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________________ 62 जैनविद्या-12 आचार्य पूज्यपाद द्वारा विरचित इष्टोपदेश लघुकाय जैनोपनिषद् है । इसमें प्रात्मा से परमात्मा बनने का उपाय सहज एवं सरल भाषा में प्रतिपादित किया गया है । इस प्रतिपादन में प्राचार्यश्री की दृष्टि यह रही है कि ससारी प्रात्मा अपने स्वरूप को भली-भांति पहचाने, उसकी बहिर्मुखी दृष्टि अन्तर्मुखी हो, वह स्वपद में स्थित हो और सुपथ का पथिक बन कर अनन्त सुख को प्राप्त करे । अपने विषय को हृदयंगम कराने के लिए कवि ने जनजीवन से सम्बन्धित उदाहरणों का प्रयोग किया है। अतएव इष्टोपदेश में अलंकारों का समावेश स्वयमेव हो गया है । इस ग्रन्थ में शब्दालंकार और अर्थालंकार दोनों का ही प्रयोग है । ये अलंकार भाषा को सुशोभित करते हैं पर शब्दालंकार में शाब्दिक चमत्कार होने से इनसे विशिष्ट भाव अभिव्यक्त नहीं होता। अर्थालंकार भावसौन्दर्य को वृद्धिंगत करते हुए वस्तुस्वरूप, सौन्दर्यातिशय, भावाभिराम, भावातिरेक को सफलतापूर्वक अभिव्यंजित करते हैं। अतः यहाँ केवल अर्थालंकार का ही निदर्शन किया जा रहा है । इष्टोपदेश में प्रयुक्त अलंकार और उनसे व्यंजित भाव इस प्रकार हैं :उपमा : कवि ने पदार्थ के स्वरूप, अमूर्तभाव को मूर्तरूप प्रदान कर भावाभिव्यंजना, भावातिशय की सुन्दर व्यंजना हेतु उपमा का प्रयोग किया है। यथा-- मोहेन संवृतं ज्ञानं स्वभावं लभते न हि । मत्तः पुमान् पदार्थानां यथा मदनकोद्रवः ॥ 7 ॥ -संसारी प्राणी का ज्ञान मोह से आच्छादित है। अतएव वह अपने वास्तविक. स्वरूप को उसी प्रकार नहीं समझ पाता जैसे मदमत्त करनेवाले कोद्रव (नशीला पदार्थ) का भक्षण करनेवाला स्वयं को भूल जाता है । __ यहाँ प्रमूर्त मोह के लिए मूर्त कोद्रव की उपमा दी गई है। यह उपमा मोह के स्वरूप (आत्मस्वरूप की पहचान न होने देना) को अत्यन्त प्रभावशाली रूप से अभिव्यक्त करती है। इसी प्रकार वासनामात्रमेवैतत् सुखं दुःखं च देहिनाम् । तथा ह्य द्वजयन्त्येते मोगा रोगा इवापदि ॥ 6 ॥ -संसारी प्राणियों को प्राप्त सुख-दुःख इन्द्रिय जन्य ही हैं। उसे भोग, आपत्ति में रोग के समान आकुलता पैदा करते हैं । प्रस्तुत श्लोक में 'भोगा आपदि रोगा इव' (भोग आपत्ति के समय रोग के समान आकुलता पैदा करते हैं) उपमा का प्रयोग है । यह उपमा विषयभोगों की कष्टदायकता
SR No.524760
Book TitleJain Vidya 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1991
Total Pages114
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size10 MB
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