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जैनविद्या
महावीर जयन्ती 2589
प्राचार्य पूज्यपाद विशेषांक
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जैनविद्या संस्थान
(INSTITUTE OF JAINOLOGY) दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी
राजस्थान
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मुखपृष्ठ चित्रपरिचय
मुखपृष्ठ पर मुद्रित चित्र जैनविद्या संस्थान श्रीमहावीरजी के पाण्डलिपि संग्रह में प्राप्त सर्वार्थसिद्धि के अंतिम दो पृष्ठों का है जिसका संक्षिप्त परिचय और लिप्यन्तरण निम्न प्रकार है-वेष्टन सं. 4267। कुल पत्र 141, आकार 29X14 सेमी। लिपिकार बीधू श्रीवास्तव कायस्थ । लिपिकाल सं. 1572।
(स्वर्गापवर्गसुखमाप्तमनोभिरायें जैनेन्द्र शास) न वरामतसारभूता । सर्वार्थसिद्धिरिति सद्भिरुपात्तनामा, तत्त्वार्थवृत्तिरनिशं मनसा प्रधार्या । तत्त्वार्थवृत्तिमुदितां विदितार्थतत्त्वा, शृण्वंति ये परिपठंति सुधर्मभक्त्या । हस्तेकृतं परमसिद्धिसुखामृतं तैर्मत्यामरेश्चरसुखेषु किमस्तिवाच्यम् । ये नेदमप्रतिहतं सकलार्थ तत्त्वमुद्योतितं विमलकेवललोचनेन । भक्त्या तमदभतगणं प्रणमामि वीरमारान्नरामरगणाचितपादपीठम ||छ।। इतितत्त्वार्थवृत्तौ सर्वार्थसिद्धि संज्ञिकायां दशमोध्यायः समाप्तः ।।छ।।सूत्र 10।। यं नत्वा न नमति कंचनपरं नत्वाचयं, नापरं ध्यात्वा यं च परं गुणैरनुगता ध्यायति नो योगिनः । यं मत्वा नभवाटवीपरिसरैव भ्रम्यते जन्मभृतं, वंदे नपनाभिसुनुमत- मुक्तिश्रियो वल्लभम् ।। 1 ।। श्रीमद्काष्टासंघे माथुरगच्छे सपुष्करगणे भूत्गुणकीतिरमितकीर्तिस्तत्पढ़े चाप्य भदयश:कीतिः ।। 1 ।। तत्पद्रोदयशिखरिण्यूदितः श्री मलयकीर्तिखरकिरणः, अस्ति च तत्पदकुमुदंमुदयन्गुणभद्रनामहिमकिरणः ।।2।। श्रीमत्सर्वधराधिनाथमुकुट श्रीमानपृथ्वीपतौ, क्षोणी शासति धर्म एव नितरामासीज्जनानां मनः । तत्राखंडगुणैकभाजनमभच्छीसाधूवर्यः कृती, देवीदासइतीव यत्प्रियतमासाध्वीव लोचामला ।।1।। तत्पुत्राश्त्रय एव चंदुसदृशा गांगू नत्तु पद्मसीत्येवं हि प्रथिताभिधाकृति गुण ग्रामाः समुत्येदिरे ।। तेषां यः खलु पद्मसीत्यंवरजः श्रेष्टोगुणैनिमर्लेभार्या, तस्य हि चंद्रपाल तनुजा गौरीव शंभुप्रिया ।।2।। तत्पुत्रो हरसिंहःजितर.बुद्धि सर्वनरसिंहः । श्रीजिनसेवक सिंहश्चचासीत्पापेभशांतिकरसिंहः ।।3।। तभार्या तु सवीरा पुत्रौ चतुरं च देवसेनं च । सुषुवे परमविनीतौ भर्तु हितकारिणी मनोज्ञा च ।।4।। निजधर्मपालनार्थं श्रीजिनसुकृतचरितपरिपाठार्थं । हरसिंहसाधूवलिखापिता ग्रंथ समुदायाः ।।5।। संवत् 1572 वर्षे जेष्ट सुदि 5 गुरवासरे पुक्षनक्षत्रे । वृद्धिनामजोगे संध्यासमये ग्रंथस्य समाप्ति: ।। लेखक कायस्थ श्रीवास्तव्य ठा मेघू सुत ठा वीधू लिक्षते वर्षे नेत्र नभोश्च भूमि गणिते 1702 मासीषके निर्मले शुक्ले वैनवमेन्हि चोदयपुरेस श्री जगत्सिह के शिष्यो देवनरेन्द्रकीर्तिगणिनो वादी जगन्नाथ वा कू पुस्तं शस्तमिदं जिनोक्तिनिचितं जग्राह सद्भक्ति: ।।1।।
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जैनविद्या
जैनविद्या संस्थान श्रीमहावीरजी द्वारा प्रकाशित अर्द्धवार्षिक
शोध-पत्रिका
मार्च 1991
सम्पादक
ज्ञानचन्द्र खिन्दूका
डॉ. गोपीचन्द पाटनी सहायक सम्पादक पं. भंवरलाल पोल्याका
परामर्शदाता डॉ. कमलचन्द सोगाणी
प्रबंध-सम्पादक कपूरचन्द पाटनी
मंत्री
प्रबन्धकारिणी कमेटी दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र, श्रीमहावीरजी
प्रकाशक
जैनविद्या संस्थान दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी
मुद्रक : जर्नल प्रेस
__ जयन्ती मार्केट, जयपुर
वार्षिक मूल्य तीस रुपया मात्र
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विषय-सूची
क्र.सं.
विषय
लेखक
पृ. सं.
प्रास्ताविक प्रकाशकीय
1. प्राचार्य पूज्यपाद
पं. नरेन्द्रकुमार 'मिसीकर' 2. तत्त्व संग्रह
मा. पूज्यपान 3. योगी क्या चाहता है/करता है ? मा. पूज्यपाद 4. श्री पूज्यपाद संबंधी कुछ
श्री कुन्दनलाल जैन ऐतिहासिक अभिलेख 5. चिदानंद स्वरूप की उपलब्धि मा. पूज्यपाद 6. प्राचार्य पूज्यपाद का लक्षण और डॉ. रमेशचन्द्र जैन
व्युत्पत्तिपरक दृष्टिकोण 7. प्राचार्य पूज्यपाद का संस्कृत ___डॉ. हरीन्द्रभूषण जैन
व्याकरण-शास्त्र को अवदान 8. इष्टोपदेश : दर्शन मौर नीति का डॉ. श्रीरंजन सूरिदेव
अपूर्व संगम : 9. इष्टोपदेश का उपदेश
“श्री श्रीयांसकुमार सिंघई 10. मकान मृत्यू किन जीवों की नहीं
मा. पूज्यपाद il. इष्टोपदेश में सालंकारता 12. पूज्यपाद-स्मरण 13. देवनंदि पूज्यपाद का सर्जना-संसार -----..मादित्य प्रचडिया 14. प्राचार्य पूज्यपाद का युगबोध में.संजीव प्रचमिया 15. मुक्त मात्मा ऊपर ही क्यों जाता है ? प्रा. पूज्यपाव 16. भाचार्य देवनंदि पूज्यपाद पोर उनका समय भी रमाकान्त बन 17. सप्ततच्च
रचनाकारः प्रभात अनुवादकः पं मंबरलाल पोल्याका
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प्रास्ताविक
इस जड़ और चेतनमयी जगत् के पदार्थों को देखकर प्रत्यक्ष और परोक्ष में घटनेवाली घटनाओं का अवलोकन कर, श्रवण कर, हित और अहित का मूल्यांकन कर अन्तस् में उनसे उत्पन्न अनुभूतियों को साहित्यकार अपनी सृजन-प्रतिभा और अभिव्यक्ति की क्षमता के अनुसार शब्दायित करता है, रूपायित करता है। ऐसे सुसाहित्य का सृजन साहित्यसाधना के साथ-साथ प्रात्मसाधना में भी सहायक होता है, समर्थ होता है।
लोककल्याणकारी, हित की प्राप्ति और अहित का परिहार करनेवाली भावनाओं के साथ शब्दों का चयन, रमणीयता व लालित्य भी साहित्य के लिए परम आवश्यक है। उदाहरणार्थ “शुष्कः काष्ठः तिष्ठत्यग्रे" तथा "नीरसतरुरिह विलसति पुरतः” ये दोनों ही वाक्य एक ही भाव व अर्थ का प्रतिपादन करते हैं, फिर भी प्रथम वाक्य साहित्यिक नहीं कहा जा सकता है। आचार्य पूज्यपाद ऐसे ही रससिद्ध साहित्यकार थे जिनके लिए कहा गया है-नास्ति येषां यशः काये जरामरणजं भयम् । ----
प्राज यद्यपि उनका भौतिक शरीर हमारे समक्ष नहीं है तथापि उन्होंने जो अपूर्व साहित्य का सृजन किया है उससे उनकी साहित्यरूपी काया प्रेरणा और मार्गदर्शन के लिए हमारे सामने जीवन्त खड़ी है ।
___ जिस प्रकार प्राचार्य कुन्दकुन्द प्राकृत भाषा के बहुश्रुत विद्वान् थे उसी प्रकार प्राचार्य पूज्यपाद अपरनाम देवनंदि, जिनेन्द्रबुद्धि, यशः कीति, यशोनंदि संस्कृत भाषा के तलस्पर्शी अध्येता थे। दर्शन, तर्क, आयुर्वेद और साहित्य में उनकी अबाध गति थी। श्रवणबेलगोल के शिलालेख सं. 40 में उनके संबंध में उल्लेख है
यो देवनंदि प्रथमामिधानो, बुद्ध्या महत्या स जिनेन्द्रबुद्धिः श्री पूज्यपादोऽजनि देवताभि-यंत्पूजितं पादयुगं यदीयं ।। माचार्य कुन्दकुन्द सम्बन्धी श्लोक की एक पंक्ति भी इस प्रकार है--
'तस्यान्वये भूविदिते बभूव यः पद्मनंदी प्रथमाभिधानः' अन्य किसी प्राचार्य के नाम के साथ 'प्रथम' शब्द का प्रयोग देखने में नहीं आया।
इस ही शिलालेख के निम्न श्लोक से यह भी विदित होता है कि वे जिनदर्शनार्य विदेहक्षेत्र गए थे और वे मौषधऋद्धि के धारी थे--
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श्री पूज्यपादमुनिरप्रतिमौषद्धिः, जीयाद् विदेहजिनदर्शनपूतगात्रः। यत्पादधौतजलसंस्पर्शप्रभावात्,
कालायसं किल तदा कनकोचकार । शिलालेख सं. 40 में ही उनके साहित्यिक कर्तृत्व के संबंध में निम्न अंश भी उपलब्ध होता है
जैनेन्द्र निजशब्दमागमतुलं सर्वार्थसिद्धिः परा, सिद्धान्ते निपुणत्वमुदणकविता जैनाभिषेकः स्वकः । छन्दः सूक्ष्मधियं समाधिशतकं स्वास्थ्यं यदीयं विदा
माख्यातीह स पूज्यपाद मुनिपः पूज्यो मुनीनांगरणः ॥4॥ सूत्र के प्रत्येक पद की जो विस्तृत विवेचना की जाती है उसे वृत्ति कहते हैं । वृत्ति शब्द की यह परिभाषा मोक्षशास्त्र (तत्त्वार्थ सूत्र) की प्राचार्य पूज्यपाद द्वारा रचित तात्पर्यवृत्ति (सर्वार्थसिद्धि) में पूर्णरूप से घटित होती है। इसमें सूत्रगत प्रत्येक पद के जितने भी अर्थ हो सकते हैं उन सबका प्रश्नोत्तर रूप में तर्कपूर्ण शैली से व्याकरण के नियमों के अनुसार पदच्छेदपूर्वक विवेचन प्रस्तुत करते हुए अपने मंतव्यों की पुष्टि की है। उनकी इस टीका में जैनसिद्धान्त का इतना विपुल ज्ञान भरा पड़ा है कि कोई भी जिज्ञासु केवल इसका अध्ययन करके ही द्रव्यानुयोग, करणानुयोग और चरणानुयोग तीनों का विस्तृत ज्ञान अर्जित कर सकता है तथा संस्कृत व्याकरण एवं तर्कशास्त्र का पारंगत विद्वान बन सकता है ।
आचार्य-पुगव की दूसरी महत्त्वपूर्ण रचना है समाधितन्त्र अपर नाम समाधिशतक ग्रन्थकार ने इसके संबंध में यह संकेत दिया है--
श्रुतेनलिंगेन यात्मशक्ति, समाहितमन्तःकरणेन सम्यक् ।
समीक्ष्य केवल्यसुखस्पृहाणां, विविक्तमात्मानमथामिधास्ये ।
अर्थात् मैं इसकी रचना श्रुत, तर्क, आत्मशक्ति और अन्तःकरण को भली प्रकार एकाग्र करके समीक्षापूर्वक अपने अनुभव के आधार पर कैवल्य-सुख की वाञ्छा रखनेवालों के लिए करूंगा।
प्राचार्यश्री की तीसरी रचना इष्टोपदेश भी अध्यात्मरस से सराबोर है।
कहा जाता है कि प्राचार्यश्री द्वारा संस्कृत में दस भक्तियों की रचना की गई है अब तक की शोध-खोज के अनुसार सिद्ध, श्रुत, चारित्र, योगी, प्राचार्य, निर्वाण और नंदीश्वर ये सात भक्तियां ही उपलब्ध हैं जो सभी भक्तिरसपूरित होने के साथ-साथ उनके स्वरूप. को भी स्पष्ट करती हैं।
आप अपने समय के अधिकारी वैयाकरण थे । इन्द्र, चन्द्र, पाणिनी, शाकटायन, आदि महान् व्याकरणवेत्ताओं की श्रेणी में उनकी गणना है। कई प्राचार्यों ने अकलंक के
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प्रमाण की भाँति ही 'पूज्यपादस्य लक्षणं (व्याकरणं)' कहते हुए उनके जैनेन्द्र व्याकरण को अभूतपूर्व तथा अपने विषय का एकाकी ग्रंथ प्रतिपादित किया है। इस व्याकरण पर उनका स्वयं का न्यास भी था जो अब अनुपलब्ध है।
इनके अतिरिक्त उनकी कई और रचनाएं भी विभिन्न विषयों की थीं जिनमें शान्त्यष्टक को छोड़कर और अनुपलब्ध हैं किन्तु उनके उल्लेख अन्य ग्रंथों में प्राप्य हैं । वे मंत्र-तंत्र, रस और योग विद्या में भी निष्णात थे । चिकित्साग्रंथों में उन द्वारा बताये अनेक रस-संबंधी तथा विभिन्न प्रकार की जड़ी बूटियों से निर्माण-योग्य अनुभूत, प्रभावक तथा मद्यरहित अहिंसक प्रयोगों का वर्णन मिलता है ।
विभिन्न जैन तीर्थंकरों के चिह्नों की परिभाषा भी जैन परम्परानुसार उन्होंने की थी।
तत्वार्थाधिगम (मोक्षशास्त्र) के छठे अध्याय के सूत्र 3 में मन, वचन और काय की शुभ प्रवृत्ति को पुण्यबंध का और अशुभ प्रवृत्ति को पापबंध का कारण बताया है (शुभः पुण्यस्याशुभः पापस्य)। इसमें प्रयुक्त पुण्य शब्द की व्याख्या करते हुए आचार्य पूज्यपाद ने प्रतिपादित किया है--'पुनात्यात्मानं पूयतेऽनेन वा पुण्यम्' अर्थात् जो आत्मा को पवित्र करता है या जिससे प्रात्मा पवित्र होता है वह पुण्य है ।
. सूत्र 12 में भूत-अनुकम्पा, व्रती-अनुकम्पा, दान, सराग-संयम आदि के योग तथा क्षांति और शौच की पुण्य-प्रवृत्तियों में गणना करते हुए इनको साता-वेदनीय के प्रास्रव का कारण माना है। ये सब प्रवृत्तियां प्राचार्य के जीवन में परिलक्षित होती हैं । वे सच्चे अर्थों में स्व-परहितनिरत पुण्यात्मा/पूतात्मा साधु थे और भव्यात्माओं के लिए तारण-तरण जहाज थे। ऐसे महान् प्राचार्य के व्यक्तित्व और कृतित्व की यत्किञ्चित झांकी इस अंक में प्रस्तुत की गई है । आशा है पाठकों को यह अंक रुचिकर एवं लाभकर होगा ।
इस विशेषांकरूपी उद्यान में प्रारोपणार्थ जाने-माने विद्वानों ने अपने निबंघरूपी पादप हमें भेजे हैं । आवश्यक काट-छांट द्वारा इनको सजा-संवारकर यथास्थान प्रारोपित करने का हमने प्रयास किया है । अपनी रचनाएं भेजकर जो अमूल्य सहयोग उन्होंने हमें प्रदान किया उसके लिए हम भविष्य में भी ऐसे ही सहयोग-प्राप्ति की कामना के साथ उनके आभारी हैं।
' पूर्व अंकों की भांति ही इस अंक में भी अपभ्रंश भाषा की एक 'सप्ततत्त्व' शीर्षक लघु-रचना सानुवाद प्रकाशित है जिसमें सप्ततत्त्वों का निश्चय और व्यवहार नय से लाक्षणिक विवेचन किया गया है । पाठकों के एतद्विषयक ज्ञानवृद्धि में यह सहायक होगी ऐसी आशा है । इस रचना का सम्पादन एवं अनुवाद हमारे संस्थान में कार्यरत विद्वान् श्री भंवरलाल पोल्याका द्वारा किया गया है । इसके लिए हम उनके आभारी हैं ।
इस अंक के संपादन व प्रकाशन में सहयोग के लिए डा. कमलचन्द सोगाणी व श्री भंवरलाल पोल्याका के प्रति आभार व्यक्त करते हैं। इसके मुद्रण के लिए जर्नल प्रेस भी धन्यवादाह है।
ज्ञानचन्द्र खिन्दूका
संयोजक जैनविद्या संस्थान समिति
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प्रकाशकीय
___ श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी की प्रबन्धकारिणी कमेटी धर्मप्रेमी यात्री बन्धुओं द्वारा प्रदत्त द्रव्य को जहाँ यात्रियों के लिए आवश्यक सुख-सुविधा जुटाने, नवीन निर्माण कराने, मन्दिर का कला वैभव बढ़ाने, भक्तजनों द्वारा पर्व, उत्सव, पूजापाठ आदि धार्मिक आयोजनों के अवसर पर उन्हें आवश्यक सहयोग प्रदान करने तथा अन्य लोकोपयोगी/ लोक-कल्याणकारी कार्यों में व्यय करती है वहाँ वह जैनधर्म, दर्शन, साहित्य आदि के प्रचारप्रसार, प्राधुनिक शैली में नवीन साहित्य निर्माण तथा प्रकाशन आदि कार्यों में भी उत्साहपूर्वक प्रचुर द्रव्य व्यय कर रही है। कमेटी ने इसी उद्देश्य से जनविद्या संस्थान की स्थापना कर रखी है।
एतदर्थ जैनविद्या संस्थान और उससे सम्बद्ध अपभ्रंश साहित्य अकादमी योजनाबद्ध रूप में इस क्षेत्र में कार्यरत है। प्राचीन प्रसिद्ध जैनाचार्यों के व्यक्तित्व और कर्तृत्व पर जैनविद्या नामक शोधपत्रिका के माध्यम से विद्वानों के शोधपूर्ण निबन्ध प्रकाशित किये जाते हैं।
अब तक जनविद्या के विशेषांकों द्वारा स्वयंभू, पुष्पदन्त, धनपाल, वीर, मुनिनयनन्दि, कनकामर, योगीन्दु और प्राचार्य कुन्दकुन्द के जीवन, दर्शन और साहित्य पर प्रकाश डाला जा चुका है। प्रस्तुत अंक प्राचार्य पूज्यपाद से सम्बद्ध है।
प्राचार्य पूज्यपाद की तत्कालीन लब्ध-प्रतिष्ठ, प्रतिभासम्पन्न, अध्यात्म-पथ के पथिक, रत्नत्रय के धारी सारस्वत प्राचार्यों में गणना थी। वे समन्तभद्र और सिद्धसेन की कोटि के विद्वान् थे। प्रादिपुराण के कर्ता जिनसेन ने तो उनकी प्रशंसा में 'कवीनां तीर्थकृद्देवः' कहकर उन्हें कवि समाज का तीर्थकर बताया है। इससे ही उनकी महत्ता का सहज प्राकलन किया जा सकता है।
प्राचार्यश्री ने संस्कृत भाषा में अनेक विषयों पर प्राधिकारिक ग्रन्थ रचना कर उसके साहित्यिक भण्डार की श्रीवृद्धि की है।
समाधितन्त्र अपरनाम समाधिशतक मुमुक्षुत्रों के मार्गदर्शनार्थ दीपस्तम्भ के समान है। इसमें बहिरात्मा किस प्रकार अन्तरात्मा बन परमात्म-पद की प्राप्ति कर सकता है, इस प्रक्रिया का सरल और सुबोध ढंग से काव्यरूप में वर्णन किया गया है ।
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...... तत्वार्थसूत्र अपरनाम मोक्षशास्त्र जनों के समस्त सम्प्रदायों में समानरूप से समादृत है। प्राचार्यश्री पूज्यपाद ने इसकी सर्वार्थसिद्धि अपरनाम तात्पर्यवृत्ति नाम से जो टीका रची वह सर्वाधिक प्रामाणिक मानी जाती है।
इनके द्वारा रचित संस्कृत भाषा की भक्तियां भी केवल भक्तिरस की गंगा ही प्रवाहित नहीं करतीं उपास्य के स्वरूप का भो स्पष्ट प्रतिपादन करती हैं ।
ब्याकरण शास्त्र के भी वे अधिकारी विद्वान् थे। जिस प्रकार कालिदास की उपमा, भारवि का अर्थगौरव और दण्डी का पदलालित्य अपनी समता नहीं रखते उसी प्रकार उनके लक्षण भी बेजोड़ माने जाते हैं ।
ऐसे महान् प्राचार्य एवं उनके कर्तृत्व का यत्किञ्चित परिचय इस अंक में प्रकाशित करते हुए हमें प्रसन्नता है । आशा है अन्य प्रकाशनों की भांति ही हमारा यह प्रकाशन भी पाठकों को लाभकर एवं रुचिकर होगा ।
इस अंक में अपभ्रंश की एक लघु रचना भी सदा की मांति सानुवाद प्रकाशित है । इस बार इसमें अनुक्रमणिका देकर इसे और भी उपयोगी बनाने का प्रयत्न किया गया है । - आचार्य पूज्यपाद के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को जन-साधारण के समक्ष प्रकाश में लाकर जनविद्या संस्थान ने उन आचार्यों एवं मनीषियों के प्रति, जिन्होंने प्राणिमात्र के लिए आत्म-कल्याण का मार्ग प्रशस्त कर उपकार किया, कृतज्ञता भाव प्रकट कर स्तुत्य एवं सराहनीय प्रयास किया है, उसके लिए संयोजकजी, जनविद्या संस्थान समिति, सम्पादक मण्डल एवं उनके सहयोगी निश्चित ही साधुवाद के पात्र हैं। संस्थान भविष्य में भी ऐसी महान् आत्माओं के सम्बन्ध में ऐसे विशेषांक प्रकाशित करता रहेगा।
वे सब महानुभाव भी जिन्होंने इस अंक के सम्पादन, प्रकाशन तथा मुद्रण में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सहयोग प्रदान किया है, धन्यवाद तथा प्रशंसा के पात्र हैं।
कपूरचन्द पाटनी . प्रबन्ध सम्पादक
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आचार्य पूज्यपाद -पं. नरेन्द्रकुमार भिसीकर शास्त्री, (न्यायतीर्थ-महामहिमोपाध्याय) सोलापूर
प्राचार्य पूज्यपाद मूलसंघ के नंदीसंघ में ईसा की पांचवी शताब्दी में दि. जैन साहित्य, दर्शन तथा व्याकरण शास्त्र के प्रमुख आचार्य हो गये हैं ।
श्री पूज्यपाद मुनिरप्रतिमौषद्धि : । जीयात् विदेहजिनदर्शनपूतगात्र : ॥ यत्पादधौतजलसंस्पृशप्रभावात् ।
कालायसं किल तदा कनकीचकार ॥ प्राचार्य पूज्यपाद के जीवन में प्रमुखता से तीन घटनायें घटित हुईं - 1. प्राचार्य पूज्यपाद को तप के प्रभाव से औषध ऋद्धि प्राप्त हुई थी। 2. विदेहक्षेत्र में जाकर भगवान् सीमंधर की दिव्यध्वनि सुनकर उन्होंने अपना
मानवजीवन पवित्र किया था। उनको चारणऋद्धि प्राप्त थी। 3. उनके पाद प्रक्षालन द्वारा पवित्र जल के स्पर्श मात्र से लोहा भी सुवर्ण बन जाता
था। प्रांखों की ज्योति कम होने पर उन्होंने शांतिनाथ भगवान् की स्तुति की
शांति शांतिजिनेन्द्र शांतमनसा त्वत्पादपद्माश्रयात् । संप्राप्ताः पृथिवीतलेषु बहवः शांयथिनः प्राणिनः । कारुण्यान्मम भाक्तिकस्य च विभो दृष्टि प्रसन्नां कुरु । त्वत्पादद्वयदैवतस्य गदतः शांत्यष्टकं भक्तितः ॥
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जनविद्या-12
इस प्रकार स्तवन करते ही उनकी दृष्टि निर्मल हो गई।
उन्होंने अपने जीवन में अनेक ग्रंथों की रचना कर दिगंबर जैन साहित्य की महती सेवा की । यथा
1. सर्वार्थ सिद्धि 2. इष्टोपदेश 3. समाधिशतक 4. जैनेन्द्र व्याकरण इत्यादि । इष्टोपदेश नामक ग्रंथ का मंगलाचरण करते हुए वे कहते हैं
यस्य स्वयं स्वभावाप्तिरमावे कृत्स्नकर्मणां ।
तस्मै संज्ञानरूपाय नमोऽस्तु परमात्मने । स्वभाव के प्रतिकूल कारण मोह राग द्वेष रूप भावकर्म तथा उनके प्रभाव से ज्ञानावरणादि अष्ट द्रव्यकर्म का अभाव होने पर जिनको स्वयं स्वतःसिद्ध अात्मस्वभाव का प्राश्रय लेने से शुद्ध स्वभाव की प्राप्ति हुई ऐसे अपने ध्र व ज्ञायक स्वभाव कारण परमात्मा को नमस्कार हो। जैनदर्शन ने स्वावलंबन ही मुक्ति का मार्ग बतलाया है ।
योग्योपादन योगेन दृषदः स्वर्णता मता ।
द्रव्यादि स्वादि संपन्नौ प्रात्मनोऽप्यात्मता मता ॥ सुवर्णपाषाण में अग्नि के संयोग से अपनी उपादान स्वद्रव्य-स्वक्षेत्र-स्वकाल-स्वभावरूप स्वचतुष्टय संपत्ति के कारण स्वर्णता स्वयं प्रकट होती है। यद्यपि निमित्त प्रधान व्यवहार नय भाषा से अग्नि के संयोग से स्वर्णता पाती है ऐसा कहा जाता है, परन्तु यदि केवल अग्नि का संयोग स्वर्णता पाने का कारण माना जावे तो अन्य पाषाण से भी स्वर्णता प्राप्त होनी चाहिये परन्तु वह असंभव है। इससे सिद्ध होता है कि सुवर्ण पाषाण की स्वद्रव्यादि चतुष्टय रूप योग्यता ही स्वर्णता का मुख्य कारण है। यद्यपि व्यवहार-नय भाषा से कर्मों के अभाव में जीव को मोक्ष सुख की प्राप्ति होती है ऐसा कहा जाता है, तथापि कर्मों का अभाव प्रात्मा की मोक्षप्राप्ति का मुख्य कारण न होकर उसकी स्वचतुष्टयरूप योग्यता ही आत्मा से परमात्मा बनने का उपाय है ।
पराश्रित व्यवहार नय से देव-शास्त्र-गुरु का उपदेश मोक्षप्राप्ति का कारण कहा जाता है, परन्तु अध्यात्म प्रधान निश्चय नय से प्राचार्य इष्टोपदेश ग्रंथ में कहते हैं
स्वस्मिन सदभिलाषित्वात, अभीष्टज्ञापकत्वतः।
स्वयं हितप्रयोक्तृत्वात्, प्रात्मैव गुरुरात्मनः ॥ 34 ॥ सत् की इष्टाभिलाषा अपने में होती है, इष्ट का ज्ञान आत्मा को ही होता है, और आत्मा स्वयं हितरूप प्रवृत्ति करता है, अर्थात् सत् की इष्ट की रुचि, इष्ट का ज्ञान तथा इष्ट में प्रवृत्ति स्वयं प्रात्मा ही करता है, तीनों कार्य रुचि (श्रद्धा), ज्ञान तथा चारित्रप्रवृत्ति आत्मा में ही होते हैं, इसलिए वास्तव में प्रात्मा ही आत्मा का गुरु है । अन्य देवशास्त्र-गुरु केवल निमित्त मात्र मार्गदर्शक हैं । यहाँ निमित्त और उपादान दोनों के सद्भाव में कार्य होता हुआ देखने से कोई स्थूल दृष्टि -अज्ञानी केवल पराधीन होकर निमित्त को अपने सुख-दुःख का कर्ता
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जैनविद्या-12
मानता है तथा कोई निमित्त और उपादान दोनों को कार्य का कर्ता मानता है । उक्त दोनों पक्षों का खंडन कर आचार्य कहते हैं
एक उपादान स्वयं प्रात्मा ही अपने सुख-दुःख का कारण है । यद्यपि उस समय इष्ट परद्रव्य का संयोग और अनिष्ट परद्रव्य का वियोग-अभाव सुख का कारण, तथा इष्ट परद्रव्य का वियोग और अनिष्ट परद्रव्य का संयोग दुःख का कारण दिखाई देता है तथापि सूक्ष्म तत्त्वदृष्टि से देखा जाय तो
सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता ।
परो ददातीति कुबुद्धिरेषा ॥ __ अपने सुख-दुःख का देनेवाला कोई अन्य इष्ट-अनिष्ट पदार्थ है, इस प्रकार की मान्यता मिथ्या है, वस्तु-सिद्धान्त के विपरीत है ।
यहां कोई प्रश्न उपस्थित कर सकता है कि केवल उपादान द्रव्य को ही कर्ता मानना, नमित्त को अकिंचित्कर मानना यह मिथ्या एकांत है । प्रागम में तो' –'बाह्य तरोपाधि समग्रतेयं कार्येषु ते द्रव्यगतः स्वभावः ।' बाह्य-निमित्त और पभ्यंतर-उपादान दोनों की समग्रता कार्य की जनक कही है।
इसका उत्तर है कि यहां समग्रता शब्द से अभिप्राय है—बाह्य और अभ्यंतर, उपादान और निमित्त इन दोनों की अपने-अपने कारण की समग्रता होने पर कार्य होता है । इस प्रकार दोनों का सांनिध्य-संयोग-सद्भाव मात्र अावश्यक कहा है ।
तथापि प्राचार्य कहते हैं—निमित्तमभ्यन्तरमूलहेतोः ॥ अर्थात् वस्तु का अभ्यन्तर उपादान कारण ही कार्य का मूल हेतु परमार्थ हेतु रहता है।
निमित्तमात्रमन्यत् तु गते धर्मास्तिकायवत् । जो अन्य परद्रव्य निमित्त कारण कहा जाता है वह केवल निमित्त मात्र केवल सद्भाव सूचक है । उपादान की तरह निमित्त उपादान के कार्य में कुछ करे ऐसा नहीं है। जैसाकि जीव-पुद्गल द्रव्य की गति क्रिया में धर्म द्रव्य केवल उदासीन निमित्त कहा जाता है। प्रत्येक कार्य अपने उपादान कारण से ही होता है। तदनुकूल बाह्य इतर कारणों का सद्भाव सांनिध्य मात्र आवश्यक होता है।
निमित्त के संयोग-सांनिध्य के बिना कार्य नहीं होता, परन्तु निमित्त पर द्रव्य उपादान द्रव्य की परिणति क्रिया में कुछ करे, ऐसा नहीं है । सर्वथा अकिंचित्कर है ।
यहां निमित्त प्रधान व्यवहारनय भाषा से तत्वार्थराजवार्तिक में प्रश्न उपस्थित किया है--निमित्तभूतं परद्रव्यं कथं अकिंचित्करं स्यात् ?" निमित्तभूत परद्रव्य का सद्भाव, संयोग, सांनिध्य आवश्यक होने पर निमित्तभूत परद्रव्य को अकिंचित्कर किस कारण कहा ?
____ उत्तर-कौनमा कार्य किस परद्रव्य के संयोग में, सांनिध्य में होता है ऐसा निमित्त मात्र का ज्ञान कराने के लिए निमित्तभूत परद्रव्य का संयोग आवश्यक कहा । परन्तु उपादान
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द्रव्य के कार्य के व्यापार में कर्तृरूप या करणरूप कारण मूल उपादान द्रव्य का स्वचतुष्टय ही कार्यकारी है ।
roदवियेर
दवियस्स रग कीरs गुरण प्पादो ।
अन्य द्रव्य के द्वारा अन्य द्रव्य का कोई भी कार्य कर्तृरूप से या कररणरूप से करने का सामर्थ्य अन्य द्रव्य में नहीं है । यह वस्तुतत्त्व का कार्य-कारण भाव का मूल सिद्धान्त है । इस प्रकार वस्तु स्वातंत्र्य का सिद्धान्त उद्घोषित करना यही जैनदर्शन के अनेकान्त शासन का अनुपम वैशिष्ट्य है ।
यः परिणमति स कर्ता, परिणामो यो भवेत् तु तत्कर्म ।
जो स्वयं परिणमता है वही उस परिणाम का (कार्य का ) कर्ता होता है और जिस परिणाम से परिणमता है वही उसका परिणाम कर्म होता है । इस प्रकार कार्य-कारण भाव अभिन्न एक द्रव्य और उसके परिरणमन कार्य के साथ ही माना गया है।
प्रश्न – मोक्षशास्त्र में धर्म-अधर्म, आकाश - काल द्रव्य के लक्षण करते हुए धर्म द्रव्य को जीव - पुद्गल के गति हेतु लक्षण, अधर्म द्रव्य को स्थिति हेतु लक्षरण कहा है। आकाश द्रव्य को सब द्रव्यों का अवगाहन हेतु लक्षण, कहा है । काल द्रव्य को वर्तना हेतु कहा है ।
उत्तर – ये सब लक्षण प्रसद्भूत व्यवहार नय से कहे हैं । वास्तव में एक द्रव्य दूसरे द्रब्य का कोई उपकार - अपकार - सहकार नहीं कर सकता ।
प्राचार्य पूज्यपाद इष्टोपदेश में कहते हैं—
परोपकृतिमुत्सृज्य
भव ।
स्वोपकारपरो उपकुर्वन् परस्याज्ञो दृश्यमानस्य लोकवत् ।। 32
परद्रव्य पर उपकार करने के विकल्प को छोड़कर अपनी श्रात्मा पर उपकार करने का प्रयत्न कर । दृश्यमान जगत् पर उपकार करने का विकल्प करनेवाला अज्ञानी है । संपूर्ण जगत् शरीरादि परद्रव्य के उपकार में ही निरंतर उद्यत रहते हैं । ग्रपनी आत्मा के उपकार की किसी को चिंता नहीं । यह अज्ञानी जीव एकभव के शरीर सुख के लिए आगे अनन्त भवों में दुःख का कारण पाप बंध करता है । यदि इस जीव ने इस भव में ग्रात्मा का उपकार करने का प्रयत्न किया तो अगले अनन्त भवों का बेड़ा पार हो जाता है, इस तत्त्वज्ञान की अज्ञानी जीव को खबर नहीं ।
इसी प्रकार जैनदर्शन का दूसरा महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त अहिंसा है—
हिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमं । नसा यत्रारंभोऽस्त्यरण रपि च यत्राश्रमविधौ । ततस्तत् सिद्ध्यर्थ परम करुणा ग्रन्थमुभयं । भवनिवात्याक्षीत् न च विकृतवेषोपधिरतः ॥
अहिंसा यह जगत् के प्राणी मात्र का परम ब्रह्म है। जहां प्रणु मात्र भी प्रारंभ परिग्रह की मूर्च्छा - अभिलाषा रहती है वहां अहिंसा धर्म का सर्वांगपूर्ण पालन नहीं बन सकता ।
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इसलिए जैनधर्म के अनुशासन में अभ्यंतर परिग्रह मोह राग द्वेषादि विकार भाव तथा बहिरंग परिग्रह वस्त्र, धन, धान्य, घर, बाग-बगीचा आदि दोनों प्रकार के परिग्रहों का त्याग कर हे भगवन् ! आपने निग्रंथ जिनलिंग धारण किया । जीओ, और जीने दो।
प्राणीमात्र की रक्षा करने का नाम ही अहिंसा नहीं । अहिंसा धर्म की यथार्थ साधना होने के अभ्यंतर परिग्रह राग-द्वेषादि परभाव तथा उनके विषय धन-धान्यादि-बाह्य परिग्रह, इन दोनों के त्याग का नाम ही अहिंसा है । प्रत्येक पदार्थ को अपना स्वतंत्र अस्तित्व, स्वतंत्र परिणमन करने का अधिकार है। उन परपदार्थों का स्वतंत्र अस्तित्व अपहरण कर उन पर अपना प्रभुत्व स्थापित करना, अपनी इच्छानुसार उनके परिणमन की भावना रखना-इसी को जैनदर्शन हिंसा कहता है ।
अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवहिंसेति ।
तेषामेवोत्पत्तिः हिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः ॥ जैनदर्शन के सब आगमों का सार-संक्षेप यही है कि जगत् के जो भी सत्रूप पदार्थ हैं उनको अपना स्वतंत्र अस्तित्व परिणमन करने का अधिकार है। उन पर अतिक्रमण कर उनके स्वतंत्र अस्तित्व का अपहरण कर उन पर रागादि भाव से प्रभुत्व स्थापित करना, उनमें इष्ट अनिष्ट बुद्धि निर्माण कर इष्ट पदार्थों पर राग, प्रेम, लोभ करना तथा अनिष्ट पदार्थों पर द्वेष करना-इसी को जैनदर्शन में हिंसा-अधर्म कहा है।
(3) अनेकान्त-जैनदर्शन की तीसरी विशेषता वस्तु के अनेकान्त स्वरूप की मान्यता है। प्रत्येक वस्तु में सामान्य और विशेष दो प्रकार के धर्म पाये जाते हैं। सामान्य धर्म-स्वभाव रूप से, गुण रूप से, अनादि-अनंत शुद्ध एकरूप और अपने सब स्वभाव-विभाव विशेषों में सदा विद्यमान ध्र व पाया जाता है ।
विशेष धर्म प्रतिसमय परिणमनशील, अनेकरूप, स्वभाव-विभाव रूप पाये जाते हैं । उन्हीं को पर्याय अथवा अवस्थाविशेष कहते हैं। ये अवस्था विशेष जीव और पुद्गल इन दो द्रव्यों में उनके परस्पर संयोग-विशेष से विभावरूप परिणाम होते हैं तथा परस्पर संयोग के प्रभाव में, वियोग में अपने-अपने स्वभाव अवस्था-विशेष रूप से परिणमते हैं। वास्तव में उनके विभावअवस्थारूप परिणमन का मूल कारण उनकी वैभाविक शक्ति तथा उस शक्ति का विभाव परिणमन इसे कर्तृकारक या करण-कारक कहा जाता है और वह विभाव परिणमन का विषय अन्य परद्रव्य का संयोग यह निमित्त मात्र कारण कहलाता है ।
। यद्यपि वस्तु का प्रत्येक विभाव अवस्था रूप परिणमन कार्य अन्य द्रव्य के संयोग के सांनिध्य के बिना नहीं होता, तथापि वह परद्रव्य रूप बाह्य निमित्त केवल कार्य का सूचक चिह्न है । कर्तृकारक या करण-कारक नहीं है । वस्तु का कार्य-कारण भाव अपने-अपने परिणमन कार्य के साथ अभिन्न रूप से, मुख्य रूप से होता है तथा वह परिणमन कार्य किस बाह य परद्रव्य के संयोग में हुआ, इसका ज्ञान कराने के लिए निमित्तभूत पदार्थों को निमित्त कारण रूप से निमित्त प्रधान-व्यवहारनय भाषा से कहा जाता है । वास्तव में कर्तृ-करण रूप से उन बाह्यनिमित्तभूत परपदार्थ के संयोग का या वियोग का उपादान कार्य के साथ कुछ
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भी संबंध नहीं है । इसलिए अध्यात्म भाषा से निमित्ताधीन दृष्टि जो वस्तु-विज्ञान के अभाव में सामान्य जनों के द्वारा दी जाती है, को हटाने के लिए निमित्तभूत परद्रव्य को सर्वथा अकिचित्कर कहा है।
"अन्यत् निमित्तमात्रं तु गतेधर्मास्तिकायवत् । जिस प्रकार धर्मद्रव्य जीव और पुद्गल द्रव्य की गति-क्रिया में उदासीन निमित्त कहा जाता है, जिस प्रकार पानी गतिमान न होते हुए भी मछली के लिए गमनक्रिया का आधार कहा जाता है, धर्म द्रव्य के बिना जीव और पुद्गल की तथा बिना पानी के मछली की गमनक्रिया नहीं हो सकती परन्तु उनकी गति-क्रिया में धर्म द्रव्य या पानी का कुछ भी कर्तृ-करण रूप कार्य-कारण भाव नहीं है ।
रेल की पट्टी रेल को गमन करने के लिए आधारभूत साधन है तथापि रेल की गमनक्रिया में वह रेल पट्टी कर्तृ-करण रूप से कुछ भी कार्यकारी नहीं है ।
-यद्यपि अमूर्त अरूपी धर्म द्रव्य के अस्तित्व का बोध कराने के लिए आगम में धर्म द्रव्य का लक्षण गतिहेतुत्व कहा गया है परन्तु वह कथन उपचार से निमित्त-मात्र कहा गया है। वास्तव में वह धर्म द्रव्य का कार्य नहीं है । धर्मद्रव्य अपने अस्तित्व में केवल आधार-रूप निमित्त-मात्र कारण कहा जाता है ।
परमार्थ से कोई भी द्रव्य अन्य द्रव्य का उपकार, अपकार, सहकार करने में समर्श नहीं है, ऐसा वस्तुनिष्ठ स्वभाव सिद्धान्त है ।
___"अण्णदवियस्स अण्णदवियेण न कीरइ गुण प्पादो।
अन्य द्रव्य का अन्य द्रव्य के साथ अत्यंत प्रभाव होने से कुछ भी कार्य कारण भार नहीं है । सब पदार्थ अपने-अपने स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्व-भाव इन स्वचतुष्टय के मर्यादा में अपना परिणमन कार्य करते हैं। प्रत्येक वस्तु का परिणमन अपनी स्वद्रव्य के शक्ति सामर्थ्य से, अपनी स्वक्षेत्र की मर्यादा में, अपने नियत क्रमबद्ध स्वकाल में, अपने नियत स्व-भाव पुरुषार्थ से होता है, ऐसा वस्तुनिष्ठ सिद्धान्त है ।
जगत् की कोई भी शक्ति 'इंदो वा जिरिंणदो वा तं चाले, णो सक्को' उस परिणमन को इंद्र अथवा सर्वशक्तिमान् जिनेंद्र भी पलटाने को समर्थ नहीं है । इस वस्तु सिद्धान्त के विज्ञान से ज्ञानी पुरुष को आकस्मिक भय नहीं रहता है । ज्ञानी को इस वस्तु-सिद्धान्त का ज्ञान
यदभावि न तद् भावि, भावि चेन्न तदन्यथा । जो नहीं होने वाला है वह कदापि नहीं होता है तथा जो होनहार है वह अन्यथा नहीं हो सकता है। इस वस्तु-विज्ञान से ज्ञानी शांत-भाव से वर्तमान कितने भी दुर्धर प्रसंग हों, उपसर्ग हों, परिषह हों उनको सहन करता है ।
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आज का किया हुआ पुरुषार्थ आगे दैव कहा जाता है। इसलिए ज्ञानी वर्तमान पुरुषार्थ में प्रमादी या स्वच्छंदी न होकर अपने प्रात्महित का पुरुषार्थ निरंतर करता रहता
वस्तु का प्रत्येक परिणमन अपने नियत क्रमबद्ध स्वकाल में अपने नियत स्वभाव पुरुषार्थ से होता है इसका ज्ञानी को वस्तु विज्ञान होने से ज्ञानी अपने जीवन में अपने आत्महित का कार्य करते हुए निरंतर आनंदमय जीवन का अनुभव करता है ।
पात्मज्ञानं स्वयं ज्ञानं, ज्ञानात् अन्यत् करोति किम् ।
परभावस्य कर्तात्मा मोहोऽयं व्यवहारिणाम् । आत्मा स्वयं ज्ञान स्वभाव है। ज्ञान से अन्य कुछ भी कर नहीं सकता। ज्ञान का ज्ञान में रहना ही परम सुख है। ज्ञान के बिना अन्य राग-द्वेष. मोहभाव करना. या शुभ-अशुभ क्रिया में प्रवृत्ति करना व्यवहारीजनों का मोह-अज्ञान है । ।
जीवराज जैन ग्रंथमाला सन्तोषभवन फलटण गल्ली
सोलापूर-413002
तत्त्वसंग्रह
जीवोऽन्यः पुद्गलश्चान्य, इत्यसौ तत्त्वसंग्रहः ॥ ५० ॥ जीव अन्य है और पुद्गल अन्य है, यह ही तत्त्व की (सारभूत) बात है ।
–इष्टोपदेशः प्राचार्य पूज्यपाद
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जैनविद्या-12
योगी क्या चाहता है/करता है
इच्छत्येकान्तसंवासं
निर्जनं जनितादरः । निजकार्यवशाकिञ्जि
दुक्त्वा विस्मरति द्रुतम् ॥ ४० ॥ ___ भावार्थ-सच्चा योगी जनशून्य स्थान में रहना पसंद करता है अतः वह एकान्त स्थान चाहता है । वह अपने काम से ही थोड़ा कहकर फिर उसे शीघ्र ही भूल जाता है ।
--इष्टोपदेश : प्राचार्य पूज्यपाद
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श्री पूज्यपाद सम्बन्धी कुछ ऐतिहासिक
अभिलेख श्री कुन्दनलालजी जैन
सारस्वताचार्य श्री पूज्यपाद स्वामी अपर नाम देवनन्दी अपने समय के विख्यात दार्शनिक, श्रेष्ठ वैय्याकरण, उच्च कोटि के छन्दशास्त्र एवं आयुर्वेद विज्ञान के वेत्ता एवं सरस साहित्यिक कवि थे । उनका समय पाँचवीं सदी का उत्तरार्द्ध एवं छटी सदी का पूर्वार्द्ध निश्चित होता है। उनकी कृतियों में सर्वार्थ सिद्धि, जैनेन्द्र-व्याकरण, समाधितन्त्र, इष्टोपदेश आदि, संस्कृत साहित्य की अनुपम निधियों में सम्मिलित की जाती हैं। वे अपने समय के साहित्य गगन के ऐसे जाज्वल्यमान दिव्य दिवाकर थे कि उनकी प्रतिभा प्रकाश से निखिल ब्रह्माण्ड आलोकित हो उठा था, इसीलिए तत्कालीन एवं उनके बाद के सभी विद्वानों ने उनका समादरपूर्वक पुण्य-स्मरण किया है ।
आधुनिक युग में श्री पूज्यपाद एवं उनके साहित्य पर पर्याप्त शोध-खोज हो चुकी हैं। अतः हम यहाँ उन सबकी चर्चा न करते हुए केवल कुछ उन उद्धरणों को प्रस्तुत कर रहे हैं जिनमें उनका नामोल्लेख करते हुए उनकी स्तुति की गई है । ये उद्धरण विभिन्न ग्रन्थों पट्टावलियों गुर्वावलियों, शिलालेखों, ग्रन्थ प्रशस्तियों एवं प्राचार्यों की वाणी में प्रचुरता से बिखरे पड़े हैं। प्राचार्य देवसेन ने अपने “दर्शनसार" ग्रन्थ में जो सं 990 में रचा गया था श्री पूज्यपाद का समय निर्धारण करते हुए लिखा है :
सिरि पुज्जपाद सोसो दाविड़संघस्स कारणो दुट्ठीं। णामेण वज्जणंदि पाहुडवेदी महासत्तों ॥ पंचसए छन्वीसे विक्कमरामस्स मरणपत्तस्स । दक्खिरणमहुराजादो दाविडसंघो महामोहो ।
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स्व. पं. जुगलकिशोरजी मुख्तार, जो अपने समय के विख्यात जैन साहित्य अन्वेषक रहे हैं तथा जिनकी प्रामाणिकता को बड़े-बड़े धुरंधर विद्वान् नतमस्तक हो स्वीकार करते हैं, ने 'रत्नकरण्डश्रावकाचार' की विस्तृत प्रामाणिक प्रस्तावना में श्री पूज्यपाद को दक्षिण के राजा गङ गराज दुविनीत का शिक्षागुरु सिद्ध किया है और गङ गराज का समय 485522 ईस्वी सुनिश्चित है अतः श्री पूज्यपाद का यही समय माना जाता है ।
प्रादिपुराण के कर्ता प्राचार्य जिनसेन ने पूज्यपाद को कवियों का तीर्थंकर मानते हुए लिखा है :
कवीनां तीर्थकृदेवः कितरां तत्र वर्ण्यते ।
विदुषां वाङ्मलध्वंसि तीर्थभस्य वचोभयम् ॥ प्राचार्य शुभचन्द्र ने अपने 'ज्ञानार्णव" नामक ग्रन्थ में श्री पूज्यपाद की शास्त्र पद्धति को काय, वचन और चित्त की मलप्रवृत्ति को दूर करनेवाला बताते हुए लिखा है :
अपाकुर्वन्ति यद्वाचाः कायवाकचित्तसम्भवम् ।
कलङ्कमङि गनाम् सोऽयम् देवनन्दी नमस्यते ॥ "हरिवंश पुराण" के कर्ता आचार्य जिनसेन प्रथम ने श्री पूज्यपाद (देव) की वाणी को इन्द्र, चन्द्र, सूर्य और जैनेन्द्र व्याकरण का अवलोकन करनेवाली बताते हुए लिखा है :
इन्द्र-चन्द्रार्क-जैनेन्द्र-व्याडि-व्याकरणक्षिणः ।
देवस्य देववन्द्यस्य न वन्द्यन्ते गिरः कथम् ॥ लोग प्यार से उन्हें “देव" जैसे संक्षिप्त नाम से भी संबोधित करते थे ।
"जैनेन्द्र प्रक्रिया" के कर्ता प्राचार्य गुणनंदी ने पूज्यपाद की वंदना करते हुए लिखा है कि उनके ग्रन्थों में जो कुछ है वह अन्यत्र भी है और जो उनमें नहीं है वह अन्यत्र भी नहीं है यथा :
नमः श्री पूज्यपादाय लक्षणं यदुपक्रमम् । यदेवात्र च तदन्यत्र यन्नानास्ति न तत्क्वचित् ॥
नंदीसंघ पट्टावली में पूज्यपाद का यश कीर्ति यशोनंदी और गुणनंदी आदि नामों से भी पुण्य स्मरण किया गया है जैसे :
यशःकीर्ति यशोनंदी देवनंदी महामतिः ।
श्री पूज्यपादापराख्यो यः गुणनंदी गुणाकरः ॥ प्राचार्य कुन्दकुन्द की "सिद्धभक्ति" की टीका करते आचार्य प्रभाचन्द्र ने श्री पूज्यपाद को आ. कुन्दकुन्द की भक्तियों का संस्कृत रूपाभिकर्ता लिखा है । "संस्कृता सर्वाः भक्त्याः पादपूज्यस्वामिकृताः प्राकृतास्तु कुन्दकुन्दाचार्यकृताः ।"
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प्राचार्य पूज्यपाद आयुर्वेद विज्ञान, शल्य-तंत्र शास्त्र के विशेषज्ञ थे, प्रसिद्ध आयुर्वेदवेत्ता प्राचार्य उग्रादित्य ने अपने "कल्याणकारक" जैन वैद्यक ग्रन्थ में पूज्यपाद का पुण्यस्मरण करते हुए उन्हें शल्यचिकित्सा का महान् पंडित लिखा है:
शालाक्यं पूज्यपाद प्रकटित माधिक शल्यतंत्रं च पात्र--
स्वामि प्रोक्तं विषोग्रहशमनविधिः सिद्धसेनः प्रसिधैः ॥ इस श्लोक से यह भी ध्वनित होता है कि सिद्धसेन ने “विषोग्रहशमनविधि" तथा पात्रस्वामी ने 'शल्यतंत्र' नामक ग्रन्थ लिखे थे जो अाज अनुपलब्ध हैं।
जैनसिद्धान्तभास्कर वर्ष एक किरण चार में प्रकाशित 'गुर्वावली' के अनुसार प्राचार्य प्रभाचन्द्र (सं. 1310) ने पूज्यपाद के शास्त्रों की व्याख्या में अद्भुत ख्याति अर्जित की थी।
पट्ट श्रीरत्नकीर्तेरनुपमतपसः पूज्यपादीय शास्त्र, व्याख्या विख्यातकोतिः गुरणगरणनिधिपः सत्क्रियाचारुचञ्चुः । श्रीमानानन्दधामं प्रतिबुधनुतमामान संदा विवादो,
जीयादाचन्द्रतारं नरपतिविदितः श्री प्रभाचन्द्र देवः ॥
श्री वादिराज कवि ने अपने 'पार्श्वनाथ चरित' में श्री पूज्यपाद देव का पुण्यस्मरण करते हुए लिखा है
अचिन्त्य महिमा देवः सोऽभिवन्द्यो हितैषिणा ।
शब्दाश्च येन सिध्यन्ते साधुत्व प्रतिलम्भितः॥ हुम्मच (कन्नड) के पद्मावती मन्दिर स्थित एक शिलालेख में श्री पूज्यपाद को अपने "जैनेन्द्र व्याकरण" पर जैनेन्द्रन्यासवृत्ति तथा पाणिनि व्याकरण पर शब्दावतारन्यासवृत्ति रचने का अभिलेख है । यह शिलालेख 1500 ईस्वी के आसपास का उत्कीरिणत है।
न्यासं जैनेन्द्रसंज्ञं सकलबुधनुत पाणिनियस्य भूयो न्यासं शब्दावतारं मनुजततिहितं वैद्यशास्त्रं च कृत्वा । यस्तत्वार्थस्यटीकां व्यरचदिह तां भात्यसौ पूज्यपादः, स्वामी भूपालवन्द्यः स्वपरहितः वचः पूर्णट्टग्बोधवृ त्तः ॥
कर्नाटक के वन्दलिके वसदि में स्थित शक सं. 996 (1064) के शिलालेख में समन्तभद्र और अकलङ क के साथ साथ पूज्यपाद का भी अभिलेख है -
भद्रंसमन्तभद्रस्य पूज्यपादस्य सन्मतेः । अकलङकगुरोभूयात् शासनाय जिनेशिनः ॥
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हुम्मच (कर्नाटक) की पञ्चवसदि के आंगन में शक सं. 999 (1077 ई.) के विशाल शिलालेख में वज्रनंदी अकलंक आदि प्राचार्यों के साथ-साथ श्री पूज्यपाद स्वामी का भी उल्लेख है। इसी तरह बलगाम्बे में वगियरहोण्ड के पास 1077 ई. के एक शिलालेख में अकलंक, समन्तभद्र, रामसेन आदि के साथ-साथ पूज्यपाद का भी नामोल्लेख है । ये कन्नड लिपि में उत्कीर्ण हैं।
श्रवणवेल्गुलु के विन्ध्यगिरि पर्वत पर शक सं. 1432 के शिलालेख में कुन्दकुन्द के समान श्री पूज्यपाद के वैदुष्य को प्रकट करते हुए लिखा है
शब्दे श्री पूज्यपादः सकलविमतजित्तर्कतन्त्रेषु देवः सिद्धान्ते सत्यरूपे जिनविनिगदिते गौतमः कौण्डकुन्दः । अध्यात्मे वर्द्धमानो मनसिज मथने वारिभुग्दुःखवन्हा,
वित्येव कीर्तिपात्रं श्रुत मुनिवदभूत् भूत्रये कोऽत्र कश्चित् ॥
श्री पूज्यपाद स्वामी का विस्तृत जीवनचरित्र चन्द्रय्यकवि ने 'पूज्यपादचरिते' तथा श्री देवचन्द्र ने 'राजबलिकथे' नामक कन्नड ग्रन्थों में विशदरूप से वणित किया है। इनमें इनके पिता का नाम माधव भट्ट तथा माता का नाम श्री देवी बताया है । यह कर्नाटक के कोले नामक ग्राम के ब्राह्मण कुल में पैदा हुए थे। कहते हैं बाल्यकाल में एक दिन सर्प द्वारा मेंढक निगल लेने पर मेंढक की पीड़ा और तड़फन देखकर आपको वैराग्य हो गया और आपने जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली। आप मूलसंघ के अन्तर्गत नंदीसंघ की बलात्कारगण सरस्वतीगच्छ के पट्टाधीश थे और कुन्दकुन्द गृद्ध पिच्छ प्रभृति विद्वानों की परम्परा के सारस्वत आचार्य थे।
श्रवणवेल्गुलु के कांचिनद्रोणे मार्ग पर कगे ब्रह्मदेव स्तम्भ विद्यमान है उसके दक्षिणमुखी भाग पर शक सं. 1085 (1163 ई.) के शिलालेख में श्री पूज्यपाद की कृतियों का उल्लेख करते हुए लिखा है--
यो देवनन्दि प्रथमाभिधानो बुद्ध या महत्या सः जिनेन्द्रबुद्धिः श्री पूज्यपादोऽजनि देवताभिर्यत्पूजितं पादयुगं यदीयं । जैनेन्द्र निजशब्दभोगमतुलं सर्वार्थसिद्धिःपरा सिद्धान्ते निपुणत्वमुद्धकवितां जैनाभिषेकः स्वकः । छन्द सूक्ष्मधियं समाधिशतकं स्वास्थ्यं यदीयं विदा
माख्यातीह सः पूज्यपादमुनिपः पूज्यो मुनीनां गणैः । श्रवणवेल्गुलु के चन्द्रगिरि पर्वत की एरडुकदे वसदि के पश्चिम भाग में स्थित मण्डप के द्वितीय स्तम्भ के दक्षिणाभिमुखी भाग पर सन् 1115 ई. के स्तम्भ लेख में श्री वीरसेन, अकलंक, मेघचन्द्रत्रविद्य आदि विद्वानों की श्री पूज्यपाद से तुलना करते हुए उनकी (पूज्यपाद की) व्याकरणविदग्धता का अङकन निम्न प्रकार है
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जैनविद्या 12
सिद्धान्ते श्री वीरसेनसदृशः शास्त्राब्जभा भास्करः, षट्तर्केष्वकलंकदेवविवुधः साक्षादयं भूतले ।
सर्व व्याकरणे विपश्चिदधिपः श्री पूज्यपादस्स्वयं, त्रैविद्योत्तममेधचन्द्रमुनिपो वादीभ पञ्चाननः ॥
इसी चन्द्रगिरि की कत्तिले वसदि के द्वार से दक्षिण दिशा की ओर एक स्तम्भ पर सन् 1100 के अभिलेख में अकलंक, भारवि, जिनचन्द्र आदि के साथ पूज्यपाद स्वामी का भी उल्लेख है । यथा—
जैनेन्द्र पूज्यपादः सकलसमयतर्के च भट्टाकलङ्कः, साहित्य भारविस्स्यात्क विगमक महावादवाग्मित्वरुद्रः । गीते वाद्ये च नृत्ये दिशि विदिशि च संवत सत्कीर्तिमूर्ति, स्थेयाच्छ्री यो निवृन्दाचतपद जिनचन्द्रो वितन्द्रो मुनीन्द्रः ॥
विन्ध्यगिरि पर्वत की सिद्धरवसदि के उत्तर दिशा में स्थित स्तम्भ पर सन् 1398 ई. के अभिलेख में श्री पूज्यपाद की प्रशस्ति रूपक श्लोक अंकित है जिनमें उनके विभिन्न नामों की या प्रस्तुत की गई है, यथा
प्रागभ्यधायि गुरुणा किल देवनंदी, बुद्ध्या पुनवप्रलयास जिनेन्द्रबुद्धिः । श्री पूज्यपाद इति चैष बुधैः प्रचख्ये यत्पूजितः पदयुगे वनदेवताभिः ॥
इसी विन्ध्यगिरि पर सिद्धरवसदि की दक्षिण दिशा में स्थित स्तम्भ पर सन् 1433 ई. के अभिलेख में श्री पूज्यपाद स्वामी की विभिन्न विशेषताओं का अकन करते हुए लिखा
है कि उनके चरणों को धोये हुए जल स्पर्श से लोहा भी सोना हो जाता था, यथा
श्री पूज्यपादो धृत धर्मराज्यस्ततो सुराधीश्वर पूज्यपादः, यदी दुष्यगुरणा निदानों वदन्ति शास्त्राणितदुद्धृतानि । धृत विश्वबुद्धिरयमत्र योगिभिः कृतकृत्यभावामनुविभदुच्चकैः जिनवद्बभूव यदङ्ग चापह त सः जिनेन्द्रबुद्धिरिति साधुवतिः ।। श्री पूज्यपादमुनिः प्रतिमौषर्धाद्ध ज्जीयाद्विदेह जिनदर्शनपूतगात्रः, यत्पादधौत जनसंस्पर्शप्रभावात्कालायसं किल तदा कनकीचकार ।
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इसी स्तम्भ की दूसरी दशा में निम्न श्लोक भी अंकित है
समन्तभद्रोप्य समन्तभद्रः श्री पूज्यपादोऽपि न पूज्यपादः । मयूरपिच्छो प्यमयूरपिच्छश्चित्रे विरुद्धोऽप्यविरुद्ध एषः ॥
आचार्य पूज्यपाद के शिष्य वज्रनन्दी ने वि. सं. 526 में दक्षिण मथुरा ( मदुरै ) में द्राविड़ संघ की स्थापना की थी और कुछ शिथिलाचार प्रवर्तित किया था इसी को लक्ष्य कर दर्शनसार के कर्त्ता श्राचार्य देवसेन ने लिखा है :
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सिरिपुज्जपादसीसो दाविडसंघस्स कारगो दुट्ठो । वज्जरगंदी पाहुडवेदी
रामे
महात्यो ||
पंचसएछब्बीस विक्कम रास्स दक्खिमदुराजादो दाविड संधो
मरणपत्तस्स ।
महामोहो ||
कच्छखेत्त वर्साद वाणिज्जं कारिऊरण हंतो सीयलनीरे पाव पउरं च
जीवन्तो ।
संचेदि ॥
श्री वादिराज सूरि ने अपने 'न्यायविनिश्चय' नामक ग्रन्थ में अन्य प्राचार्यो के साथसाथ पूज्यपाद स्वामी की भी वंदना की है, यथा
विद्यानंदमनन्तवीर्यसुखदं श्री पूज्यपादं दया, पालं सन्मतिसागरं कनकसेनाराध्यमभ्युद्यमी ।
शुद्ध्यन्नीतीनरेन्द्रसेनम कलंकवादिराजं सदा, श्रीमत्स्वामी समन्तभद्रमतुलं वंदे जिनेन्द्रं मुदा ॥
श्री सोमदेव सूरि ने 'त्रिभङ गीसार टीका' में लिखा है कि श्री पूज्यपाद स्वामी की कृपा से जिनोक्त शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त हुआ
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श्रीमज्जिनोक्तानि समंजसानि शास्त्रारिण लेभे स यथात्मशक्त्या । श्री मूलसंघाब्धि विवर्द्धनेन्दोः श्रीपूज्यपाद प्रभु सत्प्रसादात् ॥
भ. शुभचन्द्र ने अपने 'पाण्डवपुराण' में पूज्यपाद स्वामी की वंदना करते हुए लिखा हैपूज्यपादः सदापूज्यपादः पूज्यैः पुनातु मां ।
येन तीर्णो व्याकरणार्णवो विस्तीर्ण सद्गुणः ॥
'जीवंधर चरित्र' में पूज्यपाद स्वामी का पुण्य स्मरण करते हुए भ. शुभचन्द्र लिखते है
गौतमं धर्मपारीणं पूज्यपादं प्रबोधकम् । समन्तभद्रमानन्दमकलंकं गुरणाकरं ॥
श्री जयकीर्ति ने अपने 'छंदोनुशासन' ग्रन्थ की रचना में पूज्यपाद स्वामी के छन्द शास्त्र का अनुकरण किया था अतः लिखते हैं
माण्डव्वपिङ्गलजनाश्रयसे तवाख्यं,
श्री पूज्यपादजयदेव बुधादिकानाम् ।
छन्दांसि वीक्ष्य विविधानपि सत्प्रयोगान्, छन्दोनुशासनमिदं जयकीर्तिनोक्तम् ।
न. योगदेव ने 'तत्वार्थ सूत्रसुखबोधवृत्ति' ग्रन्थ रचते हुए लिखा हैपादपूज्य विद्यानंदाभ्यां यद्वृत्तिद्वयमुक्तं तत्केवलं तर्क
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जैनविद्या-12
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."गमयोः पाठकरबलाबालादिभिज्ञातुं न शक्यते ततः संस्कृतप्राकृतपाठकानां सुखज्ञानकारणवृत्तिरियमभिधीयते ! ।
'जिनेन्द्रकल्याणाभ्युदय' ग्रन्थ की रचना करते हुए अय्यपार्य कवि लिखते हैं कि पूज्यपादादि प्राचार्यों ने जो पहले जिनार्चासंबंधी साहित्य रचा है उन्हीं का सारांश लेकर मैं यह ग्रन्थ लिख रहा हूँ, यथा
वीराचार्य-सुपूज्यपाद-जिनसेनाचार्य-संभाषितो, यः पूर्व गुणभद्रसूरिवसुनंदीन्द्रादिनंद्याजितः । यश्चाशाधरहस्तिमल्लकथितो यश्चैकसंधिस्ततः,
तेभ्यः स्वाहृत्सारमध्यरचितः स्याज्जैनपूजाक्रमः। पं. गोबिन्द ने अपने ग्रन्थ 'पुरुषार्थानुशासन' में विभिन्न प्राचार्यों का पुण्यस्मरण करते हुए पूज्यपाद स्वामी के व्याकरण ज्ञान को सराहा है, यथा
श्री पूज्यपादभगवत्प्रमुखाः विमुखाकुमार्गतो कुर्वन् ।
व्याकरणानि, नृणां बाङ्गमलघ्न व्याकरणनिपुणानि ॥ श्री प्रभाचन्द्राचार्य ने पूज्यपाद स्वामी के जैनेन्द्र-व्याकरण की टीका "शब्दाम्भोजभास्कर" अपरनाम जैनेन्द्रमहान्यास में सिद्ध भगवान् की वंदना करते हुए पूज्यपाद स्वामी का पुनः स्मरण किया है, यथा :
श्री पूज्यपादमकलंकमनंतबोधं, शब्दार्थसंशयहरं निखिलेषु बोधं । सच्छब्दलक्षरणमशेषमतः प्रसिद्ध वक्ष्ये परिस्फुटमलं प्रणिपत्य सिद्धम् ॥
आगे प्रभाचन्द्रचार्य लिखते हैं-श्री पूज्यपादस्वामी विनेयानां शब्दसाधुत्वाऽसाधुत्वविवेकप्रतिपत्यर्थं शब्दलक्षणप्रणयनं कुर्वाणो निर्विघ्नतः शास्त्रपरिसमाप्त्यादिक फलमभिलषनिष्टदेवतास्तुतिविषयनमस्कुर्वन्नाह' ।
तत्वार्थसूत्र की टीका करते हुए प्रभाचन्दाचार्य ने अपने 'तत्वार्थ-वृत्तिपद' नामक ग्रन्थ में पूज्यपाद स्वामी के प्रति भक्ति प्रकट करते हुए लिखा है
श्रीपद्मनन्दिसैद्धान्तशिष्योऽ नेकगुणालयः ।
प्रभाचन्द्रश्चिरं जीयात् पादपूज्यपदेरतः ॥ श्री सोमदेव ने अपने "शब्दार्णवचन्द्रिकावृत्ति" नामक ग्रन्थ में ऋषभदेव, महावीर सिद्ध भगवान् की स्तुति करते हुए पूज्यपाद स्वामी का उल्लेख किया है :
श्रीपूज्यपादममलं गुणनन्दिदेवं सोमामरव्रतिपपूजितपादयुग्मम् । सिद्ध समुन्नतपदं वृषभं जिनेन्द्रं सच्छन्दलक्षणभहं विनिमामि वीरम् ॥
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जैनविद्या 12
ब्रह्मश्रुतसागर ने 'सप्तपरमस्थानव्रतकथा' लिखते हुए पूज्यपाद की स्तुति की है
विद्यानंद्यकलंकार्य पूज्यपादं जिनेश्वरम् । नत्वा ब्रवीम्यहं सप्तपरमस्थान सद्वतम् ॥ व्रतरतिरकलंकः पूज्यपादो मुनीनां,
गुणनिधिरबुधानां बोधिकृत्पद्मनंदी । इन्हीं ने अपनी चन्दनषष्ठी कथा में भी पूज्यपाद का उल्लेख किया है
प्रभाचन्द्रं पूज्यपादं श्री विद्यानंदिनं जिनम् ।
समन्तभद्रं संस्मृत्य वक्ष्ये चन्दनषष्ठिकाम् ॥ इन्हीं की निर्दुखसप्तमी कथा में भी पूज्यपाद का निम्न उल्लेख है
विद्यानंदं प्रभाचन्द्रं पूज्यपादं जिनेश्वरम् ।
नत्वाऽकलंक वावच्मि कथा निर्दु खसप्तमीम् ॥ इन्हींकी श्रावणद्वादशी कथा तथा रत्नत्रय कथा में भी पूज्यपाद का उल्लेख है
पूज्यपाद-प्रभाचन्द्रा कलंक-मुनिमानितम् । नत्वाऽ हन्तं प्रवक्ष्यामि श्रावणद्वादशीविधिम् ॥ विद्यानंदप्रदं पूज्यपादं नत्वा जिनेश्वरम् ।
कथारत्नत्रयस्याहं वक्ष्ये श्रेयोनिधः सताम् ॥ भ. ज्ञानकीति ने अपने “यशोधर चरित्र" में पूज्यपाद की स्तुति की है
समन्तभद्रकविराजमेकं वादीसिंहम् वर पूज्यपादम् ।
भट्टाकलंक जितबौद्धवादं प्रभादिचन्द्रे सुकवि प्रवन्दे ॥ अपभ्रंश भाषा के कवियों ने प्रायः पूज्यपाद की जगह उनके अपरनाम देवनंदी का ही बहुलता से प्रयोग किया है । यहाँ पूज्यपाद संबन्धी कुछ अपभ्रंश कवियों के अभिलेख प्रस्तुत हैं—पं. श्रीचन्द्र (सं.1 1 23) ने अपने रयणकरंडसावयाचार (रत्नकरण्डश्रावकाचार) में अन्य प्राचार्यों के साथ साथ पूज्यपाद (पायपुज्ज-पादपूज्य) का भी उल्लेख किया है यथा -
हरिणंदिमुरिंणदु समंतभदु अकलंक पयो परमय विमदु ।
मुणिन्वइ कुलभूसणु पायपुज्ज तहा विज्जाणंदु प्रणंतविज्जु ॥
धवलकवि (11 वीं सदी का पूर्व) ने अपने "हरिवंसपुराणु" में अपने से पूर्ववर्ती लगभग तेईस कवियों, प्राचार्यों का पुण्यस्मरण करते हुए पूज्यपाद (देवनंदी) का उल्लेख निम्न शब्दों में किया है :
"देवणंदि बहुगुणजसभूसिउ जे वायरणु जिरिंणदु पयासिउ"
श्री धनपाल कवि (सं. 1454) ने अपने “बाहुवलिदेवचरिउ" नामक ग्रन्थ में पूज्यपाद का उल्लेख करते हुए लिखा है :
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जनविद्या-12
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"वायरणकारि सिरि देवणंदि, जइणेद णामु जडयणदुलक्खु" । किउ जेण पसिधु स वायलक्खु ।
'चंदप्पह चरिउ' (चन्द्रप्रभ चरित्र) की रचना करते हुए भट्टारक यशः कीर्ति (11 वीं सदी) ने श्री पूज्यपाद का उल्लेख निम्न शब्दों में किया है :
सिरिदेवणंदि मुरिणबहुपहाउ, जसु गामगहरिण गासेउ पाउ ।
जसु पूज्जिय अंबाएई पाय, संमरणमित्ति तक्खणि ण प्राय ॥
महाकवि रइधू ने 'मेहेसर चरिउ' (मेघेश्वर-चरित) सं. 1492 की रचना करते हुए पूज्यपाद (देवनंदी) का उल्लेख निम्न छन्द में किया है
देवणंदिगणि विज्जामंदिर, जेण विहिउ वायरण महाचिरु ।
छंदसण पमाणु पबिसेणे विरयउ पालिय जिणवरसेणें ॥
इन्हीं ने अपने “अरिट्ठणेमि चरिउ" (हरिवंश-पुराण-अरिष्टनेमि चरित) में पूज्यपाद का उल्लेख करते हुए लिखा है :
"देवणंदि वाएसरिभूसिउ, जेहि जइणिंद वायरण पयासिउ" कवि महिन्दु (महाचंद) सं. 1587 ने अपने संतिणाह चरिउ (शांतिनाथ चरित्र) में पूज्यपाद (पादपूज्य-पायपुज्ज) का उल्लेख करते हुए लिखा है :
अकलंक सामि सिरि पायपुज्ज (य) इंदाइमहाकइअट्ठहूय" उपर्युक्त अभिलेखों से सारस्वताचार्य श्री पूज्यपाद स्वामी की सर्वतोमुखी प्रतिभा का आभास सहज ही ज्ञात हो जाता है । वे पाणिनि से भी अधिक उच्च कोटि के वैय्याकरण थे, उन्होंने जैन संस्कृति और साहित्य को जो कुछ दिया वह अनुपम है, अद्वितीय है ऐसे संतशिरोमणि साहित्यकार को हमारा शत शत वंदन ! शत शत अभिनन्दन !! इति शम् । ।
श्रुति कुटीर 68, विश्वास मार्ग विश्वास नगर, शाहदरा
दिल्ली-110032
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चिदानंद स्वरूप की उपलब्धि
योगेन,
दृषदः स्वर्णता मता ।
योग्योपादान
द्रव्यादि स्वादि- सम्पत्ता
वात्मनोऽप्यात्मता मता ॥ 2 ॥
दोहा - स्वयं पाषारण सुहेतु से, स्वयं कनक हो जाय । सुद्रव्यादि चारों मिलें, आप शुद्धता थाय ||2||
जैनविद्या - 12
अर्थ – योग्य उपादान के संयोग से पाषाणविशेष जिस प्रकार स्वर्णरूप परिणत हो जाता है वैसे ही यह आत्मा भी सुद्रव्य, सुक्षेत्र प्रादि की प्राप्ति पर ग्रात्मत्व को प्राप्त कर लेता है ।
- पूज्यपाद : इष्टोपदेश
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आचार्य पूज्यपाद का लक्षण और व्युत्पत्तिपरक दृष्टिकोण
- डॉ. रमेशचन्द जैन
आचार्य पूज्यपाद अपरनाम देवनन्दि जैन परम्परा के प्रमुख प्राचार्यों में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं । उन्होंने अनेक ग्रन्थों का प्रणयन किया । ये सुप्रसिद्ध दार्शनिक, वैयाकरण, ज्योतिषी और प्रतिष्ठाशास्त्री थे । अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ सर्वार्थसिद्धि में जो तत्त्वार्थसूत्र पर वृत्तिग्रन्थ के रूप में है उन्होंने अनेक शब्दों के लक्षण और व्युत्पत्तियाँ दी हैं । ये लक्षण और व्युत्पत्तियाँ परवर्ती साहित्यकारों के लिए आदर्श बनीं और अनेक लेखकों ने उनका अनुसरण किया । उदाहरणार्थं सर्वार्थ सिद्धि प्रथम, द्वितीय तथा पञ्चम अध्याय के लक्षण और व्युत्पत्तियाँ दी जाती हैं
मोक्ष -
सम्यक
O
निरवशेषनिराकृतकर्म मलकलङ्कस्याशरीरस्यात्मनोऽचिन्त्यस्वाभाविकज्ञानादिगुणमव्या बाघसुखमात्यन्तिकमवस्थान्तरं मोक्ष इति (पृ. 1 ) - जब श्रात्मा कर्ममल - कलङ्क और शरीर को अपने से जुदा कर देता है, तब उसकी जो अचिन्त्य स्वाभाविक ज्ञानादिगुणरूप और अव्याबाधसुखरूप सर्वथा विलक्षण अवस्था उत्पन्न होती है उसे मोक्ष कहते हैं । ( प्रस्तावना)
सम्यगित्यव्युत्पन्नः शब्दो व्युत्पन्नो वा । प्रशंसा – सम्यक् शब्द अव्युत्पन्न अर्थात् रौढ़िक और
-
चतेः क्वौ समचतीति सम्यगिति । अस्यार्थ व्युत्पन्न अर्थात् व्याकरण - सिद्ध है । जब
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जैनविद्या-12
यह व्याकरण से सिद्ध किया जाता है तब सम उपसर्गपूर्वक अंच धातु से क्विप् प्रत्यय करने पर सम्यक् शब्द बनता है । संस्कृत में इसकी व्युत्पत्ति "समंचति इति सम्यक्” इस प्रकार होती है, उसका अर्थ प्रशंसा है । (1.1) सम्यग्ज्ञान
येन येन प्रकारेण जीवादयः पदार्था व्यवस्थितास्तेन तेनावगमः सम्यग्ज्ञानम्-जिस जिस प्रकार से जीवादिक पदार्थ अवस्थित हैं, उस उस प्रकार से उनका जानना सम्यग्ज्ञान है । (1.1) सम्यकचारित्र
संसारकारणनिवृत्ति प्रत्यागूर्णस्य ज्ञानवतः कर्मादानक्रियोपरमः सम्यक्चारित्रम्-जो ज्ञानी पुरुष संसार के कारणों को दूर करने के लिए उद्यत है, उसके कर्मों के ग्रहण करने में निमित्तभूत क्रिया के त्याग को सम्यक्चारित्र कहते हैं । (1.1) दर्शन
__ पश्यति दृश्यतेऽनेन दृष्टिमात्रं वा दर्शनम्-जो देखता है, जिसके द्वारा देखा जाय या. देखना मात्र दर्शन है । (1.1) ज्ञान
जानाति ज्ञायतेऽनेन ज्ञप्ति मात्र वा ज्ञानम्--जो जानता है, जिसके द्वारा जाना जाय या जानना मात्र ज्ञान है । (1.1) चारित्र
चरति चर्यतेऽनेन चरणमात्रं वा चारित्रम्- जो आचरण करता है, जिसके द्वारा आचरण किया जाय या आचरण करना मात्र चारित्र है । (1.1) मोक्षमार्ग
सर्वकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः । तत्प्राप्त्युपायो मार्गः- समस्त कर्मों का जुदा होना मोक्ष है और उसकी प्राप्ति का उपाय मार्ग है (1.1) तत्त्व
तत्त्वशब्दो भावसामान्यवाची । कथम् ? तदिति सर्वनामपदम् । सर्वनाम च सामान्ये वर्तते । तस्य भावस्तत्त्वम् । तस्य कस्य ? योऽर्थो यथावस्थितस्तथा तस्य भवनमित्यर्थ:तत्त्व शब्द भाव सामान्य का वाचक है, क्योंकि “तत्" यह सर्वनाम पद है और सर्वनाम सामान्य अर्थ में रहता है, अतः उसका भाव तत्त्व कहलाया। यहां तत् पद से कोई भी पदार्थ लिया गया है । आशय यह है कि जो पदार्थ जिस रूप से अवस्थित है, उसका उस रूप होना यही यहां तत्त्व शब्द का अर्थ है । (1.2) अर्थ
अर्यते इत्यर्थो निश्चीयत इति यावत्-जो निश्चय किया जाता है, वह अर्थ है । (1.2)
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जैनविद्या-12
तत्त्वार्थ
तत्त्वेनार्थस्तत्त्वार्थः । अथवा भावेन भाववतोऽभिधानम्, तदव्यतिरेकात् । तत्त्वमेवार्थस्तत्त्वार्थ:-यहाँ तत्त्व और अर्थ इन दो शब्दों के संयोग से तत्त्वार्थ शब्द बना है, जो तत्त्वेन अर्थस्तत्त्वार्थः ऐसा समास करने पर प्राप्त होता है । अथवा भाव द्वारा भाववाले पदार्थ का कथन किया जाता है, क्योंकि भाव भाववाले से अलग नहीं पाया जाता । ऐसी हालत में इसका समास होगा 'तत्त्वमेव अर्थः तत्त्वार्थः ।' (1.2) जीव
चेतना लक्षणो जीव:-जीव का लक्षण चेतना है । (1.4) मजीव
तद्विपर्ययलक्षणोऽजीव:-जीव से विपरीत लक्षणवाला अजीव है । (1.4) मानव
शुभाशुभकर्मागमद्वाररूप प्रास्रवः--शुभ और अशुभ कर्मों के आने का द्वाररूप प्रास्रव है । (1.4) बन्ध
प्रात्मकर्मणोरन्योन्यप्रदेशानुप्रवेशात्मको बन्धः-आत्मा और कर्म के प्रदेशों का परस्पर मिल जाना बन्ध है । (1.4) संवर
'प्रास्रवनिरोधलक्षणः संवरः'–आस्रव का रोकना संवर है । (1.4) निर्जरा
एकदेशकर्मसंक्षयलक्षणा निर्जरा-कर्मों का एकदेश क्षय होना निर्जरा है ।(1.4) मोक्ष
कृत्स्नकर्मवियोगलक्षणो मोक्ष:- सब कर्मों का आत्मा से अलग हो जाना मोक्ष है । (1.4) नाम
अतद्गुणे वस्तुनि संव्यवहारार्थं पुरुषाकारान्नियुज्यमानं संज्ञाकर्म नाम-गुणरहित वस्तु में व्यवहार के लिए अपनी इच्छा से की गई संज्ञा को नाम कहते हैं । (1.5) स्थापना
काष्ठपुस्तचित्रकर्माक्षनिक्षेपादिषु सोऽयमिति स्थाप्यमाना स्थापना-काष्ठकर्म, पुस्तकर्म, चित्रकर्म और अक्षनिक्षेप आदि में "यह वह है," इस प्रकार स्थापित करने को स्थापना कहते हैं । (1.5) द्रव्य
गुणगुणान्वा द्रुतं गतं गुणैर्दोष्यते गुणान्द्रोष्यतीति वा द्रव्यम्-जो गुणों के द्वारा प्राप्त हुआ था या गुणों को प्राप्त होगा, उसे द्रव्य कहते हैं । (1.5)
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जैनविद्या-12
भाव
वर्तमान तत्पर्यायोपलक्षितं द्रव्यं भाव:-वर्तमान पर्याय से युक्त द्रव्य को भाव कहते हैं । (1.5) नाम जीव
जीवनगुणमनपेक्ष्य यस्य कस्यचिन्नाम क्रियमाणं नाम जीव:-जीवन गुण की अपेक्षा न करके जिस किसी का "जीव" ऐसा नाम रखना नाम जीव है । ( 1.5) स्थापना जीव
अक्षनिक्षेपादिषु जीव इति वा मनुष्यजीव इति व्यवस्थाप्यमानः स्थापना जीव:अक्षनिक्षेप आदि में यह जीव है, या मनुष्य जीव है, ऐसा स्थापित करना स्थापना जीव है । (1.5) पागम द्रव्य जीव
जीवप्राभृतज्ञायी मनुष्यजीवप्राभृतज्ञायी वा अनुपयुक्त प्रात्मा प्रागमद्रव्यजीव:जो जीव विषयक या मनुष्य जीवविषयक शास्त्र को जानता है, किन्तु वर्तमान में उसके उपयोग से रहित है, वह आगम द्रव्य जीव है । ( 1.5) ज्ञायक शरीर
ज्ञातुर्यच्छरीरं त्रिकालगोचरं तज्ज्ञायक शरीरम्-ज्ञाता का जो त्रिकालगोचर शरीर है, उसे ज्ञायक शरीर कहते हैं । (1.5) मनुष्यमावि जीव
गत्यन्तरे जीवो व्यवस्थितो मनुष्यभवप्राप्तिं प्रत्यभिमुखो मनुष्यभावि जीव:-जो दूसरी गति में विद्यमान है, वह जब मनुष्यभव को प्राप्त करने के लिए सम्मुख होता है, तब वह मनुष्यभावि जीव कहलाता है । (1.5) प्रागम भाव जीव
जीवप्राभृतविषयोपयोगाविष्टो मनुष्यजीवप्राभृतविषयोपयोगयुक्तो वा प्रात्मा अागमभावजीव:- जो आत्मा जीवविषयक शास्त्र को जानता है और उसके उपयोग से युक्त हैं अथवा मनुष्य जीव विषयक शास्त्र को जानता है और उसके उपयोग से युक्त है, वह आगमभाव जीव कहलाता है । (1.5) नोग्रागमभाव जीव
जीवनपर्यायेण मनुष्य जीवत्वपर्यायेण वा समाविष्ट आत्मा नो आगमभाव जीव:जीवन पर्याय अथवा मनुष्य जीवन पर्याय से युक्त आत्मा नोप्रागमभाव जीव कहलाता है । (1.6) द्रव्यार्थिक
द्रव्यमर्थः प्रयोजनमस्येति द्रव्याथिकः द्रव्य जिसका प्रयोजन है, वह द्रव्यार्थिक नय है । (1.6)
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जैनविद्या-12
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पर्यायाथिक
पर्यायोऽर्थः प्रयोजनमस्येत्यसौ पर्यायार्थिकः—पर्याय जिसका प्रयोजन है, वह पर्यायार्थिक नय है । (1.6) निर्देश
निर्देशः स्वरूपाभिधानम्-किसी वस्तु के स्वरूप का कथन करना निर्देश है । (1.7) स्वामित्व
स्वामित्वमाधिपत्यम्-स्वामित्व का अर्थ आधिपत्य है । (1.7) साधन
साधनमुत्पत्तिनिमित्तम्-जिस निमित्त से वस्तु उत्पन्न होती है, वह साधन है । (1.7) प्रधिकरण- अधिकरणमधिष्ठानम्-अधिष्ठान या आधार अधिकरण है । (1.7) स्थिति
स्थितिः कालपरिच्छेद:-जितने काल तक वस्तु रहती है, वह स्थिति है । (1.7) विधान
विधानं प्रकार:-विधान का अर्थ प्रकार या भेद है । ( 1.7) सत्
सदित्यस्तित्वनिर्देश:-सत् अस्तित्वसूचक है । (1.8) संख्या
संख्या भेदगणना--संख्या भेदों की गणना को कहते हैं । (1.8)
-
सख्य
क्षेत्र
क्षेत्र निवासो वर्तमानकालविषयः–वर्तमानकालविषयक निवास को क्षेत्र कहते हैं । (1.8) स्पर्शन
तदेव स्पर्शनं त्रिकालगोचरम्—त्रिकाल-विषयक निवास को स्पर्शन कहते हैं । (1.8) अन्तर
अन्तर विरहकालः-विरहकाल को अन्तर कहते हैं । (1.8) भाव
भावः प्रौपशमिकादिलक्षण:-ौपशमिकादि भाव हैं । ( 1.8) अल्पबहुत्व
अल्पबहुत्वमन्योन्यापेक्षया विशेषप्रतिपत्तिः–एक दूसरे की अपेक्षा न्यूनाधिक का ज्ञान करने को अल्प-बहुत्व कहते हैं । (1.8)
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जैनविद्या-12
मति
___इन्द्रियैर्मनसा च यथास्वमर्थो मन्यते अनया मनुते मननमात्र वा मतिः-इन्द्रिय और मन के द्वारा यथायोग्य पदार्थ जिसके द्वारा मनन किये जाते हैं, जो मनन करता है या मननमात्र मति कहलाता है । (1.9)
श्रुत
तदावरणक्षयोपशमे सति निरूप्यमाणं श्रूयते अनेन तत् श्रृणोति श्रवणमात्रं वा श्रुतमश्रुतज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम होने पर निरूप्यमाण पदार्थ जिसके द्वारा सुना जाता है, जो सुनता है या सुनना-मात्र श्रुत कहलाता है । (1.9) अवधि
अवाग्धानादवच्छिन्न विषयाद्वा अवधिः-अधिकतर नीचे के विषय को जाननेवाला होने से या परिमित विषयवाला होने से अवधि कहलाता है । (1.9) मनःपर्यय
परकीयमनोगतोऽर्थो मन इत्युच्यते । साहचर्यात्तिस्य पर्ययणं परिगमनं मनःपर्यय:दूसरे के मनोगत अर्थ को मन कहते हैं । सम्बन्ध से उसका पर्ययण अर्थात् परिगमन करनेवाला ज्ञान मनःपर्यय कहलाता है । (1.9) केवल
बाह्य नाभ्यन्तरण च तपसा यदर्थमर्थिनो मार्ग केवन्ते सेवन्ते तत्केवलम् । असहायमिति वा-अर्थीजन जिसके लिए बाह्य और आभ्यन्तर तप के द्वारा मार्ग केवन अर्थात् सेवन करते हैं, वह केवलज्ञान कहलाता है । अथवा असहाय ज्ञान को केवलज्ञान कहते हैं । (1.9) उपेक्षा
रागद्वेषयोरप्रणिधानमुपेक्षा-राग-द्वेषरूप परिणामों का नहीं होना उपेक्षा है । (1.10) प्रमाण
प्रमिणोति प्रमीयतेऽनेन प्रमितिमात्रं वा प्रमाणम्-जो अच्छी तरह ज्ञान करता है, जिसके द्वारा अच्छी तरह ज्ञान किया जाता है या प्रमितिमात्र (ज्ञानमात्र) प्रमाण है । (1.10) प्रत्यक्ष
__ अक्ष्णोति व्याप्नोति जानातीत्यक्ष आत्मा । तमेव प्राप्तक्षयोपशमं प्रक्षीणावरणं वा प्रतिनियतं प्रत्यक्षम्-अक्ष, व्याप और ज्ञा धातुयें एकार्थक हैं, इसलिए अक्ष का अर्थ आत्मा होता है । इस प्रकार क्षयोपशमवाले या आवरणरहित केवल आत्मा के प्रति जो नियत है अर्थात् जो ज्ञान बाह्य इन्द्रियादिक की अपेक्षा न होकर केवल क्षयोपशमवाले या आवरणरहित आत्मा से होता है, वह प्रत्यक्षज्ञान कहलाता है । (1.12)
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जैनविद्या-12
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इन्द्रिय
इन्दतीति इन्द्र आत्मा । तस्य ज्ञस्वभावस्य तदावरण क्षयोपशमे सति स्वयमर्थान् ग्रहीतुमसमर्थस्य यदर्थोपलब्धिलिङ्ग तदिन्द्रस्य लिङ्गमिन्द्रियमित्युच्यते । अथवा लीनमर्थं गमयतीति लिङ्गम् । प्रात्मनः सूक्ष्मस्यास्तित्वाधिगमे लिङ्गमिन्द्रियम् । यथा इह धूमोऽग्नेः । एवमिदं स्पर्शनादि करणं नासति कर्तर्यात्मनि भवितुमर्हतीति ज्ञातुरस्तित्वं गम्यते । अथवा इन्द्र इति नामकर्मोच्यते तेन सृष्टमिन्द्रियमिति–इन्द्र शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है “इन्दतीति इन्द्रः" जो आज्ञा और ऐश्वर्य वाला है, वह इन्द्र है, और इन्द्र शब्द का अर्थ आत्मा है । वह यद्यपि ज्ञ स्वभाव है तो भी मति ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम के रहते हुए स्वयं पदार्थों को जानने में असमर्थ है, अतः उसको पदार्थ के जानने में जो लिङ्ग (निमित्त) होता है, इन्द्र का वह लिङ्ग इन्द्रिय कही जाती है । अथवा जो लीन अर्थात् गूढ़ पदार्थ का ज्ञान कराता है, उसे लिङ्ग कहते हैं । इसके अनुसार इन्द्रिय शब्द का यह अर्थ हुआ कि जो सूक्ष्म आत्मा के अस्तित्व का ज्ञान कराने में लिङ्ग अर्थात् कारण है, उसे इन्द्रिय कहते हैं । जैसे लोक में धूम अग्नि का ज्ञान कराने में कारण होता है इसी प्रकार ये स्पर्शनादिक करण कर्ता प्रात्मा के अभाव में नहीं हो सकते हैं, अतः उनसे ज्ञाता का अस्तित्व जाना जाता है । अथवा इन्द्र शब्द नामकर्म का वाची है । अतः यह अर्थ हुआ कि उससे रची गयी इन्द्रिय है । ( 1.14)
प्रनिन्द्रिय
अनिन्द्रियं मनः अन्तःकरणमित्यर्थान्तरम्-अनिन्द्रिय, मन और अन्तःकरण ये एकार्थवाची नाम हैं । (1.14) प्रवग्रह
विषयविषयिसमनन्तरमाद्य ग्रहणमवग्रहः-विषय और विषयी के सम्बन्ध के बाद होनेवाले प्रथम ग्रहण को अवग्रह कहते हैं । ( 1.15) ईहा
अवग्रह गृहीतेऽर्थे तद्विशेषाकाङ्क्षणमीहा-अवग्रह के द्वारा ग्रहण किये गए पदार्थों में उसके विशेष के जानने की इच्छा ईहा कहलाती है । (1.15) प्रवाय
विशेषनिर्ज्ञानाद्याथात्म्यावगमनमवायः-विशेष के निर्णय द्वारा जो यथार्थ ज्ञान होता है, उसे अवाय कहते हैं । (1.15) धारणा
अवेतस्य कालान्तरेऽविस्मरणकारणं धारणा–जानी हुई वस्तु का जिस कारण कालान्तर में विस्मरण नहीं होता, उसे धारणा कहते हैं । (1.15) भव
आयुर्नामकर्मोदयनिमित्त प्रात्मनः पर्यायो भव:-आयु नाम कर्म के उदय का निमित्त पाकर जो जीव की पर्याय होती है, उसे भव कहते हैं । (1.21)
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ऋजुमति–
(1.23)
विपुलमति -
विपुलामतिर्यस्य सोऽयं विपुलमतिः - जिसकी मति विपुल है, वह विपुलमति कहलाता है । (1.23) मन:पर्यय
वीर्यान्तरायमन:पर्ययज्ञानावरणक्षयोपशमाङ्गोपाङ्गनामलाभावष्टम्भादात्मनः परकीयमनः सम्बंधेन लब्धवृत्तिरुपयोगो मन:पर्ययः - वीर्यान्तराय और मन:पर्यय ज्ञानावरण के क्षयोपशम और अंगोपांग नामकर्म के आलम्बन से आत्मा में जो दूसरे के मन के सम्बन्ध' से उपयोग जन्म लेता है, उसे मनःपयर्य ज्ञान कहते हैं । ( 1.23)
विशुद्धि
क्षेत्र
विशुद्धि: प्रसादः - विशुद्धि का अर्थ निर्मलता है । ( 1.25 )
क्षेत्रं यस्थाभावान्प्रतिपद्यते - जितने स्थान में स्थित भावों को जानता है, वह क्षेत्र है । (1.25 )
स्वामी
जैनविद्या - 12
ऋज्वी मतिर्यस्य सोऽयं ऋजुमतिः - जिसकी मति ऋजु हैं, वह ऋजुमति कहलाता है।
-
विषय
नय
स्वामी प्रयोक्ता - स्वामी का अर्थ प्रयोक्ता है । (1.25)
विषयो ज्ञेयः - विषय ज्ञ ेय को कहते हैं । ( 1.25 )
वस्तुन्यनेकान्तात्मन्यविरोधेन हेत्वर्पणात्साध्यविशेषस्य याथात्म्यप्रावणप्रवण: प्रयोगो नयः – अनेकान्तात्मक वस्तु से विरोध के बिना हेतु की मुख्यता से साध्यविशेष की यथार्थता को प्राप्त कराने में समर्थ प्रयोग को नय कहते हैं । (1.33)
नैगम
अनभिनिर्वृत्तार्थसंकल्पमात्र ग्राहीनैगमः - प्रनिष्पन्न अर्थ में संकल्पमात्र को ग्रहण करनेवाला नय नैगम है । ( 1.33)
संग्रह --
स्वजात्यविरोधेनैकध्यमुपानीय पर्यायानाक्रान्तभेदानविशेषेण समस्त ग्रहणात्संग्रहः - भेद सहित सब पर्यायों को अपनी जाति के अविरोध द्वारा एक मानकर समान्य से सबको ग्रहण करनेवाला नय संग्रह नय है । ( 1.33 )
व्यवहार
संग्रहनयाक्षिप्तानामर्थानां विधिपूर्वकमवहरणं व्यवहार : - संग्रह नय के द्वारा ग्रहण किए गए पदार्थों का विधिपूर्वक प्रवहरण अर्थात् भेद करना व्यवहारनय है । (1.33)
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ऋजु सूत्र
ऋजुं प्रगुणं सूत्रयति तन्त्रयतीति ऋजुसूत्र:- जो ऋजु अर्थात् सरल को सूत्रित अर्थात् स्वीकार करता है, वह ऋजुसूत्र नय है । ( 1.33)
शब्दनय
लिङ्गसंख्यासाधनादिव्यभिचारनिवृत्तिपरः शब्दनय: – लिङ्ग, संख्या और साधन आदि व्यभिचार की निवृत्ति करनेवाला शब्दनय है । ( 1.33 )
समभिरूढ़ -
नानार्थसमभिरोहणात्समभिरूढ़ : - नाना अर्थों का समभिरोहण करनेवाला होने से समभिरूढ नय कहलाता है । ( 1.33 )
एवंभूत
येनात्मनाभूतस्तेनैवाध्यवसाययतीति एवंभूतः - जो वस्तु जिस पर्याय को प्राप्त हुई है, उसी रूप निश्चय करानेवाले को एवंभूत नय कहते हैं । ( 1.33)
उपशम
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आत्मनि कर्मणः स्वशक्तेः कारणवशादनुद्भूतिरुपशमः- - आत्मा में कर्म की स्व शक्ति का कारणवश प्रकट न होना उपशम है । (2.1 )
क्षय
मिश्र -
उदय
क्षय प्रात्यन्तिकी निवृत्तिः कर्मों का आत्मा से सर्वथा दूर हो जाना क्षय है । (2.1 )
उभयात्मको मिश्रः-- उभयरूप भाव मिश्र है । (2.1)
द्रव्यादिनिमित्तवशात्कर्मरणां फलप्राप्तिरुदयः - - द्रव्यादिनिमित्त के वश से कर्मों के फल का प्राप्त होना उदय है । (2.1 )
परिणाम
द्रव्यात्मलाभमात्र हेतुकः परिणामः - जिसके होने में द्रव्य का स्वरूपलाभमात्र कारण है, वह परिणाम है । (2.1)
श्रपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, श्रदयिक, और पारिणामिक
उपशमः प्रयोजनमस्येत्योपशमिक : एवं क्षायिकः क्षायोपशमिक:
पारिणामिकश्च । (2.1 )
प्रौदयिकः
क्षायोपशमिक - सम्यक्त्व
अनन्तानुबन्धिकषाय च तुष्टयस्य मिथ्यात्वसम्यङ् मिथ्यात्वयोश्चोदयक्षयात्सदुपशमाच्च सम्यक्त्वस्य देशधातिस्पर्द्धकस्योदये तत्वार्थश्रद्धानं क्षायोपशमिकं सम्यक्त्वम् - चार अनन्तानुबन्धी कषाय, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन छह प्रकृतियों के उदयाभावी क्षय और सदवस्थारूप
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उपशम से देशघाती स्पर्द्धकवाली सम्यक्त्व प्रकृति के उदय में जो तत्त्वार्थश्रद्धान होता है, वह क्षायोपशमिक सम्यक्त्व है । (2.5)
क्षायोपशमिक चारित्र
___ अनन्तानुबंध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानद्वादशकषायोदयक्षयात्सदुपशमाच्च संज्वलनकषायचतुष्टयान्यतमं देशधातिस्पर्द्धकोदये नोकषायनवकस्य यथासंभवोदये च निवृत्तिपरिणाम आत्मनः क्षायोपशमिकं चारित्रम् । अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरणः और प्रत्याख्यानावरण इन बारह कषायों के उदयाभावी क्षय होने से और इन्हीं के सदवस्थारूप उपशम होने से तथा चार संज्वलनों में से किसी एक देशधाती प्रकृति के उदय होने पर और नौ नोकषायों का यथासम्भव उदय होने पर जो त्यागरूप परिणाम होता है, वह क्षायोपशमिक चारित्र है । (2.5)
संयमासंयम
अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानकषायाष्टकोदयक्षयात्सदुपशमाच्च प्रत्याख्यानं कषायोदये संज्वलनकषायस्य देशधातिस्पर्द्धकोदये नोकषायनवकस्य यथासंभवोदये च विरताविरत परिणामः क्षायोपशमिकः संयमासंयम इत्याख्यायते-अनन्तानुबन्धी और अप्रत्याख्यानावरण इन आठ कषायों के उदयाभावी क्षय होने से सदवस्थारूप उपशम होने से तथा प्रत्याख्यानावरण कषाय के और संज्वलन कषाय के देशधाती स्पर्द्धकों के उदय होने पर तथा नौ नोकषायों का यथासंभव उदय होने पर जो विरताविरतरूप परिणाम होता है वह संयमासंयम कहलाता है । (2.5) मिथ्यादर्शन
मिथ्यादर्शनकर्मण उदयात्तत्त्वार्थाश्रद्धानपरिणामो मिथ्यादर्शनम्-मिथ्यादर्शन कर्म के उदय से जो तत्त्वों का अश्रद्धान रूप परिणाम होता है वह मिथ्यादर्शन है । (2.6)
अज्ञान
ज्ञानावरणकर्मण उदयात्पदार्थानबोधी भवति तदज्ञानमौदयिकम्-ज्ञानावरणकर्म के उदय से पदार्थ का बोध नहीं होने से जो अज्ञान होता है वह अज्ञान प्रौदयिक है । (2.5) भावलेश्या
__ भावलेश्या कषायोदयरञ्जिता योगप्रवृत्तिरिति औदयिकी-कषाय के उदय से रञ्जित योगप्रवृत्ति को भावलेश्या कहते हैं । यह औदयिकी होती है । (2.6) जीवत्व
__जीवत्वं चैतन्यमित्यर्थ:-जीवत्व का अर्थ चैतन्य है । (2.7)
भव्य
सम्यग्दर्शनादिभावेन भविष्यतीति भव्य:- जिसके सम्यग्दर्शन आदि भाव प्रकट होने की योग्यता है वह भव्य कहलाता है । (2.7) उपयोग
उभयनिमित्तवशादुत्पद्यमानश्चतन्यानुविधायीपरिणाम उपयोगः- जो अन्तरङ्ग और
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बहिरंग दोनों प्रकार के निमित्तों से होता है और चैतन्य का अन्वयी है वह परिणाम उपयोग कहलाता है । (2.8) ज्ञानोपयोग
___साकार ज्ञानम्-साकार ज्ञानोपयोग है । (2.9) दर्शनोपयोग
___अनाकारं दर्शनम् -अनाकार दर्शनोपयोग है । (2.9) संसारी
संसारिणः संसरणं संसारः परिवर्तनमित्यर्थः । स एषामस्ति ते–संसरण को संसार कहते है जिसका अर्थ परिवर्तन है । (2.10) भावमन
___ वीर्यान्तरायनोइन्द्रियावरणक्षयोपशमापेक्षा आत्मनो विशुद्धिर्भावमनः-वीर्यान्तराय और नोइन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम की अपेक्षा रखनेवाली आत्मा की विशुद्धि को भावमन कहते हैं । (2.11) समनस्क
मनसा सह वर्तन्त इति समनस्का:-जिन जीवों के मन पाया जाता है वे समनस्क हैं । (2.11) प्रमनस्क
न विद्यते मनो येषां त इमे अमनस्का:-जिन जीवों के मन नहीं पाया जाता है वे अमनस्क हैं।
वस
त्रसनामकर्मोदयवशीकृतास्त्रसा:-जिनके त्रस नामकर्म का उदय है वे त्रस कहलाते
स्थावर
स्थावरनामकर्मोदयवशवर्तिनः स्थावरा:-जिनके स्थावर नामकर्म का उदय है उन्हें स्थावर कहते हैं । (2.12) पृथिवी
अचेतना वैससिकपरिणामनिवृत्ति काठिन्यगुणात्मिका पृथिवी-जो अचेतन है, प्राकृतिक परिणमनों से बनी है और कठिन गुणवाली है वह पृथिवी है । (2.13) पृथिवीकाय
पृथिवीकायिकजीवपरित्यक्तः पृथिवीकायो मृतमनुष्यादिकायवत्-पृथिवीकायिक जीव के द्वारा जो शरीर छोड़ दिया जाता है वह पृथिवीकाय कहलाता है, यथा-मरे हुए मनुष्य आदि का शरीर । (2.13)
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पृथिवीकायिक
__पृथिवीकायोऽस्यास्तीति पृथिवीकायिक:-जिस जीव के पृथिवीरूप काय विद्यमान है उसे पृथिवीकायिक कहते हैं । (2 13) पृथिवीजीव
समवाप्तपृथिवीकायनामकर्मोदय: कार्मणकाययोगस्थो यो न तावत्पृथिवीं कायत्वेन गृह्णाति स पृथिवीजीव:-यह जीव पृथिवीरूप शरीर के सम्बन्ध से युक्त है । कार्मणकाययोग में स्थित जिस जीव ने जब तक पृथिवी को कायरूप से ग्रहण नही किया है तब तक वह पृथिवीजीव कहलाता है । (2.13) निर्वृत्ति
निर्वर्त्यते इति निर्वृत्तिः । केन निर्वय॑ते ? कर्मणा-रचना का नाम निर्वृत्ति है । यह रचना कौन करता है ? कर्म । (2.17) प्राभ्यन्तरनिर्वृत्ति
उत्सेधांगुलासंख्येयभागप्रतिमात्र शुद्धानामात्मप्रदेशानां प्रतिनियतचक्षुरादीन्द्रियसंस्थानेनावस्थिातानां वृत्तिराभ्यन्तरा निर्वृत्तिः-उत्सेधांगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण और प्रतिनियत चक्षु आदि इन्द्रियों के आकाररूप से अवस्थित शुद्ध प्रात्मप्रदेशों की रचना को प्राभ्यन्तर निर्वृत्ति कहते हैं । (2.17)
बाह्यनिर्वृत्ति
___तेष्वात्मप्रेदशेष्विन्द्रियव्यपदेशमाक्षुः यः प्रतिनियतसंस्थानो नामकर्मोदयापादितावस्थाविशेषः सा बाह्या निर्वृत्तिः- इन्द्रिय नाम वाले उन्हीं प्रात्मप्रदेशों में प्रतिनियत आकाररूप
और नामकर्म के उदय से अवस्था को प्राप्त जो पुद्गलप्रचय होता है उसे बाह्य निर्वृत्ति कहते हैं । (2.17)
उपकरण
येन निवृत्त रुपकारः क्रियते तदुपकरणम्-जो निर्वृत्ति का उपकार करता है उसे उपकरण कहते हैं । (2.18) लब्धि
लब्धनं लब्धिः । का पुनरसौ ? ज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमविशेषः-लब्धि शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है-प्राप्त होना । शंका-लब्धि किसे कहते ? ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम विशेष को लब्धि कहते हैं । (2.18) उपयोग
यत्सन्निधानादात्मा द्रव्येन्द्रियनिर्वृत्तिं प्रति व्याप्रियते तन्निमित्त प्रात्मनः परिणाम उपयोगः-जिसके संसर्ग से प्रात्मा द्रव्येन्द्रिय की रचना करने के लिए उद्यत होता है तन्निमित्तक आत्मा के परिणाम को उपयोग कहते हैं । (2.18)
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इन्द्रिय
स्पर्शन
रसन
वीर्यान्तराय मतिज्ञानावरणक्षयोपशमाङ्गोपाङ्गनामलाभावष्टम्भादात्मनास्पर्श्यतेऽनेनेति स्पर्शनम् — वीर्यान्तराय और मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से अंगोपाङ्गनामकर्म के प्रालम्बन से आत्मा जिसके द्वारा स्पर्श करता है वह स्पर्शन इन्द्रिय I (2.19)
घ्राण
स्पर्श
रस
चक्षु -
चष्टे अर्थान्पश्यत्यनेनेति चक्षुः - जिसके द्वारा पदार्थों को देखता है, वह चक्षु इन्द्रिय है । (2.19)
श्रोत्र
गन्ध
इन्द्रस्य लिङ्गमिन्द्रियम् - इन्द्र के लिङ्ग को इन्द्रिय कहते हैं ।
वर्ण
शब्द
स्पृश्यत इति स्पर्श :- जो स्पर्श किया जाता है, वह स्पर्श है ।
रस्यत इति रसः – जो स्वाद को प्राप्त होता है, वह रस है ।
गन्ध्यत इति गन्धः – जो सूंघा जाता है, वह गन्ध है ।
वर्ण्यत इति वर्णः -जो देखा जाता है, वह वर्ण है ।
शब्दद्यतः इति शब्दः – जो शब्दरूप होता है, वह शब्द है । ( 2.20 )
श्रुतज्ञानविषयोऽर्थः श्रुतम् - श्रुतज्ञान का विषयभूत अर्थ श्रुत है । (2.21 )
ग्रहगति
विग्रहो देहः । विग्रहार्था गतिविग्रहगतिः । अथवा विरुद्ध ग्रहो विग्रह व्याघातः । कर्मादानेऽपि नोकर्मपुद्गलादाननिरोध इत्यर्थः । विग्रहेण गतिर्विग्रहगतिः – विग्रह का अर्थ देह है । विग्रह अर्थात् शरीर के लिए जो गति होती है वह विग्रह गति है । अथवा विरुद्ध ग्रहको विग्रह कहते हैं जिसका अर्थ व्याघात है । तात्पर्य यह है कि जिस अवस्था में कर्म के
श्रुत
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रस्यतेऽनेनेति रसनम् - जिसके द्वारा स्वाद लेता है । वह रसन इन्द्रिय है । (2.19 )
घ्रायतेऽनेनेति घ्राणम् – जिसके द्वारा सूंघता है, वह घ्राण इन्द्रिय है । (2.19)
श्रूयतेऽनेनेति श्रोत्रम् - जिसके द्वारा सुनता है, वह श्रोत्र इन्द्रिय है । (2.19 )
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ग्रहण होने पर भौ नोकर्मरूप पुद्गलों का ग्रहण नहीं होता वह विग्रह है और इस विग्रह के साथ होने वाली गति विग्रहगति है । (2.25)
सर्वशरीरप्ररोहणबीजभूतं कार्मणं शरीरं कर्मेत्युच्यते-सब शरीरों की उत्पत्ति के मूल कारण कार्मण शरीर को कर्म कहते हैं । (2.25) योग
योगो वाङ मनसकायवर्गणानिमित्त आत्मप्रदेशपरिस्पन्दः--वचन वर्गणा, मनोवर्गणा और कायवर्गणा के निमित्त से होनेवाले आत्मप्रदेशों के हलनचलन को योग कहते हैं (2.25) कर्मयोग
कर्मणाकृतो योगः कर्मयोगः-कर्म के निमित्त से जो योग होता है वह कर्मयोग है । (2.25) श्रेणि
लोकमध्यादारभ्य उर्ध्वमधस्तिर्यक् च आकाशप्रदेशानां क्रमसंनिविष्टानां पंक्तिः श्रेणिः इत्युच्यते-लोक के मध्य से लेकर ऊपर नीचे और तिरछे क्रम से स्थित आकाशप्रदेशों की पंक्ति को श्रेणी कहते हैं । (2.26) आहार
त्रयाणां शरीराणां षण्णां पर्याप्तीनां योग्यपुद्गलग्रहणमाहारः-तीन शरीर और छह पर्याप्तियों के योग्य पुद्गलों के ग्रहण करने को आहार करते हैं । (2.26) संमूर्छन
त्रिषु लोकेषूर्ध्वमधस्तिर्यक् च देहस्य समन्ततो मूर्छन संमूर्छनमवयवप्रकल्पत्रयम्-तीनों लोको में ऊपर, नीचे और तिरछे देह का चारों ओर से मूर्छन अर्थात् ग्रहण होना संमूर्छन है । (2.31) गर्भ
स्त्रिया उदरे शुक्रशोणितयोर्गरणं मिश्रणं गर्भः-स्त्री के उदर में शुक्र और शोणित के परस्पर गरण अर्थात् मिश्रण को गर्भ कहते हैं । (2.31) उपपाद
उपेत्य पद्यतेऽस्मिन्निति उपपादः-प्राप्त होकर जिसमें जीव हलन-चलन करता है उसे उपपाद कहते हैं । (2.31) सचित्त
आत्मनश्चैतन्यविशेषपरिणामश्चित्तम्, सह चित्तेन वर्तत इति सचित्तः-आत्मा के चैतन्यविशेष रूप परिणाम को चित्त कहते हैं, जो उसके साथ रहता है, वह सचित्त कहलाता है। (2.32)
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प्रौदारिक
उदारं स्थूलम् । उदारे भवं उदारं प्रयोजनमस्येति वा औदारिकम्-उदार शब्द से होने रूप अर्थ में या प्रयोजन रूप अर्थ में ठक् प्रत्यय होकर प्रौदारिक बनता है । (2.36) बैंक्रियिक
अष्टगुणश्वर्ययोगादनेकाणुमहच्छशीरविविधकरणं विक्रिया, सा प्रयोजनमस्येति वैक्रियिकम्-अणिमा आदि पाठ गुणों के ऐश्वर्य के सम्बन्ध से एक, अनेक, छोटा, बड़ा आदि नाना प्रकार का शरीर करना विक्रिया है, यह विक्रिया जिस शरीर का प्रयोजन है वह वैक्रियिक शरीर है । (2.36)
माहारक
सूक्ष्मपदार्थनिर्ज्ञानार्थमसंयमपरिजिहीर्षया वा प्रमत्तसंयतेनाहि यते निवर्त्यते तदित्याहारकम्-सूक्ष्म पदार्थ का ज्ञान करने के लिए या असंयम को दूर करने की इच्छा से प्रमत्तसंयत जिस शरीर की रचना करता है वह आहारक शरीर है। (2.36) तेजस
यत्तेजोनिमित्तं तेजसि वा भवं तत्तैजसम्-जो दीप्ति का कारण है या तेज में उत्पन्न होता है उसे तैजस कहते हैं । (2.36) कार्मण
कर्मणां कार्य कार्मणम्-कर्मों का कार्य कार्मण शरीर है । (2.37) प्रदेश
___ प्रदिश्यन्त इति प्रदेशाः परमाणव:-प्रदेश शब्द की व्युत्पत्ति प्रदिश्यन्त होती है इसका अर्थ परमाणु है । (2.38) उपभोग---
इन्द्रियप्रणालिकया शब्दादीनामुपलब्धिरुपभोगः-इन्द्रियरूपी नालियों के द्वारा शब्दादि के ग्रहण करने को उपभोग कहते हैं । (2.44) प्रौपपादिक
उपपादे भवमोपपादिकम् - जो उपपाद में होता है उसे औपपादिक कहते हैं । (2.46) लब्धि
तपोविशेषादृद्धिप्राप्तिर्लब्धि:-तपविशेष से प्राप्त होनेवाली ऋद्धि को लब्धि कहते हैं । (2.46) लब्धिप्रत्यय
लब्धिः प्रत्ययः कारणमस्य लब्धिप्रत्ययम्-लब्धि से जो शरीर उत्पन्न होता है वह लब्धिप्रत्यय कहलाता है । (2.46)
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चरमोत्तमदेह
___ उत्तमः उत्कृष्टः । चरम उत्तमो देहो येषां ते चरमोत्तमदेहाः–उत्तमशब्द का अर्थ उत्कृष्ट होता है। जिनका शरीर चरम और उत्तम है वे चरमोत्तम देहवाले कहे जाते हैं । जिनका संसार निकट है अर्थात् उसी भव से मोक्ष को प्राप्त होनेवाले जीव चरमोत्तम देहवाले कहलाते हैं । (2.53) अपवर्त्य
बाह्यस्योपघातनिमित्तस्य विषयशस्त्रादेः सति संनिधाने ह स्वं भवतीत्यपवर्त्यम्उपघात के निमित्त से विष शस्त्रादिक बाह्य निमित्तों के मिलने पर जो आयु घट जाती है वह अपवर्त्य आयु कहलाती है । (2.53)
द्रव्य
यथास्वं पर्याय यन्ते द्रवन्ति वा तानि द्रव्याणि-जो यथायोग्य अपनी पर्यायों को प्राप्त होते हैं वे द्रव्य कहलाते हैं । (5.2) रूप
रूपो मूर्तिरित्यर्थः-रूप और मूर्ति इनका एक अर्थ है । (5.5) मूर्ति
रूपादिसंस्थानपरिणामो मूर्ति:--रूपादिक के प्राकार से परिणमन होने को मूर्ति कहते हैं । (5.5) क्रिया
उभयनिमित्तवशादुत्पद्यमानः पर्यायो द्रव्यस्य देशान्तरप्राप्तिहेतुः क्रिया-अन्तरंग और बहिरंग निमित्त से उत्पन्न होनेवाली जो पर्याय द्रव्य के एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में प्राप्त कराने का कारण है, वह क्रिया कहलाती है । (5.6) प्रदेश
वक्ष्यमाणलक्षणः परमाणुः स यावति क्षेत्र व्यवतिष्ठते स प्रदेश इति व्यवहि यतेपरमाणु जितने क्षेत्र में रहता है वह प्रदेश है । (5.8) अनन्त
__ अविद्यमानोऽन्तो येषां ते अनन्ता:-जिनका अन्त नहीं है, वे अनन्त कहलाते हैं । (5.9) लोक
___ धर्मादीनि द्रव्याणि यत्र लोक्यन्ते स लोकः-जहाँ धर्मादिक द्रव्य विलोके जाते हैं उसे लोक कहते हैं । (5.17) गति
देशान्तरप्राप्तिहेतुर्गतिः-एक स्थान से दूसरे स्थान के प्राप्त कराने में जो कारण है उसे गति कहते हैं । (5.17)
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प्रारण
वीर्यान्तरायज्ञानावरणक्षयोपशमाङ गोपाङगनामोदयापेक्षिणात्मना उदस्यमानः कोष्ठयो वायुरुच्छ वासलक्षणः प्राण इत्युच्यते । वीर्यान्तराय और ज्ञानावरण के क्षयोपशम तथा प्रांगोपांग नामकर्म के उदय की अपेक्षा रखनेवाला आत्मा कोष्ठगत जिस वायु को बाहर निकालता है, उच्छ्वासलक्षणा उस वायु को प्राण कहते हैं । (5.19 ) प्रपान
तेनैवात्मना बाह्यो वायुरभ्यन्तरीक्रियमाणो निःश्वासलक्षणोऽपान इत्याख्यायते-वही आत्मा बाहरी जिस वायु को भीतर करता है, निःश्वासलक्षणा उस वायु को अपान कहते हैं । (5.19)
सुख-दुःख
सदसवेद्योदयेऽन्तरङ गहेतौ सति बाह्यद्रव्यादिपरिपाकनिमित्तवशादुत्पद्यमानः प्रीतिपरितापरूपः परिणामः सुखदुःखमित्याख्यायते । साता और असाता रूप अन्तरङ्ग हेतु के रहते हुए बाह्य द्रव्यादि के परिपाक के निमित्त से जो प्रीति और परिताप रूप परिणाम उत्पन्न होते हैं, वे सुख और दुःख कहे जाते हैं । (5.20) जीवित
भवधारणकारणायुराख्यकर्मोदयाद् भवस्थितिमादधानस्य जीवस्य पूर्वोक्त प्राणापानक्रियाविशेषाव्युच्छेदो जीवितमित्युच्यते-पर्याय के धारण करने में कारणभूत आयुकर्म के उदय से भवस्थिति को धारण करनेवाले जीव के पूर्वोक्त, प्राण और अपान रूप क्रियाविशेष का विच्छेद नहीं होना जीवित है । (5.20) वर्तना
वृत्तेणिजन्तात्कर्मणि भावे वा युति स्त्रीलिङ्गे वर्तनेति भवति । वय॑ते वर्तनमानं वा वर्तना । णिजन्त “वर्त" धातु से कर्म या भाव में युट् प्रत्यय करने पर स्त्रीलिङ्ग में वर्तना शब्द बनता है जिसकी व्युत्पत्ति 'वर्त्यते' या 'वर्तनमात्रम्' होती है । (5.22)
परिणाम
__द्रव्यस्य पर्यायो धर्मान्तरनिवृत्ति धर्मान्तरोपजननरूपः अपरिस्पन्दात्मकः परिणामःएक धर्म की निवृत्ति करके दूसरे धर्म के पैदा करने रूप और परिस्पन्द से रहित द्रव्य की जो पर्याय है, उसे परिणाम कहते हैं। (5.22) किया
क्रिया परिस्पन्दात्मिका-द्रव्य में जो परिस्पन्दरूप परिणमन होता है, उसे क्रिया कहते हैं । (5.22)
. प्रदेशमात्रमाविस्पर्शादिपर्यायप्रसवसामर्थ्यनाण्यन्ते शब्द्यन्त इत्यणवः-एक प्रदेश में
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होनेवाले स्पर्शादि पर्याय को उत्पन्न करने की सामर्थ्य रूप से जो 'अण्यन्ते' अर्थात् कहे जाते हैं, वे अणु कहलाते हैं। (5.25) भेद
संघातानां द्वितीयनिमित्तवशाद्विदारणं भेदः-अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग इन दोनों प्रकार के निमित्तों से संघातों के विदारण करने को भेद कहते हैं । (5.26) संघात
पृथग्भूतानामेकत्वापत्तिः संघातः-पृथग्भूत पदार्थों के एकरूप हो जाने को संघात कहते हैं । (5.26) उत्पाद
चेतनस्याचेतनस्य वा द्रव्यस्य स्वां जातिमजहत उभयनिमित्तवशाद् भावान्तरावाप्तिरुत्पादनमुत्पादः मत्पिण्डस्य घट पर्यायवत्-चेतन और अचेतन द्रव्य अपनी जाति को कभी नहीं छोड़ते । फिर भी उनमें अन्तरंग और बहिरंग निमित्त के वश प्रति समय जो नवीन अवस्था की मिट्टी के पिण्ड की घड़ेरूप परिवर्तन की तरह जो प्राप्ति होती है, उसे उत्पाद कहते हैं। (5.30) व्यय
पूर्वभावविगमनं व्ययः-पूर्व अवस्था के त्याग को व्यय कहते हैं । (5.30) ध्रुव
___ अनादिपारिणामिकस्वभावेन व्ययोदयाभावाद् ध्र वति स्थिरीभवतीति ध्र वः । ध्र वस्य भावः कर्म वा ध्रौव्यम्-जो अनादिकालीन परिणामिक स्वभाव है, उसका व्यय और उदय नहीं होता किन्तु ध्र वति अर्थात् स्थिर रहता है, इसलिए उसे ध्रुव कहते हैं । ध्र व का भाव या कर्म ध्रौव्य कहलाता है। (5.30) तभाव
तद्भावः इत्युच्यते । कस्तद्भावः । प्रत्यभिज्ञानहेतुता । तदेवेदमिति स्मरणं प्रत्यभिज्ञानम् । तदकस्मान्न भवतीति योऽस्य हेतुः स तद्भावः । भवनं भावः । तस्य भावस्तद्भावः । जो प्रत्यभिज्ञान का कारण है वह तद्भाव है, 'वही यह है' इस प्रकार के स्मरण को प्रत्यभिज्ञान कहते हैं। वह अकस्मात् तो होता नहीं, इसलिए जो उसका कारण है, वही तद्भाव है । उसकी निरुक्ति 'भवनं भावः' तस्य भावः तद्भावः इस प्रकार होती है । (5.31) अपित
अनेकान्तात्मकस्य वस्तुनः प्रयोजनवशाद्यस्यकस्यचिद्धर्मस्यविवक्षया प्रापितं प्राधान्यमपितमुपनीतमिति यावत्-वस्तु अनेकान्तात्मक है । प्रयोजन के अनुसार उसके किसी एक धर्म की विवक्षा से जब प्रधानता होती है तो वह अर्पित या उपनीत कहलाता है । (5.32) स्निग्ध
बाह्याभ्यन्तरकारणवशात् स्नेहपर्यायाविर्भावात् स्निह्यतेऽस्मिन्निति स्निग्धः- बाह्य
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और प्राभ्यन्तर कारण से जो स्नेहपर्याय उत्पन्न होती है, उससे उसे पुद्गल स्निग्ध कहा जाता है । (5.33) जघन्य
जघन्यो निकृष्ट:-जघन्य शब्द का अर्थ निकृष्ट है । (5.34) गुण
अन्वयिनो गुणाः-गुण अन्वयी होते हैं । (5.38) पर्याय
व्यतिरेकिणः पर्यायाः-पर्याय व्यतिरेकी होती हैं । (5.38) परिणाम--
धर्मादीनि द्रव्याणि येनात्मना भवन्ति स तद्भावस्तत्त्व परिणाम इति व्याख्यायतेधर्मादिक द्रव्य जिस रूप से होते हैं, वह तद्भाव या तत्त्व है और इसे ही परिणाम कहते हैं । (5-42) .
- इस प्रकार जैन पारिभाषिक शब्दों के सरल, नपे तुले और अर्थगाम्भीर्य से युक्त शब्दों में प्राचार्य पूज्यपाद ने लक्षण निर्धारित किए हैं। ऐसे लक्षणों से पूरी सर्वार्थसिद्धि प्रोतप्रोत है। इन लक्षणों ने परवर्ती लेखकों के लिए दीप-स्तम्भ का कार्य किया है । इन लक्षणों की उपादेयता स्वतःसिद्ध है। 0
जैनमंदिर के पास बिजनौर (उ.प्र.)
लक्ष्मीरात्यन्तिको यस्य, निरवद्यावभासते । देवनंदितपूजेशे, नमस्तस्मै स्वयंभुवे ॥
-प्राचार्य पूज्यपाद : जैनेन्द्र व्याकरण
. मंगलाचरण
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(शोध - पत्रिका)
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1. पत्रिका सामान्यतः वर्ष में दो बार प्रकाशित होगी। 2. पत्रिका में शोध-खोज, अध्ययन-अनुसंधान सम्बन्धी मौलिक अप्रकाशित
रचनाओं को ही स्थान मिलेगा। रचनाएं जिस रूप में प्राप्त होंगी उन्हें प्रायः उसी रूप में प्रकाशित किया जायगा । स्वभावतः तथ्यों की प्रामाणिकता आदि का उत्तरदायित्व रचना
कार का होगा। 4. यह आवश्यक नहीं कि प्रकाशक, सम्पादक लेखकों के अभिमत से
सहमत हों। 5. रचना कागज के एक ओर कम से कम 3 सें. मी. का हाशिया छोड़कर
सुवाच्य अक्षरों में लिखी अथवा टाइप की हुई होनी चाहिए। ___6. रचनाएं भेजने एवं अन्य सब प्रकार के पत्र-व्यवहार के लिए पता
सम्पादक
जैनविद्या दिगम्बर जैन नसियां भट्टारकजी
सवाई रामसिंह रोड जयपुर-302 004
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आचार्य पूज्यपाद का संस्कृत-व्याकरणशास्त्र को अवदान
-डॉ. हरीन्द्रभूषण जैन
जैन मनीषियों ने भारतीय वाङमय को समृद्ध करने के लिए अपूर्व योगदान दिया है। ऐसे ही एक विचक्षण मनीषी हैं प्राचार्य पूज्यपाद देवनन्दी, जिन्होंने भारतीय व्याकरणशास्त्र की परम्परा को अक्षण्ण रखने में अद्भुत योगदान किया है । जैन परम्परा में व्याकरण-शास्त्र
जैन आगम, 'बारह अंग' और 'चौदह पूर्व के रूप में वर्णित है । 'पूर्व ग्रन्थ' भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा के हैं, जैसा कि उनके नाम से द्योतित है। 'अङ्ग शास्त्र' भगवान् महावीर की परम्परा के हैं । बारहवें अङ्ग दृष्टिवाद' में चौदह पूर्वो को सम्मिलित कर लिया गया था । पूर्वो के अवान्तर विभाग 'प्राभृत' नाम से जाने जाते थे। इनमें एक 'शब्द प्राभृत' भी था।
सिद्धसेन गणि का कथन है कि पूर्वो में जो 'शब्द प्राभृत' है उससे व्याकरण-शास्त्र का उद्भव हुआ है । 'शब्द प्राभृत' अब लुप्त हो गया है । 1
__'सत्यप्रवाद' पूर्व में व्याकरण-शास्त्र के सभी प्रमुख नियम पाए हैं। इसमें वचनसंस्कार के कारण, शब्दोच्चारण के स्थान, प्रयत्न, वचन-प्रयोग, वचनभेद आदि का निरूपण है । वचन-संस्कार का विवेचन करते हुए इसके दो कारण बताए गए हैं-स्थान और प्रयत्न । शब्दोच्चारण के आठ स्थान बताए गए हैं-हृदय, कण्ठ, मस्तक, जिह्वामूल, दन्त, तालु, नासिका और प्रोष्ठ । शब्दोच्चारण के प्रयत्नों का विवेचन करते हुए स्पृष्टता, ईषत् स्पृष्टता विवृतता, ईषद्धिवृतता और संवृतता-इन पाँच की परिभाषाएँ दी गयी हैं। इस प्रकार 'सत्यप्रवाद-पूर्व' में व्याकरण-शास्त्र की एक स्पष्ट रूपरेखा दृष्टिगोचर होती है । १
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अर्धमागधी-आगम ग्रन्थों में व्याकरण की अनेक बातें आई हैं। 'ठाणांग' के अष्टम स्थान में आठ कारकों का निरूपण है। 'अनुयोग-द्वार-सूत्र' में तीन वचन, लिङ्ग, काल और पुरुषों का विवेचन मिलता है। इसी ग्रन्थ में चार, पाँच और दश प्रकार की संज्ञाओं का उल्लेख आया है । सूत्र 130 में सात समासों और पाँच प्रकार के पदों का कथन किया गया है। इससे प्रतीत होता है कि संस्कृत में व्याकरण ग्रन्थों के प्रणयन के पूर्व जैनाचार्यों ने प्राकृत में व्याकरण ग्रन्थों की रचना की होगी जो अाज उपलब्ध नहीं है । 3 जैन संस्कृत व्याकरण के 'मुनित्रय'
संस्कृत व्याकरण के महर्षि पाणिनि, कात्यायन एवं पतञ्जलि नाम के तीन मुनि प्रसिद्ध हैं जिन्हें भट्टोजि दीक्षित ने अपनी सिद्धान्तकौमुदी के प्रारम्भिक मंगलाचरण में 'मुनित्रयं नमस्कृत्य' कहकर नमस्कार किया है ।
___इसी प्रकार जैन व्याकरण साहित्य के इतिहास में भी 'मुनित्रय' प्रसिद्ध हैं-प्रथम जैनेन्द्रव्याकरणकार आचार्य पूज्यपाद देवनन्दी, द्वितीय शाकटायन (शब्दानुशासनकार) प्राचार्य पाल्यकीर्ति शाकटायन तथा तृतीय सिद्धहेम-शब्दानुशासनकार प्राचार्य हेमचन्द्र । इन तीनों मुनियों के व्याकरण शास्त्र तथा उन पर लिखे गए न्यास, वृत्ति आदि टीकाग्रन्थों के अध्ययन करने से इस बात की स्पष्ट प्रतीति होती है कि जैन आचार्यों ने संस्कृत व्याकरणशास्त्र परम्परा के उन्नयन में पर्याप्त अवदान किया है । प्राचार्य पूज्यपाद देवनन्दी
जीवन परिचय-कवि, वैयाकरण एवं दार्शनिक इन तीनों व्यक्तित्वों का, प्राचार्य पूज्यपाद देवनन्दी में अद्भुत समवाय था। इनका मूलनाम देवनन्दी था और पूज्यपाद इनकी उपाधि, तो भी ये पूज्यपाद के नाम से अधिक प्रसिद्ध हुए। इनके पिता का नाम माधवभट्ट और माता का नाम श्री देवी था। ये कर्णाटक प्रान्त के 'कोले' नामक ग्राम के निवासी और जन्म से ब्राह्मण थे । पूज्यपाद के पिता ने अपनी पत्नी के प्राग्रह से जैनधर्म स्वीकार किया था । कहा जाता है कि पूज्यपाद ने बचपन में ही नाग द्वारा निगले गए मेंढक की तड़पन देखकर विरक्त हो दिगम्बरी दीक्षा धारण की थी । इनका समय ई. सन् की छठी शताब्दी
रचनाएं-पूज्यपाद द्वारा लिखित सात रचनाएँ आजकल उपलब्ध हैं1–दश भक्ति, 2-जन्माभिषेक, 3-तत्त्वार्थवृत्ति (सर्वार्थसिद्धि), 4-समाधितन्त्र, 5-इष्टोपदेश, 6--सिद्धिप्रियस्तोत्र तथा 7-जैनेन्द्र व्याकरण ।
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__ जैनेन्द्र व्याकरण--'मुग्धबोध' के कर्ता पं. बोपदेव ने आठ प्राचीन वैयाकरणों के साथ जैनेन्द्र के नाम से प्राचार्य पूज्यपाद की संस्तुति की है
इन्द्रश्चन्द्रः काशकृत्स्नापिशली शाकटायनः ।
पाणिन्यमरजैनेन्द्रा जयन्त्यष्टौ च शाब्दिकाः ॥ 'जैनेन्द्र व्याकरण' प्राचार्य पूज्यपाद की सबसे महनीय कृति है । यही कारण है कि वे वैयाकरणों में जैनेन्द्र के नाम से अभिहित हुए।
जैनेन्द्र व्याकरण के दो पाठ-वर्तमान में जैनेन्द्र व्याकरण के दो पाठ उपलब्ध होते हैं-उत्तर भारतीय एवं दक्षिण भारतीय । दोनों पाठों पर पृथक्-पृथक् वृत्तियाँ भी उपलब्ध
उत्तर भारतीय पाठ के अनुसार जैनेन्द्र व्याकरण के 3063 सूत्र हैं जिन पर प्राचार्य अभयनन्दी कृत 'महावृत्ति' उपलब्ध है। दक्षिण भारतीय पाठ के अनुसार उसमें 3695 (प्रत्याहार सूत्रों को लेकर 3708) सूत्र हैं । इस पर सोमदेव मूरि-कृत 'शब्दार्णव-चन्द्रिका' और गुणनन्दी-कृत 'प्रक्रिया' उपलब्ध हैं। इस पाठ में 645 सूत्र अधिक होने के अतिरिक्त शेष 3063 सूत्र भी पूर्णतया एक जैसे नहीं हैं । संज्ञाओं में भी भिन्नता है । इतना होने पर भी दोनों में पर्याप्त समानता है । ।
पं. नाथूराम प्रेमी ने यह निष्कर्ष निकाला है कि पूज्यपाद देवनन्दी का बनाया हुमा सूत्रपाठ वही है जिस पर प्राचार्य प्रभयनन्दी ने महावृत्ति लिखी है। 6
विषयवस्तु-जैनेन्द्र व्याकरण के पाँच अध्याय हैं, इस कारण उसे 'अष्टाध्यायो' के अनुकरण पर 'पञ्चाध्यायी' भी कहा जाता है प्रत्येक अध्याय में चार-चार पाद हैं और प्रत्येक पाद में अनेक सूत्र । ये सब पाणिनि की अष्टाध्यायी के अनुकरण पर हैं।
जैनेन्द्र व्याकरण का प्रथम सूत्र 'सिद्धिरनेकान्तात्' अर्थात्-शब्द की सिद्धि अनेकान्त से होती है, अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इसकी व्याख्या करते हुए सोमदेव सूरि ने 'शब्दार्णवचन्द्रिका' में जो कुछ भी कहा है उसका भाव यह है कि शब्दों की सिद्धि और ज्ञप्ति अनेकान्त का आश्रय लेने से होती है, क्योंकि शब्द, अस्तित्व-नास्तित्व, नित्यत्व-अनित्यत्व और विशेषण-विशेष्य धर्मों को लिए हुए होते हैं। इस सूत्र का अधिकार इस शास्त्र की परिसमाप्ति तक जानना चाहिए ।
जैनेन्द्र व्याकरण का संज्ञा प्रकरण सांकेतिक है। इसमें धातु, प्रत्यय, प्रातिपदिक, विभक्ति, समास आदि महासंज्ञाओं के लिए बीजगणित जैसी अतिसंक्षिप्त संज्ञाएँ हैं । इस व्याकरण में सन्धि के सूत्र चतुर्थ एवं पंचम अध्याय में हैं। इनमें तुगागम, यणसन्धि, अयादि सन्धि आदि का विधान है । पूज्यपाद का यह प्रकरण पाणिनि के समान होने पर भी प्रक्रिया की दृष्टि से सरल है।
जनेन्द्र व्याकरण की सन्धि सम्बन्धी तीन विशेषताएँ हैं-लाघव, अधिकार सूत्रों द्वारा अनुबन्धों की व्यवस्था तथा उदाहरणों का बाहुल्य । चतुर्थ-पंचम शताब्दी में प्रयुक्त होनेवाली
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भाषा का समावेश करने के लिए नए-नए प्रयोगों को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया गया है । जैसे पव्यम्, अवश्यपाव्यम्, नौयानम्, गोयानम् आदि ।
जैनेन्द्र व्याकरण में स्त्री प्रत्यय, समास एवं कारक सम्बन्धी भी कतिपय विशेषताएं हैं । पञ्चमी विभक्ति का अनुशासन सबसे पहले लिखा है । पश्चात् चतुर्थी, तृतीया, सप्तमी एवं षष्ठी विभक्ति का नियमन है । इसी प्रकार तिङन्त, तद्धित और कृदन्त प्रकरणों में भी अनेक विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं। 7
पाणिनि-व्याकरण से वैशिष्ट्य-जैनेन्द्र व्याकरण की अनेक विशेषताएँ हैं जो उसे पाणिनि-व्याकरण से पृथक् करती हैं। उनमें संज्ञा एवं सूत्रों का लाघव प्रधान है ।
___ संज्ञा लाघव-'अल्पाक्षरमसंदिग्धं सूत्रं सूत्रविदो विदुः' इस पारम्परिक कथन से सूत्र पद्धति की सबसे प्रमुख विशेषता 'अल्पाक्षरता' है। यह विशेषता जैनेन्द्र व्याकरण की संज्ञाओं में तथा सूत्रों में पाणिनि की अपेक्षा अधिक द्रष्टव्य है । जिन संज्ञाओं के लिए पाणिनि ने कई अक्षरों के संकेत कल्पित किए हैं, उनके लिए जैनेन्द्र व्याकरण में और लाघव है । प्रायः एक अक्षरात्मक संज्ञा से काम लिया गया है ।
तुलना के लिए देखिएपाणिनि-व्याकरण
जैनेन्द्र-व्याकरण ह्रस्व, दीर्घ,प्लुत,
प्र, दी, प सवर्ण. अनुनासिक
वृद्धि निष्ठा प्रातिपदिक
FER
लोप
सूत्र लाघव-जैनेन्द्र-व्याकरण में उपर्युक्त संज्ञा लाघव के कारण सूत्र रचना में भी शब्द लाघव के दर्शन पाणिनि की अपेक्षा अधिक होते हैं । यथापाणिनि-व्याकरण
जैनेन्द्र-व्याकरण झरो झरि सवर्णे
झरो झरि स्वे. हलो यमा यमि लोपः
हलो यमा यमि खम् तुल्यास्यप्रयत्नं सवर्णम्
सस्थानक्रियं स्वम् अकालोऽज्झस्वदीर्घप्लुतः
प्राकालोऽ च प्रदीपः ईदेद्धिवचनं प्रगृह्यम्
ईद्देद् द्विद्भिः विपराभ्यां जे:
विपराजेः .
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जैनेन्द्र व्याकरण की टीकाएँ
जिस प्रकार पाणिनि व्याकरण पर वार्तिक, भाष्य, काशिका - वृत्ति, तत्वबोधिनी आदि टीका- ग्रन्थ लिखे गए, उसी प्रकार जैनेन्द्र व्याकरण पर न्यास, महावृत्ति, पञ्चवस्तुटीका आदि विविध टीका-प्रटीका ग्रन्थ लिखे गए जो निम्न प्रकार हैं
1. स्वोपज्ञ 'जैनेन्द्र न्यास' - यह प्राचार्य पूज्यपाद द्वारा जैनेन्द्र व्याकरण पर स्वनिर्मित 'न्यास' है जो ग्राजकल उपलब्ध नहीं है ।
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2. 'जैनेन्द्र महावृत्ति' -- इसके रचनाकार प्राचार्य अभयनन्दी का समय विक्रम की 8-9 वीं शताब्दी है । यह महावृत्ति 12,000 श्लोकप्रमाण है । महावृत्ति के उदाहरणों में जैन तीर्थंकरों, महापुरुषों, ग्रन्थों और ग्रन्थकारों के नाम श्राए हैं। जैसे-
सूत्र 1/4/15 में, 'अनुशालिभद्रम् श्राढ्याः' तथा 'अनुसमन्तभद्रं तार्किकाः' । सूत्र 1/4/16 में, ' उपसिंहनन्दिनं कवयः' तथा 'उपसिद्धसेनं वैयाकरणाः' । सूत्र 1 / 3 / 10 में, 'कुमारं यशः समन्तभद्रस्य' ।
3. शब्दाम्भोजभास्कर - न्यास - इसके कर्ता प्रा. प्रभाचन्द्र ।। वीं शती के प्रसिद्ध विद्वान् हैं । यह न्यास 16,000 श्लोक प्रमाण है । इसका कुछ भाग अभी भी अनुलब्ध है । 4. प्राचार्य श्रुतकीर्तिकृत 'पञ्चवस्तु' - यह टीका, जैनेन्द्र व्याकरण का प्रक्रिया ग्रन्थ है, जो 3300 श्लोकप्रमारण है । इसकी रचना शक सं. 1011 (वि. सं. 1146) में की गई ।
5. लघु जैनेन्द्र - विक्रम की 12 वीं शती के विद्वान् पं. महाचन्द्र ने जैनेन्द्र व्याकरण पर अभयनन्दीकृत महावृत्ति के आधार पर 'लघु जैनेन्द्र' नामक टीका लिखी ।
6. शब्दार्णव – प्राचार्य गुणनन्दी ने जैनेन्द्र परिवर्धित करके सर्वाङ्गपूर्ण बनाने का प्रयत्न किया है।
हुई ।
व्याकरण के सूत्रों को परिवर्तित एवं इसकी रचना वि. सं. 1036 के पूर्व
7. शब्दारणवचन्द्रिका- - प्रा. गुणनन्दी के शब्दार्णव पर प्रा. सोमदेव ने इस विस्तृत टीका की रचना की ।
8. शब्दार्णव प्रक्रिया - यह 'जैनेन्द्र प्रक्रिया' के नाम से प्रसिद्ध है । इसे प्रा. सोमदेव की 'शब्दार्णव चन्द्रिका' के आधार पर प्रक्रियाबद्ध रूप में लिखा गया है । इसका कर्तृत्व विवादग्रस्त है यद्यपि ग्रन्थ के अन्त में प्राचार्य गुरणनन्दी का निम्न प्रकार उल्लेख हुआ हैराजन्मृगाधिराजो गुणनन्दी मुवि चिरं जीयात् ।
9. जैनेन्द्र व्याकरण वृत्ति- - राजस्थान के शास्त्र भंडारों की ग्रन्थ सूची भाग 2, पृ. 250 पर मेघविजय द्वारा रचित उक्त वृत्ति का उल्लेख है ।
10. श्रनिटकारिकावचूरि - जैनेन्द्र व्याकरण की अनिटकारिका पर श्वेताम्बर जैन मुनि विजयविमल ने 17 वीं शती में इस अवचूरी की रचना की ।
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जैनेन्द्र व्याकरण पर रचे गए इतने टीका-ग्रन्थों से इस बात का स्पष्ट पता चलता है कि यह व्याकरण लगभग एक हजार वर्षों तक लोकप्रिय रहा और इसका प्रचार-प्रसार होता रहा । 11 जैनाचार्यों के व्याकरण संबंधी मतों का उल्लेख
प्राचार्य पूज्यपाद ने जैनेन्द्र व्याकरण में अपने से पूर्ववर्ती छह प्राचार्यों के व्याकरण संबंधी मतों का उल्लेख किया है। उनके नाम इस प्रकार हैं--1. भूतबलि, 2. श्रीदत्त, 3. यशोभद्र, 4. प्रभाचन्द्र, 5. समन्तभद्र तथा 6. सिद्धसेन ।
इन छह प्राचार्यों में से किसी का भी कोई व्याकरण-ग्रन्थ अभी तक उपलब्ध नहीं हुआ है। इतना अवश्य है कि ये प्राचार्य पूज्यपाद से पूर्ववर्ती विश्रुत आचार्य थे । उनके ग्रन्थों में व्याकरण के प्रयोगों का जो वैशिष्ट्य मिलता है वही उनके वैयाकरण होने का प्रमाण है ।
मतों का विवरण इस प्रकार है
भूतबलि-आचार्य भूतबलि के मत का प्रतिपादन करनेवाला सूत्र है 'राद् भूतबले.' (3/4/83), अर्थात् प्रा. भूतबलि के मत से समा शब्दान्त द्विगु समास में 'ख' प्रत्यय होता है । इससे 'द्धसमिकः' के साथ 'बैसमीनः' प्रयोग भी विकल्प से सिद्ध होगा।
श्रीदत्त-'गुणे श्रीदत्तस्यास्त्रियाम्' (1/4/34) अर्थात्-प्राचार्य श्रीदत्त के मत के अनुसार गुणहेतुक पञ्चमी विभनि होती है, स्त्रीलिङ्ग को छोड़कर । इससे 'ज्ञानेन मुक्तः' के साथ 'ज्ञानान्मुक्तः' प्रयोग भी विकल्प से सिद्ध होगा।
यशोभद्र-'कृवृषिमजां यशोभद्रस्य' (2/1/99) अर्थात्-प्राचार्य यशोभद्र के मत से कृ, वृष् और मृज् धातु से 'क्यप्' प्रत्यय होता है। तदनुसार कृत्यम्, वृष्यम् और मृज्यम्-ये वैकल्पिक प्रयोग सिद्ध होंगे।
प्रभाचन्द्र-'रात्रेः कृति प्रभाच द्रस्य' (4/3/180) अर्थात्-प्रा. प्रभाचन्द्र के मत से रात्रि पद के उपपद रहते हुए कृदन्त प्रत्यय के पश्चात् 'मुम्' का आगम होता है। तदनुसार 'रात्रिचरः' वैकल्पिक प्रयोग सिद्ध होगा।
समन्तभद्र-'चतुष्टयं समन्तभद्रस्य' (5/4/140) अर्थात्-‘झयो हः; 'शश्छोटि', 'हलो यमा यमि खम्' तथा 'झरो झरि स्वे'-ये चार सूत्र प्रा. समन्तभद्र के मत से कहे गए हैं । तदनुसार क्रमशः, सुवाग्धसति (ह को पूर्वसवर्ण), षट्छयामा (श् के स्थान पर छ), शय्या (संयोग से प्राप्त तीसरे यकार का लोप), तथा भित्ताम् (तीसरे तकार का लोप ) ये चार वैकल्पिक कार्य प्रा. समन्तभद्र के मत से होते हैं ।
सिद्धसेन–'वेत्तेः सिद्धसेनस्य' (5/1/7) अर्थात्-प्राचार्य सिद्धसेन के मत से, विद् धातु से परे झ् प्रत्यय के स्थान में आदेशभूत 'अत्' को 'रूट्' का पागम होता है । यथासंविद्रते । 12
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जैनेन्द्र व्याकरण का महत्त्व एवं उसका संस्कृत व्याकरण शास्त्र को योगदान
___ आचार्य पूज्यपाद का स्मरण करते हुए, हरिवंशपुराण के रचयिता प्राचार्य जिनसेन ने उनकी वाणी की वन्दना इस प्रकार की है
इन्द्रचन्द्रार्क जैनेन्द्र व्याडि व्याकरणक्षिणः ।
देवस्य देववन्द्यस्य न वन्द्यन्ते गिरःकथम् ॥ 13 अर्थात्-इन्द्र, चन्द्र, अर्क और जैनेन्द्र व्याकरण का अवलोकन करनेवाली देववन्द्य देवनन्दी प्राचार्य की वाणी क्यों नहीं वन्दनीय है, अर्थात् सर्वतोभावेन वन्दनीय है ।
संस्कृत साहित्य में पाणिनि की अष्टाध्यायी, व्याकरण शास्त्र का सबसे महत्त्वपूर्ण एवं सांगीण विवेचन है। पाणिनि ने संस्कृत साहित्य का जो स्वरूप स्थिर किया उसी का विकास अनेक वृत्ति, वार्तिक, भाष्य, न्यास, टीका, प्रक्रिया आदि के रूप में वर्तमान काल तक होता आया है। किन्तु पाणिनि के अतिरिक्त उन्हीं की निर्धारित पद्धति पर भी व्याकरण ग्रन्थों का प्रणयन हुआ है । जैनेन्द्र व्याकरण उसकी पहली कड़ी है ।
__ जैनेन्द्र व्याकरण की रचना से पूर्व प्राचार्य पूज्यपाद ने पाणिनि व्याकरण पर 'शब्दावतारन्यास' की रचना की थी, जो वर्तमान में उपलब्ध नहीं है ।
'पाणिनिकालीन भारतवर्ष' के लेखक, प्रसिद्ध भारतीय विद्याविद् डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने 'जैनेन्द्र-महावृत्ति' की भूमिका में जैन व्याकरण के अध्ययन एवं जैनेन्द्र व्याकरण के अवदान की विस्तार से चर्चा की है। 14
वे लिखते हैं-जैनेन्द्र व्याकरण ने भोज के सरस्वतीकण्ठाभरण को छोड़कर अपने आपको पाणिनीय सूत्रों के सबसे निकट रखा। किसी भी व्याकरण के अध्ययन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जैनेन्द्र ने पाणिनि की सामग्री की प्रायः अविकल रक्षा की है । केवल स्वर और वैदिक प्रकरणों को अपने युग के लिए आवश्यक न जानकर उन्होंने छोड़ दिया था । जैनेन्द्र व्याकरण के कर्ता ने पाणिनीय-गणपाठ की बहुत सावधानी से रक्षा की। जैनेन्द्र व्याकरण की प्रवृत्ति पाणिनि-सामग्री के निराकरण में नहीं, वरन् उसके अधिक से अधिक संरक्षण में देखी जाती है। कात्यायन के वार्तिक और पतञ्जलि के भाष्य की दृष्टयों में जो नए-नए रूप सिद्ध किए गए थे उन्हें देवनन्दी ने सूत्रों में अपना लिया। इसलिए भी यह व्याकरण अपने समय में विशेष लोकप्रिय हुआ होगा।
इसमें सन्देह नहीं कि प्राचार्य पूज्यपाद, पाणिनि-व्याकरण, कात्यायन के वार्तिक और पतञ्जलि के भाष्य के पूर्ण मर्मज्ञ थे, एवं जैनधर्म और दर्शन पर भी उनका असामान्य अधिकार था । वे गुप्तयुग के प्रतिभाशाली महान् साहित्यकार थे जिनका तत्कालीन प्रभाव कोङ्कण नरेशों पर था, किन्तु कालान्तर में वे सारे देश की विभूति बन गए।
__ उपर्युक्त कथन से यह बात असंदिग्ध रूप से स्पष्ट हो जाती है कि प्राचीनकाल में सुदीर्घ समय तक पाणिनि-व्याकरण के साथ जैनेन्द्र-व्याकरण भी, भारतीय-साहित्य परम्परा
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अनेकान्त शोधपीठ (बाहुबली-उज्जन)
15, एम. आई. जी. मुनिनगर उज्जैन (म.प्र.) 456010
1. जैन साहित्य का वृहद् इतिहास, भाग-5, पृ. 6 2. डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री, “जैनविद्या का सांस्कृतिक अवदान" पृ. 42-43 . 3. डॉ. गोकुलचन्द्र जैन, “संस्कृत प्राकृत जैन व्याकरण और कोश की परम्परा", श्री
कालूगणि जन्म शताब्दी समारोह समिति, छापर (राजस्थान), 1977, में “संस्कृत के
जैन वैयाकरण : एक मूल्यांकन' शीर्षक निबन्ध, पृ. 39 . 4. वही, पृ. 39 5. डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री, "तीर्थंकर महावीर और उनकी प्राचार्य परम्परा" (ती. म प्रा. ___प.), भाग-2, भारतवर्षीय दि. जैन विद्वत्परिषद्, 1974 पृ 225 6. राबर्ट बिरवे (Robert Birwe), इंस्टीट्यूट फॉर इण्डोलॉजी, कोल्न यूनिवर्सिटी का
"शाकटायन व्याकरण", भारतीय ज्ञानपीठ, 1971, में "इण्ट्रोडक्शन", पृ. 25 7. डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री, "ती म.प्रा.प." भाग-2, पृ. 230 8. पं. फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री, “सर्वार्थ सिद्धि", भारतीय ज्ञानपीठ, 1944, प्रस्तावना,
पृ. 90 9. डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री, "ती.म.ग्रा.प." भाग-2, पृ. 232 10. पं. फूलचन्द्र सि. शा "सर्वार्थसिद्धि", प्रस्तावना पृ. 90 11. डॉ. गोकुलचन्द्र जैन "संस्कृत प्राकृत जैन व्याकरण और कोश की परम्परा",
पृ. 55-59 12. पं. फूलचन्द्र सि. शा. “सर्वार्थसिद्धि", प्रस्तावना, पृ 91-92 13. हरिवंशपुराण, 1/3, भारतीय ज्ञानपीठ, वि. सं. 2019 14. डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल “जैनेन्द्र महावृत्ति की भूमिका", पृ. 6-12
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इष्टोपदेश : दर्शन और नीति का
अपूर्व संगम -डॉ. श्रीरंजन सूरिदेव
अपने पुण्याविर्भाव से कर्नाटक राज्य के कोलंगल नगर को इतिहासप्रतिष्ठ करनेवाले प्राचार्य देवनन्दी (ईसवी छठी शती) अपने पूज्यातिशय शलाकापुरुषोपम व्यक्तित्व तथा विलक्षण वैदुष्य के कारण पूज्यपादस्वामी के नाम से जन-समादृत हुए थे। अपने अतल-स्पर्श ज्ञान-गाम्भीर्य की अपूर्वता से वह बहुश्रुत की परिधि को पारकर सर्वश्रुत हो गये थे। वे व्याकरण, दर्शन, तन्त्र, योग, नीति, भक्ति, आयुर्वेद आदि अनेक विषयों के एक समान प्राख्याता थे । इस दृष्टि से उन्हें योग (मनः शुद्धि), व्याकरण (भाषा-शुद्धि) और आयुर्वेद (शरीर-शुद्धि) के समानान्तर प्रवक्ता महर्षि पतंजलि का प्रतिरूप कहा जाय तो कोई अत्युक्ति नहीं।
__'आदिपुराण' के रचयिता प्राचार्य जिनसेन द्वितीय (ईसवी 8 वीं. 9 वी शती) ने प्राचार्य देवनन्दी को 'तीर्थकृत्' की संज्ञा दी है:
कवीनां तीर्थकृदेवः किंतरा तत्र वर्ण्यते । विदुषां वाङ्मलध्वंसि तीर्थ यस्य वचोमयम् ॥
(प्रादिपुराणः 1/52) 'ज्ञानार्णव' के रचयिता प्राचार्य शुभचन्द्र (ई. 10-11 वीं शती) ने भी पतंजलिकल्प प्राचार्य देवनन्दी को काय-वाक्-चित्त के मल को दूर करनेवाले के रूप में प्रतिष्ठा देते हुए उनकी वन्दना की है
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प्रपाकुर्वन्ति यद्वाचः कायवाकचित्तसम्भवम् । कलङ्कमङ्गिनां सोऽयं देवनन्दी नमस्यते ॥
(ज्ञानार्णव: 1.15) कहना न होगा कि आचार्य देवनन्दी की रचनाएँ परवर्ती प्रायः सभी श्रेष्ठ रचनाकारों की उपजीव्य रही हैं, इसीलिए उन्होंने उनके पारगामी पाण्डित्य, अन्तःप्रवेशी मनीषा, विस्मयकारिणी सर्वतोमुखी प्रज्ञा एवं प्रतिभा का सादर और साग्रह स्मरण किया है । किंवदन्ती है कि पूज्यपाद स्वामी ने प्रसिद्ध बौद्धतान्त्रिक नागार्जुन को सोना बनानेवाले सिद्धिरस की प्रोषधि (बूटी) की पहचान कराई थी। (द्र. 'तीर्थंकर महावीर और उनकी प्राचार्य परम्परा' भाग-2, पृ. 221)
प्राचार्य पूज्यपाद देवनन्दी की प्रामाणिक रचनामों में 'जनेन्द्र महाव्याकरण', 'सर्वार्थसिद्धि', की 'तत्वार्थवृत्ति' टीका, 'समाधिशतक' या 'समाधितन्त्र', 'इष्टोपदेश' तथा 'दशभक्ति' उल्लेख्य हैं । पुण्य श्लोक डॉ. नेमीचन्द शास्त्री ने 'जन्माभिषेक' एवं 'सिद्धिप्रियस्तोत्र' को भी पूज्यपाद की कृतियों में परिगणित किया है (द्र. तीर्थंकर महावीर और उनकी प्राचार्य परम्परा', भाग-2, पृ. 225 ) । सन् 1954 ई. में बम्बई के परमश्रुत-प्रभावक-मण्डल की श्री रायचन्द्र जैन शास्त्रमाला में प्रकाशित 'इष्टोपदेश' के प्रथम संस्करण के प्रकाशकीय निवेदन में उल्लेख है कि प्राचार्य पूज्यपाद ने 'शब्दावतारन्यास', 'जैनेन्द्रन्यास', 'सारसंग्रह' और एक वैद्यक ग्रन्थ की रचना की थी, जो सम्प्रति अनुपलब्ध हैं । इस निबन्ध में 'इष्टोपदेश' पर नातिदीर्घ चर्चा करना मेरा अभीष्ट है ।
_ 'इष्टोपदेश' को नारायण कवि लिखित प्रसिद्ध 'हितोपदेश' की परम्परा का नव्योभावन (रीहै श) कहना अनुचित नहीं होगा । नामसाम्य तो स्पष्ट ही है । 'हितोपदेश' में बालकों के लिए कथा के छल से नीति की बात कही गई है, तो 'इष्टोपदेश' में घातक कर्मों के तादात्विक प्रानन्द में प्रमत्त बालश्रावकों (प्रज्ञानियों) को प्रत्यक्ष रूप से, बिना किसी कथा के माध्यम से, उपदेश किया गया है। कहना न होगा कि 'इष्टोपदेश' और प्राचार्य कुन्दकुन्द (ई. प्रथमशती) की महत्कृति समयसार' का तुलनात्मक अध्ययन अपने आप में एक सुखद शोध-प्रयत्न होगा।
परिग्रह की विभिन्न वृत्तियों में प्राबद्ध मानव निरन्तर आर्तध्यान और रौद्रध्यान में रहता है, फलतः वह प्रत्येक क्षण विषयोन्मुख होकर तनावों में जीने के लिए विवश हो जाता है और विषय-वासना की मृग-मरीचिका में भ्रान्त होकर आत्मशक्ति और आत्मशान्ति के मूल्य को खो बैठता है । कहना न होगा कि आज समग्र मानव जाति आत्मविस्मृत और दिग्भ्रान्त होकर स्वयं अपना ही अवमूल्यन कर रही है । 'इष्टोपदेश' आधुनिक दिशाहारा मानव के लिए उसके सही मार्ग-निर्देशन में समर्थ है, अत: इस ग्रन्थ की आज भी प्रासंगिकता और सम्प्रेषणशीलता अक्षुण्ण बनी हुई है।
_ 'इष्टोपदेश' में कुल इक्यावन पद्य हैं और सभी के सभी पद्य बीजात्मक, अतएव भाष्यगर्भा हैं । देखने में छोटा, किन्तु प्रभावकारिता की दृष्टि से व्यापक और गम्भीर । बीज
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का लक्षण ही है अणिमा में तनिमा का समाहार, 'अल्पमात्रं समुद्दिष्टं बहुधा यद्विसर्पति ।' (साहित्यदर्पणः 6.65) अवश्य ही, उपदेशकार देवनन्दी ने गागर में सागर भरने की कहावत को अन्वर्थ किया है।
'इष्टोपदेश' की रचना का मुख्य लक्ष्य है-विषयोन्मुख को विषय-विमुख करना, या परोन्मुख को आत्मोन्मुख करना, या पराश्रित को प्रात्माश्रित करना । मानव बहिर्मुख से अन्तर्मुख तभी हो सकता है जब उसे इष्ट, अर्थात् हितकर और प्रभावक उपदेश सुनने को मिले । किन्तु, इष्ट उपदेश सब कोई नहीं कर सकता। इसके लिए उपदेष्टा में सद्गुरुता या पूज्यपादता अपेक्षित है । सद्गुरु भी सब कोई नहीं बन सकता । इसके लिए संयम की अकर्षता एवं ज्ञान की निर्मलता अनिवार्य है। दूसरे शब्दों में कहें, तो दर्शन, ज्ञान और चारित्र की निर्मलता से ही सद्गुरुता या पूज्यपादता प्राप्त होती है । अतः सद्गुरु या पूज्यपाद द्वारा किया गया उपदेश प्राणिहितकारक होने के साथ ही प्रात्मस्वरूप का अवबोधक भी होता है ।
भाषा और शैली की दृष्टि से सरल और प्रांजल, अतएव मनोग्राह्य संस्कृत श्लोकों (50 श्लोक अनुष्टुप् छन्द में और अन्तिम 51 वां श्लोक वसन्ततिलका छन्द) में निबद्ध, प्राचार्य देवनन्दी का 'इष्टोपदेश' सातिशय लोकसमादर को प्राप्त हुआ है । यही कारण है कि उसका अंग्रेजी, हिन्दी, मराठी, गुजराती आदि कई देशी-विदेशी भाषाओं में समश्लोकी पद्यानुवाद हुआ है।
आत्मशक्ति के विकास के लिए सर्वप्रथम इसकी अनुभूति वांछित है । कहना न होगा कि 'इष्टोपदेश' यही काम करता है, यानी मानव-मन में प्रात्मशक्ति की अनुभूति जगाकर उसके सर्वतोमुखी विकास के लिए उसे प्रेरित-प्रोत्साहित करता है। आज की राष्ट्रीय मूल चिन्ता भी यही है कि प्रत्येक मानव प्रात्मशक्ति की अनुभूति प्राप्त कर इसके सर्वतोभद्र उन्नयन के लिए सतत प्रयत्नशील हो । आचार्य देवनन्दी ने ग्रन्थान्त (पद्य-सं. 51 ) में लिखा है
इष्टोपदेशमिति सम्यगधीत्य धीमान् मानापमान समतां स्वमताद्वितन्य । मुक्ताग्रहो विनिवसन् सजने बने वा
मुक्तिश्रियं निरुपमामुपयाति भव्यः ॥ अर्थात्, इस इष्टोपदेश को सम्यक्तया अध्ययन-मनन करने से भव्य जीवों, यानी मुक्ति के पात्र प्राणियों को हिताहित-विवेचन में दक्षता प्राप्त होती है । सदसद्विवेकिनी बुद्धि-रूप पण्डा की प्राप्ति से वे सच्चे अर्थ में पण्डित अर्थात् आत्मज्ञान (सभी जीवों के प्रति आत्मौपम्य की भावस्थिति) से सम्पन्न हो जाते हैं । फलतः, उन्हें मान-अपमान, लाभ-हानि, इष्ट-अनिष्ट, भूत-भविष्य जैसी उद्विग्नकारक द्वन्द्वात्मक स्थितियों में व्यापक और विस्तृत समता-भावना उपलब्ध होती है। वे प्रत्येक प्रकार के प्राग्रह से मुक्त हो जाते हैं। उनके लिए नगर या वन के जीवन में कोई फर्क नहीं दिखाई पड़ता। वे हर परिस्थिति में, चाहे वह अनुकूल हो या प्रतिकूल विधिपूर्वक रह लेते हैं और इसी तपस्साधना या परिषह-सहन से वे अनुपम मुक्तिश्री के अधिकारी बन जाते हैं।
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_ 'इष्टोपदेश' 'हितोपदेश' की तरह की गुरु-शिष्य के संवाद के रूप में उपन्यस्त हुआ है । आचार्य देवनन्दी व्रतों को मूल्य देते हुए कहते हैं कि मोक्षमागियों को अव्रतों के माध्यम से नरक-पद प्राप्त करने के वनिस्पत व्रतों के माध्यम से देव-पद प्राप्त कर लेना कहीं अच्छा है। जैसे, धूप में बैठकर दुःख से समय बिताने की अपेक्षा छाया का सुख लेना कहीं अच्छा है।
आचार्य की इस बात पर उनका शिष्य शंका करता है कि आपके इस कथन से तो सर्व-साधारण सुखार्थी जनों का आत्मानुराग के प्रति आकर्षण होने की अपेक्षा व्रतों की ओर झुकाव हो जायेगा। शिष्य की इस शंका के समाधान में आचार्य दृष्टान्त के आधार पर कहते हैं कि जो आत्मभाव या आत्मशक्ति मोक्ष दे सकती है, उसके लिए स्वर्ग कोई बड़ी दूर की बात नहीं है । जो भारवाही अपने भार को दो कोस तक ढो ले जा सकता है उसके लिए प्राधा कोस भार ढोना क्या दुःख की बात होगी ? आत्मध्यान या आत्मचिन्तन के साथ-साथ व्रताचरण भी अनिवार्य है । साध्य-रूप मुक्ति की प्राप्ति के क्रम में आत्मध्यान से उपार्जित पुण्य की सहायता से साधन-रूप मुक्ति (स्वर्ग चक्रवर्ती आदि का भोग) मिल जाय, तो वह जीवों के लिए काम्य होना चाहिए (द्र पद्य-सं. 3-4)।
इस प्रकार, प्राचार्य ने जब प्रात्मशक्ति को स्वर्ग-सुख का कारण बता दिया, तब शिष्य ने कुतूहलवश स्वर्ग जानेवालों के फल की जिज्ञासा की। प्राचार्य ने कहा
हृषीकजमनातङ्क दीर्घकालोपलालितम् ।
नाके नाकोकसां सौख्यं नाके नाकौकसामिव ॥ (पद्य-सं. 5) अर्थात् स्वर्ग में निवास करनेवाले जीवों को स्वर्ग में वैसा ही सुख मिलता है जैसा कि स्वर्ग में रहनेवाले जीवों (देवों) को अर्थात् स्वर्गवासी देवों का सुख ऐसा अनुपमेय होता है कि वैसा कोई दूसरा सुख सम्भव ही नहीं है क्योंकि वह सुख (स्वर्गीय सुख) इन्द्रियों से उत्पन्न होनेवाले आतंक (रोगभय) से रहित और दीर्घकाल तक बना रहनेवाला होता है।
यहाँ 'नाके नाकौकसां सौख्यं नाके नाकोकसामिव' में आचार्य जी द्वारा की गई न-न, क-क और स-स व्यंजनों के अनेकधा सकृत्साम्य से 'छेकानुप्रास' जैसे शब्दालंकार और उपमान एवं उपमेय के अभेद से उत्पन्न 'अनन्वय' जैसे अर्थालंकार की योजना सातिशय हृदयावर्जक है । दर्शन और काव्य का यह मणिप्रवाल-संयोग अवश्य ही अपूर्व है ।
उपदेश की बातें यदि दृष्टान्तों के द्वारा कही जाती हैं तो वे अधिक प्रभावशाली होती हैं । इसीलिए आचार्य देवनन्दी ने प्रायः अपने पूरे उपदेशों में प्रसंगानुसार दृष्टान्त-शैली का ही आश्रय लिया है । आचार्य ने जब यह कहा कि सुख और दुःख वासनामात्र या विभ्रमजन्य संस्कार हैं, तो शिष्य ने पूछा कि सुख-दुःख लोगों को उसी रूप में क्यों नहीं अनुभव होते । बहुधा ऐसा देखा गया है कि लोग कमनीय कामिनी आदि के दुःख परिणामी भोग को ही वास्तविक सुख मान बैठते हैं । प्राचार्य ने दृष्टान्त सहित उत्तर दिया
मोहने संवृतं ज्ञानं स्वभावं लभते न हि । मत्तः पुमान् पदार्थानां यथा मदनकोद्रवैः ॥ (पद्य-सं. 7)
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अर्थात् मोह से आच्छादित ज्ञान वास्तविक स्वरूप को वैसे ही नहीं जान पाता है जैसे मद पैदा करनेवाले कोदों के खाने से मत्त आदमी पदार्थों के वास्तविक रूप को ठीक-ठीक नहीं जान पाता।
यद्यपि शरीर, घर, धन, स्त्री, पुत्र, मित्र, शत्र आदि सर्वथा विपरीत स्वभाववाले होते हैं, पर मोहपाश में आबद्ध मूढ प्राणी को ये सभी प्रात्मवत् और अनुकूल स्वभाववाले प्रतीत होते हैं । (पद्य-सं. 8)
दुःख से अर्जनीय और सतत असुरक्षा की भावना से युक्त एवं नश्वर धन आदि को अपना मानकर सुखी होने वाला व्यक्ति उस ज्वरग्रस्त रोगी के समान है जो घी पीकर अपने को स्वस्थ मानने की मूर्खता करता है । (पद्य-सं. 13)
प्राचार्य पूज्यपाद निर्धनता-निवारण एवं पूर्वोपार्जित पाप के क्षय के लिए पात्रदान, देवपूजा आदि को निरर्थक मानते हैं। उन्होंने लिखा है
त्यागाय श्रेयसे वित्तमवित्तः सच्चिनोति यः ।
स्वशरीरं स पङ्कन स्नास्यामीति विलिम्पति ॥ (पद्य-सं. 16) अर्थात्, जो निर्धन ऐसा विचार करे कि पात्रदान, देवपूजा आदि त्यागकर्म से श्रेय:प्राप्ति होगी और पूर्वोपार्जित अपुण्य का क्षय होगा, तो वह बाद में स्नान कर लूंगा, ऐसा सोचकर अपने शरीर पर कीचड़ मलता है ।
प्राचार्य पूज्यपाद कहते हैं—यह बात प्रसिद्ध है कि जिसके पास जो होता है, वह वही देता है । अज्ञानियों की संगति अज्ञानता देती है और ज्ञानियों की संगति ज्ञान प्रदान करती है । इसलिए, लोगों को चाहिए कि वे बराबर ज्ञानियों की संगति करें । (पद्य-सं. 23)
योगपरायण योगी सदेह होकर भी विदेह हो जाता है। इसीलिए, ध्यान की स्थिति में वह, 'यह क्या है ? कैसा है ? किसका है ? क्यों है ? कहाँ है ?' इत्यादि विकल्पों से मुक्त होकर अपनी शारीरिक अस्मिता को भी भूल जाता है । वह निरन्तर अध्यात्म में रमते हुए अननुभूत और अनास्वादित अानन्द की अनुभूति में मग्न रहता है, आत्माराम हो जाता है । उसे अध्मात्म के अतिरिक्त दूसरी जगह प्रवृत्ति ही नहीं होती (पद्य-सं. 42-43) । निश्चय ही, जिस व्यक्ति को आध्यात्मिक प्रानन्द की उपलब्धि हो जाती है वह पुनः भौतिक आनन्द की ओर आकृष्ट नहीं होता।
इस प्रकार, 'इष्टोपदेश' में प्राचार्य देवनन्दी ने जीव (आत्मा) और पुद्गल (शरीर) को सर्वथा एक दूसरे से भिन्न माना है । जो योगी ऐसी दिव्यानुभूति की स्थिति में पहुंच जाता है उसे शारीरिक या भौतिक चिन्ता कभी बाधित नहीं करती। अन्त में, आचार्य पूज्यपाद का यही निष्कर्ष वाक्य भी है कि पुद्गल और जीव की भिन्नता के ज्ञान का उपदेश ही प्राचार्यों का धर्म है । यही तत्त्वसंग्रह है । उससे भिन्न इस सन्दर्भ में जो कुछ भी कहा जाता है, सब इसी तत्त्व का विस्तार है । मूल श्लोक इस प्रकार है
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जीवोऽन्यः पुद्गलश्चान्य इत्यसौ तत्त्वसङ्ग्रहः ।
यदन्यदुच्यते किञ्चित् सोऽस्ति तस्यैव विस्तरः ॥ (पद्य-सं. 50) विषय-सुख में लिप्त मनुष्य विषय के तादात्विक सुख की अनुभूति में ही अपने जीवन की सार्थकता का अनुभव करता है। उसके भावी दुःखमय परिणाम का ज्ञान उसे नहीं रहता । संसारी मनुष्य भय-संकट की स्थिति में भी अपने को अज्ञतावश निर्भय समझता है परन्तु वस्तुतः उसकी यह निर्भयता एक प्रकार की मिथ्याकल्पना-मात्र होती है । इसीलिए सही सुख-दुःख को पहचान कर स्व-स्वभाव में आत्मस्थ होने का अविराम प्रयत्न और पुरुषार्थ अपेक्षित है । यही 'इष्टोपदेश' का मूल कथ्य है ।
_ 'दृष्टान्त' की शाब्दिक व्याख्या के अनुसार, परिणाम को प्रदर्शित करनेवाली बातें ही दृष्टान्त हैं—जिसका अन्त या परिणाम देखा गया है, 'दृष्टः अन्तो यस्य स दृष्टान्तः ।' मूलतः दृष्टान्तपरक उपदेशात्मक बातें नीति की बातें हुआ करती हैं । आचार्य देवनन्दी ने 'इष्टोपदेश' में अवश्य ही, दर्शन के आसंग में नीति की बातें कही हैं और नीति के प्रासंग में दर्शन के तत्त्वों की विवेचना की है।
इस प्रकार, 'इष्टोपदेश' में नीति और दर्शन का अपूर्व संगम हुआ है । ।
पी. एन. सिन्हा कालोनी
भिखना पहाड़ी पटना-800006
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इष्टोपदेश का उपदेश - श्री श्रीयांसकुमार सिंघई
पूज्यपाद नाम से विख्यात महर्षि देवनन्दि ने विक्रम की छठी शताब्दी में भारत भूमि को समलङ्कृत करते हुए अपनी वीतरागी साधना और प्रखर प्रतिभा के सदुपयोग से लोकोपकारी साहित्य का सृजन किया था जो आज भी मुक्तिमार्ग के श्रवबोधन में सयुक्तिक व सार्थक है । सचमुच ही उनका सृजन मुक्तिमणि प्रदीप के समान प्राज भी सचेत सामाजिकों में स्फूर्ति का संचार करता है जिससे वे भौतिक भोगोपभोग सामग्री व संसाधनों की निरर्थकता समझ मुक्ति पुरुषार्थ की चाह करने लगते हैं ।
महर्षि देवनन्दि की निर्विवाद रचनात्रों - जैनेन्द्र व्याकरण, सर्वार्थसिद्धि टीका, समाधितंत्र और इष्टोपदेश - से उनके जिस व्यक्तित्व का अनुमान होता है उससे हम उन्हें एक कुशल वैयाकरण, महान् दार्शनिक तथा सिद्धान्तविद् अध्यात्मवेत्ता मान सकते हैं । उनकी रचनाओं की विषयवस्तु, प्रतिपादनशैली, अध्यात्मप्रेरणा आदि हृदयस्थ करने पर सुनिश्चित होता है कि वे प्राचार्य कुन्दकुन्द वाङ् मय से केवल सुपरिचित ही नहीं थे अपितु उन्होंने अपनी वीतरागी साधनासम्पन्न प्रयोगशाला में उसके सर्वस्व का सफल परीक्षण भी किया था ।
'इष्टोपदेश' एक अति उपयोगी उपदेशात्मक रचना है । आत्मानुभूति के लिए अपेक्षित पुरुषार्थं, चिन्तन-मनन व आचरण आदि को संकेतित करना इसके उपदेश का सार है । प्रत्येक प्राणी के इष्टप्रयोजन की पूर्ति स्वात्मानुभूति अर्थात् अपने श्रात्मतस्व-चित्स्वरूप के संचेतन से ही संभव होती है । एतदर्थ इसमें जीव अन्य है और शरीरादि पुद्गल अन्य हैं इस विचारानुभूति को ही सम्पूर्ण तत्त्वविचार का सार समझकर तदतिरिक्त अन्य सभी तत्त्वोपदेश को इसका ही विस्तार माना गया 11
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प्रत्येक प्राणिमात्र सुखानुभूति को ही इष्ट समझता है यतः उसके सर्वविध प्रयत्न सुखोपलब्धि हेतु ही सुनिश्चित होते हैं । यह अलग बात है कि सुखाभासमय मृगमरीचिका में वह सुख का अन्वेषण करता हुआ पुरुषार्थहीनता के अभाव में भी सुख नहीं पाता मात्र सुखाभास को ही भ्रमवश मुख समझता रहता है । फिर भी उसका इष्ट तत्त्व या प्रयोजन सुख की सीमित परिधि में ही समाविष्ट प्रतीत होता है। जो सुख है वही इष्ट है और जो इष्ट नहीं वह सुख भी नहीं होता-इस प्रतिपत्ति से सुख और इष्ट मात्र नामान्तर ही हैं । पूज्यपाद महर्षि देवनन्दि द्वारा प्रयुक्त इष्टोपदेश पद की व्याख्या करते हुए पंडित अाशाधरजी लिखते हैं
इष्टं सुखं तत्कारणत्वान्मोक्षस्तदुपायत्वाच्च स्वात्मध्यानमुपदिश्यते यथावत्प्रतिपाद्यतेऽनेनास्मिन्निति वा इष्टोपदेशो नाम ग्रन्थः । (टीका 51)
___ यहाँ इष्ट पद के तीन अर्थ अभिव्यक्त हुए हैं-सुख, मोक्ष और स्वात्मध्यान । मूल अर्थ सर्वत्र सुख ही है क्योंकि मोक्षावस्था सुख का अधिकरण है और स्वात्मध्यान उस मोक्षावस्था को प्रकट करने का साधन । इस प्रकार इष्ट पद की अर्थमर्यादा सुखद परिधि में ही सीमित दिखाई देती है जिसे अभिव्यक्त करने के उद्देश्य से इस लघु रचना में मात्र 51 श्लोकों का प्रयोग हुअा है जिनमें सयुक्तिक व प्रभावोत्पादक शैली से प्रस्फुटित जितेन्द्रिय अध्यात्मरहस्य, रचना की महत्ता को द्विगुणित करता है। मेरे विचार से जब कोई भी पुरुषार्थी इष्टोपदेश के उपदेश को पचाकर बुद्धि के स्तर से ऊपर स्व-संवेदन की स्थिति में पहुँचता हुआ अपनी जितेन्द्रिय सामर्थ्य के बल पर आत्मसाक्षात्कार अर्थात् अध्यात्मरहस्य में निमग्न होने हेतु मचलने लगे तो समझना चाहिए कि उसने इस अमूल्य कृति का महत्त्व समझ लिया है ।
ग्रन्थारंभ में मंगलाचरण हेतु विहित नमस्कार श्लोक के 'स्वयं स्वभावाप्ति' पद में इष्टोपदेश का केन्द्रीय भाव निहित है क्योंकि सुखावाप्तिस्वरूप प्रयोजन की पूर्ति के लिए प्रात्मस्वभाव ही सदा इष्ट होता है और उसकी प्राप्ति भी स्वाधीन पुरुषार्थ से स्वयं होती है । जब स्वभावाप्ति के बिना इष्ट होना संभव ही नहीं होता तो इष्टोपदेश का प्रमेय 'स्वयं स्वभावाप्ति' को केन्द्रभूत बनाये बिना कैसे प्रस्तुत होता ?
स्व-द्रव्य, स्व-क्षेत्र, स्व-काल और स्व-भाव रूप आत्मसम्पत्ति का संवेदनात्मक बोध होने पर स्वभावाप्ति सहज संभव होती है । एतदर्थ बाध्य व्रताचरण निरर्थक नहीं समझना चाहिए। स्वयं स्वभावाप्ति के प्रारंभिक क्षणों में उसका होना अपरिहार्य होता है किन्तु परस्पर व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध का अभाव होने से उनमें कर्तृ कर्मभाव कतई नहीं है । बाह्य व्रताचरण स्वयं स्वभावाप्ति के लिए प्रतिकूल परिस्थितियों के परिहार स्वरूप सानुकूल परिस्थिति प्राप्त कराने में निमित्त कारण है अतः उसकी उपयोगिता नैमित्तिक मर्यादा में अपरिहार्य कही गई है। जिस प्रकार ग्रीष्मकाल में विश्राम हेतु छाया और आतप की सानुकूलता प्रतिकूलता सुस्पष्ट है उसी प्रकार स्वयं स्वभावाप्ति के लिए व्रताचरण और अव्रताचरण की सानुकूलता प्रतिकूलता समझ लेनी चाहिए ।
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महर्षि का कहना है
वरं व्रतैः पदं दैवं नाऽवतैर्वत नारकम् ।
छायाऽऽतपस्थयोर्मेदः प्रतिपालयतोमहान् ॥ 3 ॥ यहाँ इष्टोपदेश के कर्ता व्रतों और अव्रतों के पालनकर्तालों में महान् भेद स्वीकारते हुए व्रताचरण की महत्ता व सार्थकता स्थापित करते हैं तथापि उनकी दृष्टि में व्रताचरण स्वभावाप्ति के प्रयत्न अर्थात् प्रात्मभक्ति में प्रकर्ष लाने हेतु ही श्रेयस्कर है । स्वर्ग-सुख भोग की कामना से व्रताचरण का पालन क्यों ? क्या आत्मशक्ति को वृद्धिंगत बनानेवाला व्रताचरण हीनशक्तिक होता है ? अरे ! आत्मशक्ति अथवा स्वभावाप्ति के पुरुषार्थ का जो भाव शिव-लाभ करा सकता हो उस भाव के लिए अथवा तत्सहचारी व्रताचरण के लिए स्वर्गलाभ कराना कठिन कैसे होगा ? अतएव निष्प्रमाद वृत्ति से व्रतपालन के लक्ष्य का ही सन्धान करना चाहिए और भरोसा रखना चाहिए ऋषि के -
यत्र भावः शिवं दत्त द्यौः कियदूरवतिनी ।
यो नयत्याशु गव्यूति क्रोशार्धे किं स सीदति ॥4॥ इस वचन पर यह सुनिश्चित है कि स्वर्ग में स्वर्गस्थ देवों के लिए मनुष्यों द्वारा अलभ्य, इन्द्रियजनित, आतंकशून्य व दीर्घकालीन सुख प्राप्त होता है । फिर भी केवल स्वर्गलाभ की ही कामना करते हुए स्वभावाप्ति के पुरुषार्थ में प्रमत्त नहीं होना चाहिए क्योंकि स्वर्ग सुख भी पूर्णतः सांसारिक होने से क्षणिक और प्राकुलताजनक हैं । स्वर्ग सुख ही नहीं जीव को अनुभूत संसार के सभी सुख-दुःख जीव की वासना मात्र हैं। वे वैसे ही जीव को उद्वेलित करते हैं जैसे रोगावस्था में भोग व्याकुलता को जन्म देते हैं । सांसारिक सुख दुःखानुभव की परिधि में प्रकल्पित विश्व के सभी भोगोपभोग पदार्थ इष्ट प्रयोजन की पूर्ति में अयोग्य होते हैं क्योंकि वे जब तक प्राप्त नहीं होते तब तक प्राणी के मन में संताप पैदा करते हैं और जब प्राप्त हो जाते हैं तो उनसे तृप्ति लाभ नहीं होता, मनोवांछित सुख नहीं मिलता।
फिर भी निरीह और नासमझ लोग भोगानुभूति की कामनावश भोगोपभोग पदार्थों को संगृहीत करने की होड़ में लगे रहते हैं और तदर्थ धनार्जन की प्रक्रिया में मशगूल होते हुए न्याय-अन्याय की मर्यादाओं को भूलकर व्रताचरण में प्रमत्त होते हैं, श्रावकोचित कर्तव्यों का निर्वाह करने में अपने को असमर्थ समझते हैं। केवल धनसंचय ही उनका उद्देश्य बन जाता है यहां तक कि धर्म के नाम पर भी दानादि देने व व्रतादि पालन की अनुकूलता के लिए धन संग्रह करना चाहते हैं । गलत तरीके से ही सही यदि धन कमा लूंगा तो फिर दानादि कर मन्दिर आदि बनवाऊँगा, परोपकार में प्रवृत्त हो जाऊँगा इत्यादि विचार रखते हैं तो ऐसी विचारधारावाले मनुष्य को महर्षि देवनन्दि उपदेश देते हैं कि जो मनुष्य निर्धन होकर दान या कल्याण के लिए धन संग्रह करना चाहता है वह नहाऊँगा, शरीर को स्वच्छ बनाऊँगा, इस भावना से भी अपने शरीर पर कीचड़ लपेटता है ।।
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कितनी प्रगाढ़ अज्ञानता है कि त्याग के लिए भी धनसंग्रह की चाह है, कल्याण के लिए भोगोपभोग संसाधन जुटाने का उत्साह है। अरे ! जो धन या भोगोपभोग सामग्री स्वयं असुरक्षित, नश्वर और दुःसाध्य है वह किसी का कल्याण कैसे करेगी ?
हम जानते हैं कि प्रत्येक प्राणी को संसार में पग-पग पर विपत्तियों का सामना करना होता है । यह सच ही है परन्तु उनसे बचने का उपाय धन संग्रह और भोगोपभोग के संसाधन जुटाना नहीं है। जब तक धनादि से भोगोपभोग की अनुकूलता बनाकर हम एक विपत्ति को मिटाना चाहते हैं तब तक अन्य अनेक विपत्तियाँ सामने आ खड़ी होती हैं ।। इसलिए विपत्ति मेटने का उपाय भोगानुभूति नहीं है क्योंकि भोगकामना ज्यों-ज्यों सफल होती है त्यों-त्यों भोगानुभूति की तृष्णा बढ़ती जाती है तथा उसका अंत विश्व के सम्पूर्ण भोग भोगने पर भी नहीं होता और यही तृष्णा सबसे बड़ी विपत्ति किंवा विपत्तियों का कारण बन जाती है । अतः विपत्तियों को मेटने का उपाय भोगाभिलाषा का परित्याग है, व्रताचरण और आत्मभक्ति का प्रयत्न है। जो मूढ़भाव, मूढ़ व्यापार व मूढ़ता सम्पृक्त बुद्धि को छोड़े बिना संभव नहीं होता। मोह या मिथ्यात्व से जब जीव का वर्तमान व्यक्त ज्ञान प्रभावित होता है तो मूढ़ता पैदा होती रहती है। इसलिए ज्ञान को मोहासक्ति से बचाकर शरीर, स्त्री, पुत्र, धन आदि को अपना या अपने सुख-दुःख में कारण न मानकर उनका चिन्तन-ध्यान छोड़ देना चाहिए तथा 'अहमात्मैवास्मि' की भावना से भरपूर होते हुए स्वसंवेदन से सदा प्रकट होने योग्य अपने प्रात्मा का ही ध्यान करना चाहिए। मूढ़ता का ध्यान करने से खली के टुकड़े के समान तुच्छ सामग्री प्राप्त होती है और स्वात्मा के ध्यान से दिव्य-चिन्तामणि के समान अनुभवमूल निराकुल धर्म प्रगट होता है। फिर क्यों न हम विवेकप्रवरण बनकर ध्यान द्वारा अतुल आनंद को भोगें और कष्टानुभूति से बचने का संकल्प लें ? सही व सार्थक को चुन लें, गलत और निरर्थक को छोड़ दें क्योंकि विवेकियों को प्रात्म-ध्यान साधन का ही आदर करना चाहिए। इष्टोपदेश में भी यही प्रेरणा दी गई है
इतश्चिन्तामणिदिव्य इतः पिण्याकखण्डकम् ।
ध्यानेन चेदुभे लभ्ये क्वाऽऽद्रियन्तां विवेकिनः ॥20॥ सही और सार्थक दिशा में ध्यान करने की विधि प्रदर्शित करते हुए मुनिश्री लिखते हैं
संयम्य करणग्राममेकाग्रत्वेन चेतसः ।
प्रात्मानमात्मवान् ध्यायेदात्ममैवात्मनिस्थितम् ॥22॥ अर्थात् द्रव्य मन व भाव मन की एकाग्रता से स्पर्शनादि पांचों इन्द्रियों की विषयप्रवृत्ति रोककर आत्मवान् जीव अपने ही आत्मा द्वारा अपने ही आत्मा में स्थित अपने ही प्रात्मा का ध्यान करे।
आत्मध्यान की इस विधि में आत्मा ही सर्वस्व होता है यहाँ तक कि ध्यान, ध्याता और ध्येय का विकल्प भी नहीं होता, इस प्रकार आत्मा में द्वैत कल्पना का विस्मरण करते
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हुए जब साधक अद्वै तात्माह' इस निर्विकल्प स्वसंवेदन की स्थिति में पहुंचता है तो उसे ध्यान की सिद्धि होती है।
महर्षि देवनन्दि भावमन की चञ्चलता दूर करने हेतु मन को एक के अर्थात् अपने आत्मा के सामने समर्पित करने की सलाह देते हैं क्योंकि जब तक तात्त्विक चिन्तन द्वारा बुद्धि पर अंकित भोगविलासितामय या पुण्यादि को धर्म मानने जैसे संस्कारों को अप्रभावी नहीं किया जाता तब तक भावमन की चञ्चलता समाप्त नहीं की जा सकती अतः ध्यान की विधि में अग्रसर होने हेतु तत्त्वचिन्तन के सोपान का सहारा अवश्य लेना चाहिए ।
शास्त्राभ्यास और गुरु के उपदेशामृत प्रसाद से विवेक-ख्याति अर्थात् भेदविज्ञान की कला में निपुणता हासिल हो जाए तो तत्त्वचिन्तन के द्वार खुल जाते हैं । ध्यान की चरम स्थिति में पहुँचने की अभिलाषा बढ़ जाती है। अधिक क्या कहें, पुरुषार्थ सही दिशा में और सच्चा होने लगता है । तत्त्वचिन्तन की महिमा अपरम्पार है । तत्त्वचिन्तन से ही आत्मा में ऐसा अपूर्व बल स्फुरित होता है जिसके सहारे अनंतानंत कर्मों के उदयस्वरूप घटाटोप में भी साधक विचलित नहीं होता तथा मन वचन काय की इस अविचलित परिस्थिति में अर्थात् वर्तमान ज्ञान की एकाग्र दशा में कर्म क्षीण होने लगते हैं ।
तत्त्वचिन्तन ही वह प्रकाश-स्तम्भ है जिसके आलोक में हम आज के भौतिकता-बहुल सुविधाभोगी जीवन में अपने सात्विक, तात्त्विक और आध्यात्मिक जीवन मूल्यों को खोज सकते हैं । यह विश्वास कर सकते हैं कि जब तक हम अविवेकी रहकर शरीरादि पुद्गल को सहेजेंगे, उसका अभिनंदन करेंगे तब तक वह हमें चतुर्गति में भटकाता रहेगा ।8
इस खोज और विश्वास का फल यह होगा कि हम ममत्व भाव या अज्ञानवश शरीरादि में दी गई मात्मत्व बुद्धि छोड़कर अपने आपको शुद्ध-बुद्ध निर्मम योगीन्द्रगोचर अर्थात् स्वसंवेदन से साध्य-तत्व मानते हुए सभी संयोगज भावों को भी पर-पौद्गलिक मान लेंगे । तथा यह अनुभव करेंगे कि जो भी आत्मा से भिन्न है वह पर है और उससे दुःख ही होता है अपना प्रात्मा ही मेरा है और उससे सुख होता है ।10
महर्षि देवनन्दि लिखते हैं कि ममतासहित अर्थात् रागी द्वेषी जीव बंधता है, दुःखी होता है और ममतारहित अर्थात् रागादिशून्य ज्ञानी ध्यानी जीव मुक्त होता है, सुखी होता है अतः हमें निर्मम बन ज्ञानी ध्यानी होने का प्रयत्न करना चाहिए ।11
___ एतदर्थ जीव को यह सोचना चाहिए कि अब तक मैंने देहादिक के सम्बन्ध में ममत्व बुद्धि करके अनंत क्लेश भोगे हैं अतः अब मन-वचन-कर्म से इस अनिष्टकारी ममत्व भाव को छोड़ता हूँ ।12 अब न मुझे मृत्यु का भय है और न ही व्याधि की व्यथा । न मैं बालक हूँ, न युवा, और न ही वृद्ध । ये तीनों अवस्थायें तो शरीर की हैं शरीर पौद्गलिक है,13 जिसमें मृत्यु और व्याधि संभव है। मैं तो निर्भय निरामय चेतन तत्त्व हूँ जिसमें न मृत्यु का प्रवेश है और न ही व्यथा का।
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मोह में भ्रमित होकर मैने विश्व के सारे पौद्गलिक भोगोपभोग पदार्थ भोग लिये हैं पर तृप्ति नहीं हुई अतः अब उन उच्छिष्ट पदार्थों को पाने की मेरी कोई चाह नहीं है ।14
कर्म और जीव के सम्बन्ध में सुस्पष्ट है कि कर्म-कर्म का हित चाहते हैं और जीवजीव का, इसलिए मुझे अपनी शक्ति पहिचान कर अपना हित सोचना चाहिए15 दूसरों के उपकार के पहिले अपने उपकार के बारे में विचारना चाहिए अतः शरीरादि परपदार्थों को उपकृत करना भूलकर अपने आत्महित का साधन करना चाहिए। यह स्वोपकार ही साध्य है । अध्यात्म में स्वार्थी होना बड़ा गुणकारी है, इससे ही साधक सफल होता है। जो जितना स्वार्थी होगा वह उतना ही आत्मानुभूति में दृढ़ होगा। स्वार्थी का अर्थ यहां प्रात्मानुभूति के पुरुषार्थ में दत्तचित्त होना है। प्रात्मानुभूति को सफलता का द्योतक चिह्न बताते हुए इष्टोपदेश में लिखा है
यथा यथा समायाति संवितौ तत्त्वमुत्तमम् । तथा तथा न रोचन्ते विषया: सुलमा अपि । यथा यथा न रोचन्ते विषयाः सुलमा अपि । तथा तथा समायाति संवितौ ' तत्त्वमुक्तमम् ॥ 37, 38 ॥
अर्थात् जैसे-जैसे अनुभूति में उत्तमतत्त्व अर्थात् अपना सहज परमात्वस्वरूप प्रात्मा आता है वैसे-वैसे सुलभ विषय भी रुचिकर नहीं लगते तथा जैसे-जैसे सुलभ विषयों की रुचि नहीं रहती वैसे-वैसे उत्तम तत्त्व अनुभूति में आने लगता है । अतः चित्त के क्षोभ को मिटाकर तत्त्वनिष्ठ योगी बन अर्थात् भोगरहित मन बनाकर अपने प्रात्मतत्त्व को जानने का (संवेदन करने का) ही अभ्यास हमें करना चाहिए । 0
णमोकारनिलय 5/47-मालवीय नगर जयपुर-302 017
1. जीवोऽन्यः पुद्गलश्चान्य इत्यसौ तत्त्वसंग्रहः ।
यदन्यदुच्यते किञ्चित्सोऽस्तुतस्यैव विस्तरः ।। - इष्टो. श्लोक 50 2. यस्य स्वयं स्वभावाप्तिरमावे कृत्स्नकर्मणः ।
तस्मै संज्ञानरूपाय नमोऽस्तु परमात्मने ।। - इष्टो. श्लोक 1 3. हृषीकजमनातकं दीर्घकालोपलालितम् । ____ नाके नाकौकसां सौख्यं नाके नाकौकसामिव ।। - इष्टो श्लोक 5 4. वासनामात्रामेवंतत् सुखं दुःखं च देहिनां ।
तथा ह्य द्ध जयंत्येते भोगा रोगा इवाऽऽपदि ।। - इष्टो. श्लोक 6 5. प्रारंभे तापकान्प्राप्तावतृप्तिप्रतिपादकान् । - इष्टो. श्लोक 17
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6. त्यागाय श्रेयसे वित्तमवित्तःसंचिनोति यः ।
स्वशरीरं स पङ्कन स्नास्यामीति विलिम्पति ।। - इष्टो. श्लोक 16 7. विपद्भवपदाऽऽवर्ते पदिकेवातिवाह्यते । ___यावत्तावद्भवंत्यन्याः प्रचुरा विपदः पुरः ।। - इष्टो. श्लोक 12 8. अविद्वान्पुद्गलद्रन्यं योऽभिनन्दति तस्य तत् ।
न जातु जन्तोः सामीप्यं चतुर्गतिषु मुञ्चति ।। - इष्टो. श्लोक 46 9. एकोऽहं निर्मम: शुद्धो ज्ञानी योगीन्द्रगोचरः ।
बाह्याः संयोगजा भावा मत्तः सर्वेऽपि सर्वथा ।। – इष्टो. श्लोक 27 10. परः परस्ततो दुःखमात्मवात्मा तत: सुखम् ।। - इष्टो. श्लोक 45 11. बध्यते मच्यते जीवः समसो निर्ममः क्रमात् ।।
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन निर्ममत्वं विचिंतयेत् ।। - इष्टो. श्लोक 26 12. दुःखसंदोहभागित्वं संयोगादिह देहिनाम् ।
त्यजाम्येनं ततः सर्व मनोवाक्कायकर्मभिः ।। - इष्टो. श्लोक 28 13. न मे मृत्युः कुतो भीतिर्न मे व्याधिः कुतो व्यथा ।
नाहं बालो न वृद्धोऽहं न युवैतानि पुद्गले ॥ - इष्टो. श्लोक 29 14. भुक्तोज्झिता मुहुर्मोहान्मया सर्वेऽपि पुद्गलाः ।
उच्छिष्टेष्विव तेष्वद्य मम विज्ञस्य का स्पृहा ? ॥ - इष्टो. श्लोक 30 15. कर्म कर्महिताऽऽबन्धि जीवो जीवहितस्पृहः ।
स्व-स्व-प्रभाव-भूयस्त्वे स्वार्थं को वा न वांछति ।। - इष्टो. श्लोक 31 16. परोपकारमुत्सृज्य स्वोपकारपरो भव । ___ . उपकुर्वन्परस्याज्ञो दृश्यमानस्य लोकवत् ।। - इष्टो. श्लोक 32 17. अभवच्चित्तविक्षेप एकांते तत्त्वसंस्थितिः ।
अभ्यस्येदभियोगेन योगी तत्वं निजात्मनः ।। - इष्टो. श्लोक 36
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अकाल मृत्यु किन जीवों की नहीं होती है ?
औपपादिकचरमोत्तमदेहासंख्येयवर्षायुषोऽनपवायुषः ॥ 53 ॥
-मो. शा.अ.2
औपपादिका देवनारका इति । चरमशब्दोऽन्त्यवाची। उत्तम उत्कृष्टः । चरम उत्तमो देहो येषां ते चरमोत्तमदेहाः । परीतसंसारास्तज्जन्मनिर्वाणाऱ्या इत्यर्थः । असंख्येयमतीतसंख्यानमुपमाप्रमाणेन पल्यादिना गम्यमायुर्येषां त इमे असंख्येयवर्षायुषस्तिर्यङ मनुष्या उत्तरकुर्वादिषु प्रसूताः । औपपादिकाश्च चरमोत्तमदेहाश्च असंख्येयवर्षायुषश्च औपपादिकचरमोत्तमदेहासंख्येयवर्षायुषः । बाह्यस्योपधातनिमित्तस्य विषशस्त्रादेः सति संनिधाने हस्वं भवतीत्यपवर्त्यम् । अपवर्त्यमायुर्वेषां त इमे अपवायुषः । न अपवायुषः अनपवायुषः । न ह्यषामौपपादकादीनां बाह्यनिमित्तवशादायुरपवय॑ते, इत्ययं नियमः । इतरेषामनियमः । चरमस्य । देहस्योत्कृष्टत्वप्रदर्शनार्थमुत्तमग्रहणं नार्थान्तरविशेषोऽस्ति । 'चरमदेहा' इति वा पाठः । ।
-प्रा. पूज्यपादकृत सर्वार्थसिद्धि
उपपादजन्मवाले, चरमोत्तमदेहवाले और असंख्यात वर्ष की आयुवाले जीव अनपवर्त्य आयुवाले होते हैं । (इनमे अतिरिक्त शेष अन्य जीवों का ऐसा कोई नियम नहीं है ।)
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इष्टोपदेश में सालंकारता
-कु० पाराधना जैन
अलंकृतता भाषा का एक महत्त्वपूर्ण गुण है। उन उक्तिवैचित्र्यों या विचित्र कथन प्रकारों को अलंकार कहते हैं जो उपमात्मक, रूपकात्मक, अपह्न त्यात्मक, संदेहात्मक आदि होते हैं, साथ ही ये भावविशेष की अभिव्यक्ति के अद्वितीय माध्यम होते हैं, तथा इनमें वक्रोक्तिजन्य रोचकता एवं व्यंजकताजन्य चारुत्व भी रहता है । विशिष्ट अलंकार विशिष्ट सन्दर्भ में ही भावाभिव्यक्ति के उपयुक्त होता है। कहीं उपमा ही सन्दर्भ के अत्यन्त उपयुक्त होती है, कहीं रूपक ही, कहीं केवल रूपकातिशयोक्ति । जिस सन्दर्भ में उपमा उपयुक्त है उसमें रूपकादि अन्य अभिधान प्रकार उपयुक्त नहीं होते।
उदाहरणार्थ महात्मा गाँधी की मृत्यु पर इस रूप में उक्ति की प्रक्रिया अधिक सार्थक है-'सूर्य अस्त हो गया' बनिस्बत यह कहने के कि 'महात्मा गाँधी रूपी सूर्य दिवंगत हो गये' या 'महात्मा गांधी की मृत्यु से ऐसा लगता है जैसे सारे देश में अन्धकार छा गया हो।' क्योंकि शोक की आकस्मिकता की अभिव्यक्ति के लिए जिस संक्षिप्त और तत्काल प्रभावित करनेवाले उक्ति प्रकार की आवश्यकता है, वह केवल 'सूर्य अस्त हो गया' इस रूपकातिशयोक्ति से ही संभव है ।
अलंकार व्यंजक होते हैं और उचित संदर्भ में प्रयुक्त होने पर उनकी व्यंजकता पैनी (हृदयस्पर्शी) हो जाती है। इसलिए आनन्दवर्धन ने कहा है कि व्यंजकता के संस्पर्श से अलंकारों में चारुत्व आ जाता है ।
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आचार्य पूज्यपाद द्वारा विरचित इष्टोपदेश लघुकाय जैनोपनिषद् है । इसमें प्रात्मा से परमात्मा बनने का उपाय सहज एवं सरल भाषा में प्रतिपादित किया गया है । इस प्रतिपादन में प्राचार्यश्री की दृष्टि यह रही है कि ससारी प्रात्मा अपने स्वरूप को भली-भांति पहचाने, उसकी बहिर्मुखी दृष्टि अन्तर्मुखी हो, वह स्वपद में स्थित हो और सुपथ का पथिक बन कर अनन्त सुख को प्राप्त करे । अपने विषय को हृदयंगम कराने के लिए कवि ने जनजीवन से सम्बन्धित उदाहरणों का प्रयोग किया है। अतएव इष्टोपदेश में अलंकारों का समावेश स्वयमेव हो गया है । इस ग्रन्थ में शब्दालंकार और अर्थालंकार दोनों का ही प्रयोग है । ये अलंकार भाषा को सुशोभित करते हैं पर शब्दालंकार में शाब्दिक चमत्कार होने से इनसे विशिष्ट भाव अभिव्यक्त नहीं होता। अर्थालंकार भावसौन्दर्य को वृद्धिंगत करते हुए वस्तुस्वरूप, सौन्दर्यातिशय, भावाभिराम, भावातिरेक को सफलतापूर्वक अभिव्यंजित करते हैं। अतः यहाँ केवल अर्थालंकार का ही निदर्शन किया जा रहा है ।
इष्टोपदेश में प्रयुक्त अलंकार और उनसे व्यंजित भाव इस प्रकार हैं :उपमा :
कवि ने पदार्थ के स्वरूप, अमूर्तभाव को मूर्तरूप प्रदान कर भावाभिव्यंजना, भावातिशय की सुन्दर व्यंजना हेतु उपमा का प्रयोग किया है। यथा--
मोहेन संवृतं ज्ञानं स्वभावं लभते न हि । मत्तः पुमान् पदार्थानां यथा मदनकोद्रवः ॥ 7 ॥
-संसारी प्राणी का ज्ञान मोह से आच्छादित है। अतएव वह अपने वास्तविक. स्वरूप को उसी प्रकार नहीं समझ पाता जैसे मदमत्त करनेवाले कोद्रव (नशीला पदार्थ) का भक्षण करनेवाला स्वयं को भूल जाता है ।
__ यहाँ प्रमूर्त मोह के लिए मूर्त कोद्रव की उपमा दी गई है। यह उपमा मोह के स्वरूप (आत्मस्वरूप की पहचान न होने देना) को अत्यन्त प्रभावशाली रूप से अभिव्यक्त करती है। इसी प्रकार
वासनामात्रमेवैतत् सुखं दुःखं च देहिनाम् ।
तथा ह्य द्वजयन्त्येते मोगा रोगा इवापदि ॥ 6 ॥ -संसारी प्राणियों को प्राप्त सुख-दुःख इन्द्रिय जन्य ही हैं। उसे भोग, आपत्ति में रोग के समान आकुलता पैदा करते हैं ।
प्रस्तुत श्लोक में 'भोगा आपदि रोगा इव' (भोग आपत्ति के समय रोग के समान आकुलता पैदा करते हैं) उपमा का प्रयोग है । यह उपमा विषयभोगों की कष्टदायकता
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प्रातरौद्र ध्यान का कारण होने से भोगों में सुख के पूर्णतया प्रभाव को अत्यन्त सरलतया हृदयंगम करा देती है।
दुरज्येनासुरक्षेण नश्वरेण धनादिना ।
स्वस्थमन्यो जनः कोऽपि ज्वरवानिव सर्पिषा ॥ 13 ॥ -ज्वरपीड़ित (अस्वस्थ) प्राणी के घी सेवन करने के समान यह मनुष्य अति कष्ट से अजित एवं असुरक्षित धनादि से स्वयं को सुखी मानता है ।
यहाँ श्लोक के उत्तरार्ध में धनादि से स्वयं को सुखी माननेवाले मनुष्य का ज्वरपीड़ित व्यक्ति के घी भक्षण से सादृश्य बतलाया गया है । यह सादृश्य धनादि के अर्जन, रक्षण में आनेवाली कठिनाई और दुःखदायकता का प्रभावशाली व्यंजक है ।
विपत्तिमात्मनो मूढः परेषामिव नेक्षते ।
दह्यमानमृगाकीर्णवनान्तरतरुस्थवत् ॥14॥ - वन में लगी दावानल की ज्वाला से हिरण जल रहे हैं, उसी वन में एक वृक्ष पर स्थित मनुष्य दूसरों के समान अपने ऊपर आनेवाली आपत्ति को नहीं देखता है ।
प्रस्तुत श्लोक की उपमा मनुष्य की मूर्खता की चरमसीमा को अत्यन्त सफलतापूर्वक व्यंजित करती है।
मुक्तोज्झिता मुहुर्मोहान्मया सर्वेऽपि पुद्गलाः ।
उच्छिष्टेष्विव तेष्वद्य मम विज्ञस्य का स्पृहा ।। 30 ॥ - संसारी प्राणी ने मोह से बार-बार कर्मादि पुद्गलों को भोगा और त्यागा । अब जूठन के समान इन विषय भोगों के प्रति ज्ञानी की क्या स्पृहा हो सकती है ?
उपर्युक्त श्लोक में कवि ने "मुहुर्मुक्तोज्झिता उच्छिष्टेष्विव" (बार-बार भोग कर त्यागे गए विषयभोग जूठन के समान है) विषयभोगों के लिए जूठन का उपमान दिया है । यह उपमान भोगों की निस्सारता को सहजतया हृदयंगम कराने में समर्थ है ।
विपद्भवपदावर्ते पदिकवातिबाह्यते ।
यावत्तावद्भवन्त्यन्याः, प्रचुरा विपदः पुरः ॥ 12 ॥ - यह संसार घटीयन्त्र की पटली के समान है। जैसे घटीयन्त्र में एक के बाद एक पटली क्रमशः आती रहती है उसी प्रकार इस संसार में विपत्तियां आती रहती है ।
- यहाँ पर "भवपदावर्ते पदिकेव" (संसार घटीयन्त्र की पटली के समान है) संसार को घटीयन्त्र की पटली की उपमा है । यह उपमा संसार में सुखाभाव तथा परिवर्तनशीलता को अत्यन्त सफलतापूर्वक अभिव्यक्त करती है ।
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रूपक:
___ कवि ने वस्तु के सूक्ष्म स्वरूप का बोध कराने हेतु रूपक का प्रयोग किया है ।
यथा
रागद्वेषद्वयीदीर्घनेत्राऽऽकर्षणकर्मणा ।
अज्ञानात्सुचिरं जीवः संसाराब्धौ भ्रमत्यसौ ॥11॥ - यह प्राणी राग-द्वेषरूपी लम्बी डोरियों से आकर्षित होकर (खींचा जाने से) कर्मबन्ध करता है । फलस्वरूप संसाररूपी समुद्र में दीर्घकाल तक भ्रमण करता है ।
प्रस्तुत श्लोक में "रागद्वेषद्वयीदीर्धनेत्र" (राग-द्वेषरूपी दो लम्बी डोरी) तथा "संसाराब्धौ" (संसाररूपी समुद्र) दो रूपक आये हैं। ये रूपक क्रमशः रागद्वेष के कारण होने वाले जटिल बन्धन एवं संसार की विशालता की अनुभूति कराने में समर्थ हैं । अर्थान्तरन्यास :
कथन का औचित्य सिद्ध करने के लिए कवि ने अर्थान्तरन्यास का प्रयोग किया है । उदाहरणार्थ
अज्ञानोपास्तिरज्ञानं ज्ञानं ज्ञानिसमाश्रयः ।
"ददाति यत्तु यस्यास्ति'-सुप्रसिद्धमिदं वचः ॥ 23 ॥ - अज्ञानी (मिथ्याज्ञानी कुगुरु आदि) की सेवा अज्ञान तथा ज्ञानी की उपासना से ज्ञान प्राप्त होता है । ठीक है, जिसके पास जो होता है वह ही उसे देता है।
यहां 'यत्त यस्य अस्ति ददाति' (जिसके पास जो होता है वह उसी को देता है। अर्थान्तरन्यास का प्रयोग है । 'अज्ञानी से अज्ञान तथा ज्ञानी से ज्ञान प्राप्त होता है' इस कथन के औचित्य को अत्यन्त सशक्त रूप से अभिव्यक्त करता है । दृष्टान्त : कवि ने ष्टान्त के द्वारा कथन के औचित्य का प्रतिपादन किया है । यथा
विराधकः कथं हो जनाय परिकुप्यति ।
व्यङ गुलं पातयन्पद्भ्यां स्वयं दंडेन पात्यते ॥ 10 ॥ - अन्य पर उपकार करनेवाला मनुष्य, स्वयं पर अपकार करनेवाले के प्रति क्रोध क्यों करता है ? व्यंगुल को जो व्यक्ति पैरों से पृथ्वी पर गिराता है तो वह स्वयं हाथ में पकड़े डंडे के द्वारा नीचे गिरा दिया जाता है।
प्रस्तुत श्लोक का उत्तरार्ध एक दृष्टान्तात्मक वाक्य है। यह दृष्टान्त 'प्राणी को किये गये कार्य के अनुसार ही फल प्राप्त होता है' भाव को अत्यन्त सफलतापूर्वक अभिव्यंजित करता है। साथ ही अपने कल्याण के इच्छुक व्यक्ति को द्वष भाव न करने हेतु प्रेरित करता है।
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संक्षेप में कहा जा सकता है कि इष्टोपदेश अर्थालंकार के सौन्दर्य से मण्डित है। ये अलंकार कहीं भी रसरंग के कारण नहीं हैं अपितु वर्ण्यविषय के अनुरूप हैं। वस्तु स्वरूप के निदर्शन एवं भावों की सशक्त तथा हृदयस्पर्शी अभिव्यंजना में अलंकारों का समीचीन प्रयोग हुआ है।
श्री जी. सी. जैन स्वतंत्र,
मीलरोड़, गंजबासौदा (विदिशा) म. प्र. 464221
1. रीति विज्ञान : डॉ. विद्यानिवास मिश्र 2. रीति विज्ञान : डॉ विद्यानिवास मिश्र 3. वाच्यालङ कारवर्गोऽयं व्यङ ग्याज्ञानुगमे सति । . प्रायेणव परां छायां विभ्रल्लक्ष्ये निरीक्ष्यते ।। ध्वन्यालोक, 3/36
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पूज्यपाद - स्मरण
नमः श्रीपूज्यपादाय लक्षणं यदुपक्रमम् । यदेवात्र तदन्यत्र यन्नात्रास्ति न तत्क्वचित् ॥
कवीनां तीर्थकृद्देवः किंतरां तत्र वर्ण्यते । विदुषां वाङ मलध्वंसि तीर्थं यस्य वचोपमम् ॥ श्रचत्य - महिमा देवः सोऽभिवन्द्यो हितैषिणः । शब्दाश्च येन सिद्धयन्ति साधुत्वं प्रतिलम्भितः ॥
पूज्यपादः सदा पूज्यपादः पूज्यैः पुनातु माम् । व्याकररणार्णवो येन तीरण विस्तीर्ण सद्गुणः ॥
पाकुर्वन्ति यद्वाचः काव्य-वाक् चित्संभवम् । कलङ्कमङ्गिनां सोऽयं देवनन्दी नमस्यते ॥
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देवनन्दि पूज्यपाद का सर्जना- संसार
-डा. प्रादित्य प्रचण्डिया
साहित्य की प्राणदायिनी शक्ति का स्रोत साहित्यकार के व्यक्तित्व में निहित है । साहित्य का मूल्य साहित्यकार के आत्म की महत्ता और अभिव्यक्ति की सम्पूर्णता एवं सच्चाई के अनुपात से ही प्रांकना आवश्यक है । कवि, वैयाकरण और दार्शनिक इन त्रय व्यक्तित्वों के समवाय का नाम है ।
आचार्य गुणनंदि विद्वन्मान्य पूज्यपाद के व्याकरण सूत्रों का प्राधेय लेकर 'जनेन्द्र प्रक्रिया' के 'मंगलाचरण' में गुणानुवाद करते हुए कहते हैं
नमः श्री पूज्यपादाय लक्षणं यदुपक्रमम् ।
यदेवात्र तदन्यत्र यन्नात्रास्ति न तत्क्वचित् ॥ अर्थात् जिन्होंने लक्षण-शास्त्र की रचना की है, मैं उन आचार्य पूज्यपाद को प्रणाम करता हूँ। उनके इस लक्षण-शास्त्र की महत्ता इसी से स्पष्ट है कि जो इसमें है वह अन्यत्र भी है
और जो इसमें नहीं है वह अन्यत्र भी नहीं है । देवताओं के द्वारा पूजित होने से पूज्यपाद कहलानेवाले जिनेन्द्रबुद्धि देवनंदि की ज्ञानगरिमा और उनके साहित्य की महत्ता धनंजय, वादिराज आदि प्राचार्यों द्वारा मुखरित हुई है। ईसा सन् की षष्ठ शती के ब्राह्मण कुल में जन्मे और बाद में नाग द्वारा मेंढ़क निगलने और मेंढ़क के तड़पने को देखकर विरक्त हो दिगम्बर दीक्षाधारी आचार्य देवनंदि पूज्यपाद का साहित्य-सर्जना-संसार आध्यात्मिक-दार्शनिक महत्ता का प्रागार है । पूज्यपाद-प्रणीत रचनाओं का विवरण-विवेचन प्रस्तुत करना हमें यहाँ अभीप्सित है
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जनविद्या-12
___ दशभक्ति-जैनागम में सिद्ध, श्रुत, चारित्र, योगि, प्राचार्य, पंचगुरु, तीर्थ कर, शांति, समाधि, निर्वाण, नंदीश्वर, चैत्य नामक भक्ति के द्वादश भेद हैं । पूज्यपाद की 'दशभक्ति में सिद्ध, श्रुत, चारित्र, योगि, निर्वाण और नंदीश्वर भक्तियों का उल्लेख है। काव्य-दृष्टि से यह रचना सरसता और गम्भीरता से अभिमंडित है । रचनारम्भ में नवपद्यों में सिद्ध-भक्ति का विवेचन है । पूज्यपाद का कहना है कि अष्ट कर्मों की विनष्टि से शुद्ध प्रात्मा की प्राप्ति होना सिद्धि है। सिद्ध भक्ति के प्रभाव से साधक को सिद्ध-पद की प्राप्ति सम्भव है । अन्य भक्तियों में नामानुसार विषय का प्रवर्तन हुआ है ।
जन्माभिषेक-श्रवणबेलगोला के अभिलेखों में पूज्यपाद की रचनाओं में जन्माभिषेक का भी उल्लेख मिलता है (जैन शिलालेख संग्रह, प्रथम भाग, अभिलेख संख्या 40, पृष्ठ 55, पद्य 11)। डॉ. नेमीचन्द्र ज्योतिषाचार्य “तीर्थकर महावीर और उनकी प्राचार्य परम्परा" खण्ड-2, पृष्ठ 225 पर कहते हैं-वर्तमान में एक 'जन्माभिषेक' मुद्रित उपलब्ध है। इसे पूज्यपाद द्वारा रचित होना चाहिए । 'जन्माभिषेक' इस रचना में प्रवाह और अभिव्यक्ति में प्रौढ़ता का समावेश है।
तत्वार्थवृत्ति-'तत्वार्थसूत्र' पर गद्य में लिखित 'तत्वार्थवत्ति' महनीय कृति है । इसमें सूत्रानुसारी सिद्धान्त के प्रतिपादन के साथ-साथ दार्शनिक विवेचन भी बखूबी हुआ है। यह कृति 'सर्वार्थसिद्धि' संज्ञा से भी अभिहित है । कृति के अन्त में उल्लिखित है
स्वर्गापवर्गसुखमाप्तुमनोभिरायः
जैनेन्द्र-शासन-वरामृत-सारभूता । सर्वार्थसिद्धिरिति सद्भिरुपात्तनामा
तत्वार्थवृत्तिरनिशं मनसा प्रधा॥ अर्थात् जो आर्य स्वर्ग और मोक्ष सुख के इच्छुक हैं, वे जिनेन्द्र शासनरूपी श्रेष्ठ अमृत से भरी सारभूत और सत्पुरुषों द्वारा प्रदत्त 'सवार्थसिद्धि' इस नाम से प्रख्यात इस तत्वार्थवृत्ति को सतत मनोयोगपूर्वक अवधारण करें । इस वृत्ति में 'तत्वार्थसूत्र' के प्रत्येक सूत्र और उसके प्रत्येक पद का निर्वचन, विवेचन एवं शंका-समाधानपूर्वक व्याख्यान किया गया है । टीका ग्रंथ होते हुए भी कृति में मौलिकता के अभिदर्शन होते हैं । 'मंगलाचरण' के पश्चात् प्रथम सूत्र की व्याख्या प्रारम्भ करते हुए उत्थानिका में उल्लिखित है-किसी निकट भव्य ने एक आश्रम में मुनि-परिषद् के मध्य में स्थित निर्ग्रन्थाचार्य से विनयसहित पूछा-भगवन् ! आत्मा का हित क्या है ? आचार्य ने उत्तर दिया-मोक्ष । भव्य ने पुनः प्रश्न किया-मोक्ष का स्वरूप क्या है और उसकी प्राप्ति का उपाय क्या है ? इसी प्रश्न के उत्तर स्वरूप 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग' सूत्र रचा गया है । द्वितीय अध्याय के तृतीय सूत्र की व्याख्या में चारित्रमोहनीय के 'कषायवेदनीय' और 'नोकषायवेदनीय' ये दो भेद बतलाए हैं तथा दर्शनमोहनीय के सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये तीन भेद बतलाए हैं। इन सात प्रकृतियों के उपशम से औपशमिक सम्यक्त्व होता है । यह सम्यक्त्व अनादि मिथ्यादृष्टि भव्य के कर्मोदय से
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प्राप्त कलुषता के रहते हुए किस प्रकार सम्भव है ? इस प्रश्न के उत्तर में आचार्य कहते हैं- 'काललब्ध्यादिनिमित्तत्वात् ' - काललब्धि आदि के निमित्त से इनका उपशम होता है । अन्य आगम ग्रन्थों में क्षयोपशम लब्धि, विशुद्धि लब्धि, देशनालब्धि, काललब्धि और प्रायोग्यलब्धि ये पाँच लब्धियाँ बतलाई हैं । प्राचार्य पूज्यपाद ने काललब्धि के साथ लगे प्रादि शब्द से जातिस्मरण आदि का निर्देश किया है और काललब्धि के कर्म स्थिति का काललब्धि मौर भवापेक्षया काललब्धियों का निर्देश किया है । यह विषय सर्वथा सैद्धान्तिक और मौलिक है । तृतीय- चतुर्थ अध्याय में लोक का वर्णन किया गया है । ग्रह केन्द्र वृत, ग्रहकक्षाएँ, ग्रहों की गति, चार क्षेत्र आदि चर्चाएँ तिलोयपण्णति के तुल्य हैं । लोकाकार का वर्णन श्राचार्य ने मौलिक रूप में किया है । मौलिक तथ्यों के समावेश की दृष्टि से पंचम अध्याय विशेष महत्त्वपूर्ण है । द्रव्य, गुण और पर्यायों का स्पष्ट और सम्यक् विवेचन इसमें हुआ है । षष्ठ और सप्तम अध्याय में दर्शनमोहनीय कर्म के आस्रव के कारण केवली, श्रुत, संघ, धर्म और देवों के प्रवर्णवाद का विस्तृत विवेचन है । सप्तम अध्याय के प्रथम सूत्र में रात्रिभोजनत्याग नामक षष्ठ अणुव्रत की समीक्षा की गई है । इसी अध्याय के त्रयोदश सूत्र के व्याख्यान में प्राचार्य ने हिंसा और अहिंसा के स्वरूप का विवेचन करते हुए उनके समर्थन में अनेक गाथाएँ उद्धृत की हैं । अष्टम अध्याय में कर्मबंध का और कर्मों के भेद-प्रभेदों का वर्णन द्रष्टव्य हैं । प्रथम सूत्र में बंध के पाँच कारण बतलाए हैं । उनकी व्याख्या में पूज्यपाद ने मिथ्यात्व के पाँच भेदों का कथन करते हुए पौरुषाद्वैत एवं श्वेताम्बरीय निर्ग्रथ - सग्रंथ, केवली - केवलाहार तथा स्त्री - मोक्ष सम्बन्धी मान्यताओं को भी विपरीत मिथ्यात्व कहा है । इस अध्याय के अन्य सूत्रों का व्याख्यान भी महत्त्वपूर्ण है । पदों की सार्थकताओं के विवेचन के साथ पारिभाषिक शब्दों के निर्वचन विशेष उल्लेखनीय हैं। नवम अध्याय में संवर, निर्जरा और उनके साधन गुप्ति ग्रादि का विशद विवेचन है। दशम अध्याय में मोक्ष और मुक्त जीवों के ऊर्ध्वगमन का प्रतिपादन है ।
इस समग्र रचना की शैली वर्णनात्मक है। सूत्रों की सार्थक व्याख्या मौलिक और महनीय है । इस कृति में पूज्यपाद देवनन्दि भाष्यकार के समान परिलक्षित हैं । पूज्यपाद के गूढ़, गहन और तलस्पर्शी अध्ययन-अनुभव के अभिदर्शन इस कृति के माध्यम से होते हैं ।
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समाधितंत्र - इस रचना को 'समाधिशतक' भी कहा जाता है। इसमें 105 पद्य हैं । प्रध्यात्म का सुन्दर दिग्दर्शन इसमें हुआ है । इस कृति की विषय-वस्तु का आधेय कुन्दकुन्दाचार्य प्रणीत ग्रंथ है । अनेक पद्य तो रूपान्तर से प्रतीत होते हैं । एक निदर्शन द्रष्टव्य है
यग्राह्म न गृह्णाति गृहीतं नापि मुञ्चति । जानाति सर्वथा सर्वं तत्स्वसंवेद्यमस्म्यहम् ।।
( समाधितंत्र, पद्य 30 )
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साम्य देखिए
णियमावं ण वि मुंचई परभावं व गिण्हत कई । जाणदि पस्सदि सव्वं सोहं इदि चितए णाणी ॥
(नियमसार, गाया 97)
रचना में बाह्य उदाहरणों द्वारा अंतरंग की अनुभूति कराने के लिए पूज्यपाद ने गाढ़ वस्त्र, जीर्णवस्त्र, रक्तवस्त्र के दृष्टान्त प्रस्तुत कर आत्मा के स्वरूप को स्पष्ट करने का प्रयास किया है। जिस प्रकार गाढ़ा-मोटा वस्त्र पहन लेने पर कोई अपने को मोटा नहीं मानता, जीर्णवस्त्र पहनने पर कोई अपने को जीर्ण नहीं मानता, रक्त वस्त्र पहनने पर लाल, नीला, पीला नहीं समझता, उसी प्रकार शरीर के स्थूल, जीर्ण, गौर एवं कृष्ण होने से आत्मा को भी स्थल, जीर्ण, काला और गोरा नहीं माना जा सकता है
घने वस्त्रे यथाऽऽत्मानं न घनं मन्यते तथा। घने स्वदेहेऽप्यात्मानं न घनं मन्यते बुधः। 63 ॥ जीणे वस्त्रे यथाऽत्मानं न जीर्ण मन्यते तथा। जोणे स्वदेहेऽप्यात्मानं न जीर्ण मन्यते बुध : ॥ 64॥ रक्ते वस्त्रे यथाऽऽत्मानं न रक्तं मन्यते तथा । रक्ते स्वदेहेऽप्यात्मानं न रक्तं मन्यते बुध :॥ 65॥
इस प्रकार 'समाधितंत्र' में बहिरात्मा अन्तरात्मा और परमात्मा के स्वरूप का विस्तारपूर्वक विवेचन किया गया है । बहिरात्मा भाव-मिथ्यात्व का त्याग कर अन्तरात्मा बनकर परमात्म पद की प्राप्ति के लिए प्रयास करना साधक का परम कर्तव्य है। आत्मा, शरीर, इन्द्रिय और कर्मसंयोग का इस ग्रंथ में संक्षेप में हृदयग्राही विवेचन किया गया है ।
इष्टोपदेश-इस अध्यात्म काव्य में इष्ट-प्रात्मा के स्वरूप का परिचय प्रस्तुत किया गया है। 51 पद्यों में पूज्यपाद ने अध्यात्म-सिन्धु को बिन्दु में भर देने की उक्ति को चरितार्थ किया है। अनुष्टुम् जैसे छोटे छन्द में गम्भीर भावों को समाहित करने का प्रयत्न प्रशंस्य है । पूज्यपाद ने सुख-दुःख का आधार वासना को ही कहा है, जिसने आत्मतत्त्व का अनुभव कर लिया है उसे सुख-दुःख का संस्पर्श नहीं होता
वासनामयमेवैतत् सुखं दुःखं च देहिनाम् ।
तथा ह्यद्ध जयन्त्येते, भोगा रोगा इवापदि ॥6॥ अर्थात् देहधारियों को जो सुख और दुःख होता है, वह केवल कल्पनाजन्य ही है। जिन्हें लोक सुख का साधन समझा जाता है , ऐसे कमनीय कामिनी आदि भोग भी आपत्ति के समय में रोगों की तरह प्राणियों को प्राकुलता पैदा करनेवाले होते हैं ।
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इस रचना का एकमात्र उद्देश्य यह है कि संसारी आत्मा अपने स्वरूप को पहचान कर शरीर, इन्द्रिय एवं सांसारिक अन्य पदार्थों से अपने को भिन्न अनुभव करने लगे। असावधान बना नादान प्राणी विषयभोगों में ही अपने समस्त जीवन को व्यतीत न कर दे, इस दृष्टि से प्राचार्य पूज्यपाद स्वयं ग्रंथान्त में कहते हैं
इष्टोपदेशमिति सम्यगधीत्य धीमान् । मानापमान समतां स्वमताद्वितन्य ॥ मुक्ताग्रहो विनिवसन्सजने वने वा।
मुक्तिश्रियं निरूपमामुपयाति भव्यः ।। 51 ॥ "इष्टोपदेश" के सम्यक् प्रवाचन से आत्मा की शक्ति का श्रीवर्धन होता है । स्वात्मानुभूति के आधिक्य के कारण मान-अपमान, लाभ-अलाम, हर्ष-विषाद आदि में समताभाव प्राप्त होता है । संसार की यथार्थ स्थिति का परिज्ञान प्राप्त होने से राग, द्वेष, मोह की परिणति का समापन होता है। इस लघुकायिक रचना में 'समयसार' की गाथाओं का सार गुम्फित है । रचना की शैली सरल, सुबोध और प्रवाहमय है।
जैनेन्द्र व्याकरण-श्रवणबेलगोला के अभिलेखों एवं महाकवि धनंजय की नाममाला के निर्देश से जैनेन्द्र व्याकरण के रचयिता पूज्यपाद सिद्ध होते हैं । गुणरत्न महोदधि के कर्ता वर्धमान और हैम शब्दानुशासन के लघुन्यास रचयिता कनकप्रभ 'जनेन्द्र व्याकरण' के प्रणेता का नाम देवनन्दि बताते हैं। अभिलेखों से जैनेन्द्रन्यास के रचनाकार भी पूज्यपाद अवगत होते हैं। पर यह ग्रंथ अभी अनुपलब्ध है। डॉ. नेमीचन्द्र ज्योतिषाचार्य के शब्दों में "व्याकरण के दो सूत्रपाठ उपलब्ध हैं-एक में तीन सहस्र सूत्र हैं और दूसरे में लगभग तीन हजार सात सौ।" पंडित नाथूराम प्रेमी का मानना है कि देवनन्दि या पूज्यपाद का बनाया हुआ सूत्रपाठ वही है, जिस पर अभयनंदि ने अपनी वृत्ति का प्रणयन किया।
सिद्धिप्रियस्त्रोत्र-छब्बीस पद्यों की इस प्रौढ़ और प्रवाहयुक्त रचना में चतुर्विंशति तीर्थंकरों की स्तुति की गई है । विभु वर्द्धमान की स्तुति करते हुए कवि देवनंदि कहते हैं
श्री वर्धमान वचसा परमाकरेण रत्नत्रयोत्तमनिधेः परमाकरेण कुर्वन्ति यानि मुनयोजनता हि तानि ।
वृत्तानि सन्तु सततं जनताहि तानि ॥ 24 ॥ पूज्यपाद ने यहाँ यमकालंकार का प्रयोग कर विभु वर्द्धमान के महत्व को उजागर किया है। तीर्थ कर जननायक होते हैं और वे जनता का कल्याण करने के लिए सर्वथा प्रयत्नशील रहते हैं।
इन रचनात्रों के अतिरिक्त पूज्यपाद देवनंदि के वैद्यक सम्बन्धी प्रयोग भी उपलब्ध हैं। जैन सिद्धान्तभवन, आरा से 'वैद्यसार-संग्रह' नामक ग्रंथ में कतिपय प्रयोग प्रकाशित हुए हैं । छन्दशास्त्र से संदर्भित कोई ग्रंथ पूज्यपाद ने रचा था जो अनुपलब्ध है।
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- साहित्य की सार्थकता तभी है जब साहित्यकार अपने मानस की व्यापकता तथा गहराई में मानवजीवन की सम्पूर्णता को संचय कर उसे निज की अनुभूति एवं मावों के पटपाक में परिपाक कर संदर उदघाटन करता है। पूज्यपाद देवनंदि ने अपने साहित्य में जीवन और जगत् के रहस्यों की व्याख्या करते हुए, मानवीय व्यापार के प्रेरक प्रयोजनों और उनके उत्तरदायित्वों की सांगोपांग विवेचना की है। व्यक्तिगत जीवन में कवि पूज्यपाद प्रात्मसंयम और आत्मशुद्धि पर बल देते हुए ध्यान, पूजा, प्रार्थना एवं भक्ति को उदात्त जीवन की भूमिका के लिए आवश्यक मानते हैं । यद्यपि उनकी कविता में काव्यत्व की अपेक्षा दर्शन और अध्यात्म की प्रधानता है तथापि पूज्यपाद ने छायावादी कविता के समान सकल परमात्मा का स्पष्ट चित्रांकन किया है। उनकी काव्यकला द्रष्टव्य है
जयन्ति यस्यावदतोऽपि भारती विभूतयस्तीर्थकृत्तोऽप्यनीहितुः । शिवाय धात्रे सुगताय विष्णवे जिनाय तस्मै सकलात्मने नमः॥
अर्थात् इच्छारहित होने पर तथा बोलने का प्रयास न करने पर भी जिसकी वाणी की विभूति जगत् को सुख-शान्ति देने में समर्थ है, ऐसे उस अनेक नामधारी सकल परमात्मा अर्हन्त को नमस्कार हो । 'सर्वार्थसिद्धि' ग्रन्थ में निरूपित नैयायिक, वैशेषिक, सांख्य, वेदान्त, बौद्ध आदि विभिन्न दर्शनों की समीक्षा पूज्यपाद की ज्ञान-गरिमा का परिचायक है । वस्तुतः पूज्यपाद का कवि-रूप उनकी रचनाओं में अध्यात्म, प्राचार, और नीति का प्रतिष्ठापक है । पूज्यपाद देवनंदि के साहित्य का चरम मानदण्ड 'अध्यात्म-रस' ही है जिसकी परिधि में व्यष्टि और समष्टि, सौन्दर्य और उपयोगिता, शाश्वत और सापेक्षिकता का भेद मिट जाता है। "
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आचार्य पूज्यपाद का युगबोध
-डॉ. संजीव प्रचंडिया 'सोमेन्द्र'
प्राचार्य पूज्यपाद का जन्म समय पांचवीं शताब्दी का प्रारम्भिक काल माना जा सकता है। ब्र. शीतलप्रसादजी कृत समाधिशतक-टीका में उनका काल संवत् 401 माना गया है । इनका दूसरा नाम नंदी (देवनन्दि ? ) भी था । आपने सर्वार्थसिद्धि, जैनेन्द्र व्याकरण, इष्टोपदेश आदि अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रंथों की रचना की थी।
प्राणी का अहम उद्देश्य प्रभु को परिणति हुआ करती है। प्राचार्य पूज्यपाद ने अपने साहित्यिक-संसार में प्रात्मोन्नति हेतु अनेकमुखी आयामों का प्रयोग किया है । इनके साहित्य सार को यदि आधुनिक परिप्रेक्ष्य में देखें तो वे सर्वथा सार्थक सिद्ध होंगे । इसीलिए यदि उनके साहित्य को युगबोध की संज्ञा दी जाए तो वह गलत न होगी।
___ आज व्यक्ति प्रायः बहुत गहरी नींद में सोया हुआ है । आत्मोन्नति के सारे द्वार वह बंद सा कर चुका है। वह अपने जीवन के वास्तविक लक्ष्य को समझ नहीं पाया है। वह अपने स्वार्थ में बहुविध रूप से रच-पच सा गया है। कर्मों की कड़ी या शृंखलाओं में वह अनादि कालों से बंधता ही चला गया है। राग, और द्वेष के मिले-जुले वस्त्रों को उसने पहिन लिया है। वह तमाम जंजालों से धीरे-धीरे स्वतः घिरता ही चला गया है । शायद उसे अपनी इन हो रही कैद के विषय में सुध-बुध नहीं है, ऐसा मान लेना गलत नहीं होगा।
एक घटना स्मरण हो आती है मुझे । शायद इस विषय को समझने में वह कारगर सिद्ध होगी। इसीलिए मैं यहाँ उसका उल्लेख करना चाहूँगा ।
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एक बार मेरा नौका विहार के लिए जाना हुआ। चांदनी रात थी। जलाशय का जल चांद-तारों के प्रतिबिम्ब को और भी अधिक आकर्षित कर रहा था । नाव में आधी दर्जन सवारियां सैर के लिए पहिले ही बैठी थीं। सारे यात्री नाव की 'डेक' पर बैठे थे । मैं भी एक जगह बनाकर जा बैठा। एक लड़की भी उसमें बैठी थी। वह सरोवर के जल को बार-बार अपने हाथों में लेती थी, उलीचती थी। कभी-कभी अपने हाथों को जल में लहराती थी। अचानक वह लड़की नाव से उस जलाशय में गिर गई। लोग अवाक् थे, भला लड़की को कैसे बचाया जाय ? सोचने/चिल्लाने लगे। किसी की हिम्मत न थी कि जलाशय में कूदकर उसे बचा लाय। लड़की का पिता बेचैन था। उसने बेसब्र हो कहा, 'लड़की को जो भी कूदकर बचा लायेगा, उसे मैं मुंहमाँगा इनाम दूंगा। तभी एक युवक गहरे जलाशय में कूद पड़ा। कुछ देर के बाद वह येन-केन-प्रकारेण उस लड़की को बचा लाया। वह कांप रहा था। उधर लोगों में गहरी प्रसन्नता थी । तभी लड़की के पिता ने रुपयों से भरी थैली उस युवक को पुरस्कार के बदले दे दी। युवक क्रोध से पागल हो रहा था। उसने थैली को एक जगह रखते हुए कहा, 'पहिले यह बतानो, नाव में से धक्का किसने दिया था ? न जाने किस पुण्य से मैं बच गया। तुम लोगों ने तो मुझे मार ही डाला था।' लोग वहाँ खड़े अवाक् से उस युवक को देख रहे थे।
इस पूरी घटना में दो बातें स्पष्ट रूप से उभर कर सामने आती हैं। एक-धक्के का दिया जाना और दूसरा व्यक्ति का जलाशय में कूदना। धक्का दिया जाना, यह तो निमित्त है, सहारा है, माध्यम है। किन्तु, जो दूसरा कारण है कूदना, वही महत्त्वपूर्ण है। निमित्त तो कोई भी बन सकता है किन्तु गहरे में तो स्वयं को ही जाना पड़ेगा। स्वयं ऊपर उठना होगा । घातिया/अधातिया कर्मों का नाश तो स्वयं ही करना होगा। आचार्य पूज्यपाद द्वारा विरचित साहित्य में इसी तरह की युग चेतना प्रायः देखने को मिलती है । एक स्थान पर उन्होंने आत्मा के कल्याणार्थ उपाय निम्न सूत्र में दर्शाया है :
निर्मलः केवलः शुद्धो विविक्तः प्रमुख्ययः ।।
परमेष्ठी परात्मेति धरमात्मेश्वरो जिनः ॥ (समाधिशतक) इसी प्रकार, अपरिग्रह की महनीयता पर भी उन्होंने प्रकाश डाला है। आवश्यकता से अधिक का संग्रह दुःख का कारण माना है इसलिए त्याग की स्थिति का उद्बोधन निम्न श्लोक में इन्होंने किया है :
त्यागे दाने बहिमूढः करोत्यध्यात्ममात्मवित् ।
नान्तर्बहिरुपादानं न त्यागो निष्ठितात्मन :॥ (समाधिशतक) इसी प्रकार एक स्थान पर उन्होंने षट् आवश्यक कर्मों को लोकजीवन में जीवनयापन के लिए आवश्यक बताया है। इसके प्रयोग से लोकजीवन में व्यक्ति आत्मविकास की ओर अग्रसर हो सकता है । ये षट् आवश्यक गुण निम्न चार्ट में उल्लिखित किये गये हैं
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षट् प्रावश्यक गुरण का चार्ट
नाम 1. देव
भेद
(अ) अरहन्त और (ब) सिद्ध
2. शास्त्र
(अ) आचार्य (ब) उपाध्याय और
(स) साधु 4. तप, ध्यान
(अ) अन्तर और (ब) बाह्य 5. समिति
(अ) ईर्या (ब) भाषा और (स) एषणा
(द) आदान, निक्षेपण और (व) प्रतिष्ठापन 6. दान
(अ) आहार (ब) औषध (स) अभय और
(द) विद्या इनके अतिरिक्त आठ मूलगुणों का पालन करना भी व्यक्ति (श्रावक) के लिए अनिवार्य बताया गया है । इसके पालन करने से व्यावहारिक जीवन में समता, मैत्री तथा सौहार्द की स्थिति उभरती है । ये आठ मूलगुण निम्नलिखित हैं
1. मधु त्याग 2. मद्य त्याग 3. मांस त्याग 4. अहिंसा 5. सत्य 6. अचौर्य 7. अपरिग्रह 8. ब्रह्मचर्य ।
इन आधारों पर यह सहज ही कहा जा सकता है कि प्राचार्य पूज्यपाद युगचेतना करने में सर्वथा सफल रहे हैं। उन्होंने लोक कल्याण के लिए ही नहीं अपितु जीव मुक्ति के लिए भी दिशा दर्शन दिया।
आज के परिप्रेक्ष्य में भी व्यक्ति इन तमाम विशिष्टताओं को अपने जीवन में ढाल ले तो ये विषम समस्याएँ स्वतः ही समाप्त हो जाएँगी। फिर शायद समस्याएं, समस्या न होकर सामान्य जीवन जीने के लिए एक स्थिति होगी, एक प्रक्रिया होगी। शायद आज उसी की अपेक्षा है।
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अलीगढ़ (उ. प्र.) 202 001
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मुक्त आत्मा ऊपर ही क्यों जाता है ?
पूर्वप्रयोगादसङ्गत्वाद् बन्धच्छेदात्तथागतिपरिणामाच्च ॥6॥ पाविद्धकुलालचक्रवद्व्यपगतलेपालाबुवदेरण्डबीजवदग्निशिखावच्च ॥7॥ धर्मास्तिकायाभावात् ॥8॥
–मो. शा. अ. 10
पूर्वसूत्रे विहितानां हेतुनामत्रोक्तानां दृष्टान्तानां च यथासंख्यमभिसंबन्धो भवति । तद्यथा-कुलालप्रयोगापादितहस्तदण्डचक्रसंयोगपूर्वकं भ्रमणम् । उपरतेऽपि तस्मिन्पूर्वप्रयोगादा संस्कारक्षयाद् भ्रमति । एवं भवस्थेनात्मनापवर्गप्राप्तये बहुशो यत्प्रणिधानं तद्भावेऽपि तदावेशपूर्वकं मुक्तस्य गमनमवसीयते । किं च प्रसङ्गत्वात् । यथा मृत्तिकालेपजनितगौरवमलाबुद्रव्यं जलेऽधः पतितं जलक्लेदविश्लिष्टमृत्तिकाबन्धनं लघु सदूर्ध्वमेव गच्छति तथा कर्मभाराक्रान्तिवशीकृत आत्मा तदावेशवशात्संसारे अनियमेन गच्छति । तत्सङ्गविमुक्तस्तूपर्येवोपयाति । किं च बन्धच्छेदात् । यथा बीजकोशबन्धच्छेदादेरण्डबीजस्य गतिईष्टा तथा मनुष्यादिभवप्रापकगतिजातिनामादिसकलकर्मबन्धच्छेदान्मुक्तस्य ऊर्ध्वगतिरवसीयते । किं च, तथागतिपरिणामात् । यथा तिर्यक्प्लवनस्वग्भावसमीरणसंबन्धनिरुत्सुका प्रदीपशिखा स्वभावादुत्पतति तथा मुक्तात्मापि नानागतिविकारकारणकर्मनिरिणे सत्यूर्ध्वगतिस्वभावादूर्ध्वमेवारोहति ।
गत्युपग्रहकारणभूतो धर्मास्किायो नोपर्यस्तीत्यलोके गमनाभावः । तदभावे च लोकालोकविभागाभावः प्रसज्यते ।
-प्रा. पूज्यपादकृत सर्वार्थसिद्धि टीका
पूर्वप्रयोग से, संग का प्रभाव होने से, बन्धन के टूटने से और वैसा गमन करना स्वभाव होने से, घुमाये गए कुम्हार के चक्र के समान, लेप से मुक्त हुई तूमड़ी के समान, एरण्ड बीज के समान और अग्नि की शिखा के समान मुक्त जीव उर्ध्वगमन करता है । धर्मास्तिकाय का अभाव होने से मुक्त जीव लोकान्त से और ऊपर नहीं जाता ।
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आचार्य देवनन्दि पूज्यपाद और उनका समय
- श्री रमाकान्त जैन
____ जैन परम्परा में पूज्यपाद नामधारी अनेक प्राचार्य हुए हैं, किन्तु उनमें सर्वप्रथम और सर्वप्रतिष्ठित नाम है आचार्य देवनन्दि पूज्यपाद का जो 'पूज्यपाद' नाम से सर्वाधिक विख्यात हैं। जैन साहित्य के आदि प्रस्तोताओं में प्राचार्य समन्तभद्र के उपरान्त देवनन्दि पूज्यपाद की सर्वमहान् प्राचार्य के रूप में गणना है । गद्य और पद्य दोनों में मानरूप से उच्चस्तरीय संस्कृत भाषा में अपने ग्रन्थों का प्रणयन करनेवाले देवनन्दि पूज्यपाद अपने समय में कुन्दकुन्दान्वय के मूलसंघ की नन्दि अपरनाम देशियगण शाखा के प्रधान आचार्य थे । उक्त संघ की पट्टावलियों के अनुसार वे दसवें गुरु थे, उनके पूर्वाचार्य का नाम यशोनन्दि था और उनके उत्तराधिकारी जयनन्दि हुए। पद्मराज और चण्डय्य के कन्नड 'पूज्यपाद-चरिते' (लगभग 1800 ई.) तथा देवचन्द्र की 'राजावलि कथे' (1834 ई.) के अनुसार देवनन्दि का जन्म कर्णाटक में एक ब्राह्मण कुल में हुआ था और उनके पिता का नाम माधव भट्ट तथा माता का नाम श्रीदेवी था ।
धार्मिक ग्रन्थों के अतिरिक्त लौकिक विषयों पर बहुमूल्य ग्रन्थों की रचना करनेवाले कदाचित् सर्वप्रथम जैनगुरु देवनन्दि पूज्यपाद थे। वोपदेव ने अपने धातुपाठ में संस्कृत भाषा के जिन आठ श्रेष्ठ शाब्दिकों (व्याकरणाचार्यों, शब्दकोशकारों और व्याकरण ग्रन्थों) का उल्लेख किया है उसमें देवनन्दि पूज्यपाद का 'जैनेन्द्र व्याकरण' भी है । अन्य सात नाम हैंइन्द्र, चन्द्र, काशकृत्स्न, पिशली, शाकटायन, पाणिनि और अमर । कहा जाता है कि देवनन्दि ने पाणिनि के सूत्रों पर 'शब्दावतार-न्यास' की रचना भी की थी तथा एक 'छन्द शास्त्र' भी रचा था, किन्तु ये दोनों रचनायें सम्प्रति अनुपलब्ध हैं । शालौक्य-तन्त्र अर्थात् सर्जरी का विवेचन
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करनेवाला कदाचित् 'कल्याण-कारक' नाम से एक वैद्यकशास्त्र भी इनकी कृति मानी जाती है और 'जैनाभिषेक' के भी ये रचयिता माने जाते हैं । इन दोनों रचनाओं की भी खोज होना अभी शेष है।
'जनेन्द्र व्याकरण' के अतिरिक्त आचार्य देवनन्दि पूज्यपाद की अन्य ज्ञात एवं उपलब्ध कृतियाँ हैं—आचार्य उमास्वामि के 'तत्त्वार्थाधिगम-सूत्र' पर सबसे पहली उपलब्ध, प्रामाणिक एवं विद्वत्तापूर्ण टीका 'सर्वार्थसिद्धि' बहुमूल्य अनुश्रुतियों, विशेषकर भगवान् महावीर के जीवन से सम्बन्धित अनुश्रुतियों, को संरक्षित करनेवाली 'दशभक्त्यादिसंग्रह', 'समाधितंत्र', 'इष्टोपदेश' और 'शान्त्यष्टक' । इन कृतियों से विदित होता है कि ज्ञान की विभिन्न शाखाओं पर अधिकार रखनेवाले धर्माचार्य देवनन्दि न केवल एक उद्भट विद्वान् और सिद्धहस्त लेखक थे अपितु वे एक महान् योगी, रहस्यवादी और प्रतिभावान् कवि भी थे।
अपनी इस विद्वत्ता, ज्ञान और प्रतिभा के कारण आचार्य देवनन्दि न केवल अपने शिष्यों और अपनी आम्नाय के श्रावकों के अपितु जनसाधारण और अपने समकालीन अनेक शासकों और सामन्तों के श्रद्धास्पद भी बने । दक्षिण' कर्णाटक में तलकाड में पश्चिमी गंगवंशीय सम्राट् अविनीत कोंगिणी ने इन प्राचार्य देवनन्दि को अपने पुत्र एवं युवराज दुविनीत की शिक्षा का भार सौंपा था। अपने पिता के उपरान्त सम्राट बन जाने पर भी दुविनीत का प्राचार्य देवनन्दि से शिष्य-गुरु सम्बन्ध बना रहा। कहा जाता है कि पश्चिमी गंगवंशीय सम्राटों की राजधानी तलकाड के निकट इन आचार्य ने, कदाचित् अपने किस्म का पहला, एक बड़ा विद्याकेन्द्र स्थापित किया था जिसके वे प्रधान थे। इन सन्त-विद्वान् देवनन्दि को अनेक चमत्कारी शक्तियों का धारक भी बताया जाता है और ये आज भी अपनी कृतियों के कारण बड़े सम्मान की दृष्टि से देखे जाते हैं ।
इन प्राचार्य देवनन्दि पूज्यपाद और इनके राजवंशीय शिष्य गंगसम्राट् दुविनीत के समय के सम्बन्ध में विद्वानों-इतिहासकारों में मतभेद रहा है। डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन ने इस विषय में विभिन्न मतों और साहित्यिक एवं अभिलेखीय साक्ष्यों का विवेचन अपने ग्रन्थ 'दि जैना सोर्सेज आफ दि हिस्ट्री ऑफ एन्शियेन्ट इण्डिया' के परिच्छेद पाठ में पृष्ठ 155-161 पर किया है ।
पट्टावलियों में देवनन्दि पूज्यपाद का समय विक्रम संवत् 258-308 (अर्थात् ईस्वी सन् 201-251) दिया गया है । जैन परम्परा, साहित्यिक और अभिलेखीय दोनों ही, देवनन्दि पूज्यपाद को निर्विवाद रूप से प्राचार्य समन्तभद्र (लगभग ईस्वी सन् 120-185) तथा आचार्य प्रकलंक (लगभग ईस्वी सन् 620-675) के मध्य रहा मानती है । पूज्यपाद ने अपने 'जैनेन्द्र' में समन्तभद्र का उल्लेख किया है और उनके 'सर्वार्थसिद्धि' जैसे ग्रन्थों में समन्तभद्र का प्रभाव स्पष्टतया लक्षित होता है। दूसरी ओर, अकलंक ने पूज्यपाद का ससम्मान उल्लेख किया है और अपने ग्रन्थों में उनके 'जैनेन्द्र' से उद्धरण दिये हैं। अपने 'तत्त्वार्थराजवार्तिक' में उन्होंने 'सर्वार्थसिद्धि' का पूर्ण उपयोग किया है ।
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समन्तभद्र और पूज्यपाद के मध्य तथा पूज्यपाद और अकलंक के मध्य काफी समय का अन्तराल रहा है, क्योंकि अनेकों जैन गुरु और विद्वानों का इन अन्तरालों में होना पाया जाता है।
_ 'जनेन्द्र' में पूज्यपाद ने अनेक पूर्ववर्ती जैन विद्वानों यथा-भूतबलि, यशोधर, प्रभाचन्द्र, सिद्धसेन, श्रीदत्त और समन्तभद्र का उल्लेख किया है। ये सभी ऐतिहासिक व्यक्ति थे और इनमें से कोई भी 450 ईस्वी सन् के उपरान्त नहीं रहा । जैनेतर विद्वानों में, उन्होंने बौद्ध विद्वान् दिङ नाग (ईस्वी सन् 345-425) के कतिपय पदों तथा 'सांख्यकारिका' के कर्ता ईश्वरकृष्ण वार्षगण्य (विक्रम संवत् 507 अर्थात् ईस्वी सन् 450) का उल्लेख किया है। इस प्रकार देवनन्दि पूज्यपाद के समय की ऊपरी सीमा 450 ईस्वी सन् के पूर्व नहीं ले जायी जा सकती।
वृहस्पति संवत्सर, जिसमें गुप्तों और कदम्बों के शक संवत् 379 से 450 (ईस्वी सन् 457-528) के दानपत्र मिलते हैं, का सर्वप्रथम उल्लेख 'जैनेन्द्र' में हुआ है ।
वामन और जयादित्य (मृत्यु 660 ईस्वी) ने अपनी 'काशिकावृत्ति' में 'जनेन्द्र' का उल्लेख किया है । सिद्धसेन दिवाकर, जो अकलंक (लगभग 625-675 ईस्वी) से पहले हुए हैं, ने अपने 'सन्मति' में पूज्यपाद का परोक्ष उल्लेख किया है । भद्रबाहु नियुक्तिकार (लगभग 550 ईस्वी) उनके उपरान्त जीवित रहे प्रतीत होते हैं। गुरुनन्दि, जो पूज्यपाद के प्रशिष्य थे और कदाचित् मूल 'जैनेन्द्र-प्रक्रिया' के लेखक थे, अकलंक के पूर्व हुए थे। देवसेन के 'दर्शनसार' (933 ईस्वी) के अनुसार पूज्यपाद के शिष्य वज्रनन्दि ने विक्रम संवत् 526 (अर्थात् 469 ईस्वी) में दक्षिण में मदुरा में द्रविडसंघ की स्थापना की थी किन्तु पट्टावलियों में पूज्यपाद और वज्रनन्दि के मध्य 58 वर्ष का अन्तराल दिखाया गया है और इन दोनों के बीच में दो और गुरु हुए बताये गये हैं। उनमें पूज्यपाद का प्राचार्य काल 50 वर्ष और वज्रनन्दि का प्राचार्य काल 22 वर्ष बताया गया है । इस हिसाब से पूज्यपाद का समय चौथी शती ईस्वी के उत्तरार्द्ध में बैठता है, किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि देवसेन से कुछ भूल हुई है। इसमें सन्देह नहीं कि द्रविड़ संघ का संगठन और उसकी स्थापना पाण्ड्य देश में मदुरा में वज्रनन्दि और उनके सहयोगियों द्वारा की गई थी। तिथि के अंक अर्थात् 526 भी लगभग सही हैं, किन्तु देवसेन द्वारा यहाँ विक्रम संवत् का प्रयोग गलत हुआ है । यह शक संवत् प्रतीत होता है जिसके अनुसार द्रविड संघ स्थापना की तिथि शक 526 (अर्थात् 604 ईस्वी) बैठती है। यह ध्यातव्य है कि उस काल में दक्षिण भारत में शक संवत् का और उत्तर भारत में विक्रम संवत् का प्रचलन था ।
देवसेन स्वयं उत्तर भारतीय थे। अतः स्वभावतः उन्होंने जो तिथियाँ दी वे सब विक्रम संवत् में उल्लिखित की किन्तु ऐसा करते समय लगता है कि वे शक संवत् की तिथियों को विक्रम संवत् में परिवर्तित करना भूल गए जिसकी पुष्टि उनके द्वारा दी गई कुछ अन्य तिथियों के परीक्षण से भी हुई। इस प्रकार आचार्य वज्रनन्दि द्वारा द्रविड़ संघ की स्थापना
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४
॥
जनविद्या-12
की तिथि 604 ईस्वी मानते हुए और यह मानकर कि वज्रनन्दि नन्दिसंघ के प्राचार्य पट्ट पर 22 वर्ष रहे थे और यह कि प्राचार्य देवनन्दि पूज्यपाद तथा प्राचार्य वज्रनन्दि के प्राचार्यत्व काल के मध्य 58 वर्ष का अन्तराल रहा था। प्राचार्य देवनन्दि पूज्यपाद के समय की निचली सीमा 604-22=582-58=524 ईस्वी बैठती है ।
पट्टावलियों में देवनन्दि पूज्यपाद का आचार्यत्व काल 50 वर्ष का बताया गया है । डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन ने यह मानते हुए कि प्राचार्यपद ग्रहण करने के पूर्व देवनन्दि कदाचित् लगभग 10 वर्ष मुनि रहे होंगे उनका समय लगभग 464-524 ई. निर्धारित किया है ।
इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि आचार्य देवनन्दि पूज्यपाद तलकाड (दक्षिण कर्णाटक) के गंगवंशीय सम्राट् दुविनीत के गुरु रहे थे डाक्टर साहब ने उक्त गंग सम्राट् के समय के साथ आचार्य देवनन्दि के समय का समीकरण किया है। उक्त सम्राट के समय सम्बन्ध में विभिन्न इतिहासकारों के मतों और तत्कालीन अन्य विभिन्न राजवंशों के सम्बन्ध में उपलब्ध साक्ष्यों का परीक्षण करने पर वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि गंग सम्राट् दुविनीत 482-522 ईस्वी में रहे होंगे। गंग सम्राट दुविनीत 'किरातार्जुनीयम्' के रचयिता महाकवि भारवि (465555 ई.) के मित्र रहे बताये जाते हैं और कहा जाता है कि सम्राट ने उक्त काव्य के किसी अंश पर टीका भी रची थी।
__ आचार्य देवनन्दि पूज्यपाद का समय निर्धारण अनेक जैन और जनेतर विद्वानों के समय निर्धारण तथा गंगों, चालुक्यों, कदम्बों, पल्लवों, पुन्नाटों आदि तत्कालीन दक्षिण भारतीय राजवंशों की वंशावलियों के कालक्रम का सही संरचना की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है ।
ज्योति निकुंज, चारबाग
लखनऊ (उ. प्र.) 121190 टिप्पणी-आचार्य देवनन्दि पूज्यपाद के विषय में विशद जानकारी हेतु इतिहासमनीषी
विद्यावारिधि स्व. डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन की 'जैना सोर्सेज ऑफ एन्शियेन्ट इण्डिया' का परिच्छेद पाठ तथा डॉक्टर साहब के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित तत्सम्बन्धी शोधपूर्ण लेख द्रष्टव्य हैं ।
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जनविद्या
(शोध - पत्रिका)
सूचनाएं
* 1. पत्रिका सामान्यतः वर्ष में दो बार प्रकाशित होगी ।
* 2 पत्रिका में शोध-खोज, अध्ययन-अनुसंधान सम्बन्धी मौलिक अप्रकाशित . रचनाओं को ही स्थान मिलेगा।
3. रचनाएं जिस रूप में प्राप्त होंगी उन्हें प्रायः उसी रूप में प्रकाशित किया
जायगा । स्वभावतः तथ्यों की प्रामाणिकता आदि का उत्तरदायित्व रचनाकार का होगा।
4. यह आवश्यक नहीं कि प्रकाशक, सम्पादक लेखकों के अभिमत से
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* 6.
रचनाएं भेजने एवं अन्य सब प्रकार के पत्र-व्यवहार के लिए पता---
सम्पादक
जैनविद्या दिगम्बर जैन नसियां मट्टारकजी
सवाई रामसिंह रोड़ जयपुर- 302004
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सप्ततच्च (सप्ततत्त्व)
-रचनाकार:प्रज्ञात
अनुवादक की ओर से
अपभ्रंश आधुनिक भारतीय भाषाओं की जननी है । 'वर्तमान में हमारे देश भारत में जितनी भी देशीय भाषाओं का प्रचार प्रसार है उन सबका उद्गम अपभ्रंश भाषा से ही हुआ है' यह भाषाविदों द्वारा अब निर्विवाद रूप से स्वीकार कर लिया गया है अतः इन भाषाओं के गहन अध्ययन और उनके विकास की कड़ियों को परस्पर जोड़ने के लिए अपभ्रंश भाषा का ज्ञान होना आज की एक महती आवश्यकता है। इसी से अपभ्रंश भाषा का महत्त्व स्पष्ट है।
अपभ्रंश भाषा इस देश में 1000 एक हजार वर्ष के लगभग प्रचलित रही। इससे यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि इसमें कितना विशद साहित्य रचा गया होगा। अब तक शोध-खोज के आधार पर जितना साहित्य उपलब्ध हुआ है वह तो उक्त अनुमान के आधार पर आटे में नमक जितना भी ज्ञात नहीं होता और प्रकाशित/मुद्रित साहित्य तो नगण्य सा ही है । जो भी साहित्य अब तक मुद्रित हुआ है उनमें विशाल रचनाओं का बाहुल्य है जिनके स्वाध्याय, अध्ययन-मनन के लिए पर्याप्त समय और श्रम की आवश्यकता है । ऐसी लघु रचनाएँ तो उनमें बहुत ही कम हैं जो अपभ्रंश भाषा के अध्येताओं के लिए उपयोगी हों तथा उन्हें कुछ धार्मिक तथा सांस्कृतिक जानकारी भी प्रदान कर सकें। इस दृष्टि से प्रस्तुत रचना का अपना एक विशिष्ट स्थान है ।
यह रचना इस क्षेत्र के पाण्डुलिपि संग्रह के एक गुटके में प्राप्त हुई है । इसकी वेष्टन सं. 253 तथा आकार 26X11 से.मी. है । इसमें और भी कई रचनाएं हैं। कुछ अपभ्रंश भाषा की भी हैं जिनमें से चुनड़िया, आनन्दा, नेमीसुर की जयमाल प्रादि कुछ रचनाएं इसी संस्थान से सानुवाद प्रकाशित हो चुकी हैं। इस रचना की प्रतिलिपि उक्त गुटके में
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जैनविद्या-12
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पत्र 17 से 19 तथा 32 से 34 इस प्रकार दो स्थानों पर प्राप्य है । हमने प्रथम प्रतिलिपि को आधार मानकर अनुवाद किया है तथा द्वितीय प्रतिलिपि के पाठभेद फुट-नोट में दे दिये हैं। एक आध स्थल इसका अपवाद भी है जिन्हें हमने कोष्ठक में दे दिया है ।
रचनाकार का नाम, समय आदि तथा प्रतिलिपिकार और प्रतिलिपिकाल का उल्लेख भी गुटके में नहीं मिलता किन्तु रचना की भाषा के आधार पर अनुमान होता है कि वह 17वीं शताब्दी के आसपास की रचना है । भाषा प्राधुनिक हिन्दी के अधिक निकट प्रतीत होती है ।
विषय की दृष्टि से रचना का दार्शनिक महत्त्व है । जैनदर्शन के अनुसार मुक्ति प्राप्त करने की योग्यता के लिए जीव का भेदविज्ञानी होना आवश्यक है और उसके लिए सात तत्त्वों का ज्ञान और श्रद्धान का जागरण । जनदर्शन में सम्यग्दर्शन, सम्यकज्ञान और सम्यक्चारित्र को मुक्ति का मार्ग बताया गया है और इन सात तत्त्वों का श्रद्धान ही सम्यग्दर्शन है । प्रस्तुत रचना में इनका यथावश्यक ज्ञान कराने का प्रयत्न किया गया है ।
रचना में अपभ्रंश के लगभग 275 शब्दों का प्रयोग किया गया है जिसकी वर्णक्रमानुसार सार्थ अनुक्रमणिका रचना के अन्त में संलग्न है। इस दृष्टि से अपभ्रंश के प्रारम्भिक ज्ञान प्राप्ति में भी यह सहायक सिद्ध हो सकती है ।
यदि इससे पाठकगण कुछ भी लाभान्वित हुए तो हम समझेंगे कि हमारा प्रयास सफल हुआ।
भंवरलाल पोल्याका
अनुवादक
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सप्ततच्च (सप्ततत्त्व)
फिरत फिरत संसारमहि जिय
दुहुकउ हो दुहुंकउ भेउ न जाणियउ रे । जीव तत्त्व अरु अजीउण जाणिउ
चेयण हो छोडिउ जडुतइ मारिणयउ रे ॥1॥
सो जिउ अस्थिवत्युसंजुत्तउ
सिहुपरमेयहि चेयणु संपज्जइ । चेत कुवेद कुन्याता दिष्टा मुवउ
न हो मरिसी वटइ? न नोपजइ ॥2॥
सो प्रखण्डुः परदेसी याता
अलखु अमूरतु स्वामी गाणवरो। जालिउ मलइ न फोडिउ फूटइ
काटिउ हो कटइ न भीजइ णाणधरो ॥3॥
सोई करता सोई हरता
सोई हो विढवइ सोई जोगवइ । जो जिउ करइ सु सो तिउ पावई
जिनि जिउ हो कीयउ सो तिउ भोगवइ ॥4॥
यह संसारी जीउ पयासिउ
निश्चइ हो सिद्धिहि णिवसइ परमपरो। ना सो करता ना सो हरता
ना सो हो लीपइ छोयइ णाणधरु ॥5॥
1. दुहुंकउ (ख)। 2. जीउ (ख)। 3. जाणिउं (ख)। 4. चेयणु (ख) । 5. सपजइ (ख)। 6. द्रष्टा (ख)। 7. घटइ (ख)। 8. अखण्ड (ख) । 9. भोगवइ (ख)। 10. 'ख' में नहीं है। 11. निवसइ (ख) ।
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सप्ततत्त्व
हे जीव ! तू संसार में फिरता फिरता (इसलिए) दुःखी है कि तूने दो का भेद नहीं जाना, जीव तत्त्व और अजीव तत्त्व को नहीं पहचाना, अरे, (तू) चेतन है, जड़ता छोड़ दे, मान ले ।।1।
यह जीव अस्तित्व-वस्तुत्व-संयुक्त है, चेतन है, यही सिद्ध-परमेष्ठि बनता है चेत और कुविचार, कुज्ञान तथा कुदर्शन को छोड़ दे, न तो यह मरता है, न खण्डित होता है और न उत्पन्न होता है ।।2।।
यह अखण्ड प्रदेशी है, ज्ञाता है, अलक्ष्य है, अमूर्त है, स्वामी है, ज्ञानमय है, न जलाने से जलता है, न फोड़ने से फूटता है, न काटने से कटता है, न भिदता है, ज्ञानधारी है ।।3।।
यह ही कर्ता है, यह ही हर्ता है, यह ही वियोगी है, और यह ही संयोगी है । जो जैसा करता है वह वैसा पाता है और जिसने जैसा किया था वह वैसा ही भोग रहा है ।4।।
यह तो संसारी जीव प्रकाशित हुआ । निश्चय है जो परमपद मोक्ष में निवास करता है वह न तो कर्ता है और न वह हर्ता है, वह ज्ञानधारी न लिपता है न क्षीण होता है ।।5।।
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जैन विद्या-12
ना तिसु वंण्णु12 गंधु रसु जाणहु
ना तिसु हो सद्दु न फासु न कोहमयो । ना तिसु ठाणु ण14 झाणु ण5 मायामाणु
न हो जम्म ण मरण न मोह लम्रो ॥6॥
पर सो पुण्णपाप थे16 रहियउ हरिसु विसाउ
ण धारणु धेउ तसु । अरु सो तंतु मंत थे19 रहियउ मंडल मुद्ध
न एकइ दोसु जसो ॥7॥ णिरंजणु20 अंजणरहियउ
सुद्धसरूउ सचेयण सुखसरु । काया कार कया से रहियउ
केवल हो सणणाणचरित्तधर ॥8॥
परम
जसुरी बल वीरिय22 अंतु न होई23
सूक्षम हो नयणि न दोसइ णाणवहो । अवगाहनि अंतु न होई ल्हउडउ हो वडउ न वधा स्वपरहु ॥9॥
जसु24
लोक सिखरि तिहवात्तवलेमहि
निवसइ हो काल25 अनंत सुखसरु । कर्मजडित संसारीजीवनु
भुवणु सवायो घृत घट पूरि मरु ॥10॥ दुहु पयड़ी28 यहु जीउ पयासित
इबही अजीउ सुभाइ जडत्तणु । प्रविमागी परिमाणू सूममु
- दुगुणादि मिलहि अणंती28 सुद्ध माण2 ॥11॥
___12. वनु (ख)। 13. कोहमउ (ख)। 14. न (ख)। 15. न (ख)। 16. ते (ख)। 17. धरेणु (ख)। 18. 'अरु सो तंतु मंत ते रहियउ हरिसु विसाउ न धारणघेउ तसु' ये पंक्तियां (ख) में पुनः लिखी गई हैं। 19. ते (ख)। 20. णिरंजण (ख)। 21. जिसु (ख) । 22. वीर्य (ख) । 23. होइ (ख)। 24. जिसु (ख) । 25. कालु (ख)। 26. पयडि (ख)। 27. जडत गुणु (ख)। 28. अणंत (ख)। 29. भणु (ख)।
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जनविद्या-12
जान लो कि न तो उसके वर्ण है, न गंध है, न रस है, न उसके शब्द है, न स्पर्श है, न क्रोध है, न मद है, न स्थान है, न ध्यान है, न माया है, न मान है, न जन्म है, न मरण है, न मोह है, न लोभ है ।।6।।
और वह पुण्य-पाप और हर्ष-विषाद से रहित है, न उसके धारणा है और न ध्येय है, वह तन्त्र, मन्त्र, मंडल, मुद्रा से रहित है । उसके एक भी दोष नहीं है ।।7।।
वह परम निरंजन, कालिमा (कर्म) रहित, शुद्धस्वरूपी, सचेतन; सुखस्वरूपी है, कर्तृत्व, कर्म तथा क्रिया से रहित, पूर्ण दर्शन, ज्ञान और चारित्र का धारी है ।।8।।
विशेष-जैन परम्परा में केवल शब्द का प्रयोग जब दर्शन, ज्ञान और चारित्र के साथ होता है तब उसका अर्थ सिर्फ न होकर पूर्ण होता है ।
जिसके बल-वीर्य का अन्त नहीं है, जो सूक्ष्म है, नेत्रों से दिखाई नहीं देता है, ज्ञानी है, जिसकी अवगाहना का अन्त नहीं है, न वे परस्पर में लघु अथवा गुरु हैं, न बाधित हैं ।।9।।।
विशेष-संसारी जीव आठ प्रकार के कर्मों से बंधा हुआ है। उनसे जब वह मुक्त होता है तो उनके विरोधी 1. अनन्तदर्शन, 2. अनन्तज्ञान, 3. अनन्तवीर्य, 4. अव्याबाधत्व, 5. अनन्तसुख, 6. सूक्ष्मत्व, 7. अवगाहनत्व और 8. अगुरुलघुत्व ये आठ गुण प्रात्मा में प्रकट हो जाते हैं।
लोक के शिखर पर तीन वातवलय के मध्य यह मुक्त प्रात्मा अनन्त काल तक सुखपूर्वक निवास करता है। कर्मबद्ध संसारी जीव घी से पूरे भरे हुए घड़े के समान सम्पूर्ण लोक में समाये हुए हैं।।10।।
यह जीव की दो श्रेणियों का वर्णन हुआ। अब जड़ स्वभावी अजीव का वर्णन करते हैं। परमाणु अविभागी और सूक्ष्म होते हैं । अपने से दो गुण अधिक वाले मिलते हैं । उनको अनन्त और शुद्ध जानो ।।11।।
विशेष-जैन दर्शन में अणु अथवा परमाणु एक ही द्रव्य के नाम हैं। जिसका आदि मध्य तथा अन्त नहीं हो अर्थात् जिसका दूसरा भाग नहीं हो सकता वह अणु कहलाता है । ये स्निग्धत्व और रूक्षत्व गुणों के कारण दो अधिक गुणवाले स्कंध के साथ ही बंधते हैं अर्थात् एक गुणवाला अणु तीन गुण वाले स्कंध के साथ ही मिलता है, दो गुणवाला स्कंध चार गुणवाले तथा तीन गुणवाला पाँच गुणवाले के साथ ही मिलते हैं, कम या अधिक गुणवाले के साथ नहीं। दो या इससे अधिक मिले हुए अणु स्कंध कहलाते हैं ।
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जैनविद्या-12
धम्म
सकति
प्रहम्मु कालु नहु वहुकउ सुद्ध सहाउ सरूउ स्वभावगुणु ।
स्वभाइ वीसगुणनिवसहि विगति विभाइ गिलइ सुयसुद्धतणु ॥12॥
रात्तउ82 पीलउ कालउ हरियउ
धवलउ हो गंधु सुगंधु विभाव गुणु । कडुवो मीठउ तीक्षणु खारउ
प्रामलु हो परवाणू परजाउ भणु ॥13॥
तातउ4 सोलउ85 हलुवो36 भारि-37_
करडउ हो कुवलउ38 रूक्खउ चीकणउ । चारि पयारि39 जु वाजे वाजहि
भासये40 चेयण दोस41 भणु ॥14॥
जो
उजोउ42 अधेरउ दोसइ या सुस छाहा छाही रूपकरु43 वणासपती भुइ पाणी धान्तु स वाई वाडि जडत्तणु ॥15॥
सवइ
किस ही कमिण चेयणु होई
जइ जिय मिलि करिवइ णिवइ45 धणु । चेयणु सो न प्रचेयणु होइ
वहुविह पुग्गलु बंधइ लेय46 तणु ॥16॥
___30. सुधु (ख)। 31. विगत (ख)। 32. रातउ (ख)। 33. (ख) में नहीं है । 34. रातउ (ख)। 35. पीलउ (ख)। 36. हलुउ (ख)। 37. भरिउ. (ख)। 38. कूवलहु (ख)। 39 पयार (ख)। 40. भासय (ख)। 41. देस (ख)। 42. उधेउ (ख)। 43. मसुछाहछाहडी तूपकरु (ख)। 44. कमिन (ख)। 45. निवड (ख)। 46. लोय (ख) ।
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जैनविद्या-12
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धर्म, अधर्म और काल ये तीनों (द्रव्य) काय (बहुप्रदेशी) नहीं हैं, शुद्धस्वभावस्वरूपी तथा स्वभावगुणवाले हैं। श्रुतज्ञ पुद्गल को शक्तिस्वभावी, बीसगुणोंवाला, गतिहीन, विभावी एवं गलनशील कहते हैं ।।12।।
विशेष—यहाँ धर्म और अधर्म से तात्पर्य पुण्य-पाप से नहीं है । जैनदर्शन में इस नाम से दो स्वतन्त्र द्रव्य हैं जो जीव और पुद्गल की गति और स्थिति में क्रमशः उदासीन रूप से कारण हैं।
लाल, पीला, काला, हरा और श्वेत तथा गंध (दुर्गन्ध) एवं सुगंध ये उस (पुद्गल) के विभाव गुण हैं। कड़वा, मीठा, तीखा, खारा और खट्टा इनको भी परमाणु की पर्याय जानो ।।13।।
गर्म, ठण्डा, हल्का, मारी, कठोर, कोमल, रूखा और चिकना ये सब भी परमाणु की पर्यायें ही जानना चाहिए । जो चार प्रकार की गतियों में गमन करता है उसे चेतन का दोष जानना चाहिए ।।1411
जो उद्योत और अंधेरा दिखाई देता है अथवा श्वासोच्छवास, छाया, आकार, सब प्रकार की वनस्पति, पृथ्वी, पानी, अनाज, हवा, और माग इन सब में जड़ता है ।।15।।
जैसे राजा धनुष से हाथी को जीत लेता है वैसे ही कोई भी (अथवा कृश शरीर हो तो भी) चेतन योगी होकर प्रयत्नपूर्वक जितेन्द्रिय हो सकता है । जो चेतन है वह अचेतन नहीं होता, शरीर धारण कर अनेक प्रकार के पुद्गलों से बंधता है ।।16।।
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जनविद्या-12
जीव करम नित मिलते पाए
पहलइ47 हो पछइ प्रादि न कीजइ रोसौ48 (रे)। नउ (सोनउ)49 पायर मिलते पाए
विणु उपायहि वस्तु न लीजई हो ॥17॥
मापु ण
जाणइ जडु रु प्रयाणउ सो इह हो पासउं बंधणु होइ तसु ।
जारणइ पर परियाणइ सोई हो संवर निज्जर होइ तसो ॥18॥
प्रापउ
अप्पसरूवि अप्पु51 लउ लावइ
करमनु झाडइ एरड वीज तिम । मुकतिसिरी कहु सो नर पावइ
सिद्ध अणते प्रागइ होइ जिउ ॥19॥
जो नर इस62 कहु पढइ पढावइ
तिसु कहु दुरिउ न मावइ एकु खिणु । जो नर सप्ततच्च मनु लावइ
___सो नरु हो सिवपुरि पावइ छोडि तणु ॥20॥
50. विणुर
47. पहिलइ (ख)। 48. रे (ख)। 49. सोनउ (ख)। उपायहि (ख)। 51. अपु (ख)। 52. इसु (ख)।
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जैनविद्या-12
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जैसे सोना और पत्थर सदा से मिले हुए हैं वैसे ही जीव और कर्म भी सदा से मिले हुए हैं । दोनों में पहले, पीछे या आदि नहीं करना चाहिए। बिना उत्पाद के कोई वस्तु नहीं होती। ।।171
जो अपने को नहीं जानता और जड़ से अजान है उसके इस लोक में प्रास्रव और बंध होता है । जो अपने को जानता है तथा पर को पहचानता है, उसी के संवर होता है और उसी के निर्जरा होती है ।।18।।
___ जो प्रात्मस्वरूपी होकर प्रात्मा से लौ लगाता है वह एरण्ड बीज की तरह कर्मों को झाड़ देता है, वह मनुष्य मुक्तिश्री को प्राप्त कर लेता है। भूतकाल में अनन्त जीव सिद्ध हुए हैं। ॥19॥
जो मनुष्य इसको पढ़ता है, पढ़ाता है, उसके एक क्षण भी पाप का प्राश्रव नहीं होता। जो मनुष्य सात तत्त्वों में मन लगाता है वह शरीर छोड़कर शिवपुर को प्राप्त करता है । ।।20।।
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शब्दानुक्रमणिका
अंजणरहियउ-कालुष्य शून्य, अंजनरहित, बिना कालिमा का । 8 अंतु-छोर, समाप्ति, किनारा, अंतिम भाग । 9 प्रखण्डुपरदेसी-अखण्ड-प्रदेशी। 3 . प्रचेयणु- अचेतन, चैतन्यगुण रहित, निर्जीव । 16 अजीउ-जीव-रहित । 1, 11 प्रणंती-जिसका अन्त नहीं हो, निःसीम । 11 अणंते-अन्त रहित, शाश्वत, निःसीम । 19 अत्थिवत्थुसंजुत्तउ-अस्तित्व वस्तुत्व संयुक्त । 2 अधेरउ-अंधेरा । 15 अनंत-अन्त रहित । 10 अप्पसरूवि-प्रात्मस्वरूपी । 10 अप्पु-पाप, स्वयं, आत्मा । 19 अमूरत्त -अमूर्त । 3 प्रयाणउ-अजान, अज्ञानी। 18 प्रह-और । 1,7 मलखु–अलक्ष्य । 3 अवगाहनि-अवगाहना का। 9 अविभागी-जिसका विभाग न किया जा सके, जो विभक्त न हो सके । 11 प्रहम्मु-अधर्म (द्रव्य)। 12 प्राए-आये ('पाना' क्रिया का भूतकाल) । 17 प्रागइ-पागे । 19 प्रादि-प्रारम्भ, प्रथम । 17 प्रापउ-स्व, निज । 18 प्रापुण-स्व, निज, अपने को। 18 मामलु-आम्ल, खट्टा । 13 प्रास-पाश्रव, जैनधर्म के सात तत्वों में से तीसरा तत्त्व, कर्मों का आना । 18 इबही-अब, आगे । 11 . इसकहु-इसको । 20 इह-इस लोक में, यहाँ । 18
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जैनविद्या-12
उजोउ-उद्योत, प्रकाश, उजाला । 15 उपायहि- उत्पाद, उपाय, हेतु, साधन । 17 एकइ-एक भी। 7 एकु---एक । 20 एरडवीज-एरण्ड (वृक्ष विशेष) का बीज । 19 कउ-किया, कहाँ से, कैसे, को । 1 कटइ-कटता है । 3 कडुनो--कटुक, कडुवा । 13 कमिण-काम करनेवाला, उद्योगी । 16 कया-क्रिया । 8 करइ-करता है । 4 करडउ-कठोर । 14 करता-करनेवाला । 4,5 करम-कर्म । 17 करमनु-कर्मों। 19 करिवइ-करो, करें। 16 कर्मजडित-कर्मजटित, कर्मसंयुक्त, कर्मों से मिला हुअा। 10 कहु-को। 19, 20 काटिउ-काटा हुआ, काटे जाने पर । 3 काया-शरीर, देह । 8 कारः-करवाना, क्रिया, व्यापार, प्राकृति, करनेवाला । 8 काल-समय, जैनों द्वारा माने गये छह द्रव्यों में एक द्रव्य विशेष । 10 कालउ-काला । 13 कालु-काल, जैनों द्वारा मान्य छह द्रव्यों में से एक द्रव्य विशेष । 12 किस ही-कोई ही, कृश ही । 16 कीजइ-करना चाहिए, करो, करवाया जाता है । 17 कीयउ-किया। 4 कुन्याताविष्टा-कुज्ञाताद्रष्टा । 2 कुवेद-मिथ्या ज्ञान । 2 कूवलउ-कोमल । 14 केवल-अकेला, सम्पूर्ण, विशुद्ध । 8 कोहमयो-कोप और मद, क्रोध और मान । 6 खारउ-खारा । 13 खिणु-क्षण । 20
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गंधु-गंध । 6, 13 गिलइ-निगल लेता है । 12 गुणु-गुण । 13 घृतघट-घी का घड़ा। 10 चारि-चार । 14 चीकरणउ-चिकना । 14 चेत-चेतो, सावधान हो, होश में आयो । 2 चेयण (चेयणु)-चेतन, जीव, प्राणी, आत्मा। 1 2 14 16 छाहा-छाया । 15 छाही-आकाश । 15 छोयइ-क्षीण होता है । 5 छोडि-छोड़कर। 20 छोडिउ-छोड़ दो। 1 जइ-यदि, यति, त्रितेन्द्रिय, जयी । 16 जडत्तणु-जड़ता, अज्ञान । 11, 15 जडु-जड़, विवेकहीन, मूर्ख । 18 जडुतइ-जड़ता, अज्ञान । 1 जम्म-जन्म, उत्पत्ति, उत्पन्न होना । 6 जलइ-जलता है, दग्ध होता है । 3 जसु-जिसका । 9 जसो (जसु)-जिसके, जिसमें । 7 जाणइ-जानता है। 18 जाणहु-जानो। 6
. जाणिउ-पहचाना । 1 जाणियउ-जाना। 1 जालिउ-जलाओ, जलाने से । 3 जिउ-जीव । 4, 1, 19 जिनि-जिसने, जो। 4 जिय-जीता हुआ। 1, 16 जीउ-जीव । 5, 11 जीव-जीव, प्राणी । 1 17 जु-जो। 14 जो-जो, जिस । 4, 15, 20 जोगवइ-मिलता है, मेलवाला है । 4
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झाडइ-झाड़ देता है, मार देता है, झटक देता है । 18 झाणु-ध्यान । 6 ठाणु--स्थान । 6 ण-नहीं। 1,7 गाणपरो (गाणषरू)-ज्ञानघर, ज्ञानी । 3, 5 णाणवरो-जानकार, ज्ञानी। 3 णाणवहो–ज्ञानी । १ णिरंजणु-निरंजन, कालुष्यरहित । 8 णिवसइ-निवास करता है । 5 शिवइ-नृपति, राजा । 16 तंतु मंतु थे—तन्त्र मन्त्र से । 7 तच्च-तत्त्व । 20 तणु-शरीर । 16 तत्त्व--तत्त्व । 1 तसो (तसु ?)-उसके । 18 तातउ-ताता, गर्म । 14 तिउ-वैसा । 4 तिम-वैसा, तैसा । 19 तिसु (तसु)-उसके । 6, 7, 18, 20 तिसुकहु-उसके । 20 तिहुवातवलेमहि-तीन वातवलय के मध्य । 20 तीक्षणु-तीक्ष्ण, तीखा । 13 दसण-गाण-चरित्तधर-दर्शन, ज्ञान और चारित्र का धारी। 8 दोसइ–दिखाई देता है । 9, 15 दुगुरणादि-दो गुणादि । 11 दुरिउ-दुरित, पाप । 20 दुहं-दो। 1 दुहुकउ-दुःखी। 1 दोसु (बोस)-दोष । 7, 14 धणु-धनुष । 16 धम्मु-धर्म । 12 धवलउ-धवल, स्वच्छ, सफेद । 13 धान्तु-धातु । 15 धारण-धारणा, अवलम्बन । 7
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धेउ-ध्येय, ध्यान करने योग्य । 7 न (ना)-नहीं। 1, 2, 3, 3, 5 6 7 9 16 17 नयरिण-नेन, नैत्र । 9 नहु-नहीं। 12 नर (नरु)-मनुष्य, पुरुष । 19, 20 निज्जर-निर्जर । 18 नित-नित्य, हमेशा । 17 निवसइ-निवास करता है, रहता है । 10 निश्चइ-निश्चय । 5 नीपजइ–उत्पन्न होता है, निपजता है । 2 न्याता–ज्ञाता, जाननेवाला । 3 पछइ-पश्चात्, पीछे । 17 पढइ-पढ़ता है। 20 पढावइ–पढाता है । 20 पयडी-प्रकृति । 11 पयारि-प्रकार । 14 पयासिउ-प्रकाशित किया । 5, 11 परम-श्रेष्ठ, उत्कृष्ट । 8 परमपरो-उत्कृष्टतम । 5 परजाउ-पर्याय । 13 परवाण-परमाणु । 13 परिमाण-आकार । 11 परु-पर, पराया। 18 पहलइ-पहले । 17 पारणी-पानी; जल । 15 पाथरू-पत्थर । 17 पावई (पावइ)—पाता है, प्राप्त करता है । 4, 19, 20 पीलउ-पीला । 13 पुग्गलु-पुद्गल । 16 पुण्यपाप थे—पुण्यपाप से । 7 पूरि-भरा हुआ । 10 फासु-स्पर्श । 6 फिरत-घूमते, फिरते । 1 फूटइ-फूटता है । 3
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फोडिउ-फोड़ा हुआ, तोड़ा हुआ । 3 बंधणु-बंधन । 18 बलवोरिय-बलवीर्य । 9 वाजहि-गमन करता है । 14 वाजे-गति । 14 मणु-कहा है । 13, 14 मर-भार । 10 माणु-सूर्य, कहो। 11 मारिउ-मारी । 14 मासये-प्रकाश । 14 भोजइ-भेदन होता है । 3 भुइ-भूमि । 15 मुवणुसवायो-लोक में समाया हुमा । 10 भेउ-भेद । 1 मंडल-गोल पदार्थ समूह ।। मनु-थोड़ा, मानो, मनुष्य, मन । 20 मरण-मृत्यु । 6 मरिसी-मरता है । 2 महि-में । 1 मारिणयउ-मानो। 1 माणु-मान, परिमाण । 6 माया-माया । 6 मिलते-मिले हुए, सम्मिलित । 17 मिलहि-मिलता है । 11 मिलि-मिल कर, मिलो। 16 मीठउ-मीठा । 13 मुकतिसिरी–मुक्तिश्री। 19 मुद्द-मुद्रा । 7 मुवउ-छोड़ो, त्यागो । 2 मोह-मोह। 6 यहु-यह । 5, 11 या-ज्ञान, गमन करना, अथवा, यह । 15 रसु-रस । 6 रहियउ-रहित । 7,8
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रात्तउ-लाल, रक्त । 13 ह-ौर, अरु। 18 रूक्खउ-रुक्ष, रूखा। 14 रूपकर-आकार। 15 रे-अरे । 1, 17 लो-लोभ, लालच । 6 लउ-लो, लगन। 19 लावइ–लगाता है । 19, 20 लीजइ-ग्रहण की जाती है । 17 लीपइ-लिपता है । 5 लेय-लेकर, धारण कर । 16 लोकसिखरि-लोक शिखर पर । 10 ल्हउडउ-ल्होडा, लघु, छोटा । 9 वंण्णु-वर्ण, रंग । 6 वंधइ-बंधता है । 16 वटइ-खण्डित होता है । 2 वडउ-बड़ा । 9 वरणासयति-वनस्पति । 15 वधा-बाधित । 9 वस्तु-वस्तु, पदार्थ । 17 वहुकउ-बहुकायिक, बहुप्रदेशी । 12 वहुविह-बहुविध । 16 वाई-हवा । 15 वाडि-आग । 15 विगति-गतिहीन । 12 विढवइ-झगड़ा करता है, अलग होता है । 4 विणु-बिना । 17 विभाइ-विभाव । 12, 13 विसाउ-खेद । 7 वीसगुण निवसहि-बीस गुणों वाला । 12 संपज्जइ-सम्पन्न किया जाता है । 2 संवर-संवर । 18 संसार-जगत् । 1 संसारी-संसारी। 5
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जैनविद्या-12
संसारी जीवन--संसारी जीवन । 10 स-सहित । 15 सकतिस्वभाइ-शक्तिस्वभावी । 12 सचेयरण-सचेतन । 8 सदु-शब्द । 6 सप्त-सात । 20 सवइ -सभी । 15 सरूउ-स्वरूप । 12 सहाउ-स्वभाव । 12 सिद्ध-सिद्ध, पंचपरमेष्टियों में से एक, जीवनमुक्त । 19 सिद्धि-मुक्ति । 5 सिवपुरि-शिवपुर, मोक्ष । 20 सिहुपरमेयहि-सिद्ध परमेष्ठी । 2 सोलउ--शीतल । 14 सु-सुन्दर, सुनना, वह । 4, 7 सुखसरु-सुखस्वरूप । 8, 10 सुगंधु-सुगंध । 13 सुद्ध-शुद्ध । 11, 12 सुद्धसरूउ-शुद्धस्वरूप । 8 सुभाइ-स्वभावी । 11 सुयसुद्धतणु-श्रुतज्ञानी । 12 सुस--श्वासोच्छ्वास । 15 सूक्षमु-सूक्ष्म । 9, 11 सो-वह । 1, 3, 4, 5, 16, 18, 19, 20 सोई—यही, वही। 4, 18 सोनउ-सोना, स्वर्ण । स्वपरहु-अपना पराया । 9 स्वभाइ–स्वभावी । 12 स्वभावगुणु-स्वभावगुण । 12
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स्वामी-स्वामी, मालिक । 3 हरता-हरण करने वाला, नष्ट करनेवाला । 4, 5 हरीसु-हर्ष । 7 हरियउ-हरा । 13 हलुवो-हलका । 14 हि (ह)-आश्चर्य, दुःख, शोक प्रकट करने वाला अव्यय, हृदय, । हो-है, हे। 1, 2, 3, 4, 5, 6, 9, 10, 13, 14, 17 18. 20 होई-होता है । 9, 16
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जैनविद्या संस्थान, श्रीमहावीरजी
महावीर पुरस्कार दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र, श्रीमहावीरजी (राजस्थान) की प्रबन्धकारिणी कमेटी के निर्णयानुसार जैन साहित्य सजन एवं लेखन को प्रोत्साहन देने के लिए रु. 5,001/- (पांच हजार एक) का पुरस्कार प्रतिवर्ष देने की योजनायोजना के नियम1. जैनधर्म, दर्शन, इतिहास, संस्कृति सम्बन्धी किसी विषय पर किसी निश्चित अवधि में
लिखी गई सृजनात्मक कृति पर 'महावीर पुरस्कार' दिया जायगा । अन्य संस्थानों द्वारा पहले से पुरस्कृत कृति पर यह पुरस्कार नहीं दिया जायगा। पुरस्कार हेतु प्रकाशित/अप्रकाशित दोनों प्रकार की कृतियां प्रस्तुत की जा सकती हैं। यदि कृति प्रकाशित हो तो यह पुरस्कार की घोषणा की तिथि के 3 वर्ष पूर्व तक ही
प्रकाशित होनी चाहिए। 3. पुरस्कार हेतु मूल्यांकन के लिए कृति की चार प्रतियां लेखक/प्रकाशक को संयोजक,
जैनविद्या संस्थान समिति को प्रेषित करनी होगी । पुरस्कारार्थ प्राप्त प्रतियों पर
स्वामित्व संस्थान का होगा । 4. अप्रकाशित कृति की प्रतियां स्पष्ट टंकण की हुई अथवा यदि हस्तलिखित हों तो वे
स्पष्ट और सुवाच्य होनी चाहिए। पुरस्कार के लिए प्रेषित कृतियों का मूल्यांकन विशिष्ट विद्वानों/निर्णायकों के द्वारा कराया जायगा, जिनका मनोनय जैनविद्या संस्थान समिति द्वारा होगा। इन विद्वानों/निर्णायकों की सम्मति के आधार पर सर्वश्रेष्ठ कृति का चयन जैनविद्या
संस्थान समिति द्वारा किया जायगा। 6. सर्वश्रेष्ठ कृति पर लेखक को पांच हजार एक रुपये का 'महावीर पुरस्कार' प्रशस्तिपत्र
के साथ प्रदान किया जायगा । एक से अधिक लेखक होने पर पुरस्कार की राशि
उनमें समानरूप से वितरित कर दी जायगी। 7. महावीर पुरस्कार के लिए चयनित अप्रकाशित कृति का प्रकाशन संस्थान के द्वारा
कराया जा सकता है जिसके लिए आवश्यक शर्ते लेखक से तय की जायगी। 8. महावीर पुरस्कार के लिए घोषित अप्रकाशित कृति को लेखक द्वारा प्रकाशित करने|
करवाने पर पुस्तक में पुरस्कार का आवश्यक उल्लेख साभार होना चाहिए । 9 यदि किसी वर्ष कोई भी कृति समिति द्वारा पुरस्कार योग्य नहीं पाई गई तो उस वर्ष
का पुरस्कार निरस्त (रद्द) कर दिया जायगा। 10. उपर्युक्त नियमों में आवश्यक परिवर्तन/परिवर्द्धन/संशोधन करने का पूर्ण अधिकार
संस्थान/प्रबन्धकारिणी कमेटी का होगा। संयोजक कार्यालय :
ज्ञानचन्द्र खिन्दूका दिगम्बर जैन नसियां भट्टारकजी
संयोजक सवाई रामसिंह रोड, जयपुर-302004
जनविद्या संस्थान समिति, श्रीमहावीरजी
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________________ हमारे प्रकाशन 1-3. 10. 11. 50/ 12. 13. 14. 15. 16. 17. राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों की ग्रन्थ-सूची तृतीय, चतुर्थ एवं पंचम भाग मूल्य सम्पादक-डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल एवं पं. अनूपचन्द न्यायतीर्थ 150/जैन ग्रन्थभण्डार्स इन राजस्थान-लेखक-डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल 50/महाकवि दौलतराम कासलीवाल : व्यक्तित्व एवं कृतित्व लेखक-डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल 20/राजस्थान के जैन सन्त : व्यक्तित्व एवं कृतित्व लेखक-डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल 20/जैन शोध और समीक्षा-लेखक-डॉ. प्रेमसागर जैन 20/जिणदत्तचरित-सम्पादक-डॉ. माताप्रसाद गुप्त एवं डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल 12/प्रद्य म्नचरित-सम्पादक-पं चैनसुखदास न्यायतीर्थ एवं डॉ कस्तूरचन्द कासलीवाल 12/सर्वार्थसिद्धिसार-सम्पादक-पं. चैनसुखदास न्यायतीर्थ 10/चम्पा शतक-सम्पादक-डॉ कस्तूरचन्द कासलीवाल 6/वचनदूतम् (पूर्वार्द्ध एवं उत्तरार्द्ध)-पं. मूलचंद शास्त्री प्रत्येक 10/पं. चैनसुखदास न्यायतीर्थ स्मृति ग्रन्थ बाहुबली (खण्डकाव्य)-लेखक -पं. अनपचन्द न्यायतीर्थ 10/योगानुशीलन-लेखक-श्री कैलाशचन्द बाढ़दार चूनड़िया-मुनि श्री विनयचन्द्र, अनु.-पं. भंवरलाल पोल्याका पाणंदा-कवि महानन्दि, अनु.-डॉ देवेन्द्रकुमार शास्त्री णेमीसुर की जयमाल और पाण्डे की जयमाल-मुनि कनककीर्ति एवं कवि नण्हु अनु.-पं. भंवरलाल पोल्याका .. समाधि-मुनि चरित्रसेन, अनु.-पं. भंवरलाल पोल्याका बुद्धिरसायण प्रोणमचरितु-कवि नेमिप्रसाद, अनु.-पं. भंवरलाल पोल्याका काव्यतन्त्ररूपमाला-भावसेन विद्यदेव 12/बोधकथा मंजरी-श्री नेमीचन्द पटोरिया पुराणसूक्तिकोष 15/वर्धमानचम्पू-पं. मूलचन्द शास्त्री 25/चेतना का रूपान्तरण-ब्र. कुमारी कौशल 15/प्राचार्य कुन्दकुन्द : द्रव्य विचार-डॉ. कमलचन्द सोगाणी अपभ्रंश रचना सौरभ-ले. डॉ. कमलचंद सोगाणी 60/मृत्यु जीवन का अन्त नहीं-डॉ. श्यामलाल व्यास प्राचार्य कुन्दकुन्द-पं. भंवरलाल पोल्याका अतीत के पृष्ठों से-डॉ. राजाराम जैन भगवान् महावीर और उनके सिद्धान्त-डॉ. रूपकिशोर गुप्ता पाहुड दोहा चयनिका-डॉ. कमलचन्द सोगाणी 13/समाधिमरणस्वरूप-पं. दौलतरामजी, सं.पं. भंवरलाल पोल्याका 7/ 18. 19. 21. 22. 23. 24. 12/ 15/ 30 31 32. 33.