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________________ इष्टोपदेश में सालंकारता -कु० पाराधना जैन अलंकृतता भाषा का एक महत्त्वपूर्ण गुण है। उन उक्तिवैचित्र्यों या विचित्र कथन प्रकारों को अलंकार कहते हैं जो उपमात्मक, रूपकात्मक, अपह्न त्यात्मक, संदेहात्मक आदि होते हैं, साथ ही ये भावविशेष की अभिव्यक्ति के अद्वितीय माध्यम होते हैं, तथा इनमें वक्रोक्तिजन्य रोचकता एवं व्यंजकताजन्य चारुत्व भी रहता है । विशिष्ट अलंकार विशिष्ट सन्दर्भ में ही भावाभिव्यक्ति के उपयुक्त होता है। कहीं उपमा ही सन्दर्भ के अत्यन्त उपयुक्त होती है, कहीं रूपक ही, कहीं केवल रूपकातिशयोक्ति । जिस सन्दर्भ में उपमा उपयुक्त है उसमें रूपकादि अन्य अभिधान प्रकार उपयुक्त नहीं होते। उदाहरणार्थ महात्मा गाँधी की मृत्यु पर इस रूप में उक्ति की प्रक्रिया अधिक सार्थक है-'सूर्य अस्त हो गया' बनिस्बत यह कहने के कि 'महात्मा गाँधी रूपी सूर्य दिवंगत हो गये' या 'महात्मा गांधी की मृत्यु से ऐसा लगता है जैसे सारे देश में अन्धकार छा गया हो।' क्योंकि शोक की आकस्मिकता की अभिव्यक्ति के लिए जिस संक्षिप्त और तत्काल प्रभावित करनेवाले उक्ति प्रकार की आवश्यकता है, वह केवल 'सूर्य अस्त हो गया' इस रूपकातिशयोक्ति से ही संभव है । अलंकार व्यंजक होते हैं और उचित संदर्भ में प्रयुक्त होने पर उनकी व्यंजकता पैनी (हृदयस्पर्शी) हो जाती है। इसलिए आनन्दवर्धन ने कहा है कि व्यंजकता के संस्पर्श से अलंकारों में चारुत्व आ जाता है ।
SR No.524760
Book TitleJain Vidya 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1991
Total Pages114
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size10 MB
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