशुभेनैव, मन्यन्ते बाह्यवस्तुषु; कर्मोदयविपाकेषु, येबहुरूपिवेषवत् ॥७४५॥ सम्यग्दृष्टिगुणस्थान,-वर्तिसम्यक्त्वशालिनाम् : सर्वविरतिचारित्र,-ग्रहणेच्छा प्रवर्तते ॥७४६ सन्तितेऽविरताः स्पष्ट, सम्यग्दृष्टिमनीषिणः तयपिव्रतरागेण, स्वाऽऽत्मलक्ष्योपयोगिनः ॥७४७॥ गृहस्था विरताः सन्ति, निर्लेपागृहसंस्थिताः कुटुम्बादिककार्याणां, कारका जैनधर्मिणः ॥७४८॥ द्वादशभिः कषायैस्ते, युक्ता बताऽभिलाषिणः सम्यक्त्वदर्शनाचारै, युक्तास्युर्मोक्षमार्गिणः ॥७४९॥ सद्देवगुरुधर्माणां, साधका मोहवारकाः चरस्थावरतीर्थानां, पूजासेवाविधायिनः ॥७५०॥
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गीतार्थसद्गुरोराज्ञा,-धारकाः सर्वकर्मसु प्रत्याऽऽख्यानोदयेनैव, गृहस्थाऽऽवासवर्तिनः ॥७५१।। देशतोविरतिप्राप्य, त्यागधर्मानुरागिणः मन्यमाना गृहाऽऽवासं, पाशवज्जैनधर्मिणः ॥७५२॥ ब्राह्मणाः क्षत्रियावैश्याः शूद्रा ये जैनधर्मिणः गुणकर्मव्रताद्यैस्ते, भवन्ति मुक्तिगामिनः ।।७५३॥ धर्मराज्यमहीवित्त-स्वकुटुम्बादिरक्षिणः आत्मोपयोगयुक्तास्ते, मुक्ताः सन्तिगृहस्थिताः ॥७५४॥ धर्मयुद्धादिकर्माणि, चावश्यकानिशक्तितः कुर्वन्तिगृहिणोजैना, देशविरतिधारिणः ।।७५५॥ देशविरतितोऽनन्त,-गुणश्रेष्ठाःसुसाधवः आत्मोपयोगिनः सन्तो, रत्नत्रयीप्रसाधकाः ॥७५६॥ मेरुवत्साधवोबोध्याः सर्षपवद्गृहस्थिताः गृहस्थैः साधवः पूज्या, वन्द्याश्चविधिपूर्वकम् ॥७५७॥ संज्वलनकषायेण, युक्ताः पञ्चव्रतस्थिताः सरागसंयमव्यक्ताः प्रमादिनोऽप्रमादिनः ॥७५८॥ शस्यरागादिभिर्युक्ताः सम्प्रतिपञ्चमारके; श्रमण्यः साधवः सन्ति, सूरयोवाचकाः शुभाः ॥७५९॥ आत्मोपयोगयुक्तास्ते, सक्रियानिष्क्रियाश्चये; सुखदुःखप्रसङ्गेषु, स्वाऽऽत्मनः शुद्धिकारकाः ॥७६०॥ शुभाऽशुभविपाकानां, भोक्तारोऽपिह्यभोगिनः देहेऽनवर्तमानास्ते, मोक्षाऽनुभववेदिनः ॥७६१॥ ध्यानसमाधियोगेन, मुक्तिशर्माऽनुभूयते क्षयोपशमभावेन, मया प्राप्तः प्रभुर्महान् ॥७६२॥
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सर्वोत्कृष्टसमाधिर्हि, शुद्धोपयोगएव सः समत्वमुपयोगोऽस्ति, पूर्णानन्दमयः प्रभुः ॥७६३॥ इहैववेद्यतेसत्यं, मुक्तिःसुखं मयाऽधुना क्षयोपशमभावीय-शुद्धोपयोगभावतः '७६४॥ सर्वदोषविनिर्मुक्तः सर्वोपाधिविवर्जितः आधिव्याधिविनिर्मुक्तो, ब्रह्मानन्दः प्रवेद्यते ॥७६५॥ सर्वविषयभोगेम्यो, भिन्नं शुद्धं च निर्मलम् ज्ञानानन्दमयंब्रह्म, स्वनुभूतंमयामयि ॥७६६॥ निर्विकल्पंनिराधार, पूर्ण च सत्तयामहद् चिदानन्दमयंब्रह्म, स्वपियोगेन वेद्यते ॥७६७॥ पूर्णक्षायिकभावेन, पूर्णशुद्धाऽऽत्मनोमम: आविर्भावस्यसिड्यर्थ, मुद्यतस्वोपयोगतः ॥७६८॥ आत्मनोगुरुराऽऽत्मास्ति,-शुद्धोपयोगवानस्वयम् : स्वनुभूतोमयाध्याने, स्वनुभवन्तुपण्डिताः ॥७६९॥ देहस्थोऽत्रप्रभुयंक्त, आत्मेवमिलितोमहान्; क्षयोपशमभावेन, स्वनुभूतो मयामयि ॥७७०।। माध्यस्थ्यादिगुणैर्युक्ता, व्यवहारनयाऽऽश्रिताः शुद्धोपयोगयोग्यास्ते, गुरुस्वाऽर्पणकारिणः ॥७७१॥ धीरावीराश्चगम्भीरा, आत्मज्ञानाऽधिकारिणः मोक्षार्थमुत्थिताभव्या, गुस्पार्थेनिवासिनः ॥७७२॥ सहवासंचिरंकृत्य, परीक्ष्याऽनेकहेतुभिः विधिपूर्वसुशिष्येभ्यो, देयंज्ञानंशुभाशिषा ॥७७३॥ गुरोरनुभवप्राप्य, प्रोतिश्रद्धादिसद्गुणैः आत्मज्ञानं हृदिव्यक्तं, भक्ताः कुर्वन्तितत्क्षणम् ॥७७४॥
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कोटयुपायैमिलेद्यन्न, तन्मिलेत्कृपयागुरोः गुरुकृपांविनाशुद्ध; उपयोगो न जायते ॥७७५॥ सद्गुरुद्रोहिदुष्टानां, कोटिशास्त्राऽवगाहिनाम: आत्मज्ञानं स्फुरेन्नव, कोट्युपायैर्जगत्त्रये ॥७७६॥ गुरुकृपांविनाऽध्यात्म-कोटिग्रन्थप्रवाचनः आत्मज्ञानं हृदिव्यक्तं, जायते नैव निश्चयः ॥७७७॥ सद्गुरोराऽऽत्मरूपाणां, क्षमादिगुणसंजुषाम् सुशिष्याणांचभक्ताना, मस्तिज्ञानस्ययोग्यता ॥७५८॥ परीक्षांयुक्तितः कृत्वा परीक्षायोग्यसाधनैः आत्मज्ञानरहस्यंतु, देयं भक्ताय भावतः॥७९॥ अयोग्यभक्तशिष्याणां. ज्ञाने दत्तेपदेपदे बालहत्यादिकंपापं, गुरूणामपिजायते ॥७८०॥ गुर्वाज्ञवप्रभोराज्ञा-मन्तारो भक्तदेहिनः गुर्वाज्ञापारतन्त्र्येण, लभन्ते गुरुमर्म ते: ॥७८१॥ गुरुहामिलेतपूर्ण, सद्गुरोराशिषाध्रुवम् : शुद्धोपयोगसम्प्राप्तिः सद्गुरोः पादसेवया ॥७८२॥ भक्तानां योग्यसाधूनां, गीतार्थपादसेविनाम् शास्त्राऽभ्यासविनाऽध्यात्म-ज्ञानहदि प्रकाशते ॥७८३॥ सद्गुरोराऽऽत्मभूताये, गुरुस्वाऽर्पणकारकाः भवन्तितेगुरुप्रीत्या, स्वयं शुद्धोपयोगिनः ॥७८४॥ प्रादुर्भूता हृदिस्पष्टा, शुद्धोपयोगभावना लिखिताःकाव्यरूपेण, विश्वकल्याणहेतवे ॥७८५॥ यादृशी स्फुरणोत्पन्ना, तादृशीलिखितामया अनुक्रमो न तत्रास्ति, पुनर्दोषो न चाऽऽत्मनि ॥७८६॥
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नई
अध्याऽऽत्मज्ञानलाभार्थ, माऽऽत्मज्ञानाऽधिकारिणाम् शुद्धोपयोगनाम्नाऽयं, कृतो ग्रन्थो मया शुभः ॥७८७ ॥ कृतेशुद्धोपयोगेयत् फलंभूतं च तेन तत् विश्वस्थ सर्वजीवानां, शान्तिर्भवतुशाश्वती ॥ ७८८ ॥ शुद्धोपयोगशास्त्रेण, सर्वसंघोन्नतिर्भवेत् सर्वविश्वस्थपापानि, नश्यन्तु तत्प्रवृत्तितः ॥ ७८९ ॥ शुद्धोपयोगशास्त्रस्य, श्रोतारो ये च वाचकाः सद्गुर्वाज्ञापराः शान्तिं, यान्तुपूर्णसुखश्रियम् ॥७९०॥ शुद्धोपयोगनाम्नोऽस्य ग्रन्थस्यमर्मवेदिनः गीतार्थ गुरु सेवायाः - कर्तारो यान्तुतत्फलम् ॥७९१॥ गीतार्थ गुरुभक्तानां श्रोतृवाचकदेहिनाम् शुभाशीर्मेभवत्वेवं, स्वर्गसिद्धिप्रदायिका ॥७९२|| सर्वसंघोन्नतिर्भूया, च्छान्तिः सर्वत्रवर्तताम् शान्तिस्तुष्टिश्चपुष्टिश्च भूयात्सर्वत्रमङ्गलम् ॥७९३ ॥ सर्वेजीवाः सुखं यान्तु दुःखं नश्यतु देहिनाम् पुण्यकर्माणि वर्धन्तां, नश्यन्तु पापवृत्तयः ॥ ७९४ ॥ पापकर्माणि नश्यन्तु, प्रादुर्भवन्तु धर्मिणः विश्वोद्धारस्यकर्तारः प्रादुर्भवन्तु सूरयः ॥ ७९५ ।। शुद्धोपयोगबोधेन, लोका भवन्तु धर्मिणः अधर्मदुःखनाशोऽस्तु धर्मः सर्वत्र वर्धताम् ॥ ७९६ ।। योगिनो ज्ञानिनः सन्तो विश्वशान्तिप्रदायकाः प्रादुर्भवन्तु राजानो, मन्त्रिणो धर्ममूर्तयः ॥ ७९७|| विश्वशान्तिप्रदं सत्यं, धर्ममङ्गलशर्मदम् सर्वधर्मोत्तमं पूर्ण, जयताज्जैनशासनम् ॥ ७९८ ॥
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सर्वदेवाधिदेवोयः सर्वज्ञः सर्वशक्तिमान वर्धमानो महावीरो, विश्वस्याऽस्तु प्रशान्तये ॥७९९।। शुद्धोपयोगकर्ताऽयं, ग्रन्थो विश्वप्रशासकः आचन्द्रार्कमहींयाव, ज्जीवतुधर्मधारकः ॥८००॥ विक्रमाब्दे निधिद्वीपे (१९७९) निधिचन्द्रेशुभाश्चिने दशम्यां शुक्लपक्षस्य, प्रभाते गुरुवासरे ॥८०१॥ अष्टशतैः शुभैः श्लोकः शुद्धोपयोगकारक: शुद्धोपयोगनामाऽयं, ग्रन्थोजीयाज्जगत्तले ॥८०२॥ शुद्धोपयोगनामाऽय, ग्रन्थः कल्याणकारक: विद्यापुरेकृतः प्रीत्या, बुद्धिसागरसूरिणा ॥८०३॥
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जैनाचार्यबुद्धिसागरसूरिविरचितः
दयाग्रन्थः
परब्रह्ममहावीर, वीतराग नमोऽस्तुते त्वदुक्तसद्दयाबोधात्, दयाग्रन्थं करोम्यहम् ॥ १॥ दयासमो महाधर्मों, न भूतो न भविष्यति दयायामीश्वरावासो, धर्ममूलं दयाशुभा ॥२॥ अहिंसा परमोधर्मों, धर्मोनाऽस्ति दयांविना दयैवपरमं सत्य, दयैव परमं तपः ॥ ३ ॥ अहिंसैवमहायज्ञो, दयैव प्रभुसाधना, नाऽस्ति दयासमा सेवा, भक्तिोऽस्तिदयासमा ॥४॥ दयैव सर्वधर्माणां, सारश्चित्तस्यशुद्धिकृत् । हिंसा पापस्यमूलं च, धर्ममूलं दया सदा ॥ ५॥ दयार्थ सत्यमस्तेय, ब्रह्मचर्य प्रकाशितम् दयार्थं च क्षमात्यागो, दानं च यतना शुभा ॥ ६ ॥ दया यत्र प्रभुस्तत्र, सत्यं सत्यं वदाम्यहम् ; सर्वजीवस्यरक्षार्थ, दयां दानं समाचरम् ॥ ७॥ दयायां वेदवेदान्त-रहस्यंमाति सर्वथा; दयामूलं प्रभोसूक्तं, पापमूलंकुवासना ॥८॥ दयैव देवपूजाऽस्ति, दयैव तीर्थसेवनम् ; मनोवाकाययोगेन, दया कृत्यं कुरुष्व भोः ॥९॥
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पश्वादिखादकालोका, निर्दया राक्षसाभुवि हिंसायां धर्ममन्तारो, यान्तिश्वभ्रं हि हिंसकाः ॥ १० ॥ दुःखस्यवल्लिका हिंसा, स्वर्गमूलं दयास्मृता: अनन्तादेहिनोमुक्ति, याता यास्यन्त्यहिंसया ।। ११ ।। देव्योदेवाश्वसद्भक्ता, मांसंखादन्ति नैव ते हिंसया पापयज्ञाः स्यु, धर्मयज्ञा अहिंसया ॥ १२ ॥ अहिंसैव प्रभोर्धमों, हिंसायां धर्मशून्यता: पशुपक्षिमनुष्याणां, दयायां धर्मउच्यते ॥ १३ ॥ पापमूलं मदोज्ञेयः पापं जीवोपपीडनात् : परोपकार सन्मूलं, दयां चित्ते प्रधारय ॥ १४ ॥ धर्ममाता यैवस्यात्, मातानाऽस्ति दयासमा सात्त्विक्यऽस्ति दयादेवी, धर्मस्य जननी सदा ॥ १५ ॥ धर्मोत्पत्तिरहिं सातो, हिंसातः पापसंभवः प्रेरणैवं प्रभोःसत्या, सर्ता हृत्सुस्वभावतः ॥ १६ ॥ आत्मशुद्धिरहिंसातः सर्वत्रसर्वदेहिनाम् प्रभोप्राप्तिरहिंसात, आत्मासाक्षाद् भवेत्प्रभुः ॥ १७॥ मनोवाक्कायतोहिंसां, त्यजन्तिसत्यसाधवः रागद्वेषपरीणाम, एव हिंसाऽस्ति चान्तरा ॥ १८ ॥ क्रोधान्मानात्तथादंभा, लोभाद्भयाच्च देहिनः स्वाऽन्यहिं सांप्रकुर्वन्ति, व्रजन्तिभवसागरम् ॥ १९ ॥ षट्कायजीववृन्दानां, रक्षकाः साधवः शुभाः यान्तिमोक्षंदयावन्त स्तत्रकिञ्चिन्नसंशयः ॥ २० ॥ यस्यचित्तेदयानास्ति, तश्चित्ते न प्रभुर्वसेत् यदाऽऽत्मनियावास, ईश्वरः सः प्रभुर्महान् ॥ २१ ॥
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दयावन्तोजनादेवा-निर्दयाराक्षसाः स्मृताः दयावृत्तिविनालोकाः स्वर्गसिद्धिं न यान्ति ते ॥२२॥ सर्वदर्शनधर्माणां, सत्यसारंवदाम्यहम् पुण्याद्यर्थदयाकार्या, हिंसात्याज्याविवेकिभिः ॥२३॥ दयैवसत्यशौचाथ, पवित्रार्थदयांकुरु वैरत्यागोभवेच्छोघ्र, महिंसासिडितोध्रुवम् ॥२४॥ कोटिकोटिमहायज्ञः फल संजायते च यत् तदहिंसापरीणाम-तुल्यंनास्तिवदाम्यहम् ॥२५॥ धर्मोदयावतांपाचे, मांसरक्तादिवजिनाम् : प्रभुर्दयावतांपाघे, चित्ते दयां प्रधारय ॥२६॥ हिंसकेभ्यः प्रभुरः शान्ति वाऽस्तिहिंसया शान्तिरहिंसयासत्या, हिंसकाः पापजीविनः ॥२७॥ धनसत्तादिगर्वेण, मिथ्यावुद्ध्या च ये जनाः प्रन्तिजीवांश्वखादन्ति, पीडयन्तिनराऽधमाः ॥२८॥ स्वार्थकामादितः पापा, अन्यान्नन्तिदयांविना; ई धरपोतयेमूढाः पशूननन्तिचदुर्धियः ॥२९॥ पूर्णदयामयोदेवो, देवी पूर्णदयामयी, पशुभोगंचनेच्छन्ति, पूर्णसत्यंभणाम्यहम् ॥३०॥ मांसादिलम्पटोंक, हिँसायज्ञाः प्ररूपिताः हिंसायज्ञैर्महापाप-दुःखराशिपरम्परा ॥३१॥ गवादीषुदयाकार्या, पुण्यार्थधेनुरक्षणम् दुष्कालादिप्रसङ्गेषु, संरक्ष्याः पशुमानवाः ॥३२॥ गोचरभूमिदानाद्यैः पशुसेवा शुभङ्करा; यत्रदेशे दयादानं, तत्रदेशेसुखोदयः ॥३३॥
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वृक्षादीनांदयाकार्या, हिंसा कार्या न पक्षिणाम् अनाथादिमनुष्याणां, पालनंपुण्यहेतवे ॥३४॥ वृक्षपश्वादिजीवाना, मुपग्रहश्चजीवनम् : मनुष्याणांभवत्येव, कुरु परोपकारताम् ॥३५॥ दयासेवादिसत्कर्म, कुरूपकारिणः प्रति: धनसत्तादिभोगेन, दुःखिजीवदयांकुरु ॥३६॥ क्रोधेन वैरभावेन, हिंसा मा कुरुदेहिनाम् देशराज्यादिलोभेन, हिंसां मा कुरुदेहिनाम् ॥३७॥ धर्मयुद्धादिमोहेन, हिंसां मा कुरु देहिनाम् : वर्णरंगादिमोहेन, हिंसां मा कुरु देहिनाम् ॥३८॥ देवदेव्यादिपूजाया, मिषेण पशुपक्षिणः माजहि देवदेव्यस्ते, खादन्ति न पशून् ध्रुवम् ॥३९॥ दयाधर्मसमो धर्मों, न भूतो न भविष्यति: दयादानादिसत्कार्य, मघवृष्टिश्वशान्तयः ॥४०॥ यत्रहिंसाजनादीनां, धर्मभेदैः परस्परम् : तत्रराज्येच देशे च, दुःखराशिपरम्परा ॥४१॥ स्वधर्मिसंघवृद्ध्यर्य, माजहिभिन्नधर्मिणः कस्याऽपिदेहिनोहिंसां, मा कुरू धर्मगर्वतः ॥४२॥ भिन्नधर्मिजनान् हत्वा. मा कुरुष्व स्वधर्मिणाम् : वृद्धिं हिंसाभवेद्यत्र, तत्र धर्मो न लेशतः ॥४३॥ अहिंसासर्वलोकानां, सर्वजातीयधर्मिणाम् : कर्तव्या न्यायधर्मेण, नाऽस्तिधर्मोदयांविना ॥४४॥ दुष्टिनास्तकलोकेषु, हिंसावुद्धिंतु मा कुरु विरुद्धधर्मिणांहिंसा, मा कुरुष्व दयांकुरु ॥४५॥
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दयाधर्मस्यवृद्ध्यर्थ, हिंसां मा कुरु मोहतः दययैवदयावृद्धिं कुरुष्व सर्वदेहिषु ॥ ४६ ॥ दयावां मरणं श्रेयो, मा जीव ! हिंसया क्षणम् । मनस्यपि न हिंसायाः, परिणामं कुरुष्व भोः ॥४७॥ हिंसा प्रतिफलं हिंसा, दयाप्रतिफलंदया: दयाप्रेम्णैव हिंसाया, नाशोभवतिनिश्चितम् ॥४८॥ निजाऽपराधिलोकेषु, वरिषुचदयां कुरु शक्तिमद्भिर्दया कार्या, यथायोगं विवेकतः ॥ ४९ ॥ कर्मविश्वासमालम्भ्य, दयां कुरुष्व देहिनाम्. दयाकार्येच दुःखाब्धौ प्राप्तेऽपि न दद्यां त्यज ॥५०॥ दयाकार्ये भवेन्मृत्यु, स्तर्ह्यपि मा दयां त्यज दयाकार्ये च संप्राप्तं दीनत्वमपिमुक्तये ॥५१॥ गंगादिस्नानतोऽनन्त, - फलप्रदाऽस्तिसद्दया; दयैवाऽस्तिमहागंगा, स्वर्गमुक्तिप्रदायिनी ॥ ५२ ॥ दयैव सर्वतीर्थानां तीर्थमस्ति स्वभावतः दयैव सर्वयज्ञानां यज्ञमुख्या स्वभावतः ॥ ५३ ॥ अहिंसापालने सर्व-धर्माराधन सत्फलम् ; जायते सर्वदानानां फलं च त्वं दयां कुरु ॥५४॥ वेदानामपिवेदो स्ति, दयैव विश्वरक्षिणी; सर्वविश्वोपकाराथै, दयादेवीं भजस्व भोः ॥ ५५ ॥ नास्ति दयासमा माता, नाऽस्तिमित्रं दद्यासमम् नाऽस्ति दयासमोभ्राता, नाऽस्ति तीर्थ दयासमम् ॥ २६ ॥ नाऽस्ति दयासमा यात्रा, नाऽस्ति दयासमा श्रुतिः नाऽस्तिदयासमंसत्यं, दयाकृत्यं कुरुष्वभोः ॥५७॥
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दयात ईश्वरप्राप्ति, र्दयां ज्ञात्वां दयांकुरु क्षुधार्तरोगिलोकानां, सेवां कुरुष्व भावतः ॥८॥ दयातः सर्वदेवाःस्यु, र्मानवाः स्युरहिंसया दयातः पुण्यबन्धोऽस्ति, पापबन्धोऽस्ति हिंसया ॥१९॥ नाऽस्ति दयासमराज्यं, नास्ति दयासमंधनम् नाऽस्ति दयासमासत्ता, नास्ति दयासमोनृपः ॥६०॥ अहिंसासत्यसाम्राज्य, मान्तरं विश्वशान्तिकृत् प्राप्य नरा निजंराज्य,-मात्मिकंयान्तिभावतः ॥६१॥ नद्यः सरांसि सवृक्षाः कूपा मेघाश्च वापिकाः दयावन्तोमनुष्याश्च परोपग्रहहेतवे ।।६२॥ अन्धपङ्ग्वादिलोकानां, रुग्णादिपशुपक्षिणाम् धर्मशालादिकंसर्व, प्रकर्तव्यं दयापरैः ॥६३॥ जलानवस्त्रसत्स्थान, धनाद्यैश्वदयापरैः जनादीनां प्रकर्तव्या, सेवा मोक्षपदायिनी ॥४॥ कपोतादेर्दयाकार्या,-वित्तबुड्यादिमाधनैः साहाय्यंच मनुष्याणां, कुरुस्वार्पणतः सदा ॥६५॥ रोगापत्तिनिमग्नाना, मशक्तानां सहायताम् कुरुष्व सद्दयांधृत्वा,-मा प्रमादं कुरुष्व भोः ॥६६॥ रोगाद्यैदुःखिलोकानां, साहाय्यं कुरु शक्तितः यस्य योग्यं च यत्तस्मै, तद्देयं सद्दयापरैः ॥६७॥ ईश्वरप्रतिमाः सन्तो, दयोपकारकारिणः पराऽऽत्मानो भवेयुस्ते, मोहादिकर्मनाशतः ॥६॥ अहिंसया प्रजीवन्ति, धर्माः सर्वे जगस्थिताः हिंसया नैवधर्मोऽस्ति, भाषितं जिनपुंगवैः ॥६९॥
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प्रमत्तयोगतःप्राण-, नाशाहिंसा प्रजायते हिंसायाः परिणामेन, स्याहिंसाकर्मबन्धनम् ॥७०॥ अहिंसापरिणामेन, भवेदाऽऽत्माह्यहिंसकः हिंसाबुद्धिविनाधर्म - कार्येण शुद्धिराऽऽत्मनः ॥ ७१ ॥ अल्पदोषो महाधर्मो, बहव्यश्च निर्जरा यतः कर्तव्यं धर्मकार्यतद्, दयावद्भिर्विवेकिभिः ॥७२॥ अन्यायेन भवेहिंसा, न्यायेन सदया भवेत् ; दयाsस्तिब्रह्मचर्येण, हिंसाऽस्तिव्यभिचारतः ॥७३॥
दयायाश्चविचारेण, प्रवृत्त्या पुण्यबन्धनम् हिंसायाश्वविचारेण, प्रवृत्त्या पापबन्धनम् ॥७४॥
क्रियमाणेषुकार्येषु दयादृष्टिप्रधारिणः पापकर्म न बध्नन्ति, शुद्धोपयोगिदेहिनः ॥ ७५ ॥ मैत्रीभावेन जीवेषु दयाधर्मः प्रवर्धते प्रमोदभावयोगेन, स्वाऽन्यहिंसाप्रवर्जनम् ॥ ७६ ॥
माध्यस्थ्यभावयोगेन, द्रव्यतोभावतोदया: भवेन्निजाऽऽत्मनः शुद्धि, रहिंसा स्वाऽन्यदेहिनाम् ||७७ || निजाऽऽत्मनोभवेडिसा, रागद्वेषकषायतः
साम्येन स्वाऽन्यजीवाना, महिंसा जायते खलु ॥ ७८ ॥ अहिंसाजायतेशुद्ध, - प्रेम्णाच संयमेन वै
स्वाऽन्याऽऽत्मनां प्रशुङ्घर्थ, सामायिकंसमाचर ॥ ७९ ॥ देशविरतियोगेन, - देशहिंसा विनश्यति: सर्वविरतियोगेन, सर्वहिंसा विनश्यति ॥८०॥
आरम्भश्वसमारम्भो, द्रव्यहिंसादिवर्धकाः निरारंभतया हिंसा, नश्यति द्रव्यभावतः ॥ ८१ ॥
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सर्वारंभपरित्यागी, भवेत्साधुरहिंसकः अतोगृहस्थतोत्यागी, ह्यनन्तगुणशुद्धिकृत् ॥८॥ द्रव्यभावदयावन्तः साधवो धर्मदेशकाः शीघ्रमुक्तिपदयान्ति, विश्वयाप्रवर्धकाः ॥३॥ कोटिकोटिमहोपाय, धर्मिजीवस्यरक्षणम् हिंसकेभ्यः प्रकर्तव्यं, सात्त्विकन्यायकर्मभिः ॥८॥ अन्यायएवहिंसाऽस्ति, न्याय एव दयाशुभा; कापट्थमेव हिंसाऽस्ति, निर्दभश्च दयास्मृता ॥८॥ हिंसायां पापमन्तार, श्चार्या हिंसानिषेधकाः अनार्याविपरीतास्यु, हिंसाऽऽचारविचारिणः ॥८६॥ मांसरक्तादिभोक्तारः पश्वादिघातिनोजनाः अनीत्या जनहन्तारो, राक्षसा जनरूपिणः ॥८॥ जनादीनां विनाशेन, जीवनंचवहन्ति ये: चण्डालास्तेचविज्ञेया,-जनघातेनजीविनः ॥८॥ क्रूरहिंसकपापानां, संगोऽपिपापहेतवे; हिंसकाश्चक्रवांद्या, मृत्वा श्वभ्रंप्रयान्तिते ॥८९॥ गालिदानेऽपिहिंसाऽस्ति, निन्दा हिंसास्वरूपिणी. अभ्याख्यानंच हिंसाऽस्ति, हिंसा:पैशुन्यवृत्तयः ॥१०॥ हिंसा विश्वासघातोऽस्ति, कूटसाक्षिप्ररूपणम् कूटलेखोऽपिहिसैव, हिंसा मिथ्याप्रभाषणम् ॥९१॥ हिंसा चुराऽपि बोडव्या, परन्यासापहारणम् मित्रद्रोहश्चहिंसैव, मिथ्यात्वबुद्धिवासना ॥१२॥ अधर्म्यकामतोहिंसा, जायते निश्चयो महान् भावहिंसा प्रयोडव्या, मोहस्य सर्ववासना ॥१३॥
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भावहिंसापरित्यागाद्, द्रव्यहिंसा निवर्तते; अनुपयोगतो हिंसा, चाहिंसा स्वोपयोगतः ॥१४॥ दयातोयतनावृत्ति, दयाचारश्चजायते; दर्शनज्ञानचारित्रै, रहिंसा द्रव्यभावतः ॥९५।। देशखण्डसमाजेषु, दयाकार्यप्रवृत्तयः कर्तव्याःसज्जनः श्रेष्ठाः सम्यगदयाविचारतः ॥९॥ आर्या अहिंसयाख्याता, अनार्या हिंसयातथा आर्यधर्मो दयापूर्णः आदेशो दयामयः ॥९॥ किंराज्यः किंधनौगः किंपुत्रैश्च दयांविना मोक्षद्वारं दया ख्याता, शुद्धाऽऽत्मोन्नतिकारिणी ॥९८॥ गुणस्थानक्रमारोहे,-दया साधनमुत्तमम् मनोवाकाययोगेन,-दयांकुरुष्व चेतन !! ॥९९॥ दयातःस्वाऽविकारेण, योग्यकर्म समाचर; धारय यतनां सर्व, कार्येषु स्वोपयोगतः ॥१०॥ हिंसापापनिवृत्यर्थ, दयाधर्मसमाचर हिंसा नश्यतिसत्प्रीत्या, पुण्यात्पापविनश्यति ॥ १०१॥ दया पुण्यायविज्ञेया, पापायजीवहिंसनम् .. आत्मवत्सर्वजीवाना, महिंसां त्वं समाचर. ॥१०२॥ स्वाङ्गनाशेयथादुःख,-मन्याऽङ्गनाशनेतथा स्वमृत्यौचयथादुःख,मन्यमृत्यौ तथा भवेत् ॥१०३॥ नाऽस्तिमृत्युसमाभीतिः, क्षुत्समा नाऽस्ति वेदना; स्वाऽऽत्मवत्सर्वजीवेषु, ज्ञात्वा दयां समाचर ॥१०४॥ दयांविना न देवत्वं, प्राप्यतेकोटियुक्तिभिः देवाभूता भविष्यन्ति, भवन्ति सद्दयाबलात् ॥१०॥
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पूर्णसाम्यदशापूर्व दयायाः सत्यहेतुता; ज्ञात्वापरोपकारार्थ, योग्यां दयां समाचर ॥१०६॥ वीतरागाजिनावुद्धा; सर्वज्ञाः परमेश्वराः कृतकृत्याअपिव्यक्त,-दयाकार्यप्रवर्तका; ॥१०७॥ पापेनक्षीयतेपुण्यं, पापात्पापंविवर्धते पुण्येन क्षीयते पाप, पुण्यात्पुण्यविवर्धते ॥१०८॥ पुण्याद् धर्मस्य सम्प्राप्ति, धर्मान्मोक्षः प्रजायते मोक्षेऽनन्तसुखं नित्यं, तस्मा दयां समाचर ॥१०१॥ निर्धनाश्चदयावन्तो, हिंसकचक्रवर्तितः कोटिगुणामहाश्रेष्ठा, जीवन्त ईश्वराः शुभाः ॥११॥ यथाममप्रियाः प्राणा, स्तथैवंसर्वदेहिनाम् ज्ञात्वेतिसर्वजोवानां, प्राणान्क्षविवेकतः ॥१११॥ मृत्युःप्रियो न कस्याऽपि, कीटादेश्वप्रवेदय स्वस्थाऽस्तिजीवनंप्रेय, स्तथाऽस्तिसर्वदेहिनाम् ॥११२॥ सौराष्ट्रगुर्जरेकच्छे,-मरुधरे च मालवे; दयामयंसुमाम्राज्य, जैनादिभिप्रवर्तते ॥११३॥ पशुपक्षिमनुष्याणां, धर्मशालादिकंभृशम् कपोतपालिकाबढ्यो, ग्रामेचनगरेपुरे कुमारपालभूपेन, दयाधर्मः प्रवर्धितः वस्तुपालादिभिः श्रेष्ठः दया भृशंप्रचारिता ॥११॥ सर्वधर्मेषुसत्योऽस्ति, जैनधर्मोदयामयः सर्वजातिदयावृड्यै, जैनसंघो विवर्धताम् ॥११६॥ सद्दयैवस्वधर्मोऽस्ति. परधर्मोऽस्तिहिंसनम् दयालवःप्रजीवन्तु, विश्वदयाप्रचारिणः ॥११७॥
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हिंसामयानियुद्धानि, पापमूलानि वेदय; तानित्यत्वादद्यावन्तो, दयांकुरुत देहिनाम् ॥ ११८ ॥ पक्षिषु च कपोताद्याः पशुषुहिमृगादयः जैनामनुष्यसंवेषु, ज्ञेयादयालवो भुवि ॥ ११९॥ जैनधार्मिकशास्त्रेषु, - दयाधर्मस्यपालनम् संवणितमहिंसायाः साम्राज्यं विश्वशान्तिदम् ॥ १२० ॥ प्रख्यातः सर्वखण्डेषु, जैनधर्मोदयामयः तीर्थंकरैश्व सर्वज्ञे, दर्शितोऽनादिकालतः ॥१२१॥ आस्तिकानांदयाधर्मो, नास्तिकानां च हिंसनम् दयाऽस्तिप्रभुभक्तानां नास्तिकाः सन्तिहिंसकाः ॥ १२२ ॥ दयावतांसुयोग्याऽस्ति, प्रार्थनापरमाऽऽत्मनः
जनादिघातकानांतु, दयाऽभावान्न सा मता ॥ १२३ ॥ ara विश्वलोकानां कर्तव्यमस्ति निश्चितम् दयैव सर्वधर्माणां, सारोऽस्तीति विनिश्चितम् ॥ १२४|| दयांविना तु मा जीव ! दयावन्तो हि जीविनः जीवन्तस्तेमृताज्ञेया, जनादेर्हिसकाजनाः ॥ १२५ ॥ अधर्म्याsन्यायतोजीवान्, माजहिभव्यचेतन !! धर्म्यन्यायेनजीव त्व, माजोविकादिसाधनैः ॥ १२६॥ अहिंसादिगुणैर्जीव !! स्वाऽधिकारेणचेतन ! जीवानांजीवनाद्यर्थ, परस्परमुपग्रहः ॥ १२७ ॥
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निर्दयैर्हिभयत्रस्ता, वर्तन्तेविश्वदेहिनः
सदयैर्निर्भयाजीवा, जीवन्ति त्वं दयांकुरु ॥ १२८॥
दयाsस्तिब्रह्मणोरूपं, हिंसा दुःखस्यरूपकम् प्रभोरूपंदयांज्ञात्वा, दयामाचर चेतन ॥ १२९ ॥
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पूर्णदयास्वरूपोऽस्ति, देवो हिंसानिवारकः पशुपक्ष्यादिभोगान्स, नेच्छति नच याचते ॥१३०॥ यज्ञार्थपशवोनैव, सृष्टा देवेन निश्चितम् । देव्यः पशून् न खादन्ति, पिबन्ति रुधिरं न च ॥१३१॥ पशुपक्ष्यादियज्ञैश्च, प्रसन्ना नैव देवताः पापोदयेन रोगाश्च, दुःखानि विश्वदेहिनाम् ॥१३२॥ पापोदयेन रोगादि-दुःखंभवतिदेहिनाम् पुण्योदयेन चारोग्य-सुखंभवतिनाऽन्यथा ॥१३३॥ पापादुःखं सुखं पुण्यात् , सर्वत्र सर्वदेहिनाम् ज्ञात्वा च पुण्यधर्माय, सद्दयांकुरुचेतन ! ॥१३४॥ मदिरामांसरक्तानां, द्वेषिणांव्यभिचारिणाम् पापडिभोगभुक्तानां, हृत्सुनास्ति च सद्दया ॥१३॥ हिंसाऽस्तिक्लेशयोगेन, परमर्मप्रकाशनात् अतिपरिग्रहोहिंसा, हिंसाऽस्ति रात्रिभोजने ॥१३६॥ अनर्थदण्डतोहिंसा, परहास्यादिकर्मतः दयाऽस्तिदेहिनो दुःख,-विनाशकसुकर्मतः ॥१३७॥ येषां चित्तेषु कायेषु, वचस्सु सात्त्विकीदया स्वर्गाहिजीवतांतेषां, भावेन हि प्रजायते ॥१३८॥ स्वाऽधिकाराद्यथाशक्ति, द्रव्यभावदांकुरु तरतमदयायोगैः प्रवर्तस्व स्वमुक्तये ॥१३९॥ पापंविज्ञायहिंसासु, हिंसाकर्माणि संत्यज !! सर्वयोगस्यसन्मूल, महिंसां हृदि धारय ॥१४०॥ कोऽपिदयांविना योगी, नैवभूतो भविष्यति कोऽपिदयांविना मुक्तो, नव भूतो भविष्यति ॥१४॥
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जनानांभक्षणार्थ न, पशुपक्ष्यादयःखलु: एवंभगवता प्रोक्तं, महावीरेण रक्षिणा ॥१४२॥ सात्त्विकान्नैःफलैर्दुग्ध, भोजनपानयोगतः जीवन्तिधर्मिणः सन्तो, भक्ता जैनाश्चमुक्तये ॥१४॥ वैरत्यागोभवेन्नून, महिंसापूर्ण सिद्धितः अहिंसापरमोधर्मः सर्वथायोगसिद्धिकृत् ॥१४४॥ सम्यग्दृष्टिजनस्याऽस्ति, सम्यजज्ञानंच सहया, अहिंसाप्राप्तये सम्यज्,-ज्ञानस्य सत्यहेतुता ॥१४॥ अहिंसातोजगन्मैत्री, शुद्धप्रेम प्रकाशते; चित्तशुद्धिर्भवेत्तेन, मोहरोधः प्रजायते ॥१४६॥ ज्ञानादिकगुणानांच, प्राकट्थं चाऽऽत्मशुद्धता मोहादीनांक्षयःपूर्णः भवेद्भावदयाबलात् ॥१४७॥ देशतोविरतानांतु, हिंसानाशोऽस्तिदेशतः सर्वतोविरतानांतु हिंसात्यागस्तु सर्वतः ॥१४८॥ अप्रमत्तमुनीनांतु,-पूर्णदयाऽस्तिभावतः ज्ञानध्यानादिलीनाना, महिंसायोगसिद्धयः॥१४९॥ हिंसावुद्धिविनानैव, हिंसायाः कर्मबन्धनम् हिंसायाः परिणामेन, कर्मवन्धो भवेत्खलु ॥१५॥ सम्यग्दृष्टिमतांनणां, द्रव्यतोभावतोदया, मिथ्यादृष्टिमनुष्याणां द्रव्यदयाऽस्तिबाह्यतः ॥१५१॥ सम्यग्दृष्टिमतांनृणां, सम्यग्दृष्टिबलात्खलु; भवेद्भावयासत्या, सर्वकर्मविनाशकृत् ॥१५२॥ द्रव्यदयातउत्कृष्टाs, नन्तगुणोत्तमाशुभा भावतोऽस्तिदयासत्या, सर्वथामुक्तिदायिनी ॥१५३॥
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आत्मनः पूर्णमोक्षार्थ, दयाऽस्ति साधनं शुभम् ; आत्मनः शुद्धरूपंहि, साध्यमस्तिदयावताम् ॥१५४॥ एकेन्द्रियादिजीवानां, सद्दयाचोत्तरोत्तरा: अनन्तपुण्यलाभार्थ, धर्मार्थ देहिनां भवेत् ॥१५॥ एकेन्द्रियादिजीवेभ्यो, नृणां कोटिगुणोत्तमा दयाऽस्तिद्रव्यभावाभ्यां, तरतमयोगभेदतः ॥१६॥ मनुष्येष्वपि मांसादि,-वजिनांचोत्तमादया तेभ्योऽपिज्ञानिसाधूना, महिंसारक्षण च वै ॥१५७॥ चतुर्विधमहासंघ,-रक्षातो धर्मरक्षणम् धर्मिणां रक्षणाद्धर्मों, रक्ष्यते सत्यनिश्चयः ।।१५८॥ अहिंसकसुभक्तानां, त्यागिनांरक्षणशुभम् अनन्तपुण्यधर्मार्थ, जायते च विवेकिनाम् ॥१५९॥ पशुपक्षिमनुष्याणां, हिंसकेभ्योह्यहिंसकाः कोटिगुणोत्तमाः श्रेष्ठा, यथायोग्यं दयांकुरु ॥१६०॥ क्षेत्रकालादिकंज्ञात्वा, तरतमयोगतोदयां कुर्वन्ति ज्ञानिनो मुत्तथै, सर्वत्र निजशक्तितः ॥१६॥ दयाभवतिसबुड्या, हिंसाभवतिदुधिया; पापकार्येषु हिंसाऽस्ति, धर्मकार्येषुसया ॥१६२॥ स्वल्पहिंसामहाधर्म,-कारक परमार्थदम् अहिंसाधर्मवृष्ड्यर्थ, मपवादेन चागतम् ॥१६३॥ संघधर्मादिरक्षार्थ, मावश्यकहि सर्वथा धर्म्ययुद्धादिकं कर्म, कर्तव्यं च विवेकतः ॥१६४॥ स्वस्वधर्मविवृड्यथै, सर्वैर्धर्माभिमानिमिः क्रियतेधर्मयुद्धंय, तन्मृषामोहचेष्टितम् ॥१६॥
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सर्वधर्मस्यसारोऽस्ति, दयैवसत्यधर्मराट तदर्थधर्मयुद्धानि, कर्तव्यानि विवेकतः ॥१६६॥ आपत्कालोऽस्तिसर्वेषां, सर्वदेशीयदेहिनाम् आपत्कालीनयुद्धानि, न योग्यानि दयांविना ॥१६॥ देशस्वार्थादिमोहेन, युद्धमयां प्रवर्तते तत्रपापंप्रविज्ञाय, युद्धत्यजन्तुधर्मिणः ॥१६८।। आहंसाधर्मिसंघस्य, रक्षार्थ चापवादिकम् अल्पदोषमहाधर्म, कर्तृयुद्धं प्रवर्तते ॥१६९॥ औत्सर्गिकेणमार्गेण, चापत्तिकालमन्तरा, धर्मयुद्धमपित्याज्य, यथायोगं विवेकतः ॥१७०॥ युद्धार्थ च प्रवृत्तानां, घोरहिंसकदेहिनाम् प्रतिसंघादिरक्षाथै, योडव्यंच यथातथम् ॥१७१॥ निरपराधिलोकानां, तत्रापिरक्षणंशुभम् दंडादिकं यथायोगं, शत्रूणां च विवेकतः ॥१७२॥ शत्रुष्वपियथायोग, दया कार्या बलान्वितः स्वघातार्थप्रवृत्तानां, दण्डशिक्षादयादिकम् ॥१७॥ हिंसकघोरपापाना, मुद्धाराय दया शुभा; दातव्यं शिक्षणं तेभ्यो, दयाधर्मस्य मुक्तये ॥१७४।। घोरहिसकदेशेषु, समाजेषुच सद्दया: सर्वोपायः प्रचार्या सा, सर्वस्वार्पणशक्तितः ॥१७॥ गवां संरक्षण कार्य, निःशस्त्राणांदयावताम् । निर्यलानांच बालानां, स्त्रीणांनृणां द्विजन्मनाम् ॥१७॥ शरणाहमनुष्याणां, कर्तव्यंशुभरक्षणम् ; शरणाहीं न हन्तव्या, घोराऽपराधिशत्रवः ॥१७७॥
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सावधानतया कार्या, वैरिणां सद्दयाजनैः विश्वासोनैवशत्रूणां कर्तव्यः सद्दयाधरैः ॥ १७८ ॥ शक्तानां सद्दयाधर्मा, मोक्षमार्गविहारिणाम् अशक्तानां दया कार्या, शक्तिमद्भि विवेकतः ॥ १७९॥
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दुष्कालादिप्रसङ्गेषु, मानवपशुरक्षणम् कर्तव्यमन्नवित्ता, रनेकैः साधनैर्जनैः ॥१८०॥ दयादानादिसत्पुण्यैः सुभिक्षं च निरोगता खंडे देशे च संवे च जायते नैव संशयः ॥ १८९ ॥ महापुण्येन पापस्य, विपाकोपशमो भवेत् दयादिपुण्यकार्यैश्च, सुखंहि दुःखनाशनम् ||१८२|| दयामयेषु देशेषु, खण्डेषु सर्वजातिषु; शान्तिस्तुष्टिस्तथापुष्टि, रारोग्यं मंगलभृशम् ॥ १८३॥ दयाकार्येषुदोषोऽपि स्यात्तथाऽपियाधिया पुण्यधर्मस्यबाहुल्या, दाऽऽत्मोन्नतिर्भवेद्भृशम् ॥ १८४॥ अहिंसायाः प्रचारार्थं, दयाकर्म समाचर
दुर्लभं नृभवं प्राप्य, मा प्रमादं कुरुक्षणम् ॥१८५॥ अहिंसाधर्मकार्येण नृजन्मसफलं कुरु किं वित्तेन स्त्रिया भोगे, दयाधर्मं समाचर ॥ १८६॥ सर्वतोर्थक रैस्क्तो, दयाधर्मः सुखंकरः स्वापणेन दयाकर्म, कुरुष्व स्वोपयोगतः ॥ १८७॥ दुःखीकृत्याऽन्यलोकांस्त्वं, मा जीव पापकर्मभिः सर्वजीवसुखाय त्वं, जीव पुण्यसुकर्मभिः ॥ १८८ ॥ सर्वलोकसुखार्थं त्वं, स्वाऽऽत्मभोगं समर्पय कुरुनिष्कामतोलोक - हितार्थाय शुभं च यत् ॥ १८९॥
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स्वार्थ मन्येषु लोकेषु, निर्दयत्वं न धारयः साहाय्ययाचकानां त्वं, साहाय्यं कुरु भावतः ॥१९०॥ सह्यादानकार्याणां, सत्फलं नैव नश्यति अत आस्तिकभावेन, दयाकार्य कुरुष्व भोः ॥१९१॥ स्वल्पहिंसा दया बबी, स्वाधिकारेण मानवैः आजीविकादिकार्येषु, कर्तव्या सद्विवेकतः ॥१९२॥ पशुपक्षिमनुष्यादि-घातादाजीविकादिकम् । कुर्वन्ति न दयावन्तः प्राणान्तेऽपि शिवाऽर्थिनः ॥१९३॥ जीवेन सह बन्धोऽस्ति, हिंसातः पापकर्मणाम् पापकर्मोदयेनैव,-महादुःखपरम्परा ||१९४॥ जीवेनसहबन्धोऽस्ति, दयातः पुण्यकर्मणाम् पुण्यकर्मोदयेनैव, सुखस्याऽस्तिपरम्परा ॥२९॥ सुखाथै स्वार्थमोहेन, नाऽन्यजीवान् विनाशय मिथ्यामोहादिकं त्यक्त्वा, स्वाऽऽत्मानन्दं लभस्वभो॥१९६ सुखार्थ वित्तदारादि,-भोगानांप्राप्तये हठात् हिंसाकर्मादिकं कृत्वा, प्रान्ते दुःखमवाप्स्यसि ॥१९॥ हिंसकानां सुखं स्वल्पं, प्रत्यक्ष व्यावहारिकम् दृष्ट्वा मा मुह्य जीव त्वं, महादुःखं सुखान्ततः ॥१९८॥ पापाऽनुविन्धपुण्येन, हिंसकानां धनादिकम् दृष्ट्वा मोहो न कर्तव्यः परत्र दुःखराशयः ॥१९९॥ पशुपक्ष्यादिषुश्रेष्ठो, ह्यनन्तगणमानवः मनुष्य एव मोक्षस्य, प्रत्यक्षमधिकारवान् ॥२०॥ मुक्ति यान्ति जना एव, नाऽन्ये यान्तीति निश्चितम् अइिंसाधर्मसम्प्राप्त्या, मनुष्याऽऽत्मा भवेत् प्रभुः॥२०१॥
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दशदृष्टान्ततोऽतीव-दुर्लभोनुभवोमहान् प्राप्यस्वाऽऽत्मा भवेत् सिद्धो, दयादिधर्मसाधनैः॥२०२॥ इति विज्ञाय भोभव्या, दयां कुर्वन्तु भावतः प्रभुसहग्मनुष्याणां, हिंसां त्यजन्तु मानवाः ॥२०३॥ अतिपापिमनुष्योऽपि, सम्यग्दृष्ट्यादिलामतः इहैवमोक्षमायाति-त्यक्त्वा हिंसादिकं क्षणम् ॥२०४॥ अतो मनुष्यघातात्वं, विरम कोट्युपायतः आत्मज्ञानं मनुष्येभ्यो, देयं हिंसानिवारकम् ॥२०॥ कोटिकोटिमहोपायै, मनुष्यसंघरक्षणम् कर्तव्यं शिक्षण देय, महिंसाचारवर्धकम् ।।२०६॥ अहिंसाचारतः शान्ति, देशेखण्डे प्रजासु च राज्येषु भवति स्पष्टा, नान्योपाया भुवस्तले ।.२०७॥ इति निश्चित्यसिद्धान्त, सर्वखण्डस्थमानवाः दयाचा विचारैश्च, प्रवतन्ते स्वभावतः ॥२०॥ आत्मन्येव सुखं सत्यं, निश्चित्य भव्यमानवाः बाह्यभोगाप्तये हिंसां, कुर्वन्तु नैव सज्जनाः ॥२०९॥ बाह्यभोगे सुखभ्रान्ति, त्यक्त्वा सत्यसुखाप्तये आत्मन्येव स्थिरीभृय, स्वाऽऽत्मानन्दरसी भव ॥२१०॥ स्वस्वधर्मस्यसत्यत्वं, कथ्यतेसर्वधर्मिभिः किन्तुतत्र न सत्यत्व, महिंसाधर्ममन्तरा ॥२११॥ ब्रह्मचर्यमहिंसैव, परब्रह्मप्रदायकम् द्रव्यतोभावतोब्रह्मा,-चर्यशक्तिप्रदायकम् ॥२१२ दुःखिलोकदयाकार्या, दुःखनाशनकर्मभिः औषधालयसंस्थानं, कार्यमुपाश्रयादिकम् ॥२१३॥
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गुरुकुलादिकंस्थान, महिंसाचारबोधकम् ; स्थाप्यसंघा दिशान्त्यर्थ, विश्ववर्तिदयापरैः ॥२२३॥ एशियावासिलोकैस्तु, युरोपीयजनैर्भृशम् दयाचारविचाराणां, कर्मकार्य विवेकतः ॥ २१४॥ अमेरिकाजनैः सर्वे यत्नैर्दयाविवृद्धये स्वापणेन च योग्यं, तत्कर्तव्यंविवेकतः ॥ २१५ ॥ आस्ट्रेलियाजने विश्व - शान्तयेचविवेकतः अहिंसाधर्मवृद्ध्यर्थं, कर्तव्यं धर्मकर्मयत् ॥ २१६ ॥ आफ्रिकावासिभिहिंसा, कर्म त्याज्यं विवेकतः सर्व विश्वजनैर्हिसा, त्याज्या सत्यदयापरैः || २१७|| सत्ताधनादिभिर्लोकान् पीडयन्ति च ये जनाः ते नरा नरकंयान्ति, घोरपापपरिग्रहैः ॥ २१४॥ महादुःखेन संतप्तान्, जोवान् दृष्ट्वा च यहृदि, दयानोजायते तस्य, राक्षसत्वं प्रकाश्यते ॥ २१९ ॥ स्त्रीबाल साधु संहर्ता, गर्भनाशी च यो जनः यातिश्वभ्रं महापापी, निर्दयो देहिनः प्रति ॥ २२० ॥ तमोवृत्त्यारजोवृत्त्या, हिंसादिपापकर्मिणः श्वभ्रंयास्यन्तितेघोरं कृत्वाहिंसां पुनः पुनः ॥२२२॥ हिंसादिपापकर्तॄणा, मुद्धारायसुशिक्षणम् दयाज्ञानस्यदातव्यं, विश्ववर्त्तिदयापरः ॥ २२२॥
दयार्द्रविश्वसंवेन, सर्वस्वार्पणयोगतः
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प्रचार्याः सर्वविश्वस्मिन् दयोपायाः सुशक्तिभिः ॥२२३॥ दयापूर्णसुशास्त्राणां, कार्या प्रचारणाभुवि दयोपदेशतत्कार्यै, वर्धयन्तुदयांजनाः ॥ २२४॥
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संसह्यकोटिदुःखानि, विश्वदयाविवृद्धये, प्रवर्तन्तां सदा लोकाः साधवः सत्ययोगिनः ॥२५॥ साधवः प्रभुवत्पूज्या, हिंसादिपापवर्जिनः सेवाभक्तिश्चकर्तव्या, चाऽहिंसाधर्मियोगिनाम् ॥२२६॥ हस्त्रव्याघ्रादितोरक्ष्याः क्षत्रियैः पशुमानवाः क्षत्रियाणां स्वधर्मोऽस्ति, साधुब्राह्मणरक्षणम् ॥२२७॥ क्षत्रियाणां स्वधर्मोऽस्ति, गोसतीबालरक्षणम् निरपराधिजीवानां, निःशस्त्राणां च रक्षणम् ॥२२८॥ क्षत्रियाणां च कर्तव्य, न्यायासंघादिरक्षणम् राज्यभूम्यादिसंरक्षा, घोरापराधिदण्डनम् ॥२२९॥ मृगयापापखेलादि,-हिंसाकर्मत्यजन्तिते अहिंसाधर्मिरक्षाथ, क्षत्रिया उपयोगिनः ॥२३०॥ अहिंसाधर्मबोधार्थ, ब्राह्मणा उपयोगिनः पशुमांसादिभोक्तारो, ब्राह्मणा अपि राक्षसाः ॥२३१॥ सुरामांसप्रहिंसा, ब्राह्मणानैवकर्मतः दयासत्यादिधर्मैश्च, ब्राह्मणा धर्मिणः स्मृताः ॥२३२।। गवांसंपालनाद्वैश्या, अहिंसाधर्मसाधकाः पशुपालनकृष्यादि, कर्मिणश्चदयालवः ॥२३३॥ व्यापारादिप्रवृत्तिषु, दयाबुद्ध्या प्रवर्तकाः अहिंसाधर्मवृद्ध्यर्थ, धर्मशालादिकारिणः ॥२३४॥ भूपानां च स्वधर्मोऽस्ति, न्यायात् प्रजादिपालनम् । साधूनां च गवादीनां, रक्षणं हिंस्रदण्डनम् ।.२३५॥ धर्मिणां रक्षणंनीत्या, चोरापराधिदण्डनम् अहिंसाधर्मिणोवृद्धिः कार्याच दोषवजनम् ॥२३६॥
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शूद्राणां च स्वधर्मोऽस्ति, साधुब्राह्मणसेवनम् धर्मिणां सेवन कार्य, हृदि धार्या दया मतिः ॥२३॥ आजीविकादिकार्येषु, न्यायवुड्या प्रवर्तनम् मनोवाकाययोगेन, दयानीतिप्रवर्तनम् । २३८॥ अहिंसादेशना कार्या, विश्वोडाराय साधुभिः आत्मवत्सर्वजीवानां, रक्षणं शिक्षणं तथा ॥२३९॥ शक्तिमतां दयादानं, क्षमातपश्चसंयमः जीवन्ति निर्बला लोकाः, शक्तानां सद्दयाबलात् ॥२४०॥ पोड्यमानान् जनान् दृष्ट्वा, शक्तिमद्भिःस्वशक्तितः तत्साहाय्यं प्रकर्तव्यं यत्र तत्र यदा तदा ॥ २४१ ।। क्लेशंभोति तथा द्वेष, वैरं त्यक्त्वा च सज्जनैः कर्तव्यं मद्दयाकर्म, दुष्टस्वार्थ विहाय च ॥ २४२ ॥ परस्परेषु भिन्नेषु, धर्मिषु प्रेमभावतः द्वेषहिंसादिकं त्यकत्वा, वर्तव्य च परस्परः ॥ २४३ ॥ अन्यायादन्यलोकानां, दुःखदान हि हिंसनम् अन्यप्रजीयदासत्व-, कृत्ये हिंसाऽस्ति तात्विको ॥२४४॥ दुष्टाशायाश्च ये दासा, हिंसां कुर्वन्ति पापिनः अन्यायोपार्जितं वित, भुनन्ति पापकर्मतः ॥४४॥ पारतन्य हि हिंसाऽस्ति, स्वातन्त्व्यं स्वदया शुभा आत्मस्वातन्त्र्यसत्कृत्य, माहंसाऽस्ति स्वभावतः ॥४४६॥ स्वाऽऽत्मराज्यमहिंसाऽस्ति, मोहराज्यंतु हिंसनम्. शुद्धोपयोग एवाऽस्ति, भावतःसद्दयाऽऽत्मनः ॥४४॥ मिथ्यात्वरागवैरायो, भावहिंसाऽस्ति देहिनाम् ; अहिंसाऽस्ति समत्व हि, बाह्यतोऽपि क्रियावताम् ॥२४८॥
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हिंसाऽस्ति व्यसनोरः हिंसादुर्गुणवृत्तयः सर्व हिंसादितो मुक्ता, वीतरागा जिनादयः ॥२४९॥ सर्वकर्मसु हिंसात्व, मल्पाधिक्यप्रभेदतः गृहस्थानां भवेत्तत्र, निबन्धा ज्ञानयोगिनः ॥२५०॥ दयावुद्धिं हृदि न्यस्थ, गृहस्था स्त्यागिनो जनाः स्वाःधिकारेण कर्माणि, कुर्वन्ति स्वोपयोगिनः ।।२५१।। यथा धूमावृतो वहनि, स्तथा सर्वप्रवृत्तयः सदोषा अपि कुर्वन्ति, ह्याजीविकादिकारिणः ॥२५२॥ निरासक्तितया सुज्ञा, यथायोग्यविवेकतः आत्मज्ञानोपयोगेन, कर्म कुर्वन्ति सज्जनाः ॥२५॥ द्रव्यभावदयाज्ञान,-विवेकेन प्रवर्तिनः स्वाऽधिकारेण कर्माणि, कुर्वन्ति यान्ति सद्गतिम् ॥२५४॥ हिंसावुद्धिर्न यस्याऽस्ति, शुद्धाऽत्मलक्ष्यधारकः सर्वकर्मप्रकुर्वाणोऽप्यहिंसाधर्मसाधकः ॥२५५। परस्परं च साहाय्य, कुर्वन्तु भव्यमानवाः परस्परोपकारेण, जीवा जीवन्ति भूतले ॥२५३।। परस्परोपकारोऽस्ति, जीवर्जडैश्चदेहिनाम् परस्परसहायेन, जीवन्ति विश्वदेहिनः ॥२५७॥ अतःस्वाभाविकं सत्यं, माहाय्यं च परस्परम् विज्ञायैवं जनाः सर्वे, भवन्तु स्वार्पिताः सदा ।।२५८।। दुःखिनां दुःखनाशार्थ, सहायिनो भवन्तु भोः स्वार्थेण कातरा नैव, भवन्तु विश्वमानवाः ॥२५९॥ देशजात्यभिमानेन, वर्णधर्माभिमानतः परस्परं न हिंसन्तु, भवन्तु सहयापराः ॥२६०॥
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क्रीडाविलासमोहेन, राज्यसत्तादिमोहतः विद्याशक्त्यादिगर्वेण, नाशयन्तु न देहिनः ॥ २५९ ॥ राजानो राज्यगर्वेण, पीडयन्तु न देहिनः हिंसादिपापदोषाश्च त्यजन्तु धर्मवुद्धितः ॥२६२॥ राज्यं कुर्वन्तु सद्बुड्या, सर्वलोकहिताय च अन्यायं नैव कुर्वन्तु, सन्तु हिंसा निवारकाः ॥२६३॥ क्षत्रिया ब्राह्मणा वैश्याः शूद्राश्च विश्वमानवाः आत्मनः शुद्धिकृत्यार्थ, सन्तु दयैकतत्पराः || २६४ || विश्वदयार्द्रसंवेन, दुःखिनांनिःसहायिनाम् दुःखनाशाय सद्यत्नै, र्यतितव्यं विवेकतः ॥ २६५ ॥ पशूनां पक्षिणां दुःख, - नाशार्थं च यथातथम् भवन्तु सहयाकम, - कारिणो विश्ववत्सलाः || २६६ ॥ दयाचारिविचाराणां, सामर्थ्यं स्वाऽऽत्ममुक्तये सर्वकर्मक्षयोमोक्षो, भवेद् भावद्याबलात् ॥ २६७॥ अहिंसाधर्मिभिर्धमों, वर्धते सर्वभूतले; धर्मिभिरन्तराधर्मों, वद्ध्यते नैव पुस्तकैः ॥ २६८ ॥ अहिं साधर्मिणां वृद्ध्यै, चार्पिताः सन्तु मानवाः अहिंसातः प्रभोः प्राप्ति, र्भवत्येव न संशयः ॥ २६९ ॥ अहिंसाभावकार्याभ्यां, जैनसंघः प्रवर्त्तते सर्वधर्मिषु सः श्रेष्ठो, दयाचारविचारतः ॥ २७० ॥ रागद्वेषौ परित्यज्य, सत्यन्यायात्प्रवच्म्यहम् जैनेषु जैनशास्त्रेषु, दयाधर्मस्य मुख्यता || २७१ ॥ मृता नैव मरिष्यन्ति, जैना आर्या दयादितः आर्यदेशीयलोकानां, दयाधर्मोद्यनादितः ॥ ३७२ ॥
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सर्व खण्डे पुदेशेषु दयाऽऽचार्यैः प्रवद्र्ध्यते अहिंसाधर्मिणां सत्य, मार्यत्वंगुणकर्मतः ॥२७३॥ मदिरामांसतोदूरा, आर्याः स्युर्गुणकर्मतः अनार्यम्लेच्छलोकानां हिंसात्वं वृत्तिकर्मतः ॥ २७४॥ सृष्टिविरोधकं कर्म, हस्तकर्मादिकं च यतः बाललग्नादिकंहिंसा, त्याज्या धर्मार्थिकामिभिः || ३७५।। अतिशोकादिकं हिंसा, ज्ञातव्या च विवेकिभिः मनोवाक्कायशक्तीनां, रक्षणं सद्दया मता ॥ २७६ ॥ अत्याहारैस्तु हिंसव, चातिवादश्च हिंसनम् मनोवाक्काययोगाना, मतियत्न व हिंसनम् ॥ २७७॥ कूपादिपतनं हिंसा, विषादिभक्षणं तथा: अतिपरिश्रमोहिंसा, ज्ञातव्यैवं विवेकतः ॥२७८॥ आतरौद्रविचाराणां, हिंसाऽस्ति कर्मबन्धनात् धर्मशुक्ल विचाराणां, स्वाऽऽत्मदयाऽस्तिवस्तुतः ॥ २७९ ॥ स्वाssत्मनो या दया सैव, चाऽन्यसर्वदयादितः अस्त्यनन्तगुणैः श्रेष्ठा, सर्वकर्म विनाशिनी ॥ २८० ॥ दर्शनज्ञानचारित्र, महिसैव स्वभावतः शुद्धोपयोग एवाऽस्ति, यहिसा च निजाऽऽत्मनः ॥ २८१ ॥ अहिंसा त्रिविधा ख्याता, तामसी राजसी तथा सात्त्विकी स्वाऽऽत्मशुद्ध्यर्थ, श्रेष्ठाऽस्ति चोत्तरोत्तर ॥ २८२ ॥ मुत्यर्थ सात्त्विकी भव्यैः कर्त्तव्या स्वोपयोगतः निष्कामबुद्धितः कार्य, महिंसाकर्म ताश्विकम् ॥ २८३ ॥ हिंसा त्रिधाऽस्तिविज्ञेया, तामसी राजसी तथा; साविकी च परित्याज्या, स्वाऽधिकारेण मानवैः ॥ २८४ ॥
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सद्देवगुरुधर्मार्थ, संघार्थ च महाजनैः अल्पदोषमहाधर्म, कर्म कार्य यथातथम् ॥२८५॥ वनस्पतिफलाहारात्, सत्त्वबुद्धिः प्रकाशते सात्त्विकपानयोगेन, शुद्धबुद्धिः प्रकाशते ॥२८॥ सात्विकभोजनाच्छुद्धि,-श्चित्तस्य प्रविजायते स्वच्छवायुजलाद्यैश्च, दयावृत्ति विवर्धते ॥२८७॥ अहिंसाधर्मिणां सङ्गाद्, दयावुद्धिः प्रजायते द्रव्यभावदयायोगात्, स्वाऽऽत्मा सिद्धः प्रजायते ॥२८॥ पवित्रभूमिवासेन, दयावुद्धिः प्रवर्धते । पवित्रतीर्थवासेन, सद्दया हृदि जायते ॥२८९॥ चण्डकौशिकनागे च, कृताऽपराधिसंगमे; महावीरस्य नेत्रे द्वे, दयार्दे कुरुतां शिवम् ॥२९॥ यस्य पूर्णदयादृष्टिः कमठेऽत्यपराधिनि ध्यानावस्थास्थितो देवः पार्श्वनाथः श्रियेऽस्तुवः ॥२९॥ मृगवृन्दोपरिप्रीतिः सद्दया येन धारिता अरिष्ठनेमिभगवान् , कल्याणं कुरु सत्वरम् ॥२९२॥ कपोतस्य कृता रक्षा, पूर्वजन्मनि भावत; सर्वविश्वस्यशान्त्यर्थ, शान्तिनाथोऽस्तुसर्वदा ॥२९३॥ भारतादिकदेशेषु, दयाधर्मिप्रवृद्धये साधवः प्रेषिता येन, पशुशालाः कृता घनाः ॥२९४॥ अशोकभूपपौत्रेण, जैनसम्प्रतिभूभुजा; चन्द्रगुप्तेन भूपेन, दया सर्वत्र वर्धिता ॥२९५।। वस्तुपालो महामन्त्री, तेजःपालोऽपिगुजरे जातौ दयाप्रचारार्थ, भ्रातरौ जैनधर्मिणौ ॥२९६॥
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दुष्काले कच्छसौराष्ट्र, -गुर्जरादिषु मानवाः रक्षिता अन्नदानेन, जगडूशादयालुना ॥ २९७ ॥ इलादुर्गे महाश्रेष्ठी, दुष्काले सर्वरक्षकः अंबावीदासजैनोऽभूत्, तस्याऽस्ति कीर्तिरुत्तमा ॥ २९८ ॥ मंडपे पेथडश्रेष्ठी, जैनो बभूव धर्मवान् क्षुधार्तादिमनुष्येभ्यो, भोजनाद्यं च दत्तवान् ॥ २९९ ॥ अशोको भूपतिः श्रेष्ठः सर्वभूपतिशेखरः तेन दयासमुद्रेण, देशाहिंसा निवारिता ॥ ३००॥ खारवेलेन भूपेन, भारते वर्धिता दयाः सिद्धसेनोपदेशेन, विक्रमेण दया तता ॥ ३०२ ॥ अहिंसा स्थापिता राज्ये, दयामयेन चेतसा स आमभूपतिः श्रेष्ठो, बभूव जैनधर्मिराट् ॥३०२|| अकबरबादशाहेन, भारतदेशचक्रिणा
आर्याणां प्रेमवृद्ध्यर्थ, गवां हिंसा निवारिता ॥ ३०३ ॥ हीरविजयसूरीणां, प्रबोधेनैवसहया यस्याऽऽत्मनि भृशं जाता, सोऽक्बरः कीर्तिमानश्रुतः ॥ ३०४|| यस्य विश्वोपरि प्रेम, तस्य व्यापकसद्दया, दयाहिंसास्वरूपं तु ज्ञानी जानाति वस्तुतः ॥ ३०५ ॥ ज्ञानं पूर्व दया पश्चात्, नाऽस्ति ज्ञानं विना दया ज्ञानी ज्ञानेन जानाति, दयां हिंसां च वस्तुतः ॥ ३०६ ॥ काययोगेन हिंसा तु, केवलिनामपि भवेत् द्रव्यहिंसाsस्ति सादेहान्, न तु भावेन विन्दत ॥ ३०७ ॥ रागद्वेषपरीणामा, हिंसाऽस्ति भावतः खलु रागद्वेषपरीणाम, विना नास्ति हि भावतः ॥ ३०८ ॥
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भावहिंसां विना द्रव्य,-हिंसया भवबन्धनम् नाऽस्ति तत्तु परिज्ञाय, भवन्तु स्वोपयोगिनः ॥३०९॥ कर्मबन्धनमुक्त्यर्थ, माऽऽत्मन स्त्वं दयां कुरु आत्मज्ञानेन स्वाऽन्यानां, दया सत्या प्रकाशते ॥३१०॥ दयां हिंसा न जानाति, मिथ्यादृष्टिरबोधतः दयां हिंसा च जानाति, सम्यग्दृष्टिः सुबोधतः ॥३११॥ सम्यज्ज्ञानी विजानाति, दयां हिंसां च बुद्धितः कुत्र दयाप्यहिंसा स्यात् , हिंसाऽपि कुत्रचिद्दया ॥३१२॥ कुत्रचिवाह्यतोहिंसा, काययोगेन संभवेत्, तथापि भक्तिसेवाद्ये, रहिंसा चान्तरा यतः ॥३१३॥ सद्देवगुरुसंघस्य, रक्षणार्थं च बाह्यतः दोषे सति महाधर्मो, जायन्ते बहुनिर्जराः ॥३१४॥ कायेन नैव हिंसाऽपि, रागद्वेषादिमोहतः मानसिका भवेडिंसा, चाऽन्यघातविचारतः ॥३१५॥ आन्तरा भावहिंसाऽस्ति, द्रव्यहिंसा तु बाह्यतः गीतार्थगुरुबोधेन, स्वाऽधिकारा द्दयां कुरु ॥३१६॥ प्रमादयोगतो हिंसा, स्वाऽन्यप्राणविनाशनात् हिंसाया लक्षणं ह्येत, त्तत्त्वार्थसूत्रभाषितम् ॥३१७॥ सम्यग्दृष्टियुता जैनाः सम्यग्दृष्टिगुणस्थिताः अविरताश्च हिंसाचे, रहिंसादिप्रकांक्षिणः ॥३१८॥ हिंसादौ दोषमन्तारो, हिंसादिदोषहानये उद्युक्ता हि दयालूनां, रक्षार्थ ते प्रवर्तकाः ॥३१९॥ अणुव्रतधरा जैनाः श्रावका द्रव्यभावतः अणुभङ्गेन जीवानां, निरपराधिदेहिनाम् ॥३२०॥
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स्थूलानां हिंसका नैव, स्थूलहिंसाविरामिणः औत्सर्गिकापवादाभ्यां सापेक्षव्रतधारिणः ॥ ३२१ ॥
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सदेवगुरुधर्माणां, संघस्य भक्तिहेतवे
सेवार्थ तस्य रक्षार्थ, मौत्सर्गिकाऽपवादिनः || ३२२|| भक्त्यादिधर्मकार्येषु, हिंसातः कर्मबन्धनम् स्वल्पं च निर्जरा बन्यो, महापुण्यं प्रजायते ॥ ३२३ ॥ अतोगृहस्थिताः श्राद्धा, द्विविधाः स्वाऽधिकारतः देवादिभक्तिरक्षादौ, प्रवर्त्तन्ते यथातथम् ॥ ३२४ ॥ महाव्रतधराः सन्तो, मुक्ता हिंसादिपापतः साधवो विश्वजीवानां त्रातारः सन्ति बन्धवः || ३२५|| औत्सर्गिकाऽपवादाभ्यां धर्मसंघादिरक्षणे विश्वलोकदयाद्यर्थ, प्रवर्त्तन्ते यथातथम् ॥ ३२६॥
द्रव्यभावद्यावन्तः षट्कायजीवपालकाः निर्दोषाssहारपानेन, जीवन्ति च यथातथम् ॥ ३२७॥
गृहस्थत्यागिभेदेन द्विधाधर्मोद्यनादितः सर्वज्ञैर्बोधितः सत्यो, जैनधर्मः प्रवर्त्तते ॥३२८॥ द्रव्यभावीयहिंसातो, विरतिश्वभवेद्यथा तथा प्रवर्त्तनं कार्य, द्रव्यभावदयापरैः ॥ ३२९ ॥ दर्शनज्ञानचारित्र, - मोक्षमार्गानुसारिभिः गृहस्थैस्त्यागिभिहिंसा, संत्याज्या च यथातथम् ॥ ३३० ॥
सर्वविश्वस्थबालानां, विद्याशालासु मानवैः अहिंसाधर्मशिक्षार्थं, - वर्तितव्यं यथातथम् ॥३३१||
हिंसकानां प्रबोधार्थ, सर्वविश्वेषु वर्तिनाम् सर्वजातिप्रबन्धेन, वर्तितव्यं दयालुभिः ॥ ३३२ ॥
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यावद्धिसा भवेत्ताव-दशान्तिराऽऽत्मनो ध्रुवम् अहिंसावृत्तिकमभ्यः, शान्तिःशर्म शिवं भवेत् ॥३३३॥ आत्मनः सद्दया श्रेष्ठा, प्रामाण्यवृत्तिकर्मभिः हिंसा निजाऽऽत्मनो ज्ञेया, प्रामाण्यभ्रष्ठजीवनात् ॥३३४॥ औदार्यसत्यगांभीर्यात्, दया सत्या प्रवर्धते सर्वलोकसहायेन, दयाधर्मों विवर्धते ॥४३५॥ सर्वखण्डस्थलोकानां, रोगदुःखादिनाशने परस्परसहायार्थ, म्रियन्तां भव्यमानवाः ॥३३६॥ आत्मशुद्धोपयोगेन, कृतेषु सर्वकर्मसु अहिंसा चान्तरा सत्या, वर्तते ज्ञानयोगिनाम् ॥३३७॥ ज्ञानं सत्यसमाधिश्च, सद्दयैव सतां मता शुद्धोपयोगतः सत्या, वर्तते धर्मिणां दया ॥३३८॥ मनोवाकायगुप्तानां, द्रव्यभावेन सद्दया आत्मनः पूर्णशुद्ध्यर्थ, हेतुभूता प्रवर्तते ॥३३९॥ यावद्धिंसापरीणाम-स्तावद्दयाविचारणा हिंसावृत्तिदयावृत्त्योः, शुद्धाऽऽत्मा हि पृथग्भवेत् ॥३४०॥ हिंसावृत्तेः क्षयार्थ हि, दयावृत्तेः प्रयोजनम् शुद्धोपयोगिनो द्वाभ्यां, स्वं जानन्ति पृथक् ततः ॥३४१॥ कृतकृत्याश्च सर्वज्ञा, दयाचारप्रपालकाः बोधयन्ति दयाधर्म, तस्माद्दयां समाचर ॥३४२॥ सहयैव मनः स्वर्गः क्रूरत्वं श्वभ्रमेवच स्वर्गश्वभ्रंपरिज्ञाय-दयाकर्म कुरुष्व भोः॥३४३॥ गोमहीष्यादिरक्षार्थ, विश्वस्थसर्वमानवैः कर्तव्यस्वार्पणंपूर्ण, वित्तदेहादिभिर्भृशम् ॥३४॥
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मांसाहारेण देहस्य, पुष्टिं जानन्ति केचन मांसं भुञ्जन्ति पश्वादे-निर्दया हिंसका जनाः ॥ ३४५ || मांसाहारेण लोकानां दीर्घायुर्नैव जायते नश्यति सात्त्विकीबुद्धि-देहाऽऽरोग्यं न तात्विकम् ॥ ३४६ ॥ तामसवृत्तिदोषाः स्यु- मंसिरक्तादिभोजिनाम् अतिकामादिदोषैश्च, पापराशिपरम्परा ॥३४७॥ मांसाहारिमनुष्याणां देहपुष्टिर्न तात्विकी फलान्नदुग्धभोक्तृणां, दीर्घायुः सात्विकी मतिः ॥ ३४८ ॥ मांसमद्यादिभोगेन, धर्मबुद्धिः प्रणश्यति
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बहुरोगाः प्रजायन्ते, भवन्ति दुर्गुणा भृशम् ॥ ३४९ ॥ जिव्हास्वादस्य लाम्पट्याद्, देहपुष्टिप्रमोहतः मांसं भुञ्जन्ति ते पाप-कर्म बध्नन्ति दुःखदम् ॥ ३५० ॥ किञ्चित्सुखं महापापं पश्वादिमांसभोजिनाम् इतिविज्ञाय मांसस्य, त्यागं कुर्वन्तु मानवाः ॥ ३५१ ॥ पश्वादिहिंसनाल्लोका, विरमन्तु दयापराः प्रेमतः स्वाऽऽत्मवज्जीवान्, रक्षन्तु धर्मिमानवाः ॥३५२ || शुद्धोपयोग एवास्ति, चाऽहिंसासंयमस्तथा ज्ञानंध्यानमहिंसैव, भक्तिसेवाऽस्ति चान्तरा ॥ ३५३ ॥ आत्मनः शुद्धभावेन, ह्यहिंसा वस्तुतो भवेत् आत्मोपयोगसामर्थ्या- उज्ञानी निर्हिसको ध्रुवम् ॥ ३५४ ॥
यज्ञार्थपशवः सृष्टा - इतिमिथ्याप्रलापनम् दयाब्धिरीश्वरः प्रोक्तः, स हिंसां नैव भाषते ॥ ३५५॥ पशुपक्ष्यादिकं सृष्टं नृणां भक्षणहेतवे
प्रभुणेति प्रभाषन्ते, हिंस्वा अनार्यपापिनः ॥ ३५६ ॥
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दयालुरीश्वरोज्ञेयः समः सर्वत्र देहिषु विश्वजीवयिता नैवं ब्रूयाहिंसायचो यतः || ३५७॥ सद्यज्ञा भक्तिसेवाद्याः, पशुहिंसाविवर्जिताः गवादिपशुलोकानां, रक्षैव यज्ञमर्म वै ॥ ३५८ ॥ सहेवगुरु साधूनां पूजाऽन्नपानकर्मभिः
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क्षुधार्तानां तृषार्तानां सेवायज्ञः प्रकीर्तितः ॥ ३५९ ॥ ज्ञानंतपोद मोदानं, यज्ञाश्च बहुधा मताः सद्दयां प्रतिगच्छन्ति, सत्ययज्ञाः स्वभावतः ॥ ३६० ॥ सर्वविश्वस्थ लोकानां हितार्थ याः प्रवृत्तयः शुभायज्ञाश्च शुद्धा हि, शुद्धोपयोगवृत्तयः ॥ ३६१ ॥ आत्मवत्सर्वजीवानां, हिंसा दुःखप्रदायिनी आत्मवत्सर्वजीवानां, दया शान्तिप्रदायिनी ॥३६२॥
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आत्मवत्सर्वजीवानां जीवनेच्छा प्रवर्तते
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स्वाऽऽत्मनो मृत्युवद्भीतिः, सर्वेषां भीतिरुद्भवेत् ३६३॥ यथा मम प्रियो देह-स्तथा सर्वा ऽत्मनां खलु ज्ञात्वैवं सर्वजीवानां यथायोग्यं दयां कुरु || ३६४|| पशून् हत्वा च ये यज्ञे, ब्रुवन्ति पशवो दिवम् गच्छन्त्येवंमहामिथ्या - वादका मोहबुद्धयः ॥ ३६५॥ यज्ञहोमेन यैःस्वर्ग, नीयन्ते पशवश्चतेः
हुत्वा पुत्रादिकं स्वीयं, स्वर्गन गमयन्तिकिम् ॥ ३६६ ॥ अयोग्यलग्नकर्माद्यं, मिध्याऽधर्म्य कुरोतयः अधर्म्यमैथुनं हिंसा, देहवीर्यस्य दुर्व्ययः ॥ ३६७॥
वैद्यकशास्त्राद्यद्, विरुद्धमतिमैथुनम् स्वाऽन्यघाताच रोगात्त-डिंसेव ज्ञानिसम्मतम् ॥ ३६८ ॥
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मनोवाकायहिंसादि,-कारकं कर्म यच्च तत् हिंसा ज्ञात्वैव तत्त्याज्यं, सर्वखण्डस्थमानवैः ॥३६९॥ अधर्म्यकामदोषादि-वृद्धि कृत्कर्म यद्भवेत् तत्तु हिंसां प्रविज्ञाय, त्यजन्तु सहयालवः ॥३७०॥ कन्याविक्रयतो हिंसा, वरविक्रयतस्तथा आत्महत्या महाहिंसा, सत्यज्ञानं दयाकरम् ॥३७१॥ हिंसा बन्धाय विज्ञेया, चाऽहिंसा स्वाऽऽत्ममुक्तये हिंसा दुःखाय विज्ञेया, चाऽऽत्मानन्दाय सद्दया ॥३७२॥ दयादानादितः पुण्य-कर्मबन्धो भवेत्खलु पुण्याद् धर्मस्य सामग्री, प्राप्यते पुण्यकर्मभिः ॥३७३॥ शुद्धवायुर्जलं शुद्ध, स्थानं सात्त्विकभोजनम् योग्याहारो विहारश्च, दुष्टव्यसनवर्जनम् ॥३७४॥ प्रकाशो मृत्तिका शुद्धा, भोजनं फलदुग्धयोः देहवीर्यस्य संरक्षा, दीर्घायुहेतवः स्मृताः ॥३७॥ ज्ञात्वैवं धर्मिभिश्चाधि-व्याधिवर्जनहेतवे दयावद्भिर्जगल्लोकाः कतैव्या दीर्घजीविनः ॥३७६॥ स्वाऽऽत्मदया प्रकर्तव्या, दयावद्भिविवेकतः मद्यमादकपेयादि-त्यागेनभव्यमानवैः ॥३७७॥ दीर्घायुः साधनं सर्व, दयैव धर्महेतवे विज्ञायैवं च संसाध्य; दीर्घायुर्जीवने निजम् !!३७८॥ स्वस्य धर्मस्य मोहेन, चाऽशुभमन्यधर्मिणाम् चिन्तितं च कृतं तद्धि, निन्दामि सत्यभावतः ॥३७९॥ स्वाऽन्यव्याधिविनाशाय, स्वाऽन्याधिनाशहेतवे स्वान्योपाधिनिवृत्त्यर्थ, यत्कर्म तद्दया भृशम् ॥३८०॥
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निरुपाधिदशावाँश्च, व्याध्याधिवजितो नरः दीर्घायुष्मान भवत्येव, शुद्धब्रह्माऽधिकारवान् ॥३८॥ आजन्मब्रह्मचर्येण, दीर्घायुर्धारको भवेत् मद्यमांसपरित्यागाद्, दीर्घजीवी भवेन्नरः ॥३८२॥ मनोवाकाययोगानां, दीर्घजीवनहेतवः ते दयार्थ प्रविज्ञाय, दया साध्या दयालुभिः ॥३८३॥ वित्तदेहादिभोगेन, दयाधमैकतत्परैः व्याख्यानादिप्रयन्धेन. यतितव्यं विवेकतः ॥३८४॥ पश्चात्तापादिभावेन, प्रायश्चित्तेन मानवाः हिंसादिपापतः शुद्धा, भवन्ति च दयोद्यताः ॥३८५॥ पक्षपातादिमोहेन, देशनीत्यादिरीतयः मनुष्यैः कल्पितास्तत्र, हिंसादिदोषसंभवः ॥३८॥ क्षुत्तृड्रोगादियुक्तानां, दु:खिनो दुःखनाशने अर्पिता वाङ्मन कायै-देवास्ते देहधारिणः ॥३८७॥ बाह्याऽभ्यन्तरदुःखाना, नाशाय सर्वदेहिनाम् द्रव्यभावदयाथैर्ये, प्रवृत्ता स्तेसुरोत्तमाः ॥३८८॥ कारुण्यभावनाचार-र्जीवन्ति जीविनो हि ते हिंसाचारविचारयें, जीवन्ति ते मृताः खलु ॥३८९॥ दयाद्यर्थ मनो वाणी, काया वित्तं च यस्य ते जीवन्तु देवरूपास्ते, विश्ववत्सलसज्जनाः ॥३९०॥ यदायदा हि विश्वस्मिन् , भृशं हिंसा प्रजायते तदातदा प्रजायन्ते, दयावन्तो जिनादयः ॥३९१॥ हिंसादिपापनाशार्थ-महिंसादिप्रवृदये मोहारिशक्तिनाशाय, प्रभवंति जिनेश्वराः ॥३९२॥
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૧૦૨ यदा यदा दयाद्यानां, प्राबल्यं क्षीयते तदा खण्डदेशे च जायन्ते, महासन्तो दयालवः ॥३९॥ युगमुख्या:प्रजायन्ते, सूरयो धर्मधारिणः आत्मसामर्थ्यतो विश्व-दयासत्यप्रचारिणः ॥३९४॥ येषां चित्ते दया नास्ति, दुःखिनामवलोकनात् जीवन्तो राक्षसा ज्ञेया, अशुभा जीविनोऽपि ते ॥३९५॥ दुःखिनो देहिनो दृष्ट्वा, तदुःखनाशनोद्यताः जीवन्तस्ते शुभा ज्ञेया-देवा देहावतारिणः ॥३९६॥ वीतरागमनुष्यहि-दया सत्या प्रकाश्यते सम्यज्ज्ञानेन कर्त्तव्य-महिंसाकर्म मानवैः ॥३९७॥ नाऽस्ति हिंसासमं पापं, नाऽस्तिधर्मो दयासमः नाऽस्ति ज्ञानसमं दानं, तपो नास्ति क्षमासमम् ॥३९८॥ धृत्वा मनुष्यजन्माऽपि, दयाधर्मों न धारितः हारितं जन्म तेनैव, ज्ञात्वा दयां समाचर ॥३९९॥ दयोपदेशं विज्ञाय, यथाशक्ति दयां कुरु कुरुष्व मा प्रमाद भोः, जागृहि हृदि सत्त्वरम् ॥४००॥ दुर्लभं दशदृष्टान्तै- जन्म सर्वजन्मसु . संप्राप्य जीव मा मुख, दयाधर्म समाचर ॥४०१॥ दयाचारविचारेण, सवैविश्वंदयामयम् सन्तु परोपकारार्थ, विश्वलोकप्रवृत्तयः ॥४०२॥ हिंसाचारविचाराश्चि, नश्यन्तु सर्वविश्वतः अस्तु शान्तिमयं विश्वं, प्रभवन्तु दयालवः ॥४०३॥ राजानो मन्त्रिणः श्रेष्ठाः, सन्तु वीरा दयालवः सर्वविश्वस्यशान्त्यर्थ, दयाधर्मः प्रवर्धताम् ॥४०४॥
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૧૦૩ शुद्धप्रेम्णा दयावृद्धि-हिंसानाशश्च जायते वैरनाशोऽस्ति सत्प्रीत्या, मैत्र्या च स्वाऽऽत्मवज्जगत्।४०५॥ सत्यं जानीत भोलोकाः, सत्ये धर्माः प्रतिष्ठिताः सत्याज्ञया प्रवर्तन्ते, ते यान्ति सद्गतिं ध्रुवम् ॥४०६॥ सत्याज्ञया प्रवर्तध्वं, राग द्वेषं विहाय च सत्यनिष्ठा जनाः कर्म-क्षयं कुर्वन्ति सत्वरम् ॥४०७॥ सत्यमेव प्रभोराज्ञा, सत्याहया प्रवर्धते मनोवाकाययोगेन-हिंसां त्यजन्तु मानवाः ॥४०८॥ सत्यं पश्य प्रियं पश्य, सत्यं पथ्यं समाचर , सत्यं ब्रूहि च सर्वेषां, सत्यं शुभं प्रियं कुरु ॥४०९॥ आत्मनः सर्वशक्तीनां, प्रादुर्भावं कुरुष्व भोः आत्मन्येव सुखसत्यं, वाह्यभोगेषु मामुहः ॥४१०॥ सर्वविश्वस्थजीवानां, सुखार्थ यच्च तत्कुरु .. दुःखं नेष्टं सुखं जीवा, इच्छन्त्यतः सुखं कुरु ॥४११॥ आत्मानन्दस्य सम्प्राप्ति-दयाद्यैः सात्विकैर्गुणैः अतोदयादिभिःसाध्य-आत्मानन्दो निजाऽऽत्मनि ॥४१२॥ मोक्षमूलं यां ज्ञात्वा, देहिनां त्वं दयां कुरु दयैव सत्पभोदृष्टि-दयायां सर्वशक्तयः॥४१३॥ दयां विना प्रभुरे, नास्ति धर्मों दयां विना दयामयः प्रभोधर्मः, प्रभोर्वाणी दयामयी ॥४१४॥ सइयायां तपासेवा-भक्तियोगादिकर्मणाम् समावेशो भवत्येव, सहयां त्वं समाचर ॥४१५॥ रक्षिते हि दयाधर्मे, धर्मो रक्षति रक्षकान् : स्वान्यजीवप्ररक्षाथै, दयाधर्म समाचर ॥४१६॥ दयाया भावना याया, आत्मोत्थिता यदा यदा .. तदा ताः काव्यरूपेण, संलिखिता मया शुभाः॥४१७॥
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૧૦૪ अनुक्रमो न पद्यानां, दयाग्रन्थे कृतो मया पुनर्दोषो न पद्येषु, सद्दया परिणामतः ॥४१८॥ मनोवाकायतो हिंसा, कृता कारापिता मया मिथ्या भवतु तत्सर्वा, दयाग्रन्थे कृते सति ॥४१९॥ मोहेन यद्यपर्यन्तं, हिंसाकर्म कृतं मया हिंसादिपापनाशोऽस्तु, कृतग्रन्थफलेन च ॥४२०॥ शरयुग्माऽधिकैः पद्यै-श्चतुः शतैर्दयाकरः दयाग्रन्थः कृतोविश्व-लोकानां शान्तिकारकः ॥४२१॥ श्वबालस्य कृता पीडा, मया तत्पापशुद्धये प्रायश्चित्तं कृतं पूर्ण, दयाग्रन्थे कृते शुभे ॥४२२॥ अहिंसाधर्मसबुड्या, दयाग्रन्थे कृते सति विश्वस्मिन्सर्वलोकेषु, दयाबुद्धिः प्रवर्धताम् ॥४२३॥ सर्वविश्वस्थलोकानां, दयाचारविवृद्धये दयया विश्वशान्त्यर्थे, दयाग्रन्थः प्रकाशताम् ॥४२४॥ खसिडिग्रहचन्द्राङ्क (१९८०) मिते वैक्रमवत्सरे मार्गशुक्ल द्वितीयायां, रवी हि शुभभावतः ॥४२५॥ कृतः पूर्णों दयाग्रन्था, बुद्धिसागरसूरिणा, मया च तद्दिने प्रीत्या, घंटाकर्णस्य मन्दिरे ॥४२६॥ घंटाकर्णस्य वीरस्य, प्रतिष्ठा च कृता मया मधुपुयाँ (महुडी) स्थितिं कृत्वा, बुद्धिसागरसूरिणा।।४२७॥ शमोऽस्तु सर्वविश्वस्य, दयाधर्मस्य सबलात् शान्तिस्तुष्टिश्च दृष्टिश्च, भवन्तु सर्वदेहिनाम् ॥४२८॥ ॐ अहंश्रीमहावीरः, सर्वज्ञः परमेश्वरः यासत्यप्रचारेण, कुर्या द्विश्वस्य मङ्गलम् ॥४२९॥
ॐ अहमहावीर शान्तिः३
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श्रेणिक सुबोधग्रन्थः
सर्वज्ञ हेबीर सदा जय त्वं, धीरः परेशो जगदीश्वरोऽसि । गुणास्त्वदीया भगवन्नपारा, कृत्वा कृपां तारय मां दयालो ॥ १ ॥ सत्योपदेशं कुरु नाथ मां, विनिश्चयाद्वा व्यवहारनीतेः । श्रीश्रेणिको भारतदेशराजो
प्रार्थये नाथ निजाऽऽत्मराज्यम् ॥ २ ॥ त्वय्यस्ति विश्वास उदारको मे, प्रकाशय स्वं खलु सर्वसत्यम् । न त्वत्समः कोऽपि जगत्सु देवस्त्वद्भक्तिसेवामनुकामयेऽहम् ॥ ३ ॥
निशामय श्रेणिक सत्यभूप, त्वमाssत्मरूपं ननु विद्धि विद्धि । आत्मावबोधाद्भवति स्वमुक्तिः, किञ्चिदुः भवेद्भूमिषु नापरोक्षम् ॥ ४ ॥ निजाऽऽत्मशक्तिः परमास्त्यपाराऽस्त्यनन्त सत्याश्रय एष आत्मा । जानाति यो ब्रह्म स वेत्ति सर्व, गर्यो न दुःखं न भवेच्च तस्मात् ॥ ५ ॥
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૧૦૬
विश्वास आत्मन्युदितोऽस्ति यस्य, स जैनभक्तो मम निश्वयेन । अस्त्याssत्मनि सत्यसुखं विशार्क, सर्वं हि दुःखं जडमोहतोऽस्ति ॥ ३ ॥ स्वर्गों मनो यद्वशमाऽऽत्मनोऽस्ति मुक्तिर्भवेदाऽऽत्मवशं मनश्चेत् । मृते मनस्यस्ति समग्रमुक्तिमनोजयत्वेन भवेद्विमुक्तिः ॥ ७ ॥ यावद्भवेच्चञ्चलता स्वचित्ते, संसारमध्ये भ्रमणं च तावत् ।
रागाद्यधीनं च यतोऽस्ति चितं, स्वप्नेऽपि नो तत्र सुखोद्भवः स्यात् ॥ ८ ॥
समग्र विश्वस्य भवेदधीश, स्तथाऽपि शान्तिं लभते न किंचित् । मनुष्य आशानुचरोऽस्तियाबत्सुखी न तावत्स विनिश्वयेन ॥ ९ ॥ जिगाय चित्तं स जिगाय विश्व दुःखंतु चेतोजयमन्तरा स्यात् । मनोवशः कोऽपि भवेन्मनुष्योजगत्सु शान्ति लभते न कांचित् ॥ १० ॥ मोहस्य यावद्वशमस्ति चित्तं, शक्रादयःस्युः सुखिनो न तावत् ।
तमोरजःसत्वगुणाश्रयः स्यातावज्जिनः स्यान्नच कोऽपि जीवः ॥ ११ ॥
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૧૦૭ भवन्ति कमप्रकृतेर्वशा ये, ब्रह्मादयस्तेऽपि पराश्रयास्युः। त्वं भव्यमाऽऽत्मानमतो लभस्व, धर्मस्य सत्कर्म कुरुष्व तस्मात् ॥ १२ ॥ मोहेन न परतन्त्रता स्याचतुर्गतिवाशु जना ब्रजन्ति । इन्द्रादयस्ते परवन्त एव, न मानसाः कर्मवशाः स्वतन्त्राः ॥ १३ ॥ न ज्ञापसे मोहत इष्टसत्यंदुःखी भवेन्मोहवशो मनुष्यः। पश्यन्ति नो मूढजनाश्च देवं, न चित्तमोहं परिवर्जयन्ति ॥ १४ ॥ तस्माद श्रेणिकराज लब्ध्वा, ज्ञानं पर मानय चाऽऽत्मधर्मम् । भ्रान्तिविनश्येत्परमाऽऽत्मबोधाद्, वर्तेत सोल्य निरुपाधिशान्तिः ॥ १५ ॥ जडेषु गो रक्ष ममत्वलेश, दिवावि धूहि मुखेन सत्यम् । कदापि स्या जडमोहमुग्धस्तस्माऽसौ भविताऽऽत्ममुक्तिः ॥ १६ ॥ विनमा पुद्गलपर्यवास्ते, स्वीया भविष्यन्ति न ते कदाचित् । दूरं ममत्वं कुरु पुद्गलानां, निवारप त्वं जडभोगबुद्धिम् ॥ १७ ॥
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૧૦૮
पृथक् चल त्वं व्यवहारनीत्या, निर्लेपतश्चाऽऽत्मनि मोदमानः। प्रवर्तते स्वाऽऽत्मनि सर्वधर्मोनिर्लेपतः कर्म कुरुष्व सर्वम् ॥ १४ ॥ विनाऽऽत्मना नास्ति जडेन शान्तिमिथ्याभ्रमं वारय सर्वमेतम् । न त्वं प्रमादी जडपर्यवे स्यागर्वी नवा स्या धनसत्तया त्वम् ॥ १९॥ सम्बन्धिनो ये स्वजनाश्च वर्गानरास्त्रियः पश्यसि यांन्स्त्वमित्यम् । पर्यायतस्ते परिवर्तमानामुह्यन्ति नो ज्ञानिजनाश्च तत्र ॥ २० ॥ त्वमाशु हे श्रेणिक चेत चेत, कालःस्ववेगं शिरसि प्रदत्ते । कालोऽपि नाऽऽत्मानमहो भुनक्ति, स्यादाऽत्ममोदेन सुखं यथार्थम् ॥ २१ ॥ आत्मा स एवास्ति जिनः पराऽऽत्मा, दीनं निजं मानय मा कदाचित् । आत्मा त्रिलोकस्य परेश्वरोऽस्ति, स्वान्ते परेशं प्रविलोकय त्वम् ।। २२ ॥ स्याद् द्वेषरागप्रशमेन बुद्धः शुद्धो भवेत्सत्यमय निजाऽऽत्मा । विनाऽऽत्मना न त्वमसि द्वितीयः प्रेम्णेतिवाक्यं मम मानय त्वम् ॥ २३॥
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૧૦૯
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स्याद्वेषरागप्रशमो यथाऽत्र, तथाऽऽत्मबोधः समुदेति दिव्यः । आत्मस्वरूपे सुखमस्ति नूनं,
सर्वत्र जीवेषु दया भवेच्च ॥ २४ ॥ नश्येत्कषायो खलु यद्यदंशैः । साम्यं भवेदाऽऽत्मनि तत्तदंशैः, सत्त्वादिसर्वप्रकृतो गतायामाऽऽत्मा स्वयं स्यादपवर्गपात्रम् ॥ २५ ॥ उदेति साम्यं हृदि यद्यदंश, स्तर्दशतश्चोपशमोऽपि तत्र । स्वकर्मणां क्षायिकभाव इष्टे, मुक्तिर्भवेदाऽऽत्मनि चित्स्वरूपा ॥ २६ ॥
स्याबाह्यदृष्ट्या खलु कर्मबन्धः स्यादाऽऽत्मदृष्ट्या तु निजाssत्मधर्मः ।
स्यादाऽऽत्मदृष्ट्या न च कर्म किञ्चिदाऽऽत्माऽऽत्मदृष्ट्या प्रविलोक्यमानः ॥ २७ ॥
स्वप्नस्य जाग्रत्सु यथा विनाशस्तथाऽऽत्मबोधेषु च मोहनाशः । यत्राssत्मदृष्टि र्न ततोऽस्ति मोहो, जीवन्विमुक्तोहृदयेऽस्ति वित्तिः ॥ २८ ॥ निजाssत्मना श्रेणिक जागृहि त्वं, जाग्रत्सु सौभाग्य मथास्ति सर्वम् । त्वमाssत्मनोत्तिष्ठ विधूय निद्रां, मामुह्य चित्तेषु लभस्व सौख्यम् ॥ २९ ॥
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राज्यं तु शुद्धाऽऽत्मनि सत्यमस्ति, त्वं सर्वनीत्या कुरु सर्वकार्यम् । मा रक्षय त्वं परमाणुकांक्षां, स्वस्वादयाssत्मानुभवस्य सौख्यम् ॥ ३० ॥
त्वं,
उद्धारयाऽऽत्मानमिहाऽऽत्मना रागं कुरु स्वाऽऽत्मनि पूर्ण पूर्णम् । अहंत्ववृस्याऽस्ति तु कर्मबन्धोनिमहतः स्यादविनाश आत्मा ॥ ३१ ॥ कालत्रयेऽप्यस्ति स नित्य आत्मा, tarss मा चिदानन्दमयः पवित्रः । एवं त्वमाऽऽत्मानमवेहि बन्धो, स्वतःस्वमुद्धारय भारतेश ॥ ३२ ॥ पूर्णश्चिदानन्दमयः पवित्रो, देहोऽस्त्यनित्यः खलु वस्त्रतुल्यः ।
स्वकर्मरूपं नच पश्य भृप, भ्रान्त्या च कर्मादिकमत्र पश्य ॥ ३३ ॥ भ्रान्तौ गतायां स्वयमस्त्यबन्धः कर्मादिकानां न भवेच्च बन्धः ।
मोहो महीयान् खलु कर्ममूलं, सान्तो गतायां न भवेद्भ्रमश्च ॥ ३४ ॥ मोहे विनष्टे खलु शुद्धआत्मा, बुडोजिनोऽर्हन्प्रभुरस्ति साक्षात् । लिङ्गं न जातिर्भवदाऽऽत्मनोऽस्ति, सर्वस्य विश्वस्य परेश्वरोऽस्ति ॥ ३५ ॥
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૧૧૧
कीर्त्यादिसर्व च शुभाशुभं यस्वमोपमं तत्र भवेन्न गर्वः ।
आरोप एष प्रकृतेहिं सर्वः, सर्व तु तद्विद्धि निजाऽऽत्मभिन्नम् ॥ ३६ ॥
हृत्कल्पितो यो व्यवहार एष, ततमाssत्मधर्मे न च विद्धि सारम् ।
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चित्तस्य भावा हि शुभाशुभाख्याभिन्नस्वभावो हि ततोऽयमात्मा ॥ ३७ ॥ यच्चेतसारोपितमस्त्य सत्यं, न ज्ञानिनस्तत्र रुदन्ति किञ्चित् । ये कल्पिते दुःखसुखे मनोभिस्ते ज्ञानिनो नाम विदन्ति मिथ्या ॥ ३८ ॥ शुद्धाऽऽत्मका ज्ञानिजना भवन्ति, त्वमाऽऽत्मनः श्रेणिक विद्धि नीतिम् । ये द्वेषरागादिविकल्पकास्तान्, जानीहि संसारनिदानभूतान् ।। ३९ ।। द्वेषस्य रागस्य च बुद्धिभिन्नं, त्वं ज्ञानिनं विद्धि जिनं नरेन्द्र ।
स्याद्वेषरागत्यजनेन सौख्यं, तौचेद्भवेतां न ततोऽस्ति सौख्यम् ॥ ४० ॥ ये रागिणो द्वेषिजनाश्च जीवाः, शक्रादयश्चाऽपि तु पामरा हि । रागोऽस्ति कश्चिन्नच शुद्धरूपे, त्यागो न कश्चिन्निजशुद्धधर्मे ॥ ४१ ॥
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११२
विहाय विद्वेषमनन्यबुद्ध्या, सदाऽनुकूलां समतां भजस्व । तेनैव ते शुद्धमति भवित्री, ततोऽचिरादात्मसुखाऽनुभावः ॥४२॥ शुद्धोभवेद्यत्रनिजाऽऽत्मधर्मोततादयस्तत्र लयं प्रयान्ति । रागोऽस्ति कश्चिन्न निजाऽत्मरूपे, त्यागोऽस्तिकश्चिन्ननिजाऽऽत्मधर्मे ॥ ४३ ॥ त्यागं च वैराग्यमथानुरागं, चित्तोत्थितं वीक्ष्य च जागृहि त्वम् । मनोमृतौ नश्यति चित्तधर्मोंनिजाऽऽत्मरूपं तु विभाति नित्यम् ॥ ४४ ॥ व्रतादितश्चास्ति तु भिन्न आत्मा, निमित्तधर्मोऽपि ततोऽस्ति भिन्नः । आत्माऽस्त्यरूपी सच चिद्घनश्च, वर्णादयः सन्ति न तस्य रूपम् ॥ ४५ ॥ जडेष्वहंभाव उदेति यावत्तावन्न पूर्णा समुदेति शान्तिः । जडेष्वहंभाव उदेति नो चेत्तदा स आत्मा प्रविभाति मुक्तः ॥ ४६॥ अहंक्रियातो भवति भ्रमश्च, ज्ञेयश्चधो निरहं क्रियातः। जडेषु कोप्यस्ति न चाऽऽत्मधर्मी, दुःखं लयं याति निजाऽऽत्मबोधात् ॥४७॥
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११३
पुण्यात्सुखं दुःखमथोऽस्ति पापाते पुण्यपापे सह चेतसा स्तः । भिन्नं ततश्चाऽऽत्मिकसौख्यमस्ति, तस्मिन्भव श्रेणिकराज लीनः ॥४८॥ पञ्चेन्द्रियाणां च यतोऽस्ति भोगः, स्वज्ञानिनां तत्र भवेदभोगः। जीवेष्वनासक्तितएव भोगाद्, भवेदबन्धो नच लिस आत्मा ॥ ४९ ॥ चेन्मृत्तिका खादति पंचवर्णी, तथापि शङ्खो धवलो हि दृष्टः । कर्मोदयै गचयं च भुञ्जन् , ज्ञानी स्वयं वर्तत आत्मयोगात् ॥ ५० ॥ स्यात्कर्मणां नाशनमाऽऽत्मबोधाज्जडा जडत्वैः परिणामवन्तः । आत्मस्वभावेन भवेनिजात्मा, कदाचिदासक्तिमृते न बन्धः॥५१॥ जलेषु यद्वत्तरकास्तरन्ति, भोगोदधौ ज्ञानिजनास्तरन्ति । स्यात्पूर्वकर्मोदयतश्चभोगस्ततो मिलेत्तादृश एव योगः ॥५२॥ व्यापारतश्चैव यथा विषाणां, लोका म्रियन्ते न तथा च विद्वान् । भोगाँश्च भुञ्जन्नपि लेपशून्यः कदाधिदासक्तिमृते न बन्धः ॥ ५३ ॥
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૧૧૪
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अस्त्याssस्मबोधस्य विशालशक्तिः कर्माणि तिष्ठन्ति न चैतदग्रम् ।
दुःखे सुखे चापि विभाति साम्यं, न भोगराशिः समुदेति तत्र ॥ ५४ ॥ कदानिजाऽत्माभिमुखं मनःस्यातदा न भोगुषु रसग्रहः स्यात् । यतो निजाssत्मा परिणामशुद्धः प्रवेद्यते तत्र च पूर्णबुद्धः ॥ ५५ ॥ न मुच्यते ज्ञानिजनस्य भोगो, जन्मान्तरोपार्जितकर्मयोगात् । तथापि भोगेषु न रागरोषौ, स्यातामबन्धश्च पुनस्तदाऽऽत्मा ॥ ५६ ॥ साक्षीन्द्रियेष्वस्ति मनस्सु चाऽऽत्मा, प्रवर्तते स्वे विषये स साक्षी ।
कुर्यात्समग्र तु सलक्ष्यमाऽऽत्मा, प्रवर्ततेऽध्यक्ष मथाऽऽत्ममोदात् ॥ ५७ ॥
अनन्तशक्त्या कर एष आत्मा, वर्तेत निष्काममथोपयोगः । किम्वा भवेन्मोहविषं तदग्रे, ज्ञानी जनश्चेतसि हृष्ट एवं ॥ ५८ ॥ कुर्यात्क्रियां किन्तु न कर्मबन्धोज्ञानिजनो भोग्यपि नैव भोगी । न बध्यते ज्ञानिजनो जडैस्तु, किंस्युर्दिनेशाभिमुखं तमांसि ॥ ५९ ॥
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૧૧૫
ज्ञानी विधातुं सकलं स्वतन्त्रोदीनो विपत्तौ न समागतायाम् । जडक्रिया ज्ञानिपुरो भवेत्कि, क्षमेति सिद्धान्तमवेहि भूप ॥ ६ ॥ सम्यक्त्विनो ये च नराः स्त्रियो वा, ऐतेऽपुनर्बन्धिन एव सन्ति । न सर्पदन्तेषु विषं भवेच्चेद्, विषं चटेनेव तदस्य दंशात् ॥ ६१ ॥ वसेच नासक्तिविषं कदाचिप्रवर्तते ज्ञानिज़नस्य सौख्यम् । कुर्यात्समग्रं न पुनःसमग्रे, स्याज्ज्ञानिनामाऽऽत्मनि चैव दृष्टिः ।। ६२ ॥ वर्णस्य धर्मस्य च कर्म कुर्वभलिप्यते ज्ञानरहस्यमेतत् । प्रवर्ततेऽसौ च निजाऽधिकारे, कुर्याक्रियाः किन्तु भवेदकर्मा ॥ ६३ ॥ कुर्याक्रियां स्यादखिलांहितार्थ, यतस्ततःस्यात्सरलं हि चित्तम् । स्याज्ज्ञानिनां क्षेमकृते हि सर्व, भवन्ति दुःखान्यपि धर्मवृड्यै ॥ ६४ ॥ स्याज्ज्ञानिनां सा प्रकृतिः स्वशुड्यै, आत्माऽऽत्मनः स्यात्परिणामवाँश्च । बायेषु भोगः प्रकृतेस्तुवक्रस्तथापि चान्तस्सु भवेदवक्रः ॥ ६५ ॥
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ददाति कर्मप्रकृतिः सहाय, पातो भवेद्येन न चोर्ध्वगानाम् । भूत्वा स पश्चाच पुरः प्रयाति, भूत्वैकशुद्धो लभते स्वसिद्धिम् ॥ ६६ ॥ प्रवर्तते ज्ञानिजनो जगत्सु, तथापि कुत्रापि न बध्यतेऽसौ । सम्यग्मते श्रेणिक राजराज, सम्यक् च सर्व तव भारतेश ॥ ६७॥ स्यात्सम्वरः श्रेणिक आस्रवोपि, स्याज्ज्ञानिनां वस्त्वखिलं हि सम्यक् । अस्तीदृशी ज्ञानवतां तु शक्तिश्चित्तेषु नाऽऽसक्तिरदेति यस्याः ॥ ६८ ॥ मिथ्यात्वशास्त्रं प्रभवेच्च यद्यत्सम्यज्ज्ञजीवेषु तदस्ति सम्यक् । मिथ्यात्विनां ग्रन्थचयोऽपि सम्यग, मिथ्यात्वभावं लभते स नूनम् ॥ ६९ ॥ . मिथ्यात्विनो मूढजनाश्च ये स्युः स्यात् सम्वरो प्यास्रवकृद्धि तेषाम् । ये हेतवः सन्ति भवाबिमुक्ती, ते बन्धनार्थ प्रभवन्ति तेषाम् ॥ ७० ॥ विनाऽऽत्मबोधं सकलं हि मिथ्या, रोदो यथा निर्जनकाननेषु । देहस्य चित्तस्य च याः क्रियास्युगुणाय ताः सन्ति निजाऽऽत्मबोधात् ॥ ७१॥
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૧૧૭
यत्कालतः स्याच्चनिजाऽऽत्मबोध, आत्मोपयोगोऽपि ततो हि कालात् ।
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विनाशयेत्कर्मफलं ततो हि, स्यादल्पबन्धो बहुनिर्जराश्च ॥ ७२ ॥ ततो हि काला बहुनिर्जराः स्युः, स्यात्कर्मबन्धः परमल्प एव । सर्वा हि कर्मप्रकृतिः प्रयाति, पूर्णा भवेत्तत्र निजाऽऽत्मशुद्धिः ॥ ७३ ॥ यत्कालतः स्यांश्चनिजाऽऽत्मबोध
स्तत्कालतश्चाऽऽत्मरसस्य पानम् । ज्ञाने च भक्तौ मन आशु मत्तं, भवेत्तनौ सत्यपि मुक्तिसौख्यम् ॥ ७४ ॥ देवोsस्यामात्माय तनुमंदिरे च सेवस्व तं तीर्थशिरोमणिं त्वम् । कुरुष्व हे श्रेणिक कर्म सर्व,
स्याः किन्तु निष्काम इतोऽन्तरे त्वम् ॥ ७६ ॥ कौलेयको लेढि यथास्थिखण्डं, मनोऽपि तद्विषयाँश्च लेढि । मिलेन रक्तं च यथाऽस्थिलेहे भोगे तथाऽसक्तिकरोऽस्ति जीवः ॥ ७६ ॥ पशोर्बलं विद्धि च कामचेष्टां, ततः सदा क्लेशपरम्पराऽस्ति, जीवा भ्रमन्त्येव च काममुग्धादुःखस्य नान्तं मनुजा लभन्ते ॥ ७७ ॥
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૧૧૮ कामादयः सन्ति हि दुःखमूल, भ्रान्त्या न तेषु भ्रम भारतेश। राग विना यत्र भवेच भोगो, नास्त्याऽऽत्मनस्तत्र च कर्मबन्धः ॥ ७८ ॥ कुर्वन्ति निष्कामधिया नरा वा, स्त्रियश्च सर्वव्यवहारमेव । जीवन्विमुक्तः खलु तत्र सत्यं, सर्वक्रिया चेदुपयोगतः स्यात् ॥ ७९ ॥ दयाविलीनं मन आत्मनि स्यादाऽऽत्मा जिनः स्यात्स च वीतरागः। भूते सति स्वाऽऽत्मभवैकताने, भवेद्ध्वं तत्र च मुक्तिमानम् ॥ ८० ॥ स्यु निनां चेतसि सर्वधर्माः, कुर्वन्ति यत्कर्म भवेत्स्वयोग्यम् । यत्कर्म योग्यं खलु यत्र काले, कुर्वन्ति ते योग्यमुपायमेत्य ॥ ८१ ॥ धर्मोऽस्तिसज्ज्ञानिजनान्तिकेषु, शर्माऽस्त्यपि ज्ञानिजनस्य पार्थे । स सर्वकर्माशयमाशु विद्याद्, । बजेन्न पश्चाद् भ्रमितो न च स्यात् ॥ ८२ ॥ भवेत्स्वतंत्रो व्यवहारकार्ये, वाकायचित्तानि वशानि यस्य । चतुर्विधश्चेशजैनसंघः सर्वोन्नति स्वांहि सुखेन विन्ते ॥ ८३ ॥
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૧૧૯
सत्याभिलाषस्य वधं न कुर्यात्कुन्निवा कार्मिकदास्यवार्ताम् । प्राणाँस्त्यजेत्सत्यकृते निजस्य, कृत्वा मदीयं वचनं प्रमाणम् ॥ ८४॥ स्वातंत्र्यतः कर्मगुणौ विधातुं, धरेत्कदाचिन च नाम लज्जाम् । राज्यादि सर्वव्यवहारकार्य, सेवस्व हे भूप निजाधिकारात् ॥ ८५॥ निजाधिकारेण कुरुष्व राज्य, न्यायेन साम्राज्य मुदेतियस्मात् । निजाऽधिकारं न च विस्मर त्वं, जहीहि नो कर्म निजाऽधिकारि ॥ ८६ ॥ निजाऽधिकारे व्यवहारकार्ये, कृते मनः शुद्धिरवश्यमस्ति । प्रवृत्तिधर्म च निवृत्तिधर्म, ज्ञात्वा स्वकर्माणि कुरु क्रमेण ॥ ८७ ॥ प्रवृत्तिधर्माचरणेऽस्ति धर्मोंगृहस्थितानां व्यवहारतोऽस्ति । भ्रष्टो न तस्माद्भव तद्विदित्वा, उदेति तस्मात्खलु धर्मसृष्टिः ।। ८८ ॥ धृत्वोपयोग हृदि बाह्यकर्म, कुरुष्व भूप व्यवहारनीत्या। धर्माश्चरक्ष्या व्यवहारनीत्या, सर्वस्य विश्वस्य च पालनं स्यात् ।। ८९ ॥
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૧૨૭
वहाऽऽत्मनि श्रेणिक चात्मधर्म, परिष्कुरुष्वाऽखिलराज्यनीतीः । दुःखं प्रजानां च निवारय त्वं, प्रजोन्नतिर्यत्र ततो हि धर्मः ॥१०॥ सर्वप्रजाः स्वाऽऽत्मसमाप्रविद्धि, न्यायेन राज्यं गुणवन्कुरुष्व । दुष्टान रिपून्दण्डय भूप राज्ये, दूरीकुरु त्वं दुरुपद्रवॉश्च ।। ९१ ॥ सर्वप्रजानां च कुरुष्व रक्षा, सेवाख्यधर्म वह भूप रागैः । ज्ञानप्रचारं च कुरु प्रजासु, कुरुष्व दुष्टव्यसनाभिघातम् ॥ ९२ ॥ वश्यान्सदाशत्रुजनान्कुरु त्वं, सत्यांनियां ब्रूहि नरेन्द्रवाणीम् । मा धत्स्व राज्यादिकृतां महत्तां, स्वप्नेऽपि नो भूप कुरुष्व गर्वम् ॥ ९३॥ त्वं सर्ववर्णान्स्वसमान वेहि, नवाऽपमानं कुरु सन्मुनीनाम् । नीत्या रहस्यं सकलं विदित्वा, प्रचारय त्वं च मदुक्तनीतिम् ॥ ९४ ॥ स्वप्नेऽपि न त्वं कुरु पक्षपात, लोभादिकं वारय संभवन्तम् । स्मृत्वा च मां गच्छ नरेन्द्र मयां, गुणज्ञ जीवेषु वहानुरागम् ॥ ९५ ॥
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૧૨૧ मोहादनीति न कदापि कुर्या, स्त्वं दु:खिनां भूप ! सहायकः स्याः। कुरु क्रियां सत्यपराक्रमेण, द्रव्येण भावेन कुरुष्व राज्यम् ॥ ९ ॥ समाननीतेम्सकले मनुष्ये, प्रधानतो भाति च जैनराज्यम् । जहीहि देहादिकमत्र लोके, देवाय धर्माय तथा गुरुभ्यः ॥ ९७ ॥ जीवन्ति यस्मात्परमार्थवर्गाधर्माय तस्मै कुरु धयंयुद्धम् । यत्राऽल्पदोषोऽस्ति महाँश्च धर्मोंगुणज्ञ तत्कर्म कुरु स्वमेवम् ॥ १८ ॥ धर्माय सर्व कुरु भूप ! कार्य, सहायतां धनिजनाय देहि.। व्यवस्थया त्वं कुरु भूप ! राज्यं, नेमियोग्यां कुरु कुत्रचित्त्वम् ॥ ९९ ॥ सत्यं दयाभावमथो विधेहि, चोराञ्जनाँश्चापनयाऽतिदूरम् । निवारय त्वं व्यभिचारमाशु, प्रचारय त्वं मुगुणान्यजासु॥१०० ॥ विभाति राज्यं दयया च सत्यैः, साम्राज्यमावि भवति प्रमाणात् । सर्वप्रजासौख्यकृतेऽस्ति राज्य, राज्यादि कार्य च तदर्थमेव ॥ १०१॥
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૧૨૨ सर्वसमानं खलु जैनराज्ये, गुणज्ञ ! चैवं परमार्यराज्यम् । वर्णादिधर्मानपि पाषय त्वमन्यायतो नापिं कुरुष्व रोषम् ॥ १०२॥ सर्वत्र देशे सुखिनो जना ये, ते जैनधम नियतं भजन्ति । भक्तिर्मदीया समुदेति यन्त्र, श्रीमेघवृष्ट्यादि सुख ततोऽस्ति ॥ १०३ ॥ दुष्टा जना यत्र न चापि नीतिरधर्म्ययुद्धैःकलहोऽस्ति तत्र । हिंसाश्च पापानि भवन्ति यत्र, नश्यन्ति ते श्रेणिक राजदेशाः ॥ १०४॥ मद्वाक्यधिक्कार उदेति यत्र, स्युर्दुःखिनस्तत्र नराः स्त्रियश्च । तत्रास्ति शान्तिर्मम यत्र भक्तियोगस्य हार्द समुदेति तत्र ॥ १०५ ॥ श्रीजैनधर्मेण समो न कधित्ततो द्वितीया सकलेऽप्यवस्था, श्रीजैनधोऽस्ति निजाऽऽत्मधर्मस्ततो भवत्येव समग्रशर्म ॥ १०६ ॥ तमोरजोवृत्तिमपाकुरु त्वं, संरक्ष भोः सात्त्विककर्मवृत्तिम् । श्रीजैनधर्मों व्यवहारतोऽयं, सर्वत्र लोकेषु सुखालयोऽयम् ॥ १०७.॥
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૧૨૩ तस्मिंश्चिदानन्दमयः स्वधर्मीमोहादयो यत्र न सम्भवन्ति । शुद्धाऽऽत्मधर्मोऽस्त्ययमेव नूनं, जानीधुपादानत एव मर्म ॥ १०८॥ सर्वस्य संघस्य कुरुष्व सेवां, प्रीत्या चल श्रेणिक राजराज । ज्ञात्वा परेश सकलं स्वसंघ, तत्रैव धर्म सकलं च विद्धि ॥ १०९ ॥ सर्वत्र संघे विहिते च रागे, त्यागश्चसम्यक्त्वमुदेति नूनम् । हृद्वाग्वपुःशक्तिमुदीरय त्वं, निजाऽऽत्मशुद्धि हृदि भावय त्वम् ॥ ११०॥ बाह्याऽन्तरा एत्य समग्रशक्ती, कदाऽपि कुर्या नहि भूप! गर्वम् । निःशक्तिको याकुरतेऽतिगर्व, नरो भवेदाऽऽत्म गुणैश्च दीनः ॥ १११ ॥ हानि च लाभ प्रविचार्य चित्ते, कर्माणि कर्तुं धर निश्चयं त्वम् । आज्ञा मदीयां प्रतिपालय त्वं, भावेन दृश्यः सच शुद्ध आत्मा ॥ ११२ ॥ ममोपदेशाऽऽचरणं कुरुत्व, यस्मात्सदानन्द उदेति पूर्णः। मोहादिकं वारय जायमानं, मनःप्रभृतं हर दोषराशिम् ॥ ११३॥
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૧૧૪
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वश कुरीतिव्यसनस्य माभूः, शक्रादयो मोहवशा हि दीनाः । स्वतन्त्रतायां निजराज्यमस्ति, त्याज्याश्च सर्वे व्यसनस्य दोषाः ॥ ११४ ॥
वर्तस्व चैवं दृढनिश्चयेन, स्वतन्त्रमुक्तेरियमस्ति युक्तिः । आत्मोपयोगेन यतो निजाssत्मा, प्रवर्तते तत्र हि सर्वयोगः ॥ ११५ ॥ प्रवर्तते चात्मवशं मनश्चेत्, सर्वे हि धर्माः सहसोद्भवन्ति । आत्मप्रकाशं वृणु निश्चयेन, सर्वप्रकाशोपरि सुप्रकाशम् ॥ ११६ ॥ सर्व प्रकाशं प्रविकाशयेत्सज्ञानाविलासी सहि शुद्ध आत्मा ।
एवं प्रलभ्यस्तवशुद्ध आत्मा, सर्वात्मशक्तीः प्रविकाशय त्वम् ॥ ११७ ॥ शिक्षां च श्रेणिक ! ! धारय त्वं,
नरावतारं सफलं कुरुष्व । भूपाल शिक्षाभयतो हि नार्यस्तथानरा धर्ममथोद्वहन्ति ॥ ११९ ॥ राजा च शिक्षां कुरुते यदैव, धर्मं वहन्त्याऽऽश्वधमा जनाश्च । प्रभोर्भयैर्मध्यनराः स्त्रियश्ध, धर्म तथा कर्म सदा चरन्ति ॥ ११९ ॥
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૧૨૫ शुभाशुभं कर्म तथा विदित्वा; धर्मक्रियां ज्ञानिजनः करोति । नराः स्त्रियो ज्ञानिन उत्तमाश्च, निजाऽऽत्मधर्म प्रविकाशयन्ति ॥ १२० ॥ स्वपापकर्मत्यजनाय हेतुवैराग्यमस्त्येव च राजनीतिः । धर्मस्य रक्षाभिरुदेति धर्मः स्यार्मिजीवस्य सुखं च शान्तिः ॥ १२१ ॥ अतः स्वधर्मस्य कुरुष्व रक्षामेतत्तु कर्तव्यमहोऽस्ति राज्ञः। यथा यथाज्ञानमुदित चित्ते, बाह्या स्ततोऽल्पा नियमा भवन्ति ॥ १.१२ ।। प्रवर्तते चाऽऽत्मनि मानसंस्वं, बाह्यास्तु शेषा नियमा भवन्ति । सर्वस्य वर्णस्य च शिक्षणार्थ, सङ्केतितं राजपदं पृथिव्याम् ॥ १२३ ॥ त्वं लक्षयित्वा च निजाऽत्मशुद्धि, प्रेम्णा प्रजा रक्ष नरेन्द्र ! ! नीत्या । निशाम्य च श्रेणिकराजराजो, . धन्यं स्वमात्मानममानयत्सः ॥ १२४ ॥ प्रदक्षिणातः प्रणमन्प्रभु च, रोमाश्चपूर्णः प्रवभूव भूपः। धन्यो महावीर जिनेश्वरस्त्वं, सत्योऽस्त्ययं नाम तवोपदेशः ॥ १२५ ॥
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बुद्ध्या विधास्ये सकलं हि कर्म, निर्लेपभावेन च वर्तिताहम् । प्रचारयिष्ये भुवि जैनधर्म, श्रीसंघसेवां च तथा करिष्ये ॥ १२६ ॥ तवाज्ञयाऽहंभुवि वर्तिताऽस्मि, निजावतारं सफलं करिष्ये, तवोपदेशे खलु सर्वधर्माः, सत्कर्म सर्व च तवोपदेशे ॥ २७ ॥ त्वच्छिक्षणे सन्ति समग्रयोगाज्ञानेन नश्यन्ति हि सर्वशोकाः सत्यं हि सम्यक्त्वमहं प्रपेदे, . त्वय्येव विश्वास इतो मदीयः ॥ १२८ ॥ जिनः परब्रह्म जगत्सु देवस्त्वत्सेवनाथ मम निश्चयोऽभूत् । जगत्परब्रह्म जिनेशवीर, तवोदयात्क्लेशगणस्यनाशः ।। १२९॥ जयप्रदं ते शरणं चकार, विश्वाश्रय श्रीप्रभुवद्धमान । त्वमाश्रयस्त्वं च गतिर्मतिमें, प्रेम्णाऽस्ति ते नाथ च"सत्यदृष्टिः॥१३० ॥ नाथोऽस्म्यहं श्रेणिक भारतेशो, गोयाम्यहं त्वां भवभीतिशून्यः । नाम्नास्ति ते मङ्गलमालिकाऽत्र, पदे पदे शक्तिरथो महद्धिः ॥ १३१ ॥
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૧૨૭ सर्वत्र विश्वेषु च शान्तिरस्तु, नराश्च नार्यश्च शुभ लभन्ताम् । अर्हन्महावीरपरप्रकाश, सचिन्मयानन्दमयो जिनेशः ॥ १३२॥ शान्ति च तुष्टिंच तथा स्वपुष्टिं, नराश्चनायः सततं लभन्ताम् । श्रोष्यन्ति ये श्रेणिकराजबोधं, ज्ञानी च भक्तो भविता स योद्धा ॥ १२३ ॥ श्रीजैनधर्मों विजयी.जगत्सु, प्रवर्तता वीरविभुजिनेशः। आत्मोनतिमङ्गलमस्तु शर्म, प्रवर्धतां वीरजिनोपदेशः ॥१३४ ॥
इति श्रेणिकसुबोधः समाप्तः
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॥ श्रीकृष्णगीता ॥
एकदा द्वारिकापु, नेमिनाथो जगत्प्रभुः । बासुदेवस्य कृष्णस्य, बोधार्थ समुपागतः ॥ १ ॥ जिनेन्द्रनेमिनाथेन, महाधोरर्षिणा स्यात् । आत्मादितत्वबोधेन, वासुदेवः प्रबोधितः ॥ १ ॥ अन्तरात्मा तदा जातो- नेमिनाथस्य भक्तराट् । वासुदेवेन सम्यक्त्वं, स्वीकृतं तत्त्वबोधतः ॥ ३५ श्रीकृष्णवासुदेवेन नेमिनाथस्य शिक्षया । जैनधर्मप्रचाराय हिंसायज्ञा निवारिताः ॥ ४ ॥ भारते जैनधर्मस्य, प्रचारः प्रेमतः कृतः । पडवानां सता मग्रे, युद्धकाले विवेकतः ॥ ५ उपदेशप्रदानस्य, प्रवृत्ति वचया कृता । ज्ञानेव तस्य सत्सारं, भाषे लोकहिताय ततः ॥ ६ ॥ अरिष्टनेमिनाथेन, जैनधर्मः प्रकाशितः । विश्वोद्धाराय सम्पूर्ण, सत्यं तत्र प्रवर्तते ॥ ७ ॥ व्यापकोsस्त्यात्मरूपश्च, जैनधर्मः सनातनः । तबुदाराय तीर्थेशा-जायन्ते च युगे युगे ॥ ८ ॥ ब्रह्मचर्य तपो दानं, भावना शम उच्यते । दशधा जैनधर्मास्ति, पञ्चधा च द्विधा शुभः ॥ ९ ॥ गृहस्थत्यागधर्म, द्विधा धर्मो जगत्तले ॥ स्वाधिकारेण संसेव्यः स्वर्गसि डिप्रदायकः ॥ १० ॥
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१० देवपूजा गुरोः पूजा, धर्मस्याराधनं तथा। वैयावृत्यं सुसाधूनां, मोक्षमार्गों मनीषिणाम् ॥११॥ स्वाधिकारेण कर्तव्यं, कर्म भव्यैः स्वशक्तितः । निरासक्तितया कर्म-विधाने नैव दूषणम् ॥ १२ ॥ अन्तराऽऽत्मगृहस्थानां, कर्मवन्धो न जायते । सम्यग्दृष्टितया कर्म-नाशो भवति सर्वथा ॥ १३ ॥ प्रवृत्तिनैव बन्धाय, सम्यग्दृष्टिमनीषिणाम् आस्रवस्यापि यो हेतुः, संवरायैव जायते ॥ १४ ॥ निरासत्त्या भवेन्नैव, कर्मबन्धोऽन्तराऽऽत्मनाम् ॥ आसक्तिः कर्मबन्धाय. जायते सर्वमोहिनाम् ॥ १५ ॥ धर्मयुद्धादिकर्माणि, कर्तव्यानि मनीषिभिः। कर्तव्यकर्मणां त्यागान् , निपातः सर्वदेहिनाम् ॥१६॥ सबलं सर्वथा प्राप्यं, देशकालप्रयुक्तिभिः । मौयं कदापि नो सेव्यं, ज्ञान प्राप्यं जनैः सदा ॥१७॥ प्रवृत्तावधिकारोऽस्ति, नृणां प्रकृतियोगिनाम् । यद् भाव्यं तद् भवत्येव, निश्चयज्ञानधारिणाम् ॥१८॥ कर्मभ्रष्टा भवेयु न, कर्तव्यकर्मकारिणः। साक्षिभावेन वर्तन्ते, शुभाशुभेषु कर्मसु ॥ १९ ॥ स्वधर्मः श्रेयसे नृणां, स्वाधिकारेण संगतः। अन्यधर्मों न शान्त्यर्थं, जानन्ति ज्ञानयोगिनः ॥२०॥ षडावश्यककर्माणि, कर्तव्यानि जनैः सदा। मातृपूजादिका यज्ञाः पञ्च सेव्याः सुभावतः ॥२१॥ सर्वत्र सर्वजीवानां, रक्षा पुण्येश्वरात् भवेत् । सर्वत्र सर्वजीवानां, दुःखं पापयमाद् भवेत् ॥ २२ ॥
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૧૩૧
कर्मेश्वरोऽस्ति सर्वत्र, सुखदुःखप्रदायकः । तस्येच्छा भाविभावस्य, रूपेणात्र प्रवर्तते ॥ २३ ॥ कर्मेच्छा यादृशी यस्थ, तस्य भवति तादृशम् । कर्मेश्वरसमो देवो, नास्ति विश्वप्रवर्त्तकः ॥ २४ ॥ कर्मणा मनुसारेण, सुखं दुःखं च देहिनाम् । कर्मभिः खलु संसारो, मुक्ति निर्मोहभावतः ॥ २५ ॥ आत्मना भुज्यते कर्म, यत्कृतश्च शुभाशुभम् । अन्तर्मुखोपयोगेन, सर्वकर्मक्षयो भवेत् ॥ २६ ॥ कर्मरूपेश्वराधीनं, सर्वविश्व प्रवर्तते ।
कर्मरूपेश्वराधीना, जीवाः संचारिणो भवे ॥ २७ ॥ रजोवृत्तिसमूहाssत्मा, ब्रह्मैव गीयते भुवि । तमोवृत्तिसमूहाSSत्मा, हर इत्थं प्रकीर्त्यते ॥ २८ ॥ सत्त्ववृत्तिसमूहाssत्मा, विष्णु रेव प्रगीयते । एषाssस्मा देहसंस्थोऽपि ब्रह्मादिनामधारकः ॥ २९ ॥ कर्मवृत्तितो जैन --आत्मा सर्वत्र गीयते । सत्वरजस्तमोवृत्त्या, जैनाssत्मा त्रिविधः स्मृतः ॥३०॥ सात्त्विक प्रकृतिस्वामी, अन्तराऽऽत्मा भवेन्महान् । सत्त्वातीतः परब्रह्म, सिद्धोऽर्हन् भवति प्रभुः ॥ ३१ ॥ सात्त्विका स्युर्महासिद्धाः साधवः सर्वभूतले । अवतीर्य स्वशक्त्यैव भवन्ति विश्वतारकाः ॥ ३२ ॥ आध्यात्मिकं बलं श्रेष्ठं, जडसत्ताबलादपि । आत्मसत्ताबलस्याग्रे, जडसत्ता न तिष्ठति ॥ ३३ ॥ उदयास्तमयं विश्व-चक्रं नित्यं प्रवर्त्तते । ज्ञात्वैवं सत्प्रभौ मग्ना भवन्ति ज्ञानिनो जनाः ॥ ३४॥
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૧૩૨ मनाशुदिः प्रतव्या, कर्तव्यमाऽऽत्मसाधनम् । मनोऽस्ति येन. मोक्षाय, पूर्णान्दरसस्ततः ॥ ३५ ॥ ब्रह्माण्डे विद्यते याक्, ताक् पिण्डे प्रवर्तते । पिण्डमाण्डबोधेन, तत्त्वज्ञानी भवेजनः ॥ ३६ ।। तत्त्वज्ञानेन मोहस्य, नाशो भवति सर्वथा । मोहनाशेन जीवानां, जायते परमं पदम् ॥ ३७ ॥ कर्ममभीनियताऽस्ति, शुद्धाऽऽत्मैव महाप्रमुः। कर्मतोऽनतसामध्ये, शुद्धाऽऽत्मपरमाऽऽत्ममः ॥ ३८ ॥ आत्मैव परमाऽऽत्माऽस्ति, सर्वत्र रक्षक प्रभुः । पुण्यधर्मवलेनैव, हृदिस्थो लोकशर्मदः ॥ ३९ ॥ भारमोत्कर्षीय भक्तानां, सुखदुःखप्रवृत्तयः भूता भवन्ति विश्वस्मिन् , भविष्यन्ति शुभाशुभाirn प्रमोदर्शनमार्गेषु, विघ्नदुःखस्य कोटयः। विज्ञयिति प्रभोभक्ता-स्तत्र गच्छन्ति धैर्यतः ॥४१॥ प्रभोर्मार्गेषु विघ्नादि,-योगेन चित्तशुद्धता। संवकर्मविनाशेन, आत्मनश्च परं पदम् ॥ ४२ ॥ पारमाथिककार्येषु, विघ्नकोटिपरंपरा । भवत्येव मनुष्याणां, कर्मयोगस्य सिद्धये ॥ ४३ ॥ भनेकजन्मयत्नेम, संस्कारेण च देहिनाम् । भवत्येव प्रमोःमाप्ति-स्तत्राशा जीवनं वरम् ॥ ४४ ।। जन्मनीह न यत् सिद्धयेत् , तदमुत्र प्रयत्नतः। सिध्यतीति हदि ज्ञात्वा, धीर आशां न मुञ्चति ॥४॥ अनन्तानि हि दुखानि, ये सहन्ते विवेकतः। अनन्तसुलधामान-स्ते भवन्ति स्वभावतः ॥४६॥
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૧૩૩
सर्वानपरिषहान प्राप्य, ज्ञानिनः सिद्धधामनि । गच्छन्ति साम्ययोगेन, तत्राऽऽत्मसाक्षिभावतःमाणा पूर्व दुखं ततः पश्चात, सुखं भवति योगिनाम् । सुखाय दुःखभोगोऽस्ति, ज्ञात्वा ज्ञानी में मुखति पट॥ सुखज्ञानं तु दुःखेभ्यो,-जायते ज्ञानिनी स्वयम् । दुःखात् सुखमहत्तास्ति, दुःखे ज्ञानी न शोचति ४क्षा दुःखसंकटकोटिभ्यो-भेतव्य न कदाचन । लतः स्वाऽऽत्मोन्नति मत्वा, वर्तितव्यं प्रयत्नतः ॥५०॥ पापाद् दुःखं सुखं पुण्यात् , सर्वत्र सर्वदेहिनाम् । उपकारोऽस्ति धर्माय, हिंसा पापाय जायते ॥५१॥ संपत्तौ न च हर्षोऽस्ति, विपत्तौ नास्ति शोकिता। यस्य तस्य समत्वेन, मुक्तिभवति निश्चयः ॥ १२ ॥ सत्तातः पूर्णशुद्धाऽऽस्मा, येन ज्ञातो वपुःस्थितः ।। सं कुर्वन् सर्वकर्माणि, निष्कामो जायते जनः ॥ ५३॥ पूर्णशुद्धाऽऽत्मनि प्रेम, यस्य पूर्ण प्रजायते। सर्वकर्मसु निर्लेपः कर्मयोगी भवेन् महान् ॥ ५४॥ बहिरन्त ने मोहोऽस्ति, यस्य ज्ञानात्मयोगिमः ॥ तस्य किञ्चिन्न कर्तव्यं, स तथापि प्रवृत्तिमाम् बाद। कुत्रापि नैव रागोऽस्ति, कुत्रापि नैव वैरिताः। पत्य स सर्वलोकस्य, हन्ताऽपि नैष हन्यते ॥५६॥ नित्यः सर्वगतः पू), ज्ञानेन व्यापकः प्रभुः। सत्याऽऽत्मा येन विज्ञातो-निर्भयः स भवेज्जना शस्त्रेण छिद्यते नाऽऽस्मा, दयते न च वह्निना। वारिणा प्लाव्यते नैव, शुष्यते न चचायुना ॥५
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૧૩૪ जातस्य जायते नाश-आत्मा जातो न कर्हि चित् । आत्मनो न भवेन्मृत्यु-र्दैहादेस्तंनिबोधत ॥ ५९॥ जन्मनाशादितो भिन्न-आत्मा शुद्धस्वभावतः । ज्ञात्वैवं मृत्युकालान, भीतिमाप्नोति पण्डितः॥६०॥ देहाद्भिन्नं यथा वस्त्रं, तथाऽऽत्मा देहतः पृथक् । जन्म मृत्यु यथा देहे, न तथाऽऽत्मनि विद्यते ॥ ६१ ॥ सदसदादिरूपाऽऽत्मा, ध्येयः प्राप्यो हृदि स्थितः । यत्प्रकाशाज्जगत्सर्व, भासते ऽनादिकालतः॥ ६२ ॥ अस्तिनास्तिस्वरूपाऽऽत्मा, व्याप्यव्यापकभाववान् । अनंतसच्चिदानन्द-आत्मा ध्येयः सनातनः ॥ ६३ ॥ ज्ञाने ज्ञेयलयोत्पादा-भवन्ति यत्र वस्तुतः। चेतनः परमाऽऽत्मैव, आत्मा सोऽनंतशक्तिमान् ॥६४॥ आत्मैव जैनधर्मोऽस्ति, चारित्रमार्गदृष्टितः । 'आत्मैव जैनरूपोऽस्ति, शुद्धाऽऽत्मा जिनभास्करः॥६५॥ दर्शनज्ञानचारित्र-रूपाऽऽत्मा विश्वपावकः। मोहादिकर्मसंहर्ता, कर्ताऽकर्तास्त्यपेक्षया ॥६६॥ शुद्धाऽऽत्मा न च कर्ताऽस्ति, विश्वस्थलोककर्मणाम् । नैव सृजति भूतानि, न च दुःखादिकारकः ॥ ६७॥ सिडा जीवा जगत् सर्व, द्रव्यतोऽनादिकालतः। पर्यायापेक्षया सादि-सान्तं द्रव्याऽऽत्मकं जगत् ॥६८॥ पश्चद्रव्येषु चाऽऽत्मास्ति, सर्वज्ञः परमेश्वरः । 'अनन्तः सच्चिदानन्दः, सत्तया द्रव्यतस्तथा ॥ ६९॥ नास्ति पुद्गल भावानां, कर्ता कारयिता च सः। शुद्धनिश्चयपूर्णात्मा, परब्रह्म जिनेश्वरः ॥ ७० ॥
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जडानां न च कर्ताऽस्ति, देहातीतो निरञ्जनः । सर्वगः सर्वभिन्नोऽस्ति, जडस्थोऽपि न यो जडः ॥ ७१ ॥ अनन्ताश्चेतना बोध्याः कर्मयुक्ता वपुःस्थिताः । अनन्ताः परमाऽऽत्मानः, कर्मातीता जिनेश्वराः ॥ ७२ ॥ अज्ञानात् कर्मबन्धोस्ति, जीवानां भववर्तिनाम् । आत्मज्ञानाद् भवेन्मोक्षो -- ज्ञानानन्दमयः खलु ॥ ७३ ॥ असुराः प्राणिनो ज्ञेया- देहादिमात्रसेवकाः । आत्मानस्ते सुरा बोध्या-- आत्माभिमुखवृत्तयः ॥७४॥ आसुर प्रकृतेर्जेता, येनाऽऽत्मा सुर उच्यते । सुराणां शूरता पूर्णा, जायते मोहनाशिका ॥ ७५ ॥ विश्वलोकानुकूलोsस्ति, जैनधर्मः सनातनः । वस्तुस्वभावधर्मोऽस्ति, सर्वलक्षणलक्षितः ॥ ७६ ॥ सत्यान्नास्ति परो धर्मे, जिनोक्तं सत्यमेव तु । सत्यात् परो जयो नास्ति, जयः सत्यात् प्रजायते ॥७७॥ पक्षपातो न धर्मेऽस्ति, धर्मात् सत्यं प्रकाशते । पुण्यपापात् सदाभिन्न- आत्मधर्मः सुखावहः ॥ ७८ ॥ पुण्यात् स्वर्गो भवेच्छुभ्रं, - पापाच्च सर्वदेहिनाम् । पुण्या दूर्ध्व मधः पापात, धर्मो मोक्षाय जायते ॥७९॥ पुण्यपापक्षयान्मुक्ति- र्भवेन्निर्लेपयोगिनाम् । • पुण्यकर्माणि कुर्वन्सन्, ज्ञानी धर्मप्रकाशकः ॥ ८० ॥ ज्ञानिनो नैव लिप्यन्ते, कदाचित्पुण्यकर्मभिः । तथापि ते तु सर्वेषां भवन्ति सुखहेतवे ॥ ८१ ॥ उपयोगेन शर्माsस्ति, क्रियया कर्म जायते । परिणामेन बन्धोऽस्ति जानाति पूर्णतत्त्वविद् ॥ ८२ ॥
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आत्मना क्रियते कर्म, आत्मनैव प्रभुज्यते आत्मना कर्मनाशोऽस्ति, जायते मुक्तिराऽऽत्मना ॥३॥ शुद्धाऽऽत्मा स्वर्णधामाऽस्ति, दुष्टाऽऽत्मा श्वभ्रमाप्नुयात्। सुद्धाऽऽत्मा मोक्षरूपोऽस्ति, यद्योग्यं तत् समाचर ॥४॥ इन्द्रियासक्तियोगेन, मृत्युर्भवति देहिनाम् । आमाऽऽसत्त्या तु लोकानां, जन्म मृत्युन जायते ५८५॥ शुद्धाऽऽत्मरूपमादाय, नामरूपादिविस्मृतिः। कार्तव्याऽऽस्मोपयोगेन, सदसत्सु विवेकिना ॥८६॥ निष्क्रियज्ञानसिद्धाऽऽल्मा, लिप्यते नैक वस्तुषु । लिप्यते पुद्गलस्कया. पुद्गलस्कंधयोगतः ॥ ८ ॥ भावनाज्ञानयुक्ताऽऽत्मा, क्रियासु नैव लिप्यते। आसको निष्कियासोऽपि, लिप्यते कर्मपुद्गलैः ॥८॥ आत्मज्ञानक्रियायुक्तो-निर्माहो नैव लिप्यते सूक्ष्मवामप्रवृत्त्या तु, नासक्तो ने च लिप्यते ॥८९॥ आत्मज्ञाननिमग्नाना; मुक्तिराऽऽत्मनि संस्थिता । निस्पृहत्वं भवेत्तेषां, परिपूर्णस्थिराऽऽत्मनाम् ॥९॥ आत्माऽधीनं सुखं नित्य, मनित्यं देहसंगजम् । विजेयं सुखदुःखाना, लक्षणं भव्यम्गनवैः ॥ ९१ ॥ पायाऽऽत्मनां भवेद् दुःखं, सत् सुखं चाऽऽन्तरात्मनाम् । पराऽऽस्मतां सदा पूर्ण, सुख मव्ययशाश्वतम् ॥१२॥ आत्मनि परमाऽऽत्मान, पश्यन्ति ज्ञानयोगिनः । शून्यमिव जगत् सबै, न च पश्यन्ति पण्डिताः ॥१३॥ आत्मज्ञानेन निस्संगो-बायसंगेषु जायते। माको हालसमं नास्ति, पवित्रं वस्तु भूतले ॥ ९५ ।
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आत्मज्ञानमहाशस्त्रं, छिनत्ति कर्मपादपान् । सर्वजातिभयौवेषु, स्वाऽऽत्मज्ञानी हि निर्भयः ॥ ९५ ॥ शुद्धात्मानं विना सर्व, मिथ्या हृदि निबोधत । शुद्धात्मनि रमन्ते ते, क्रियावन्तोऽपि निष्क्रियाः ॥९६॥ तनुभिन्नो भवेदाऽऽत्मा, आत्मतोऽन्यद्वषुः सदा । आत्मज्ञानाति विज्ञाय, देहनाशे न शोचति ॥९७॥ आत्मानुभवयोगेन देहाध्यासलयो भवेत् । देहाध्यासलयेनैव जायते प्रभुदर्शनम् ॥९८॥ आत्मपराssत्मनोर्भेदो - भासते न यदा हृदि । सोऽहं सोऽहं भवेज्ज्ञानं, निर्विकल्पं ततः पुनः ॥ ९९ ॥ निर्विकल्पदशायां तु, मत्तद् भेदो न भासते । जायते केवलज्ञानं, ततः शुद्धाऽऽत्मयोगतः ॥ १०० ॥ पञ्चद्रव्याssत्मकं विश्वं, सर्व जानाति केवली । अघातिनामकर्माद्यं, भुनक्ति परमार्थकृत् ॥१०१॥ सर्वज्ञः पूर्णशुद्धात्मा, कृतकृत्यो भवेत् स्वतः। जीवानामुपकाराय ददाति धर्मदेशनाम् ॥ १०२ ॥ देहनाशे भवेत् पूर्णः, स्वतंत्रः पूर्णशक्तिमान् । शुद्धपर्यायवान् सिद्धः, पूर्णानन्दमयः प्रभुः ॥ १०३ ॥ ज्ञात्वैवं जैनधर्मस्य, रहस्यं श्रावकास्तथा । साधवः स्वाधिकारेण यतन्ते मुक्तिसिद्धये ॥ १०४॥ अन्तर्मुखोपयोगेन, सर्वकर्तव्यकारिणः । सर्वोन्नतिपदं यान्ति, स्वाश्रयिणो विवेकिनः ॥ १०५ ॥
बाह्यमुखोपयोगेन, कर्मलेपः प्रजायते ।
रागद्वेषपरीणाम - भावकर्मस्वरूपिणा ॥ १०६ ॥
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૩૮ आत्मज्ञानप्रभावेण, देहे वैदेहभावना। जायते मोहनाशेन, तत्तत्त्वज्ञानिनो विदुः ॥१०७॥ विदेहा अन्तराऽऽत्मानो- जैना एव निबोधत । महाविदेहतां यान्ति, जिनेन्द्राः परमेश्वराः ॥१०॥ महाविदेहसत्क्षेत्रं, देहेषु सर्वदेहिनाम् असंख्यातप्रदेशाऽऽत्म, ज्ञेयमध्यात्मदृष्टितः ॥१०९॥ देहेषु सन्ति वैदेहा-ज्ञानिनः सत्यनिर्भयाः। विदेहं शुद्धचित्तं तु, ज्ञानं वैदेहिकं महत् ॥११०॥ मदाविदेहदेशेषु, जातानां ज्ञानयोगिनाम् । सीमंधरप्रभोः प्राप्ति-र्जायते न च संशयः ॥१११॥ सीमंधरोऽस्ति शुद्धाऽऽत्मा; चित्तहिमोत्तरे स्थितः । मानसाख्यसरःपार्वे, सचिदानन्दरूपवान् ॥११२॥ अन्तराऽऽत्माख्यकैलासाज, ज्ञानगंगा प्रजायते । अष्टापदो महानाऽऽत्मा, योगाष्टकप्रधारकः ॥११३॥ आत्मैव सत्ययज्ञोऽस्ति, ज्ञानाग्निस्तत्र वर्तते । कामपशुहविस्तत्र, जायते सत्यभावतः ॥११४॥ आत्मयज्ञे परब्रह्म-साक्षात्कारः प्रजायते । आत्मयज्ञस्य कर्तारो-जैनास्युरधिकारिणः ॥११५॥ अहिंसा सर्वजीवानां, सत्ययज्ञः प्रतिष्ठितः। सत्ययज्ञस्य कारः, साधवास्युः पदे पदे ॥ ११६ ॥ दयापुण्यमया यज्ञा, यद्देशे सन्ति साधवः । तत्र दुष्कालपीडाद्या, जायन्ते न कदाचन ॥११७॥ ब्राह्मणाः सत्यजैनत्वं, प्राप्य मोहपराजयात् । भवन्ति परमाऽऽत्मानो-, जिना विश्वस्य पावकाः॥११८॥
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૧૩૯ मनुष्यदेहसद्गेहे, प्रभुराऽऽत्माऽस्ति शक्तिमान् । ज्ञानमेव प्रधानोऽस्ति, विवेकः कार्यवाहकः ॥११९॥ क्षायिका लब्धयस्तन्त्र, प्रकाशन्ते स्वभावतः । शुद्धोपयोगसेनानी-रागादिशत्रुनाशकः ॥१२०॥ आत्मनः पूर्णसाम्राज्य, पूर्णानन्दप्रकाशकम् । वर्तते तत्र दुःखस्य, गन्धोऽपि नैव भासते ॥१२॥ यत्र मोहस्य साम्राज्य, वर्तते तत्र दुःखिता। पारतंत्र्यं मनुष्याणा-मात्मभोगेन नश्यति ॥१२२॥ आत्मस्वातंत्र्यसाम्राज्य-मात्मभोगेन जायते । समष्टिव्यष्टिसाम्राज्य-मात्मभोगात् प्रजायते ॥१२३॥ मृत्युभीत्यादियुक्ताऽऽत्मा, देहाऽऽत्माध्यासयोगतः। मुक्ति नाप्नोति मूढाऽऽत्मा, नामरूपादिमोहवान ॥१२४॥ आत्मानुभवबोधेन, निर्भयो जायते जनः । शुभाशुभसमो याऽऽत्मा, साक्षिरूपेण जीवति ॥१२५॥ सर्वकालेषु मुक्ताऽऽत्मा, जायते समभाववान् आत्मनि नैव कालोऽस्ति, न च कर्माणि निश्चयात् ॥१२६॥ आत्मानमाऽऽत्मभावेन, द्रष्टा सम्यक्त्वयोगिराट् । वैकुण्ठं मानसं कृत्वा, स्वतंत्रो जायते हदि ॥१२७॥ आत्मा येन न विज्ञातो-नैगमादिनयै महान् । सर्वयोनिषु संसारे, भ्राम्यति दुःखवेदकः ॥ १२८ ॥ येनाऽऽत्मा पूर्णविज्ञात-स्तेन ज्ञात मिदं जगत् । बाथान्तरे विजेतारो, भवन्ति ब्रह्मवेदिनः ॥१२९॥ मनोवाकायशक्तीनां, विकाशाय सुशिक्षणम् । आत्मज्ञानस्य संग्राह्य, परार्थस्वार्थसाधकम् ॥१३०॥
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आत्मज्ञानस्य लाभेन, जैना जयन्ति भूतले । अन्तरानेकलब्धीनां प्रातिस्तेन प्रजायते ॥ १३१ ॥ परब्रह्म जिनेन्द्रोऽस्ति, स्वाऽऽत्मैवं स हृदि स्थितः । इहामुत्र स सर्वत्र, यत्र तत्र महाप्रभुः ॥ १३२॥ एकाssत्मा हृदि संविष्ठो, मिथ्या देहादिकं खलु । ध्यातव्यः सच्चिदानन्द, स्तत्त्वमस्यादिलक्षितः ॥ १३३॥ आत्मनः प्रतिमा नास्ति, विश्वं स्वप्नोपमं हृदि । भासते यस्य सद्द्ब्रह्म, ज्ञानी जैनो भवेन् महान् ॥ १३४॥ ब्रह्मज्ञानी भवेदेव, निर्लेपः कर्मयोगिराट् । जैनः स विश्वशालायां, जायते परमार्थकृत् ॥ १३५ ॥ जीवानां विश्वशालायां, शिक्षणं सुखदुःखतः । भवत्येव समुत्क्रान्ति, राऽऽत्मनोद्रव्यभावतः ॥१३६॥ आत्मन आत्मभावेन, परिणामो भवेद् यदा । सदैक्यं जायते साक्षा, धृदि द्वैतं न भासते ॥१३७॥ अन्तराऽऽत्मनि सम्यक्त्वं, मौन माssस्मस्वरूपतः अष्टधाऽऽत्मा भवेत्तत्र, शुद्धाऽऽत्मा स्वोपयोगतः ॥ १३८ ॥ आत्मशुद्धोपयोगेन, परब्रह्म भवेज्जनः ।
अन्तर्मुहूर्तमात्रेण, रागद्वेषक्षयात्स्वतः ॥ १३९ ॥
परब्रह्मनिमग्नस्य, पूर्णानन्दामृतं हृदि ।
अत्रैव वेद्यते साक्षात्, तत्र साक्षी स्वयं भवेत् ॥ १४० ॥ आत्मनो गुरुराssस्मैव, शिष्य वाऽऽत्मैव साधकः । सिद्ध asseमैव सर्वस्व मात्मनि व्यक्तिशक्तितः॥१४१॥ आत्मशुडोपयोगाय, ज्ञानिनां संगतिः सदा ।
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तया प्रकर्तव्या, सर्वस्वार्पण भक्तितः ॥ १४२ ॥
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आत्मभावं विना लोका-भ्रान्ता भ्रमन्ति भूतले । आत्मशर्म न जानन्ति, भूपेन्द्रा अपि वस्तुतः ॥ १४३॥ एक एव महानाऽऽत्मा, हृदि यस्य निरन्तरम् । भासते तस्य सत्प्रीत्या, मृत्युभीति नै जायते ॥ १४४॥ आत्मनः पूर्णविश्वासी, निर्भयो भवति स्फुटम् । विपत्तिमृत्युकालेsपि, पूर्णानन्दः स्वयं सदा ॥ १४५ ॥ देशभाषाविशेषेण यःस्यादनन्तनामवान् । अनाद्यनन्तपूर्णाssस्मा, पूर्णदृट्याऽनुभूयते ॥ १४६ ॥ साक्षादनुभवो यस्य, ब्रह्मणो जायते हृदि । तस्य किश्चिन लब्धव्यं, पश्चात् कुत्राऽपि विद्यते ॥ १४७॥ ज्ञानाssत्मा कृतकृत्योऽपि, प्रारब्धकर्मयोगतः । सर्वकर्माणि कुर्वन्सन्, परमार्थाथ जीवति ॥ १४८ ॥ सर्वत्राssत्मप्रभावोऽस्ति, लब्धिसिद्धिमयः सदा । मंत्रयंत्रादिशक्तीनां निधिराऽऽत्मा प्रकाशते ॥ १४९ ॥ स पञ्चपरमेष्ठ्यात्मा, चिदानन्दोदधिः प्रभुः । प्रत्यक्षो वेदितव्यः स कृत्वा तत्र मनोलयम् ॥ १५० ॥ ॐकारः परमाssस्मैव, परमेष्ठिस्वरूपवान् । दर्शनज्ञान चारित्र - शुद्धपर्यायवान् प्रभुः ॥ १५१ ॥ मंत्रयोगस्वरूपाssत्मा, जैनधर्मः सनातनः । यत्र तत्र स्वरूपोऽस्ति, जैनधर्मः सतां मतः ॥ १५२ ॥ ॐकार एव जैनाssत्मा, जिनेन्द्रश्व हृदि स्थितः । चतुर्विधमहासंघ - ॐकार एव सर्वदा ॥१५३॥ - सर्वशक्तिस्वरूपोऽस्ति, ह्रींकारो विश्वशासकः । सबै विद्यास्वरूपोऽस्ति, ऐकारो नाभिदेशगः ॥ १५४॥
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सर्वकामस्वरूपोऽस्ति, क्लींकारः सर्वकामदः । सर्वमंत्रस्वरूपोऽस्ति, जैनाऽऽत्मा जिनधर्मवान् ॥ १५५ ॥ निष्कामकर्म कर्तव्यं, येन मुक्तो भवेज्जनः । सकामकर्म लेपाय, जायते सर्वदेहिनाम् ॥ १५६ ॥ निष्कामत्वं सकामत्वं द्वयोः साम्यं च यहृदि । सर्वलोकस्य हन्ताऽपि समाऽऽत्मा स न हन्यते ॥ १५७॥ सर्वकर्मप्रकुर्वाणः समात्मा नैव लिप्यते । सर्वदोषेषु निर्दोषी, जीवन्मुक्तोऽभिधीयते ॥ १५८ ॥ सर्वपापेषु निष्पाप, निष्कामः सर्वकामिषु । समाssत्मा सर्वजीवेषु, क्रियावानपि निष्क्रियः ॥ १५९ ॥ समभावदशाप्रासौ, माध्यस्थ्यं जायते हृदि । साक्षित्वं जायते पश्चात्, दृश्यादृश्येषु वस्तुषु ॥ १६० ॥ आत्मानुभवसज्ज्ञानं, ततः सम्यक् प्रजायते । ततो नयप्रमाणानां शास्त्राणां न प्रयोजनम् ॥ १६२॥
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नयप्रमाणनिक्षेप - भंगादीनां विकल्पतः । निर्विकल्पाssस्मरूपं तु, प्राप्यते नैव योगिभिः॥ १६२ ॥ नयादीनां विकल्पेन, श्रुतज्ञान विशारदैः । आत्मा न ज्ञायते साक्षा, निर्विकल्पसुखोदधिः ॥ १६३ ॥ यादृग्भावो भवेद्यस्य, तस्य तादृक् फलं भवेत् । शुभभावाद् भवेत्स्वर्गः श्वभ्रञ्चाशुभभावतः ॥ १६४ ॥ आत्मभावाद् भवेन्मुक्ति-रखण्डानन्दरूपिणी । ज्ञात्वा निष्काम भावेन, कर्तव्यं कर्म मानवैः ॥ १६५ ॥ नास्तिक बहिराssत्मानो-ज्ञेया मिथ्यात्विनो जडाः । जडातिरागिणो मूढा - मिध्यात्वगुणवर्तिनः ॥ १६६ ॥
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आस्तिका अन्तराssत्मानो-जैना जिनेन्द्रवर्त्मगाः । मन आत्मनि संन्यस्य कुर्वन्ति कर्म योगिनः ॥ १६७ ॥ जिनेन्द्रशास्त्रमन्तारः, शासका बहिराऽऽत्मनाम् । सद्गुरोः सेवका दक्षा-चतुर्वर्गस्य साधकाः ॥ १६८ ॥ कर्ता हर्ता च विश्वेशो- जिनेन्द्रोऽर्हन् महाप्रभुः । तद्ध्यानं हृदि कर्तारो - जैनास्ते द्विविधाः स्मृताः ॥ १६९ ॥ भवस्य हेतवो ये ये, ते ते मोक्षस्य हेतवः । भवन्ति ज्ञानिजैनानां, त्यागिनां गृहियोगिनाम् ॥ १७० ॥ पापकर्माsपि पुण्याय, निर्जरायै प्रजायते ज्ञानिजैन समूहस्य, संघधर्मस्य हेतवे ॥ १७१ ॥
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सम्यग्दृष्टिमनुष्याणां सम्यग्रूपतया जगत् । भासते तो विरुद्धेऽपि, सम्यग्रूपं विभासते ॥ १७२ ॥ सम्यग्दृष्टिप्रतापेन, मिध्यात्वसाधनान्यपि । सम्यक्त्वहेतुरूपेण, परिणामं प्रयान्त्यहो ॥ १७३ ॥ सर्वविषयभोक्ताऽपि, निर्भोक्ता ज्ञानयोगतः । जैन आस्रवकर्ताsपि, संवरी परिणामतः ॥ ९७४ ॥ सम्यग्दृष्टितया जैनाः क्रियावन्तोऽपि निष्क्रियाः । कर्मवन्तोऽप्यकर्माणो, जीवन्ति कर्मयोगिनः ॥ १७५ ॥ साक्षिभावेन जैनानां, सर्वकर्मसु योग्यता । जायते धर्मरक्षार्थ, मापत्काले विशेषतः ॥ १७६ ॥ जैनसंघस्य रक्षार्थ, सर्वजातीयशक्तिभिः । कर्तव्यं सर्वथा जैन - देहादीनां विसर्जनम् ॥ १७७॥ सर्वस्थावरतीर्थेभ्यो - जैन एको महान्स्मृतः । एकजैनस्य रक्षार्थ, प्राणांस्त्याज्या विवेकतः ॥ १७८ ॥
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१४४ अन्तराऽऽत्मा भवेज्जैनो-जैनधर्मस्य रक्षकः । मिथ्यात्विभ्यो महान्पूज्यः, श्रावको विश्वपावकः ॥१७९॥ जैनानां जीवनोपाया-स्तथावंशादिरक्षकाः। देशकालानुसारेणा, कर्तव्याः सर्वमानवैः ॥१८॥ अनादिकालतो जैना-जैनधर्मस्य साधकाः। ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्या, शूद्राश्च विश्ववर्तिनः ॥१८॥ ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राः स्वस्वप्रवृत्तिषु । वर्तमानाः सदा जैन-धर्म कुर्वन्ति शक्तितः ॥१८२॥ सर्वजातीयजैनानां, पावित्र्य सूर्यवत्सदा । जैनस्य स्पर्शमात्रेण, पवित्रं वस्तु जायते ॥१८३॥ गुणकर्मानुसारेण, वर्णकर्मव्यवस्थिताः। जैनाः परांगतिं यान्ति, अरिष्टनेमिसेवकाः ॥१८४॥ जैनधर्म वरं मृत्यु, न्यिधर्मेषु जीवनम् । इत्येवं पूर्ण विश्वास-कारका जैनधर्मिणः ॥१८॥ अरिष्टनेमिनाथेन, केवलज्ञानधारिणा। प्रकाशो जैनधर्मस्य, कृतस्तीर्थकृता शुभः॥१८६॥ साधवः श्रावकाश्चैव, जंगमतीर्थरूपिणः। तेषां भक्तिर्जनैः साध्या, स्वर्गसिडिप्रदायिनी ॥१८७।। सर्वदा सर्वथा जैना, आत्मान एव वस्तुतः। कर्मप्रकृतिजेतारः, शुद्धाऽऽत्माभिमुखाः शुभाः ॥१८॥ सर्वलोकेषु जैनाना, श्रेष्ठताऽनादिकालतः। प्रवर्तते स्वभावेन, जैनधर्मस्यसेवनात् ॥१८९॥
आपत्कालो यादाऽऽगच्छेत्, तदा तदनुसारतः। विचाराचारकर्माणि, वय॑न्तीति प्रभाषितम् ॥१९०॥
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૧૪૫
सर्वजातीयजनानां, गुणकर्मानुसारतः । लग्नाद्या व्यवहारास्तु, संघटन्ते परस्परम् ॥१९१॥ सर्वजातीयजैनानां, गुणकर्मानुसारतः। स्पृश्यास्पृश्यादिभेदो न, भोजनादिषु तात्त्विकः ॥१९२।। शूद्रा अपि सदा स्पृश्या- जैना भवन्ति भूतले। जिनेन्द्रदेवसद्भक्त्यो, विश्वलोकस्य पावकाः ॥१९३॥ स्पृश्यास्पृश्यादिकंकर्म-जैनानां हि परस्परम् । कदापि कल्पते नैव, सत्यमुक्तं मया भुवि ॥१९४॥ जैनकन्या तु सज्जैन, विनाऽन्यस्मै न दीयते । कन्यादानं विधर्मिभ्यः, सर्वपापाधिकं मतम् ॥१९५॥ गुणकर्मानुसारेण, वर्णधर्मस्य सेवने । सर्ववर्णीयजैनानां, कृत्यमावश्यकं स्मृतम् ॥१९॥ स्वाधिकारेण यो योग्या, व्यवहारस धर्मिभिः। प्राणान्तेऽपि न मोक्तव्यो, यतो धर्मों भवेत्ततः ॥१९७।। देह वित्तादिभोगेन, सर्वजनैः परस्परम् । द्रष्टव्यः सर्वजनेषु. सत्तया परमेश्वरः ॥१९८॥ परस्परं नमस्कारः, कर्तव्यः सर्वदाऽऽहतः। भात्मरूपसमा ज्ञेया- जैना जैनः परस्परम् ॥१९९॥ जैनानां सर्वदा जैना-आत्मीयाः स्युः स्वभावतः। आहारे व्यवहारे च, पावित्र्यं हि परस्परम् ॥२०॥ जैनसंघो महातीर्थ, सर्वतीर्थशिरोमणिः। तदस्तित्वे सदा जैनः, कर्तव्यं स्वार्पणं कलौ ॥२०१ अनन्तज्ञानरूपोऽस्ति, जैन आत्मैव नो वपुः । विजितं दुर्मनो येन, स जिनो विश्वपावकः ॥२०२१॥
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जैनत्वं सर्वजीवेषु, जिनत्वं सन्तया तथा । जिन एव परब्रम, ज्ञात्वा जैनो न मुह्यति ॥ २०३ अप्रमत्तो भवेज्जैन, परार्थं कर्मकारकः । व्यक्तीकुर्वन् जिनेन्द्रत्व- माऽऽत्मनो जायते प्रभुः || २०४ || पञ्चात्त्वं भजते नैव, जैनः कर्तव्यकर्मसु । प्रसह्य सर्वविघ्नानि, धीरो भवति नेमिवत् ॥ २०५ ॥ अरिष्टनेमिनाथोक्त - जैनधर्मस्य साधकाः । महद्भवन्तु सस्मीत्या, सज्जना आत्मरामिणः ॥ २०६ ॥ आत्मैव जैनधर्मोऽस्ति, आत्मैव जैन उच्यते । आत्मैव परमात्मास्ति, समष्टिव्यष्टिरूपवान् ॥२०७॥ शक्तित्वं यत्र तत्राऽस्ति, जैनत्वं जैनधर्मिणाम् । जिनत्वं व्यापकं सर्व- लोकेषु सर्वदेहिषु ॥ २०८ ॥ ब्रह्मविष्णुमहेशाथा, आत्मैव हृदि बोधत । अल आत्मैव सज्जैनो जिनेन्द्रा व्यक्तिशक्तितः ॥ २०९ ॥ जैनात्मैव परब्रह्म, मनोदेहनियामकः । अन्तर्यामी वपुःसृष्टी, तस्मै नित्यं नमोनमः ॥२१० ॥ सर्वत्र सर्वदेहेषु, जैनाः सन्ति स्वसत्तया ।
जिनाः सन्ति च देहेषु, तेभ्यो नित्यं नमोनमः ॥२११॥ जैनानां जैनधर्मस्य, रागिभ्योऽस्तु नमोनमः । महासंघस्य दासेभ्यः पूर्णप्रीत्या नमोऽस्तु मे ॥ २१२ ॥ बाह्यान्तः शक्तियोगेन, जैना जीवन्ति भूतले । शक्ति विना न जीवन्ति, दासा भवन्ति निर्बलाः ॥ २१६ ॥ चतुर्विधस्य संघस्य, प्रत्यनीका भवन्ति ये । तेषां शिक्षणकार्येषु, मुक्तिनेनेन्द्ररागिणाम् ॥ २१४ ॥
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१४७ जैनानां जैनधर्मस्थ, शत्रूणां शिक्षणाय ये। योग्यकर्म न कुर्वन्ति, ते स्यु मोहपरायणाः ॥२१५॥ जैनधर्मस्य शत्रूणां, दुर्गति दःखराशयः । जैनधर्मस्य रक्षातो, दुष्टानामपि सद्गतिः ॥२१६॥ प्रत्यहं श्रीजिनेन्द्रस्य, कर्तव्यं दर्शनं जनैः । सद्गुरो देर्शनं कार्य, वन्दनं च विवेकतः ॥२१७॥ चतुर्विधमहासंघ,-तीर्थस्य पूर्णरागतः । दर्शनं वन्दनं कार्य, वैयावृत्यं च सर्वदा ॥२१॥ निन्दा कार्या कदाचिन्न, जैनैर्देवस्य सद्गुरोः हेलना न च कर्तव्या, प्राणान्तेऽपि च धर्मिणाम् ॥२१॥ सद्गुरुदेवधर्माणां, रागेण सद्गतिः कलौ। भविष्यति मनुष्याणां तत्र किश्चिन्न संशयः ॥२२०॥ कलौ सरागधर्मस्य, प्रवृत्तिर्मोक्षकारिका । भविष्यतिं च साधूनां, सरागधर्मवर्तनम् ॥२२१॥ जैनानां जैनधर्मस्य, रक्षायै च प्रवृद्धये । देहवित्तादिसर्वस्य, त्यागः कार्यों विवेकतः ॥२२२॥ जैनानां जैनधर्मस्य, नाशकाश्च भवन्ति ये । तेषां शिक्षा प्रकर्तव्या, जैनानां धर्म एव सः॥२२३॥ मयां जीवन्ति सज्जैनाः सर्वजातिबलान्विताः। निर्बला नैव जीवन्ति, भ्रष्टाः क्षात्रादिकमतः ॥२२॥ राज्यकार्यादिनेतारः, क्षात्रव्यापारकर्मठाः । कृषिकर्मादिभि ना, जीवन्ति सर्वशक्तितः ॥२२५॥ सज्जनः सर्वखण्डेषु, यानवाहनयोगतः। कर्तव्य भ्रमणं सम्यग, लोकोपदेशहेतवे ॥२२६॥
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१४८ सतीभिः सर्वखण्डेषु, यानवाहनयोगतः। जैनधर्मप्रचारार्थ, कर्तव्यं भ्रमणं सदा ॥२२७॥ प्राडदेवेन सर्वत्र, जैनसंस्कारहेतवे । कर्तव्यं भ्रमणं धर्म,-प्रेम्णा धर्मप्रचारिणा ॥२२८॥ साधूनां सेवया मुक्तिः, सर्वसंसारिणां भवेत् । सर्वधर्माधिकारोऽस्ति, साधूनां धर्महेतवे ॥२२९॥ आर्यानार्यप्रदेशेषु, धर्मसत्तादिहेतवे । कर्तव्यं गमनं जैन, श्वतुर्वर्गप्रसाधकैः॥२३०॥ आर्यजनैः स्ववंशाथै,सम्पाद्या संततिः शुभा। धमिपरम्परावृद्धि- हेतवे सर्वयुक्तिभिः ॥२३१॥ तीर्थस्थानेषु संघस्य, संमेलः प्रतिवत्सरम् । कर्तव्यो धर्मवृड्यथै, तथा तीर्थस्य पूजने ॥२३२।। जैनमन्दिरतीर्थानां, पूजा कार्या सुभावतः । तीर्थस्यसाधुवर्गस्य, सेवा कार्याऽतिरागतः ॥२३३॥ चन्दनायैः शुभं चिन्ह, ललाटे विधिपूर्वकम् । सर्वजैनः प्रकर्तव्यं, जिनाज्ञाप्रेमधारकैः ॥२३४॥ धर्मसंघादिरक्षार्थ, जैनानां शस्त्रधारणम् । सदा धर्माय विज्ञेयं, धर्म्ययुद्धे विवेकतः ॥२३५॥ संघाचैः सर्वथा विद्या, बलमाप्यं च युक्तितः। कृषिक्षात्रादिकर्माणि, कर्तव्यानि विवेकतः ॥२३६॥ जैनानां मृत्युतः, पश्चान्मुक्तिःस्वर्गों न संशयः। स्वीकर्तव्यो जनैनूनं, जैनधर्मः सनातनः ॥२३७॥ ब्रह्मविष्णुमहेशाद्या, देवा देव्यश्च सर्वथा । श्रीजिनेन्द्रप्रभोभक्ता, स्तरङ्ग इव वारिधेः ॥२३८॥
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૧૪૯ जाता अनन्ततीर्थशा, भविष्यन्ति भवन्त्यपि। अनन्त जैनधर्मस्य, सेवनाच प्रबोधनात् ॥२३९॥ सद्गुरोः कृपया भव्य, आत्मज्ञानी भवेज़्जनः। जैनधर्मी स विज्ञेयः, स्याद्वादज्ञानवेदकः ॥२४१॥ आगमनिगमव्याप्तो-जैनधर्मः सनातनः । कलौ प्रवस्य॑ति विश्वो-द्वारको मुक्तिदायकः ॥२४३॥ द्रव्यभावतया जैन-धर्मकर्म प्रवर्तनम् । जैनधर्मः स विज्ञेयः, सर्वप्रगतिसाधकः ॥२४४॥ जिनानां दर्शनज्ञान-चारित्राणां प्रदायकः। द्रव्यभावस्वरूपो यो-जैनधर्मः स उच्यते ॥२४॥ जैनानामुन्नते हेतु-द्रव्यभावतया शुभः। क्षेत्रकालानुसारेण, जैनधर्मः स उच्यते ॥२४६॥ जिनानां पूर्णविश्वासी, जैन आन्तरबाद्यतः। तस्य यः स्वाधिकारोऽस्ति, जैनधर्मः स उच्यते ॥२४७॥ रागद्वेषादिदोषाणां, नाशको द्रव्यभावतः। जैनधर्मःस विज्ञेयो जिनेन्द्रभक्तिपोषकः ॥२४८॥ दोषाणां नाशको योजस्त, गुणानां च प्रकाशकः । सर्वशक्तिप्रदो नृणां, जैनधर्मः स उच्यते ॥२४९॥ आत्मनि जैनधर्मोऽस्ति, बाहस्तु व्यवहारतः । व्यवहारो न मोक्तव्यो-जैनसंघस्य रक्षकः ॥२५०॥ आत्मा शुद्धो भवेद्येन, सर्वशक्तिप्रकाशकः । जैनधर्मः स विज्ञेयः, सद्गुरुदेवसाधनम् ॥२५१॥ जिनेन्द्रगुरुनिर्दिष्टा, विचाराचारराशयः। देशकालोद्भवास्तेऽपि, जैनधर्मो मयोच्यते ॥२५२॥
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૧૫૦
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जैनाना मस्तिता येन, भवेत्तद्व्यवहारतः । धर्मकर्तव्यरूपो यो- जैनधर्मः स उच्यते ॥ २५३॥ चतुर्विधस्य संघस्य वृडिरक्षाप्रर्वतकाः । जैनास्तेषां सदाचारो - जैनधर्मः स उच्यते ॥ २५४॥ जीवानां माssस्मवद् यस्मात् दर्शनं च प्रवर्तनम् । परस्परं भवेद्येन, जैनधर्मः स उच्यते ॥ २५५॥ दर्शनज्ञानचारित्र - गुणानां व्यक्तताऽऽत्मनि । जिनधर्मः स विज्ञेय-उपादानतया जनैः ॥ २५६ ॥ दर्शनज्ञानचारित्र - गुणानां व्यक्तहेतुकः । व्यावहारिकansस्ति, ज्ञेयो निमित्तयोगतः ॥ २५७॥ स्वार्थत्यागेन, जीवाना - मुपग्रहस्य कर्मसु । प्रवृत्तिस्तद्विचारश्च जैनधर्मो मयोच्यते ॥ २५८ ॥ स्वातंत्र्यं सर्वलोकानां, धर्मराज्यस्य पालनम् । आत्मभोगश्च विश्वार्थ, जैनधर्मः स गीयते ॥ २५९ ॥ सर्वदेशेषु जैनाना-मस्तित्वं च प्रवर्धनम् । भवेद्येनाSSत्मभोगेन, जैनधर्मः स गीयते ॥ २६० ॥ स्वाध्यायश्च तपःपूजा, साधर्म्यभक्तिहेतवः । सम्यक्त्वं सत्यचारित्रं, जैनधर्मः स गीयते ॥ २६१ ॥ जैनधर्मस्य रक्षाया मुत्सर्गेणापवादतः । चतुर्विधेन संवेन, वर्तितव्यं सदा मुदा ॥ २६२॥ जैनधर्मस्य रक्षायां, धर्मोभवति देहिनाम् । महान्हि तीर्थकृन्नाम-बन्धो भवति देहिनाम् ॥ २६३ ॥ जैनानां संकटे प्राप्ते, ये भवन्ति सहायकाः । ते पराSSत्मपदं यान्ति, पुण्यानुबन्धकारकाः ॥ २६४ ॥
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जैनात्मा सद्गतिं याति यादृशस्तादृशोऽपि सः । जैन संस्कारयुक्तानां, जायते सर्वथोन्नतिः ॥ २६५॥ जिनेन्द्रो हृदि जैनानां, परीणामेन विद्यते । ततस्तेषां पवित्रत्वं विश्वपावित्र्यकारकम् ॥ २६६ ॥ जैनाssस्मैव परब्रह्म, मनोदेहनियामकः । अन्तर्यामी वपुःसृष्टौ तस्मै नित्यं नमोनमः ॥ २६७ ॥ तीर्थंकरप्रभोः पश्चात्, जैनधर्मप्रवर्तकाः । धर्माचार्या द्विधा ज्ञेया गृहित्यागिद्विभेदतः ॥ २६८ ॥ जैनधर्मस्य साम्राज्ये, विद्यमाने तु भूतले । सत्या विश्वोन्नति भूया, च्छान्तिश्च सर्वभूतले ॥ २६९ ॥ areछान्तिर्न केनाऽपि वर्त्ततेऽतो जनैः सदा । जैनधर्मसदाचारः, पालनीयः प्रयत्नतः ॥ २७० ॥ अल्पदोषं महाधर्म, ज्ञात्वा जैनैर्विवेकतः । जैनधर्मान्नितेः कार्य, कर्तव्य माऽऽत्मभोगतः ॥ २७९ ॥ जैनधर्मस्य सेवायां महिसैव स्वकर्मतः । अहिंसाप्यन्यथा हिंसा, जैनानां स्वत्वनाशिनी ॥ २७२ ॥ पुरुषाणां च नारीणां तुल्यत्वं सर्वकर्मसु । सर्वजातिमनुष्याणा - मुच्चत्वं न च नीचता ॥ २७३ ॥ सर्वदेशीयलोकानां राष्ट्रादिसर्वकर्मणाम् ।
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व्यवहारे समानत्वं, स्वातंत्र्यं च समं भुवि ॥ २७४ ॥ स्वातंत्र्यमेव धर्मेऽस्ति, सर्वदेशमनोषिणाम् । जैनधर्मो मया प्रोक्तो व्यक्तिस्वातंत्र्यरक्षकः || २७५ ॥ सर्वखण्डस्थलोकानां, रक्षणं सर्वशक्तितः । Grant मया प्रोकस्तथा पश्वादिरक्षणम् ॥ २७६ ॥
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૧૫ર अन्यायक्रौर्यनाशेन, विश्वस्य शान्तिरक्षणम् । सर्वत्र सर्व जैनानां, नधर्मस्य लक्षणम् ॥२७७॥ नारीभिश्च नरैः प्रीत्या, कर्तव्यं वीर्यरक्षणम् । वीर्यरक्षण मप्यस्ति, जैनधर्मः सुखावहः ॥२७८॥ ब्रह्मचर्याश्रमे बालाः संपाद्या ऊर्ध्वरेतसः। प्राणायामादिभिर्भव्याः कर्तव्याः कर्मयोगिनः ॥२७९॥ सर्वदेशेषु रोगाणां, नाशार्थमौषधालयः। स्थाप्यो वैद्यप्रबन्धेन, तथा ज्ञानालयः शुभः ॥२८०॥ पशूनां पक्षिणां रोग-नाशार्थ मौषधालयः। कर्तव्यः सत्प्रवन्धैश्च, सर्वत्र विश्वयोगिभिः ॥२८१॥ दुष्टानां संगतिस्त्याज्या, चौरा दण्ड्याश्च हिंसकाः। राज्यनीतिप्रबन्धेन, वर्तितव्यं जगज्जनैः ॥२८२॥ अहिंसा सर्वखण्डेषु, प्रतिष्ठाप्याऽऽत्मभोगतः। आत्मसंघादिरक्षाया, महिसैव स्वभावतः ॥२८३॥ आत्मवत्सर्वलोकेषु, वर्तन जैनधर्मिभिः। कर्तव्यं जैनधर्मोऽस्ति, सत्यं मया प्रकाशितम् ॥२८४॥ षडावश्यककर्माणि, कर्तव्यानि सुभावतः। वात्सल्यं सर्वसंघस्य, कर्तव्य माऽऽत्मभोगतः ॥२८५॥ अन्यधर्मिवितर्कैस्तु, चलितव्यं नचाऽऽहतः । स्थातव्यं न सदा जैन-गीतार्थसद्गुरुं विना ॥२८६॥ सतां सेवा सदा कार्या, शुद्धाऽऽत्मध्यानयोगिनाम् । तिरस्कारो न कर्तव्या, सतां मोहस्य चेष्टितैः ॥२८७॥ माता पिता कलाचार्यः, सद्गुरुश्च सुभक्तितः। सेव्यः शक्त्यनुसारेण, भोजनादिप्रवन्धतः ॥२८॥
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१५3 विश्वस्थसर्वधर्मा ये, जैनधर्मे प्रमान्ति ते जैनधर्माङ्गभूतास्युः सर्वधर्मा अपेक्षया ॥२८९ ॥ शुद्धाऽऽत्मधर्म एवास्ति, जिनधर्मः सुखोदधिः शुद्धाऽऽत्मधर्मसाध्याय, जैनधर्मोऽस्तिसाधनम् ॥२९०।। स्वाऽऽत्मैव जैनधर्मोऽस्ति, स्वधर्मो मोक्षदायका जडद्रव्यस्थितोधर्मः, आत्मभिन्नास्वभावतः ॥२९॥ मोहादिप्रकृतेर्धर्मो, वैभाविकोऽस्ति बोधत आत्मशुद्धिकरान्सर्वे, धर्माः सत्या अपेक्षया ॥२९२।। सर्वदर्शनधर्माणां, सत्यत्वं नयष्टितः जैनदर्शनसद्धर्म, जानन्त्येवं विचक्षणाः ॥२९३॥ मुत्त्यर्थ मोहनाशार्थ, चाऽऽत्मनःशुद्धिहेतवे भूता ये च भविष्यन्ति, जैनधर्मागरूपिणः ॥२९४॥ स्वधर्मा जैनधर्मास्ते, सापेक्षयैव बोधत साधिते जैनधते, सर्व धर्माः प्रसाधिताः॥२९॥ यथाऽन्धौ सरितो यान्ति, जैनधर्म प्रति स्वयम् सर्वधर्मास्तथा यान्ति, सर्वधर्ममयः स च ॥२९६॥ परस्परप्रभिमानां, धर्माणां धर्मिणां तथा द्वेषश्च खण्डनं नैव, कर्तव्यं सर्वधर्मिभिः ॥२९॥ सर्वधर्मस्य सत्यांशा-ग्राह्या सापेक्षदृष्टितः सर्वधर्मस्वरूपोऽस्ति, जैनधर्मः सनातनः ॥२९८॥ अभ्यागतस्य सन्मानं, दुःखार्तानां च पालनम्। बालस्त्रीसाधुसंघस्य, रक्षणं स्वीयशक्तितः ॥२९९॥ चतुर्विधस्य संघस्य, तथा धर्माधिकारिणाम् । ऋषीणां हेलना नैव, कर्तव्या धर्मसाधकैः ॥३०॥
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૧૫૪
अहंकारो न कतव्यो वक्तव्यं न च दुर्वचः । मंत्रभेदो न कर्तव्यः, प्राणान्तेऽपि सदा जनैः ॥ ३०२ ॥ मित्रद्रोहो न कर्तव्यः, सत्यं वाच्यं च सज्जनैः । देशद्रोहो न कर्तव्य - आत्मनो भूतिमिच्छता । ॥ ३०२ ॥ आत्मवज्जननी भूमि-र्मातृभाषा स्वतंत्रता । पूज्या रक्ष्या च सत्प्रेम्णा, मानवैराऽऽत्मभोगतः ॥ ३०३ ॥ गुणाः सर्वत्र संग्राह्या दोषा वाच्या न देहिनाम् । सद्विद्या सर्वतो ग्राह्या, कर्तव्या गुणसाधना ॥ ३०४ ॥ यथोचितं सुपात्रेभ्यो, दानं देयं स्वशक्तितः । वस्त्रान्नज्ञानदानेन, स्वर्गो मुक्तिश्च जायते ॥ ३०५ ॥ ज्ञानवृद्धि जनैः कार्या, ज्ञानविद्यालयादिभिः । साहाय्यं ज्ञानिनां कार्य, मन्नवस्त्रादिभिर्जनैः ॥ ३०६ ॥ त्याज्यानि पापकर्माणि, पुण्यं काय जनैः सदा । आपदुद्धर्मो जनैः सेव्य आपत्काले विशेषतः ॥३०७ || परोपकारकर्तॄणां प्रत्युपग्रहकर्मसु ।
स्थातव्य माSSत्मभोगेन, जनैर्धर्मपरायणैः ॥ ३०८ ॥ महावीर जिनेन्द्रस्य, जैना धर्मस्य साधकाः । भविष्यन्ति कलौ धर्म-दीपका ज्ञानियोगिनः ||३०९ | जैनसंघप्रगत्यर्थ, सर्वस्वार्पणकारकाः । भविष्यन्ति कलो जैना-ज्ञानधर्मेण राजिताः ||३१० || एकदा सर्वखण्डेषु, जैनधर्मप्रचारणा । भविष्यति कलौ नूनं, विश्वैक्यशांतिकारिका ॥ ३११॥ महावीरस्य सद्भक्त्या, लोकानां सद्गतिः कलौ । अरिष्टनेमिनाथेन, सर्वज्ञेन प्रकाशिता ॥ ३१२॥
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૧૧૫
महावीरस्य जापेन, जनानां सद्गति ध्रुवम् । बोरजापसमो यज्ञो, - कलौ नान्यो भविष्यति ॥ ३२३ ॥ भवन्ति सर्वजातीया - जैना एव जिनाः स्वतः । कलौ जैनस्य पूजैव, जिनपूजाऽस्ति सत्तया ॥३१४॥ कलिकाले करालेsपि, महावीरस्य भक्तितः । सर्वखण्डस्थिताजैना - यास्यन्ति स्वर्गसद्गतिम् ॥३१५॥
महावीरप्रभोर्नाम - जापकार्यपरायणाः
यादृशास्तादृशाजैना - यास्यन्ति स्वर्गसद्गतिम् ॥ २१६ ॥
कलिकालानुसारेण, वर्णावर्णव्यवस्थिताः ।
महावीरस्य जापेन, लोका यास्यन्ति सद्गतिम् ॥३१७॥ कलिकाले महाघोरे, महावीरः स्वबोधतः । तारकः सर्वविश्वस्य, भविष्यति न चान्यथा ॥ ३१८॥ ज्ञानक्रियायुता जैनाः, सर्वविश्वस्य तारकाः । भविष्यन्ति महावीर, -जापेन पञ्चमारके ॥३१९॥ महावीरस्य सत्प्रीत्या, सद्गतिः सर्वदेहिनाम् । अरिष्टनेमिना प्रोक्तं, कलौ सत्यं भविष्यति ॥ ३२० ॥ नयनिक्षेपसद्भङ्गैः, प्रमाणैश्च प्रतिष्ठितः । जैनधर्मोऽस्तु लोकानां सर्वदा शरणं महत् ॥३२१॥ जैनधर्मसमो धर्मा, न भूतो न भविष्यति । सर्वजातीयलोकानां तारको मोहवारकः ॥ ३२२ ॥ अरिष्टनेमिबोधेन, जातोऽन्तराऽऽत्मवान्प्रभुः । ज्ञापयामि जगल्लोकान, जैनधर्म सनातनम् ॥ ३२३॥ अरिष्टनेमिनाथस्य, पश्चात्पार्श्वप्रभोः शुभम् । शासनं वर्त्स्यति व्यक्तं, भारते लोकतारकम् ॥ ३२४ ॥
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ततः श्रीमन्महावीर-शासनं पञ्चमारके । वस्य॑ति सर्वलोकानां, तारकं दुःखवारकम् ॥३२॥ अरिष्टनेमिनाथोक्त-मन्यथा नैव जायते । भारते वासुदेवेन, मया सत्यं प्रकाशितम् ॥३२६॥ मयोक्ता वासुदेवेन, गीता सत्यसनातना। परम्पराप्रवाहेण, कलावपि प्रवत्स्यति ॥३२७॥ कलौ वीरस्य गीतायाः, समा नान्या भविष्यति । मद्गीतायाः समावेश-स्तत्र नूनं भविष्यति ॥३२८॥ शुद्धाऽऽत्मा नेमिनाथोऽस्ति, केवलज्ञानभास्करः अन्तराऽऽत्मैव कृष्णोऽस्ति, भावितीर्थकरो महान् ॥३२९॥ शुद्धाऽऽत्मैव महावीर-स्तीर्थकृच्चरमेश्वरः आत्मैव परमाऽऽत्मास्ति, सत्तया सर्वदेहिनाम् ॥३३०॥ आत्मनः परमाऽऽत्मत्व,-प्राकट्यार्थ मनीषिणाम् जैनधर्मोपदेशोऽयं, वासुदेवेन भाषितः ।३३१॥ पठन्ति कृष्णगीतां ये, शृण्वन्ति पाठयन्ति च स्वर्ग मुक्तिं च ते यान्ति, लभन्ते सर्वमङ्गलम् ॥३३२॥ सर्वमङ्गलमाङ्गल्यं, सर्वकल्याणकारणम् । प्रधानं सर्वधर्मेषु, जैनं जयतु शासनम् ॥३३॥
ॐ अहेशान्तिः ३
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