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जनविद्या-12
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प्रातरौद्र ध्यान का कारण होने से भोगों में सुख के पूर्णतया प्रभाव को अत्यन्त सरलतया हृदयंगम करा देती है।
दुरज्येनासुरक्षेण नश्वरेण धनादिना ।
स्वस्थमन्यो जनः कोऽपि ज्वरवानिव सर्पिषा ॥ 13 ॥ -ज्वरपीड़ित (अस्वस्थ) प्राणी के घी सेवन करने के समान यह मनुष्य अति कष्ट से अजित एवं असुरक्षित धनादि से स्वयं को सुखी मानता है ।
यहाँ श्लोक के उत्तरार्ध में धनादि से स्वयं को सुखी माननेवाले मनुष्य का ज्वरपीड़ित व्यक्ति के घी भक्षण से सादृश्य बतलाया गया है । यह सादृश्य धनादि के अर्जन, रक्षण में आनेवाली कठिनाई और दुःखदायकता का प्रभावशाली व्यंजक है ।
विपत्तिमात्मनो मूढः परेषामिव नेक्षते ।
दह्यमानमृगाकीर्णवनान्तरतरुस्थवत् ॥14॥ - वन में लगी दावानल की ज्वाला से हिरण जल रहे हैं, उसी वन में एक वृक्ष पर स्थित मनुष्य दूसरों के समान अपने ऊपर आनेवाली आपत्ति को नहीं देखता है ।
प्रस्तुत श्लोक की उपमा मनुष्य की मूर्खता की चरमसीमा को अत्यन्त सफलतापूर्वक व्यंजित करती है।
मुक्तोज्झिता मुहुर्मोहान्मया सर्वेऽपि पुद्गलाः ।
उच्छिष्टेष्विव तेष्वद्य मम विज्ञस्य का स्पृहा ।। 30 ॥ - संसारी प्राणी ने मोह से बार-बार कर्मादि पुद्गलों को भोगा और त्यागा । अब जूठन के समान इन विषय भोगों के प्रति ज्ञानी की क्या स्पृहा हो सकती है ?
उपर्युक्त श्लोक में कवि ने "मुहुर्मुक्तोज्झिता उच्छिष्टेष्विव" (बार-बार भोग कर त्यागे गए विषयभोग जूठन के समान है) विषयभोगों के लिए जूठन का उपमान दिया है । यह उपमान भोगों की निस्सारता को सहजतया हृदयंगम कराने में समर्थ है ।
विपद्भवपदावर्ते पदिकवातिबाह्यते ।
यावत्तावद्भवन्त्यन्याः, प्रचुरा विपदः पुरः ॥ 12 ॥ - यह संसार घटीयन्त्र की पटली के समान है। जैसे घटीयन्त्र में एक के बाद एक पटली क्रमशः आती रहती है उसी प्रकार इस संसार में विपत्तियां आती रहती है ।
- यहाँ पर "भवपदावर्ते पदिकेव" (संसार घटीयन्त्र की पटली के समान है) संसार को घटीयन्त्र की पटली की उपमा है । यह उपमा संसार में सुखाभाव तथा परिवर्तनशीलता को अत्यन्त सफलतापूर्वक अभिव्यक्त करती है ।