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जैन विद्या-12
स्व. पं. जुगलकिशोरजी मुख्तार, जो अपने समय के विख्यात जैन साहित्य अन्वेषक रहे हैं तथा जिनकी प्रामाणिकता को बड़े-बड़े धुरंधर विद्वान् नतमस्तक हो स्वीकार करते हैं, ने 'रत्नकरण्डश्रावकाचार' की विस्तृत प्रामाणिक प्रस्तावना में श्री पूज्यपाद को दक्षिण के राजा गङ गराज दुविनीत का शिक्षागुरु सिद्ध किया है और गङ गराज का समय 485522 ईस्वी सुनिश्चित है अतः श्री पूज्यपाद का यही समय माना जाता है ।
प्रादिपुराण के कर्ता प्राचार्य जिनसेन ने पूज्यपाद को कवियों का तीर्थंकर मानते हुए लिखा है :
कवीनां तीर्थकृदेवः कितरां तत्र वर्ण्यते ।
विदुषां वाङ्मलध्वंसि तीर्थभस्य वचोभयम् ॥ प्राचार्य शुभचन्द्र ने अपने 'ज्ञानार्णव" नामक ग्रन्थ में श्री पूज्यपाद की शास्त्र पद्धति को काय, वचन और चित्त की मलप्रवृत्ति को दूर करनेवाला बताते हुए लिखा है :
अपाकुर्वन्ति यद्वाचाः कायवाकचित्तसम्भवम् ।
कलङ्कमङि गनाम् सोऽयम् देवनन्दी नमस्यते ॥ "हरिवंश पुराण" के कर्ता आचार्य जिनसेन प्रथम ने श्री पूज्यपाद (देव) की वाणी को इन्द्र, चन्द्र, सूर्य और जैनेन्द्र व्याकरण का अवलोकन करनेवाली बताते हुए लिखा है :
इन्द्र-चन्द्रार्क-जैनेन्द्र-व्याडि-व्याकरणक्षिणः ।
देवस्य देववन्द्यस्य न वन्द्यन्ते गिरः कथम् ॥ लोग प्यार से उन्हें “देव" जैसे संक्षिप्त नाम से भी संबोधित करते थे ।
"जैनेन्द्र प्रक्रिया" के कर्ता प्राचार्य गुणनंदी ने पूज्यपाद की वंदना करते हुए लिखा है कि उनके ग्रन्थों में जो कुछ है वह अन्यत्र भी है और जो उनमें नहीं है वह अन्यत्र भी नहीं है यथा :
नमः श्री पूज्यपादाय लक्षणं यदुपक्रमम् । यदेवात्र च तदन्यत्र यन्नानास्ति न तत्क्वचित् ॥
नंदीसंघ पट्टावली में पूज्यपाद का यश कीर्ति यशोनंदी और गुणनंदी आदि नामों से भी पुण्य स्मरण किया गया है जैसे :
यशःकीर्ति यशोनंदी देवनंदी महामतिः ।
श्री पूज्यपादापराख्यो यः गुणनंदी गुणाकरः ॥ प्राचार्य कुन्दकुन्द की "सिद्धभक्ति" की टीका करते आचार्य प्रभाचन्द्र ने श्री पूज्यपाद को आ. कुन्दकुन्द की भक्तियों का संस्कृत रूपाभिकर्ता लिखा है । "संस्कृता सर्वाः भक्त्याः पादपूज्यस्वामिकृताः प्राकृतास्तु कुन्दकुन्दाचार्यकृताः ।"