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आचार्य पूज्यपाद का संस्कृत-व्याकरणशास्त्र को अवदान
-डॉ. हरीन्द्रभूषण जैन
जैन मनीषियों ने भारतीय वाङमय को समृद्ध करने के लिए अपूर्व योगदान दिया है। ऐसे ही एक विचक्षण मनीषी हैं प्राचार्य पूज्यपाद देवनन्दी, जिन्होंने भारतीय व्याकरणशास्त्र की परम्परा को अक्षण्ण रखने में अद्भुत योगदान किया है । जैन परम्परा में व्याकरण-शास्त्र
जैन आगम, 'बारह अंग' और 'चौदह पूर्व के रूप में वर्णित है । 'पूर्व ग्रन्थ' भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा के हैं, जैसा कि उनके नाम से द्योतित है। 'अङ्ग शास्त्र' भगवान् महावीर की परम्परा के हैं । बारहवें अङ्ग दृष्टिवाद' में चौदह पूर्वो को सम्मिलित कर लिया गया था । पूर्वो के अवान्तर विभाग 'प्राभृत' नाम से जाने जाते थे। इनमें एक 'शब्द प्राभृत' भी था।
सिद्धसेन गणि का कथन है कि पूर्वो में जो 'शब्द प्राभृत' है उससे व्याकरण-शास्त्र का उद्भव हुआ है । 'शब्द प्राभृत' अब लुप्त हो गया है । 1
__'सत्यप्रवाद' पूर्व में व्याकरण-शास्त्र के सभी प्रमुख नियम पाए हैं। इसमें वचनसंस्कार के कारण, शब्दोच्चारण के स्थान, प्रयत्न, वचन-प्रयोग, वचनभेद आदि का निरूपण है । वचन-संस्कार का विवेचन करते हुए इसके दो कारण बताए गए हैं-स्थान और प्रयत्न । शब्दोच्चारण के आठ स्थान बताए गए हैं-हृदय, कण्ठ, मस्तक, जिह्वामूल, दन्त, तालु, नासिका और प्रोष्ठ । शब्दोच्चारण के प्रयत्नों का विवेचन करते हुए स्पृष्टता, ईषत् स्पृष्टता विवृतता, ईषद्धिवृतता और संवृतता-इन पाँच की परिभाषाएँ दी गयी हैं। इस प्रकार 'सत्यप्रवाद-पूर्व' में व्याकरण-शास्त्र की एक स्पष्ट रूपरेखा दृष्टिगोचर होती है । १